अक्षर-अक्षर अमृत

कविचूड़ामणि काशीकान्त मिश्र "मधुप'


यैह आबि गेल अस्पतालक गेट। ... एम्हर इमरजेन्सी वार्ड छैक, ओम्हर हार्ट डिजिजबला सभ रहैत अछि। ... चारुकात पसरल बड़का-बड़का महल... एकटा विचित्र वातावरण। सन-सन बहैत बसातमे झुमैत फूलक गाछ सभकें देखैत हम आ अमरनाथ पीचरोड पकड़ने "ई० एन० टी०' विभाग लग आबिकऽ रुकि जाइत छी।

आदरणीय मधुपजी एही ठाम कतहु भत्तीं भेल छथि। मधुपजीक एक आँखिक आपरेशन भेलनि अछि। दोसर आँखिक आपरेशन चारिम दिन होयतनि। दर्शनक हेतु आयल छी।...

- हे, वैह, हँ.... हँ, ओतहि छथि। केबाड़क सटले, सिलिंग फेनक नीचाँ, दू टा बेड लागल छैक। कातमे रैकपर एकटा ग्लास, दू टा डाइरी, गोट पाँचे-छबेक पोथी आ पानक बासन राखल-पड़ल छैक- तकरा सभक ऊपर राधा-विरह महाकाव्य

एकटा बेडपर सूतल छथि मधुपजी। हँसैत आँखि, चमकैत सिन्दुरक विन्दु, प्रशस्त ललाट, तिलकल केश, करुणामे जीबैत, "चुपचाप कनैत' राधा-विरहक कवि, शतदल आ झांकारक कवि, टटका जिलेबी आ चाँकि-चुप्पेक कवि निद्रामे लीन छथि।

बुझि पड़ै-ए जेना कोना कविताक पाँती बेर-बेर हिनक ललाटपर उभड़ि जाइत होइनि ! कोनो भाव जेना बेर-बेर चमकि जाइत होइनि!

मधुपजीक बेडसँ सटले दोसर बेडपर चुपचाप बैसि जाइत छी। एहि बेडपर मधुपजीक सुपुत्र देवकान्तजी अलसायल पड़ल छथि।

-""के ? अहा... हा, अहाँ दुनू भाइ ! अहूँ सभ रौदकें मुदा जीति लेने छिऐक।''

आँखि मिड़ैत अंगैठी-मोड़ लैत देवजी उठिकऽ बैसि जाइत छथि। किछुकाल धरि नहुएँ- नहुएँ हमरालोकनिमे साहित्यालाप होइत रहैत अछि।

एक बेर चारुकात पतियानीमे पड़ल आँखिमे पट्टी बन्हने रोगी सभपर नजरि दोड़ि जाइत अछि। किछु गोटे झपकी लऽ रहल छथि, किछु गोटे अलसा रहल छथि।

एहि बीचमे मधुप जी पड़ले-पड़ल आँखिपर हाथ लऽ जाइत छथि। फेर आस्ते-आस्ते उठिकऽ बैसि जाइत छथि।

हमरालोकनि उठिकऽ ठाढ़ भऽ जाइत छी। ... पयर छूबिकऽ प्रणाम करैत छियनि।

- ""के ? अरे..... अहाँं दुनू गोटे ! अहा ! ......अहाँ सभकें देखिकऽ तँ मोन प्रसन्न भऽ जाइत अछि। की खूब कुशल छी ने, खूब सानन्द ?''

- ""जी, अपनेक आशीर्वाद !.... ''

- ""हँ, आब हमरोलोकनि तँ आशीर्वाद ने देब, काज तँ आब अहीं सभ करबैक।''

-""आब अपने खूब स्वस्थ रहैत छिऐक कि ने ?''

-""हँ, आँखि तँ खराब बहुत दिनसँ छल ........ एकरा आलस्य कही। मुदा, एहिबेर डाक्टर साहेब (श्रीमान मिश्र) नहिएँ मानलनि। बुध दिन दोसर आँखिक आपरेशन होयत।''

बीचमे मधुप जी उठैत छथि आ मुँह हाथ धोकऽ पूर्ण प्रसन्न मुद्रामे बेड पर बैसि जाइत छथि।

-""बाबू, चाह नहि पीबैक ?'' -देवकान्त जी पुछैत छथिन।

-""हे, इहो दुनू गोटे छथि । ...हमरो ले' लेने आयब।''

हमरालोकनि देवकान्तजीक संग जाइत छी आ चाह पीबिकऽ घूरि अबैत छी, एक कप चाह मधुपीक हेतु सेहो अबैत छनि।

मधुपजीक संग संक्षेपमे पारिवारिक गप्प होबऽ लगैत अछि। तकर बाद "चाही एकटा द्रौपदी' आ क्षणिका क प्रसंग चर्चा चलैत अछि। ... आ, तकर बाद रस.... अलंकार ... छन्द एवं अन्य अनेक साहित्यिक गप्प होबऽ लगैत अछि।

हम देखि रहल छी ते वातावरण क्रमश: साहित्यिक भेल जा रहल अछि। मोन होइत अछि जे किछु प्रश्न मधुपजीसँ पुछियनि। नहुएँसँ देवकान्तजीकें पुछैत छियनि।

-""हँ-हँ, किएक ने, जे पुछबाक हो, से पुछियनु।''

हम गप्पक सूत्र पकड़ैत मधुपजीसँ पुछैत छियनि - ""अपनेकें कविता लिखबाक प्रेरणा कतऽसँ प्राप्त भेल?''

"" प्रेरणा की प्राप्त होयत? कहू जे जन्मजात रुपसँ ई प्रवृति रहल अछि.... एकदम सहजात! हमरा मोन पड़ैत अछि जे जखन हम आठे वर्षक रही तँ सिलेटपर किछु तुकबंदी कयने रहिऐक । ... संयोगसँ हमर गुरु जी देखि गेलाह । बड़ बिगड़लाह। कहलनि "पागल बनना है? अभी से कविता बनाते हो, छोड़ो इस सबको। "किछु हमरा तखन डऽरो भेल। सुदा, ओहिना ककरो-ककरोरपर किछु पाँती हमरा मुँहसँ अनेरो बहरा जाय। ... हम जे साहित्याचार्यक चतुर्थ खंडक परीक्षा देने रहिऐक, ताहिमे प्रश्नक उत्तर पद्यमे देने रहिऐक। ... कोनो तेहन बात नहिं, हमरा पद्ये लिखबामे सुविधा भेल रहय।''

- जी, अपने तँ पत्रो छन्देमे लिखैत छिऐक ।''

कनिएँ विहुँसलाह, आ तखन कनेक विलमिकऽ कहलनि - ""हमरा गद्यसँ प्रेम नहि। हम जँ लिखैत छी तँ पद्ये। ... तँ से कहऽ जे लगलहुँ, एक बेर राजर्षि रमेश्वर सिंहक संस्था "पंडित सभा' क आयोजन भेल रहैक। हमहुँ ओहिमे सम्मिलित भेल रही। हम मैथिलीमे एकटा पद्य सुनौने रहिऐक। ओहि समयमे एकटा लय एहि देशमे खूब प्रचलित छलैक - ""मेरा मौला बुला ले मदीना मुझे।'' हम ओही भासपर ओ गीत रचने रहिऐक। किछु ओकर पाँती मोन पड़ैए -

अयला मैनाक गेह बुरहा दुलहा

हुनि लयला उठाय नारद छुलहा

केश सभ तँ श्वेत छनि

मुँहमे ने एको दाँत छनि

तीन नयन विशाल छनि

अहिकेर गर मे माल छनि

संग नाङ्र तथा कोर लुल्हा

अयला मैनाक गेह बुरहा दुलहा

हमर ई गीत ओहि समयमे पूर्ण प्रशंसित भेल रहय। पुरस्कारस्वरुप पन्द्रह टाका सेहो भेटल रहय ।''

मधुपजीक चाह शेष भऽ गेल छनि । ग्लास राखिकऽ हाथ धोइतत छथि । ... हवाक एकटा झोंक अबैत छैक आ ओ हमरा सभकें झुमबैत चल जाइत अछि ।

-""कहल जाय, अपने जखन साहित्यजगतमे प्रवेश कयने रहिऐक तखनुका साहित्यिक वातावरण केहन छलैक ?''

- ""नहि, साहित्यिक वातावरण नीक नहि रहैक। मैथिलीमे ते क्यो कविता रचैत छलाह, रचना करैत छलाह, तनिकालोकनिक समाजमे कोनो महत्त्व नहि छलनि। लोक यैह बुझैत छलैक जेे व्यर्थ "रजनी-सजनी' से लागल छथि। ... औ मैथिलीक कोन कथा, हिन्दियोक कवि-लेखककें कम-सँ-कम एहि प्रान्तमे कोनो प्रतिष्ठा नहि छलनि। संस्कृतोक क्रमश: पतन भऽ रहल छलैक ।''

देवजी एक-एक खिल्ली पान सभक आगाँ बढ़बैत छथि। हम पान खाइत पुन: गप्पक सूत्र पकड़ैत छी। - ""अपने संस्कृतक विद्वान रहितहुँ एहन वातावरणमे मैथिलीमे रचना करब आरंभ कयलिऐक, तकर की कारण?''

- ""एकर सभटा श्रेय सुमनजीकें छनि। हम जे मैथिलीमे लिखऽ लगलहुँ, रचना करऽ लगलहुँ, तकर प्रेरणा हमरा सुमनेजीसँ भेटल। ओना तँ हम पहिनहुँ मैथिलीमे छिटफुट लिखैत छलहुँ, मुदा अधिक रचना संस्कृत अथवा हिन्दीमे कयल करी। जखन सुमनजी "मिहिर'क सम्पादन कर लगलाह तँ हमरा एकटा पत्र लिखलनि जे आब हमरालेकनिकें संघबद्ध भऽकऽ मैथिलीमे रचना करबाक चाहि। अपन भाषा, अपन माटि आ अपन साहित्यकें सप्राण कऽ दबाक चाही। यैह पत्र हमरा मैथिलीक हेतु समर्पित कऽ देलक। ... एकर अतिरिक्त आरो अनेक कारण भेलैक जाहिसँ हम मैथिली क्षेत्रमे प्रवेश कयलहुँ। ओहि समयमे हम काशीमे पढ़ैत रही। किरणजी लोकनि हस्तलिखित पत्रिका बाहर कयल करथि। ओहि पत्रिकामे हमरो रचना संकलित भेल छल। कविवर, सीताराम झा, यात्रीजी, बाबू कृष्णनन्दन सिंह साहेब एवं आनो कतेक व्यक्ति हमरा प्रेरित करैत गेलाह। मुदा, हम जे मैथिलीमे अपनाकें समर्पित कऽ देबाक निर्णय कयलहुँ से धरि सुमनेजीक प्रेरणासँ ।''

- ""अपने अपन उपनाम "मधुप' किएक रखलिऐक ? एहि प्रसंग कोनो घटना घटल छलैक की ? ''

प्रश्न सुनिकऽ मधुपजी आस्ते-आस्ते हँसऽ लगलाह आ तखन कहलनि - ""देखू, हम तँ ओना उपनामक पहिने विरोधी रहिऐक। हमरा उपनान राखब नीक नहि लगैत छल। एहि प्रसंग हम एकटा कविता बनौने छलिऐक, जकर दूटा पाँती मोन पड़ै-ए -

एखनुक कवि किछु बढि यथा

राखि लेथि उपनाम

मकै मोंछ होइतहिं मधुप

बालि रखाओल नाम

मुदा एहि प्रसंग एकटा घटना घटल। इहो घटना सुमनेजीसँ संबधित अछि। पहिने जे ओ पत्र लिखल करथि ताहिमे अपन नाम सुरेन्द्र झ साहित्याचार्य मात्र लिखथि। मुदा एक बेर चे ओ पत्र लिखलनि ताहिमे सुरेन्द्र झा "सुमन' लिखने रहथि। ओहि पत्रक जे हम उत्तर देलियनि, ताहिमे हमहुँ "मधुप' जोड़ लेने रही। ... बुझलहुँ किने, तहियेसँ हम "मधुपजी' ।''

एहि बीच एकटा नर्स आयलि आ संक्षेपमे मधुपजीसँ हाल-समाचार पूछिकऽ चल जाइत रहलि। किछु काल गप्पक क्रम टूटल जकाँ रहलैक।

पुन: प्रसंगकें पकड़ैत हम पुछलियनि - ""अपेनक रचनामे करुण रसक उद्रेक प्रधानत: देखल जाइछ । की तकर कोनो विशेष कारण ? कोनो विशेष घटना ?''

- ""नहि, कोनो कारण नहि,, कोनो घटना नहि। ओहिना, अनायासे, रहि-रहिकऽ करुणाक भाव उमड़ि अबैछ। कखनो काल रचना करैत-करैत तऽ हम स्वयं कानऽ लगैत छी। दीन-दलितक प्रति, टूटल-खसलक प्रति ममत्वक भाव हमर हृदयमे उपजि जाइत अछि। भऽ सकैत अछि, यैह सभ कारण रहल हो।'' ....

गप्पक प्रसंग पुन: बदलि जाइत छैक। "मिहिर'क होरीक (१९७६) अंकमे प्रकाशित मधुपजीक कविताक प्रसंग चर्चा चलऽ लगलैक। किछु काल धरि मधुपजी हमरालोकनिक गप्पकें सुनात रहलाह - - तकर बाद कहलनि - ""हम तँ पहने "होरी अंक 'क हेतु कविता लिखबे टा करिएक। जाधरि सुमन जी "मिहिर'क संपादक छलाह ताधरि प्राय: हमहिं होरी अंकक हेतु विशेष कविता लिखल करिऐक। ... हे मिहिरक फाइलमे अहाँ सभ तकबैक- देखू, ईशनाथ बाबूक प्रसंग हम एक बेर होरी अंकमे लिखने रहिऐक-

नाथ युक्त छथि ईश ई

धयलनि छुलही संग

बटु आ बटुआ दासक व्याजें

बाजथि, धन्य अनंग

एखन हुनके चलती अछि।

किछु कालधरि ईशनाथ बाबूक प्रसंग संस्मरण सुनबैत रहलाह। हम पुन: अवसर पाबि पुछलियनि - ""अपने आत्मगीतक रचना कोन संदर्भमे कएलिऐक? एहि प्रसंग कोनो घटना घटल छलैक की?''

ई प्रश्न सूनिकऽ मधुपजी किछु काल धरि मौन भऽ गेलाह। इतिहासक कोनो मोड़पर हुनक दृष्टि पहुँचि गेल होइनि जेना.... पुन: साकांक्ष होइत कहऽ लगलाह - ""हँ, एहि प्रसंग एकटा मार्मिक घटना घटल अछि। राजक एकटा अधिकारी हमर आत्मीय छलाह, परम आत्मीय। ओ ओहि समयमे बेनीपुरमे सर्किल मैनेजर छलाह। हम बहेड़ा स्कूलमे शिक्षक रही। हुनकासँ बड़ घनिष्ठ संबंध छल। संयोगसँ एकटा जमीनक प्रसंग हुनका ओतऽ जाय पड़ल। सांझमे करीब सात बजे पहुँचलहुँ। मुदा, ओ हमरा देखिते कहलनि जे आहाँके हम नहि चिन्हैत झी, अहाँकें हम नहि जनैत छी। अहाँ कतऽसँ आयल छी, अहाँ के छी ?'' ...... हम तँ क्षुब्ध भऽ गेलहुँ। एहन आघात हमरा कहियो नहि लागल छल, एहन चोट हमरा कहियो नागल छल।

.... हमरा लोकनिकें रहिते की अछि, बस एकटा भावना ! आ, ताही भावनापर जँ आघात होअय तँ तेकर परिणाम केहन दुखद होयतैक, से तँ बुझिते छिएक ।''

- ""जी, तकर बाद?''

- ""तकर बाद ओहि दिन हम स्कूलक होस्टलमे नहि गेलहुँ। बिच्चहि रास्तामे एकटा हलुआइक देकान पड़ैत छलैक। लोकसभ ओतऽ रहितो छल। हमहुँ जाकऽ ओकरे एकटा जीर्ण-शीर्ण खाटपर बैसि रहलुहुँ। एकटा दीप टिम-टिम करैत जरि रहल छलैक। हम ओकरे लुक-झुक करैत प्रकाशमे भरि राति जागल रहिकऽ अनेक गीतक रचना कयलहुँ, जाहिमे प्रत्येकमे हम अपन परिचय देने छिऐक। आत्म परिचय "क ई गीत मोन पड़ैए-

अपने दारुम दुखसँ सदिखन चुपचाप कनैत रहैत छी

नहि विपति समयमे संगी क्यो अभिशाप जनात रहैत छी।

तहिना, एकटा आर मोन पड़ैए-

एक टूटल तार छी हम

पीवि अंगूरी-सन मधु

चूसि बधु-मुख ठोरसँ मधु

अंट-संट बजैत पागल

प्रेम-पथमे पूर्ण लागल

क्षिप्त गंधर्वक उपेक्षित

शीर्ण पड़ल सितार झी हम

 

एहिना कतेको पद अछि जे एखन मोन नहि पड़ि रहल अछि।''

किछु काल धरि वातावरण गंभीर भऽ गेलैक । सन-सन बहैत बसातमे उधिआइत मधुपजीक स्वरुप रहि-रहिकऽ चमकि उठैत छनि। हमरालोकनि एकटा अपूर्व भव्यताक अनुभव कऽ रहल छी। ....

प्रसंगकें बदलैत पुन: अवसर पाबि हम पुछैत छियनि - ""अपनेक रचनामे यमक आ अनुप्रास अधिक देखल जाइछ, तकर की कारण?''

- ""तकर कोनो कारण नहि। हम तँ कलम उठबैत छी, चे पाँती बहरायल से बहरायल। आव ओहि पाँतीमे यमक रहौक, उपमा रहौक वा किछु रहौक। हम एहि हेतु कोनो आयास नहि करैत छी, शब्दक जोड़-तोड़ नहि करैत छी। हँ, तखन भावनाक प्रवाहमे चे उमड़ि आयल तकरा छोड़ितो नहि छिऐक ।''

- ""फिल्मी गीतक भासपर अपनेक कतेक रचना देखबामे अबैछ, एकर की उद्देश्य?''

- ""एकर उद्देश्य छैक। हम देखलिऐक चे लोक फिल्मी गीतक धुनमे मातल अछि। शहरक कोन कथा, गामेमे लोक एहि दिस आकृष्ट अछि। एहन स्थितिमे अनुभव कयलहुँ चै विद्यापतिक गी,त, गीतक माधुर्य, गीतक लय सभकें लोक विसरि जायत। अपन माटि-पानिक गीत कतहु भोतिआ जायत। तें हम सोचलहुँ जे जे गीत लोक हिन्दी मे गबैत अछि, जे भास लोक हिन्दीमे उठबैत अछि से मैथिलीमे जँ भऽ जाइक तँ लोक आन दिस किएक भोतिआयत ? यैह सभ विचारिकऽ हम फिल्मी गीतक भासपर गीतक रचना कयलहुँ। एहिसँ लोक मैथिली दिस आकृष्ट होयत, मैथिलीमे गीतक तरंग उठत। आ, हे, तकर परिणामो नीक भेल अछि। जनरुचिकें तँ देखहि पड़त, तखने मैथिलीक रक्षा होयतैक। मुदा, हम मात्र फिल्मीए धुन-टा पर रचना नहि कयलहुँ, आनो धुपर गीतक रचना कयने छी।''

-""जी, से तँ ठीके, सभतरि-सभठाम अपनेक गीत गुंजित होइत रहैत अछि। मैथिली दिस तँ लोक आकृष्ट भेल।''

- ""हँ, हँ, ताही द्वारे तँ हम एहन रचना कयलहुँ।''

क्रमश: रौद गलल जा रहल छैक। परतीपर पसरल रौदकक धूप-छाँही आब दूर भऽ गेलैक अछि। हम पुन: साकांक्ष होइत पुथैत छियनि - ""किछु गोटेक कहब छनि जे मैछिलीमे प्रगतिवाद भुवनजी अनलनि। एहि प्रसंग अपनेक की विचार अछि ? ''

-'' हमर विचार, हम तँ कहब जे साहित्यमे जे कोनो धारा अथवा वाद अबैत छैक, ताहिमे कोनो एक व्यक्ति मात्रक योगदान नहि रहैत छैक। हम तँ मैथिली कविताकें प्रारम्भे सँ देखैत अयलिऐक अछि, ओ तें कहब जे एहिमे बहुत गोटेक योगदान रहनैक.... औ, एकटा सम्मिलित स्वर छलैक, एकटा समवेत दृष्टि, जकर फलस्वरुप मैथिलीमे प्रगतिवाद अथवा नवीन रुपक काव्य-रचना देखबामे आयल।''

-'' भारतीय स्वातंत्र्य-संग्राममे मैथिली कविताक की योगदान रहलैक अछि?''

-'' कोनो आन साहित्यसँ कम नहि। तत्कालीन अनेक रचनामे स्वतंत्रताक हेतु, अपन अधिकार-प्राप्तिक हेतु स्वर मुखर भेल रहैक। यदुवर, मधुर, महावीर झा "वीर', ईशनाथ झा, किरणजी, सुमनजी एवं हमरालोकनिक रचनामे ठाम-ठाम ओ स्वर स्पष्ट छैक। ... हे, एहि संबंधमे अहाँकें किरणजी अधिक कहताह। ... ओ एहन-एहन रचनाक संकलन कयने छथि। अहाँ हुनकासँ जरुर पुछबनि।''

- ""जी, अपनेसँ समकालीन साहित्य पर किछु पुछबाक विचार भऽ रहल अछि।''

- ""हँ, हँ, पुछू...... जे पूछब से पुछू। हमरा नीक लागि रहल अछि।''

- ""बेस, तँ कहल जाय जे अपनेक समकालीन कविलोकनिकमे अपनेक दृष्टिमे सर्वश्रेष्ठ कवि के छथि ?''

- ""हमरा जनैत, हमर समकालीन कविलोकनिमे सर्वश्रेष्ठ कवि श्री सुमनजी छथि।''

- ""कोन दृष्टिएँ ? हुनकामे कोन वैशिष्ट्य छनि ?''

- ""कोन दृष्टिएँ पुछैत छी?''

हम देखलहुँ, मधुपजीक आँखिक कोर छलछला उठलनि अछि। संपूर्ण शरीर रोमांचित भऽ उठलनि। सिन्दुरक ठोप चमकऽ लगलनि आ तखन आह्मलादि स्वरमे कहऽ लगलाह- "औ एहन प्रतिभा, एहन व्यक्तित्व, एहन चरित्र, एहन विद्वता विरले देखल जाइत अछि... 'न भूतो न भविष्यति"। जेहने पांडित्यक प्रकर्ष तेहने कवित्व- प्रतिभाक उत्कर्ष ! हम तँ ततेक सुमनजीक कवित्वसँ प्रभावित छी जे तकर वर्णन करब असंभव।""

- ""जी, से तँ ठीके, एहन प्रतिभा .... मुदा, कहल जाय जे सुमनजीक रचनामे, अपनेक दृष्टिएँ कोन रचना सर्वश्रेष्ठ मानल जयबाक चाही?''

- ""ओना तँ हम सुमनजीक प्रत्येक रचनासँ आह्मलादित छी, प्रत्येक शब्दसँ प्रभावित छी, मुदा हुनक "गंगा-तरंगिणी' हमरा जनैत सर्वश्रेष्ठ छनि। भर्तृरिकें जे एहिमे उत्तर देने छथिन से सत्ये निष्णात कविक प्रतिभाक चरम उत्कर्षक द्योतक थिकैक। कतेक विलक्षण पद छैक, देखियौक ने-

 

सतमुख विनिपातक कथा

कहओ ने खेदक लेस अछि ।

जगत-जीव-हित साधना

एकमात्र उद्देश्य अछि ।

तहिना, हुनक कतेको पद छनि जे भाव-विह्मवल बना दैत अछि।''

'' - सुमनजीक कोनो पुस्तककें देखिकऽ अपनेकें ई कहियो सेहन्ता भेलैक जे ओहिपर अपनेक हस्ताक्षर रहैत? ''

'' - नहि, एहि तरहक भावना हमरा कहियो नहि भेल। तकर कारण अछि। हम अपनाकें सुमनजीसँ भिन्न कहियो बुझबे ने कयलहुँ। माने, हम आ सुमनजी अभिन्न छी। आ से प्रारंभेसँ - "कहियत भिन्न न भिन्न।' आ तें एहन सेहन्ताक कोनो प्रयोजन नहि पड़ल।''

'' - अपनेक समकालीन कविलोकनिकमे सुमनजीक अतिरिक्त आन कोन-कोन कवि अपनेकें प्रभावित कयने छथि?''

'' - सुमनजीक अतिरिक्त हमरा आकर्षित कयने छथि यात्री, आरसी बाबू, ईशनाथ बाबू, तंत्रनाथ बाबू, मणिपद्म, किरण एवं आनो अनेक कवि।

यात्रीजीक प्रतिभाक वर्णन करब असंभव। मुदा, ओ अपन प्रतिभाक समुचित उपयोग नहि कऽ सकलाह। मैथिलीकें हुनकासँ बहुत-किछु आशा छलैक, मुदा तकर पूर्कित्त नहि भऽ सकलैक।

तंत्रनाथ बाबू कवि छथि, प्रतिभा छनि, मुदा हमरा हुनक व्यंग्यमूलक रचना विशेष आकर्षित करैत अछि। अपन-अपन रुचि। ... ईशनाथ बाबूमे मौलिकता नहि छलनि। हुनकामे अनुवादकक प्रतिभा छलनि।. हँ, तखन पदलालित्य, शब्दयोजना एवं हुनक स्वर-माधुर्य बेजोड़ छलनि। ... मणिपद्म प्रवाह छनि। जीवनोमे प्रवाह छनि।

किरणजी मूलत: कवि नही छथि। से तँ ओ स्वयं स्वीकार करैत छथि। हँ, यदि ओ शुद्ध हृदय एवं पूर्ण तल्लीनताक संग आलोचना करथि तँ ओ निश्चय मैथिलीक महान समीक्षक भऽ सकैत छथि। हुनकामे समीक्षकक प्रतिभा छनि।''

- ''आ, अमरजीत प्रसंग अपनेक केहन धारणा अछि?

- ''अहा, अमरजीक कोन कथा? प्रकृति कवि छथि। मुदा, ओ कविसँ अधिक मैथिलीक सिपाही छथि। हजारो-हजार छात्रक हृदय ओ मैथिली-प्रेमक भावना जगौलनि अछि। ... हुनक ओ कविता हमरा बड़ नीक लगैत अछि। ... प्राय: अपन पिताक देहान्तक बादक ई रचना थिकनि। ...की पाँती छैक ? देखू, विसरि रहल छी। बाव छैक जे एकटा ब्राह्मणक बाप मरि गेलैक अछि तँ ओ बेरोजगार भऽ जाइत अछि। मुदा, एकटा चमारक बाप मरि जाइत छैक तँ तारी पीने ओ गबैत मस्त भेल चल जाइत अछि जे हमरा की ? बाबू लोकनिक जूता टूटैत रहनि, हमरा ओहिसँ निमहता होइत रहत ।''

-''नवीन पीढ़ीमे हम सोमदेव, भीम बाबू आ विदितजीसँ अधिक प्रभावित छी। सोमदेवमे प्रतिभा छनि, गीतकारक प्रतिभा। ताहूमे जँ ओ करुणाकें आधार बना लेथि तँ हुनक कवित्व - प्रतिभा वस्तुत: चमत्कृत भऽ जायत। मुदा ओ अपन प्रतिभाकें चीन्हि नहि रहलाह अछि। अपन विशेषताकें नहि बूझि रहलाह अछि। ... औ, हमरा जनैत, मैथिलीक प्रत्येक साहित्यकारमे अपन "खासियत' छैक। यदि ओ अपन प्रतिभाकें बूझिकऽ बढ़य, लौलमे नहि पड़य तँ सत्ये हमर साहित्यक रुपे-रंग बदलि जायत। देखलिऐक, कतेक कली भेलैक, गसमकलैक आ मुर्झा गेलैक। ... मायानन्दकें केहन सुन्दर प्रतिभा रहैक ! मुदा, किदन-कहाँदनमे ओझरा गेलाह, सोमदेवोकें सैह देखैत छियनी।''

-''आ, भीमनाथजीक प्रसंग अपनेक केहन धारणा अछि ?''

-'' भीम बाबूक प्रसंग, भीम बाबूसँ हम बड़ बेसी आखान्वित छी। हुनकामे शाश्वत प्रतिभा छनि, शाश्वत प्रतिभा छनि, शाश्वत। हमरालोकनिक जे परम्परा रहल अछि, तकर ओ अन्यतम कड़ी सिद्ध भऽ सकैत छथि....। विचारसँ सम्पन्न, व्यवहारसँ नम्र, औ, हम तँ हुनकासँ सर्वाधिक प्रभावित छी। ... मुदा, ओ एम्हर किछु भ्रममे पड़ि गेलाह अछि। नवीन कविताक मायाजालसँ जँ ओ बाँचि जाथि तँ हुनक भविष्य निश्चय उज्जवल छनि।

हे, मिहिर जीक गीत सेहो नीक लगैत अछि। मिथिलाक माटि-पानिक सुरभि रहैत छैक।''

-''जी, अपनेक विचारसँ नीवन कविताक की महत्त्व? की भविष्य? '

-''औ, ई नवीन कविता की थिकैक, भ्रमजाल थिकैक, भ्रमजाल थिकैक। कतेको प्रतिभा एहि जालमें फँसि-ओझरा कऽ नष्ट भऽ गेलैक अछि। .... साहित्यमे कहिया नहि नीवनताकें प्रश्रय देल गेलैक? - "तिल-तिल नूतन होय।' मुदा, एना असंतुनित, अनर्गल प्रलाप उचित नहि ने ! एकर भविष्य छैक जे एकटा बिरड़ोर रहैत छैक?''

बीचमे एकटा हाउस-सर्जन अयलाह आ रोगी सभपर नजरि दौड़बैत धड़फड़ायल चल जाइत रहलाह। प्रसंग किछु कालधरि भसिआइत जकाँ रहलैक।

विचार भेल जे कथा-साहित्यक प्रसंग किछु पुछियनि। अवसर पाबि पुछलियनि- ""जी, अपनेक दृष्टिमे मैथिलीक कथाक की स्थिति छैक?''

- हम तँ पहिने कहलहुँ जे हमरा गद्यसँ प्रेम नहि। तखन मैथिलीमे कथा-साहित्यक स्थिति नीक अछि.... भरतजीकें चिन्हैत छियनि ?... सरिसव स्कूलक शिक्षक छथि। हुनक  ऐकटा कथा छनि " पैघ लोक '। अयँ औ, एहूसँ नीक कथा होइत छैक ! ओना, मणिपद्म आ गोविन्दजीक कथा हमरा नीक लगैत अछि। .... हे, मनमोहनजीक कथाक प्रति तँ हमरा अत्यंत ममत्त्व अछि। हुनक "सुकेशी' हम कैक बेर पढ़ने होयब।''

-  ""आ हरिमोहन बाबूक प्रसंग अपनेक केहन धारणा अछि  ?''

-  ""बड़ नीक धारणा। मैथिलीक विकास-विस्तारमे तँ हुनक अद्भुत योगदान रहलनि अछि। मैथिलीमे पाठकक निर्माणे तँ एकटा समस्या रहलैक अछि ? अपनेक एहि सन्दर्भमे की मान्यता छैक? '

-  ""जी, से तँ ठीके !  मैथिलीमे आलोचनाक स्तर आ स्थिति की रहलैक अछि  ?'' अपनेक एहि सन्दर्भमे की मान्यता छैक ?''

-'' नहि, आलोचनाक स्थिति नीक नहि छैक। एकदम एकाङ्गी, एकदम निम्न स्तरक। हम तँ चिंतित छी। हँ, किरणजीमे पांडित्य छनि, साधना छनि। ओ एहिमे अपूर्व योगदान कऽ सकैत छथि। मुदा, ओ तँ मैथिली आन्दोलनमे लागल रहलाह।''

- ""रमानाथ बाबूक निधनसँ अपने किछु रिक्तता अनुभव करैत छिऐक? ''

- ""अहा, रिक्तताक कोन प्रश्न, बड़ बेसी रिक्तताक अनुभव करैत छी। ओ तँ मैथिली साहित्यक ॠषि-कल्प छलाह। एहन विद्वत्ता, एहन गाम्भीर्य, एहन साधना, नहि, आब दुर्लभ अछि।''

- ""मैथिलीक विकासक अवरोधक तत्त्व अपनेक जनैत के अछि ? अवरोधक स्थिति के उत्पन्न करैत अछि ?''

- ""औ, हमरा जनैत मैथिलीक सभसँ पैघ अवरोधक तत्त्व प्राध्यापक वर्ग छथि। ... हमरा की ककरोसँ डर अछि ? ...अनेरे गुटबन्दीक कोन प्रयोजन ? ओ सभ अपनाकें मैथिलीक सिपाही बुझथु। मैथिलीक हेतु समर्पित भऽ जाथु। साधना करथु। हुनका लोकनिकें एहि प्रसंग अमरजीसँ प्रेरणा लेबाक चाहियनि।""

- ""मैथिली अकादमीक प्रसंग अपनेक की प्रतिक्रिया ? ''

- ""मैथिलीक विकासक एकटा मार्ग फुजलैक अछि। मुदा, हमरा सभ दूर्वाक्षतक मंत्रमे कहैत छिऐक ने - ""योग: क्षेम: न कल्पताम्'' - से अधिकार भेटल तँ ओकर रक्षा करी, ओकर निक जकाँ उपयोग करी, यैह बड़का लाभ।""

हवाक झोंक जकाँ समय बीतल जा रहल छलैख। जुलाइ १९७६.. बीतल जाइत एकटा दिन ।

- ""जी दूटा प्रश्न आर छैक।''

- ""बेस, पूछू ने .. पूछू...।''

- ""जी, कहल जाय जे अपनेक जीवनक अविस्मरणीय घटना कोन रहल अछि''

प्रश्न सुनिकऽ आस्ते-आस्ते हँसय लगलाह। मुदा, तुरन्त साकांक्ष भऽ गेलाह आ तखन कहऽ लगलाह - ""हमर अविस्मरणीय घटना सभ ! औ, मैथिलीकें जखन कखनो कोनो सम्मान भेटैत छैक, प्रतिष्ठा भेटैत छैक, तखन-तखन हमर आनन्दक सीमा टूटि जाइत अछि। एहने-एहने घटना हमर जीवनक हेतु अविस्मरणीय बनि जाइत अ ।''

हमहुँ किछु आह्मलादित होइत पुन: प्रसंगकें पकड़ैत अंतिम प्रश्न करैत छियनि - ""कहल जायस अपनेक जीवनक कोनो एहन इच्छा रहल अछि, जकर पूर्कित्त नहि भेल होअय। कोनो एहन कचोट.........'

- ""से कौन ?''

- ""यैह जे मैथिलीकें संविधानक अष्ठम अनुसूचीमे स्थान भेटि जाइक, हमर यैह टा इच्छा अपूर्ण अछि।''

बीचमे चहल-पहल होबऽ लगैत छैक। ... प्राय: ककरो आँखिन एखने आपरेशन होयतैक। मधुपजीक संग फेर पारिवारिक गप्प होबऽ लगैत अछि। रौद क्रमश: पिराँछ भेल जा रहल छैक।

हमरालोकनि उठिकऽ प्रणाम करैत छियनि - ""जी अपनेकँ तँ बड़ कष्ट देलहुँ, आव आज्ञा होइत।''

हम कनेक साकांक्ष होइत कहलियनि - ""वस्तुत: आइ ई आँखिक अस्पताल अपन नामक सार्थकता सिद्ध कऽ देलक अछि। ... इतिहासकें देखबा ले'आइ हमरा सभकें कतेक आँखि भटेल अछि !''

एहि बातपर मधुपजी खूब जोरसँ हँसय लगलाह, हँसैत रहलाह आ हम सभ पुन: प्रणाम कऽ विदा भऽ गेलहुँ।

सड़कपर लोक सभक अबरजात बढि छलैक। भीड़-भाड़मे बढ़ैत बेर-बेर वैह आह्मलादक स्वर, वैह आह्मलादक स्वरुप, वैह हँसैत आँखि हमरा समक्ष चमकैत रहल, एकटा निर्दोष भंगिमा बेर-बेर उभरैत रहल आ हमसभ भावनाक मचकीपर झुमैत रहलहुँ, झुमैत रहलहुँ।

 

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