अक्षर-अक्षर अमृत

श्री सुरेन्द्र झा "सुमन'


सूर्यक प्रकाश क्रमश: मद्धिम भेल जा रहल छलैक। पश्चिम भर दूर, बहुत दूर, मेघक टुकड़ी मे हलैत लाल-पीयर-हरियर प्रकाशकें देखैत हम आ अमरनाथ राजकुमारगंजक सड़क पर आह्मलादित भेल बढ़ल जा रहल छी।

- ""हे वैह मिहिरजी। हँ-हँ, मिहिरेजी छथि ।''

- "की कोम्हर ?'

- यैह सुमनजीक ओहि ठाम।

- ""चलू, ओतहि हमहूँ सभ चलल छी। ... विचार भेल अछि जे मैथिली साहित्यक प्रसंग हुनकासँ किछु जिज्ञासा करियनि ।''

- "हँ, हँ अवश्य ... ई एक टा बड़का काज होयत ।'

सन-सन बहैत बरसातमे गाछ-पात हिलि रहल छैक। एकटा अद्भुत साहित्यिक उल्लास। हमरालोकनि सड़ककें छोड़ी गलीकें पकड़ि लैत छी। कातमे छल-छल करैत पोखरिक तरंग, पोखरिक मोहारपर महादेवक मंदिर आ सोझांमे झक-झक करैत रेडियो स्टेशनकें देखैत एकटा दोमंजिला मकान लग आबि कऽ रुकि जाईत छी। यैह थिकनि आदरणीय सुमनजीक निवासस्थान। जँ एतुक्का माँटिकें प्राण रहितैक तँ कहितैक हम कविता छी, जँ एतुक्का गाछकें शब्द रहितैक तँ कहितैक -  हम कविता छी, जँ एतुक्का पोखरिक जल-तरंगकें स्वर रहितैक तँ कहितैक - हम कविता छी। ... कातेमे ठाढ़ छैक एकटा झमटगर गाछ-झुमैत-हंसैत-कंपेत ! एक बेर हम गाछकें देखैत छिऐक, एक बेर गाछ हमरा देखैत अछि आ हमर मोनक तरंगमे बेरि-बेरि एकटा पाँती चक्कर काटऽ लगैत अछि -

तरुण तपस्वी मग्नमना छी,

चिर साधक तरु अहँ जन्महिसँ

तपमे लग्न कोना छी ?

- "अपने छथिन ?' - हम ओसरा पर चढ़ैत नहुँएसँ बजैत छी ।

- "के ?'

- ""जी, हम सभ छी ।''

- "अहा ... हा... हा..., आउ-आउ, बहुत दिनका बाद देखलहुँ। तखन ....'

- सुमनजी ओसारासँ सटले कोठलीसँ बाहर होइत छथि।

वैह परिचित स्वर, बैह परिचित विहुँसी, वैह चिर-परिचित आत्मीयता ! ... हमरालोकनि जखन पयर छुबिकऽ प्रणाम कयलियनि तँ हँसऽ लगलाह - हँसैत काल हुनक आँखि हँसैत छनि, हँसैत काल हुनक स्वरुप हंसैत छनि, से हमरा कैक बेर अनुभव भेल अछि।

- ""बैसू, बैसू ... अरे इहो तँ अपने घर थिक ।''

हमरालोकनि सुमनजीक अध्ययनकक्षमे पलंगपर आह्मलादित भेल बैसि रहैत छी। एक कातमे "सुमनजी', आमने-सामने हम, हमर बगलमे अमरनाथ आ तकर बाद मिहिरजी - एकटा सुन्दर-सुरम्य साहित्यिक वातावरण स्वत: उपजि गेलै-ए !

- ""तखन की हाल चाल ?''

- ""हमरालोकनि आइ विशेष प्रयोजनसँ आयल छिऐक।'' - हम कनेक गम्भीर होइत प्रसंगकें पकड़ैत छी।

- ""से की ?''

- ""जी, अपनेसँ किछु मैथिली भाषा एवं साहित्यक प्रसंग जिज्ञासा करबाक छल।''

- ""इंटरभ्यू लेबाक अछि से ने कहियौक ! से कहियो भऽ जायत। ... औतेक अवसर ।'' -  "सुमन' जी पुन: विहुँसलाह आ गप्पक धाराकें बदलैत आन-आन विषयपर गप्प करऽ लगलाह।

- ""मुदा एहन साओनक दुर्लभ साँझ फेर भेटत की नहि  ? एखन भऽ जइतैक तँ नीक रहितैक।''

सुमनजी ई गप्प सुनिकऽ भभा-भभा कऽ हँसऽ लगलाह।

- "अपनेकें तँ साओन आ भादवसँ विशेष साहित्यिक समबन्धो ने रहलैक अछि ।''

... १९७६ ... भरल साओनक साँझ ! सुमनजी मुग्ध होइत कहलनि ...

- "औजी, इन्टरभ्यू तँ एकाध बेर हमरा सेवा-जीविकामे देबऽ पड़ल सैह अरुचिकर" -एक बेर राजनीतिक आन्दोलनक आकलनक प्रसंग लऽ कऽ दिल्लीक #ेकाध पत्रसँ धयलो-पकड़ल गेल छी। पत्रकारसँ इंटरभ्यू कोन वक्र-विरुप भऽ जाइत छैक से पोपक गप्प प्रसिध्दे अछि। तें ताहिसँ बचले रहै छी। एक बेर तँ बिनु भेटघाँटे हमर अनुक्त विचारकें लऽ कऽ एक स्थानीय पत्रमे तेना विरोधात्मक स्वर मुखरित कयल गेल जे "दंग' रहि गेलहुँ ! बहुत दिन बाद पता लागल जखन प्रतिवादो व्यर्थे होइत तें एहि सभ झंझटि सँ काते रहै छई। तखन अहाँसभक आग्रह कहियो भऽ जयतैक । ....

सोझाँक टेबुलपर पड़ल प्रतिपदा आ पयस्विनी, किछु-थोड़ेक पुरान पोथी, किछु थोड़ेक छिड़िआयल प्रेसक प्रूफसभ ... हवाक झोंकमे झूमि रहल अछि। ...

एहन दुर्लभ साँझ हमर हाथ सँ निकलि जायत । हम किछु व्यग्र भऽ जाइत छई।

मोन पड़ैत अछि  "दीपक एकाकी', मोन पड़ैत अछि पयस्विनीमे  "पहाड़क तीन रुप', मोन पड़ैत अछि  "गंगा-तरंगिणी' । दैनिक स्वदेशक पन्ना-पन्ना सामनेमे उनटि जाइत अछि,  "मिथिला-मिहिर 'क इतिहास चमकऽ लगैत अछि, वैदेही, इजोत सभ किछु चकमक करऽ लगैत अछि। की मैथिलीक एहन साधक, सरस्वतीक एहन वरद-पुत्र नि:शब्दे रहि जयताह ? सुमनजी बजताह तँ एकटा युग बाजत। सुमनजी बजताह तँ एकटा इतिहास बाजत, सुमनजी बजताह तँ एकटा सप्राण संस्था बाजत ।....

- "साहित्यक लिखबाक प्रेरणा अपनेकें कतऽसं प्राप्त भेलैक ?' हम किछु व्यग्र होइत मौन भंग करैत छी।"

"देखू' - सुमनजी किछु गंभीर होइत बजलाह -'अहाँलोकनिक तँ तेहेन स्नेह अछि जे ... अच्छा, जखन अहाँ एहि तरहक प्रश्न कयलहुँ तँ हम तकर उत्तर अवश्य देब। ... हमरा साहित्य लिखबाक प्रेरणा मूलत: पितासँ प्राप्त भेल । गाम-धरती देखने छिऐक? हम तँ ओहिमे आ काव्यदीपिकाक स्नेह-वर्षिणीमे तकर उल्लेख कयने छिऐक। हमर पिता स्वयं कवि छलाह आ हुनकेसँ हमरा प्रेरणा भेटल ।''

- ""अपने जखन साहित्यमे प्रवेश कएलिऐक तखुनका साहित्यिक वातावरण केहन छलैक ?''

- ""साहित्यिक वातावरण नीक छलैक। ...बंगलामे जहिना बंगीय साहित्य-परिषद, हिन्दीमे जहिना हिन्दी साहित्य सम्मेलन, नागरी प्रचारिणी सभा आदि अपन भाषा-साहित्यक विकासमे संलग्न छल तहिना मैथिली साहित्य-परिषद मैथिलीक उन्नयनमे लागल छल। मिहिर, मोद, मिथिला, मिथिला मित्र आदि पत्र-पत्रिका प्रकाशित होइत छलैक। काशी, कलकत्ता, पटना मुजफ्फरपुरमे महाविद्यालीय छात्र-परिषदक माध्यमे स्नातक वर्गमे चेतना उमड़ि रहल छलैक। मैथिल महासभाक मंचसँ सेहो मैथिलीक माध्यमे सांस्कृतिक चर्चा-अर्चा चलैत छल। विद्यापतिक नामक उपयोग मैथिली आन्दोलनक लेल आकर्षक होमऽ लागल छल। वातावरण विकासोन्मुख छल ।''

- "मैथिलीमे जे मूलत: अपने रचना करऽ लगलिऐक तकर की कारण ?'

- "एकटा स्वत: प्रवाह छलैक। सभक हृदयमे मैथिलीक प्रति प्रेम, सभ मैथिलीक हेतु व्यग्र ! म० म० मुरलीधर झा, जनसीदनजी, म० म० डॉ० उमेश मिश्र, गुरुवर कविशेखर जी, म० म० बक्शीजी, राजपंडित बलदेव मिश्र, ज्यो० बलदेव मिश्र, कविवर सीताराम झा, कुमार गंगानंद सिंह, बाबू  चन्द्रधारी सिंह, पं गिरीन्द्र मोहन मिश्र, पं० हरिनाथ मिश्र, म० म० बालकृष्ण बाबू, पं० त्रिलोकनाथ मिश्र, बाबू गंगापति सिंह, पं० गौरीनाथ झा, सरोजजी, आदि अनोक व्यक्ति सं प्रेरणा भेटल ।'

...ओना, हम संस्कृतोमे रचना कयने छी, हिन्दियोमे हमर रचना अछि। हम जखन मुजफ्फरपुरमे रहैत रहिऐक तँ रामचन्द्र मिश्रजीक सहयोगसँ संस्कृतमे #ेकटा मासिक पत्रिका प्रकाशित करौने रहिऐक। पत्रिकाक नाम रहैक "जागृति' । एहि नाम लऽ कऽ विवादो उठल। कारण, पाणिनीय पद्धतिसँ "जागृति' नहि "जागर्ति' होइछ। मुदा हमहुँसभ अड़ल रहि गेलिऐक। कैकटा नीक पंडितक लेखकें तकलहुँ जाहिमे जागृति शब्दक व्यवहार भेल रहैक। ... दुर्भाग्यवश ओहि पत्रिकाक एक्कोटा प्रति नहि अछि। भूकम्पमे सभटा प्रति नष्ट भऽ गेलैक। ... आ तकर बाद नहिएँ निकलि सकलैक। ....

एक गोटे अयलाह आ धड़फड़ाइत-सन चल जाइत रहलाह। हम कनेक साकांक्ष होइत तपुछलियनि - "प्राचीन आ नवीनक संगम स्थलपर ठाढ़ अपनेक कवि की अनुभव करैत अछि'

- ""पहिने ई कहू जे नवीन आ प्राचीन की ? ... आ प्राचीन आ नवीनक झगड़ा की ? काल वा पद्धति? संस्कृति-सभ्यता वा रहन-सहन? कालकें लेब तँ जे किछु अतीत से सभ पुरान-धुरान, प्रेस-रेल-रेडियो सभ किछु तँ आब पुरान पड़ि गेल। की ओकारासँ क्यो विच्छिन्न भऽ सकैछ? अतीतकें छोड़ि देबैक तँ इतिहासकें विसरि जाउ, भाषा-विज्ञान कें उड़ा दियौक, पुरातत्वकें मेटा दियऽ, राग-रागिनी छन्द-बन्ध, शब्द-अनुबन्ध सभ बिसरि जाउ। साहित्योमे रससँ, द्रुति-दीप्तिसँ, अलंकार-झंकारसँ अति नवतावादियोमे के पिंड छोड़ा सकल छथि? हँ, नवयुगक वातायनकें बंद करबो तहिना अस्वास्थ्यकर, युगीन विचारधारासँ असहयोगो तेहने अप्रीतिकर। शिशिर-वसंत ओ पावस-शरद दुहूक अनुभव करु। एहि मे रगड़-झगड़ कोन? सामंजस्य-समन्वय चाही, स्नेहिल चक्र-चक्रम चाही। हम तँ एकरे स्वस्थ दृष्टि बुझैत छिऐक। ओना, भिन्न रुचिर्हिलोक... तखन अपन रचनाक प्रसंग जे पूछल से हम की कहब? ओ तँ अपन प्रसंग स्वयं कहत वा आलोचके कहथि? की ठीक कहलहुँ ने ? ....''

- ""जी, किछु गोटेक कहब छनि जे अपने संस्कृतकें गलाकऽ मैथइलीक श्रृंगार करैत छिऐक। एहि संबंधमे अपनेक की प्रतिक्रिया ?''

- "अच्छा पहिने ई कहू जे एहि प्रसंग ई सभ विचार सभसँ पहिने के प्रस्तुत कयने रहथि ? ... .प्राचीन आ नवीन... आ संस्कृतकें गलाकऽ .. जे कहलहुँ अछि से ककर कहल थिकनि ?''

हमरालोकनि मौन भेल विहुँसैत रहलहुँ । ....

- "यैह तँ होइत छैक, तथ्य अकथ्य रहि जाइछ। ई सभ टा लगभग तीन दशक पूर्व जयदेव बाबूक कहल थिकनि। मुदा, एकर चर्चो धरि नहि अछि। हँ, एतबा अवश्य जे हुनक विचार पसरैत आयल अछि, अनेक मुहें दोहरायल गेल अछि। ... तखन अहाँ जे पुछलहुँ से, एहि प्रसंग फेर यैह दोहरायब ... जे रचना अछि से अछिए। ओहिमे की छैक, की नहि छैक से तँ अहीं सभ ने कहबैक ! हम की कहब ? ....

हम देखि रहल छी जे, सुमनजी कहैत छथि कम, अधिक कहैत अछि हुनक भंगिमा। लक्षणा आ व्यंजना मे अधिक गप्प भऽ रहल अछि। ... हम भीतरे-भीतरे किछु सावधान भऽ जाइत छी। बाहरमे सान्ध्य-नायिका वय:सन्धिक द्वारिपर ठाढि विहुँसि रहलीह अछि। ... हम अवसर पाबि पुछैत छियनि - ""अपनेक रचनामे मानवीकरण अलंकारक अधिक प्रयोग देखल जाइछ, तकर की कारण ?''

एक बेर फूलक गाछकें देखैत छथि, एक बेर पोखरिक तरंगकें आ तखन साकांक्ष होइत कहऽ लगैत छथि - ""देखू, पहिनो साहित्यमे एकर उदाहरण भेटत। मुदा, एना ओकर मानवीकरण नाम नहि देल जाइत छलैक। नाम टा ई नव देल गेल छैक। पाश्चात्य साहित्यमे ई अलंकार बुझल जाइछ। परंच, अपन साहित्यमे ई रुपक-समासोक्ति-अन्योक्ति आदिसँ अभिव्यक्त होइत आयल अछि ।

.... प्रकृतिकें मानवीकरण ओ मानवकें प्रकृतिवत् निरुपण दूहू चलैछ। तखन एतबा अवश्य जे मानवीय सौन्दर्यक प्रति मानवक आकर्षण स्वाभाविक। प्रकृतिओकें कखनो ओ प्रेयसी-रुपमे देखैछ-प्रियाक संग तारतम्यक परीक्षण-निरीक्षण करैछ । "प्रेयसी ओ प्रेयसी' कविताकें देखि सकैछी। मानवीकरणक विविधता प्रकृति शतकमे सेहो भेटत।

- ""जी, अपनेकें साओन-भादव" लिखबाक प्रेरणा कतऽसँ प्राप्त भेल रहैक ?''

- प्रेरणा की ...एकटा दुर्लभ प्रेरणा कहबाक चाही। एहने ॠतु, एहिना सन्धया समय, उमड़ल मेघ देखिकऽ  "भरल वयस' ओ "भरल आँखि' ई रुप-रुपक नयन मनमे उमड़ि आयल। एके क्षणमे जेना सम्पूर्ण "साओन-भादव'क भावभूमि हमरा समक्ष चमकि गेल रहय। ... पूरा करबामे तँ किछु समय लागल ... मुदा भाव बुझू जे एके बेर झलकि गेल रहय।""

- ""जी, एहन-एहन रचनाक प्रेरणा तँ एहिना प्राप्त होइत छैक। ... कहल जाय जे "गंगा-तरंगिणी'क रचना-काल अपने की अनुभव कयने रहिऐक ?'

- "अरे, अनुभव की होयत ! गंगाक प्रति श्रद्धा आ आस्था कविताक पाँती बनिकऽ उमड़ि आयल। प्रत्येक पाँतीक रचना करैत काल गंगाक भव्य स्वरुपक स्मरण होइत छल। कल-कल, छल-छल करैत गंगाक जल-तरंगक स्वर-ध्वनि ओ हुनक "धर्मस्तु द्रवरुपेण' महत्व-परत्वक रुपगुण दूहूसँ भावाभिभूत रहलहुँ। गंगाक स्तुतिक परम्परा कवि सम्प्रदायमे प्रथिते अछि। ... हँ, एक आर भावनातमक वैयक्तिक रहस्य अछि। तीनि जेठ बहिनिक, दुई सद्य:मृत ओ एक अद्यावधि जीवितक अनन्तर हमर जन्म भेल छल गंगातट-वासी प्रसिद्ध वैष्णव गंगादासजीक आशीर्वाद औ गंगाजीक कबुला-पाँतिसँ। हम अपन माय ओ मातामहीक संग "अपूर्णे पंचमे वर्षे' कबुलाक अनुसार पैदल चौमथघाट विद्यापति महादेवक दर्शन करऽ गेल छी। ओ स्मृति-संस्कार सेहो अनुवर्त्तमान अछि ।"

किछु कालधरि प्रसंग टूटल जकाँ रहलैक। ... गंगाक प्रसंग, पवित्रता औ रम्यताक प्रसंग गप्प होइत रहल। हम अवसर पाबि पुछैत छियनि - "की भारतीय संस्कृतिक एहन श्रद्धामय स्वरुप पर आघात करब औचित्यपूर्ण कहल जा सकैत अछि ? अपनेक की प्रतिक्रिया ?''

सुमनजी किछु काल धरि मौन भऽ जाइत छथि। पुन: सांकाक्ष होइत कहैत छथि -""गंगा हमरालोकनिक नदीमात्र नहि, सांस्कृतिक प्रतीक छथि। टेम्स बोल्गाक दृष्टिसँ देखने दृष्टिक अपूर्णते कहल जायत । ओना मानू तँ देवता नहि तँ पाथर कहबी प्रसिध्दे अछि । गो-गंगा भारतीय आर्यजातिक हेतु नदी-पशु, श्रद्धाक प्रतीक छथि। ओना, जनानने क: कर्मपर्यिष्यति ।''

एहि बीचमे एक टा बच्चा अबैत अछि आ पाछाँमे खाटपर जाकऽ बैसि रहैत अछि। ...

"भोगल यथार्थक की तात्पर्य ? एहि प्रसंग अपनेक की धारणा ?'

- "औ, ई भोगल यथार्थ ... भोगल यथार्थ की? जकरे हमरालोकनि  "अनुभव' कहैत छिऐक तकरे कने दोसर शब्दे कहि देलिऐक तँ भोगल यथार्थ। ... मुदा, सभ किछु लोक अपनहि अनुभव नहि कऽ लैत अछि। किछु अपनी करैत अछि, बहुत-किछु अपने करैत अछि .... मुदा सभटा नहि ने !  किछु दोसरोक माध्यमे अनुभव करैत अछि। फेर कवि भेल की ? किछु आगाँ देखलक, किछु सुनलक, किछु अनुमान दौड़ौलक, किछु आगाँ सोचलक, अरे तखन ने ...। हे, एकटा उदाहरण दैत छी। हमर एक कविता देखने होयब - ""यौवन-स्मृति'' ।

- ""जी, प्रतिपदामे छैक ।''

- हँ, सैह जे कहऽ लगलहुँ । ...

हम एकर रचना युवावस्थेमे कयने रहिऐक । ... मुदा ओकर पाँती एखन बुढ़ारिक भेगल वस्तु प्रतीत होइछ -

आइ हमर अमा तमीकें पूर्णिमाक पियास लागल

लुप्त मनमे सुप्त विभवक रस भरल अनुभूति जागल

 

तें कहलहुँ जे एतेक पसरल भाव-राशिकें, एतेक पसरल फूल-पातकें घटनाकें भावनाकें स्वयं क्यों अनुभव कऽ कऽ लिखत से साध्य नहि। कविकें तँ एकटा फराके दृष्टि होइत छैक ने ! असलमे अनुभव एकटा व्यापक शब्द छैक । एकर अन्तर्गत सभ किछु चल अबैत छैक। मुदा भोगल यथार्थमे से व्यापकता नहि छैक।''

हल्लुक-हल्लुक डेगें सांझ विदा भऽ रहल अछि। साहित्यिक वातावरण क्रमश: बढ़ैत-बढैत आब पूर्ण ज्वारिपर पहुँचि गेल अछि।

हम किछु आह्मलादित होइत पुछैत छियनि -""किछु गोटेक कहब छनि जे कमल, कोकिल आ भ्रमरकें आब साहित्यमे स्थान नहि भेटबाक चाहिऐक । एहि संबंधमे अपनेक की प्रतिक्रिया ?'' 

प्रश्न सुनिकऽ सुमनजी भभा-भभा कऽ हँसऽ लगलाह।

- "की कहलहुँ - कमल, कोकिल आ भ्रमरकें साहित्यमे स्थान नहि भेटबाक चाहिऐक? ... नहि भेटैक। नहि देबैक तँ नहि दियैक । जनिका एहिसँ आह्मलाद नहि भेटलनि अछि, ओ लोकनि एहि हेतु किएक बेहाल होयताह?  ओ, आबताब तँ कमलकें बेसी देखितो ने छिऐक। ... मुदा, कने कहू तँ कमल-सन रुपमय, सुरभिमय, रसमय कतेक फूल होइत अछि ? तें ने वाल्मीकि ओ कालिदास, विद्यापति आ तुलसीदासक पद-पदमे कमलक सुरभि रसल-बसल अछि। वस्तुत: एहन फूल बड़ बिरल, जलोमे रहय निष्पङ्को रहय-एहन फूलल कतेक अछि ? ... तखन साहित्यमे तँ नव-नव उपमानक विकास होयबेक चाही । एहूसँ नीक उपमान भेटैक तँ कोन हर्ज ?.....''

- ""हिन्दीक छायावाद जकाँ कोनो तेहन बाद मैथिलीमे मुखर नहि भऽ सकलैक, तकर की कारण?''

- ""नहि, मैथिलियोमे तँ वाद अयलैक ... अयलैक कोना नहि ? अहाँ कहलहुँ छायावाद से, सेहो तँ अयबे कयलैक। ... जयनारायण मन्निकजीक कवितामे, किछु ईशनाथ बाबूक तँ कतहु स्व० श्यामनन्द बाबूक रचनामे, किछु आनो प्रकृतिप्राण कवितामे। तेहेन वाद मैतिलीमे नहि उभरि सकलैक। तकर कारणो छैक। हमरालोकनिक संख्या बड़ थोड़ छल। ओहि समयमे कविक एतेक संख्या नहि छलैक । मुदा, हिन्दीक संग तँ समस्या नहि रहैक। तें एतेक वाद, तें एतेक धारा, तें एतेक रुप हिन्दी में देखैत छिऐक। यैह सभ .... .आर की .... ?''

- ""स्वातंत्र्य आंदोलन मे मैथिली कविताक की योगदान रहलैक अछि ?'' 

- ""देखू, जाहि दृष्टिएँ अहाँ पुछैत छी, जाहि दृष्टिएँ अहाँ विषय उठौलहुँ अछि से तँ नहि भेटत। कारण, ओहि समयमे मैतिलीक कविलोकनिकें एहि हेतु कोनो प्रोत्साहन नहि भेटलनि आ न सम्यक रुपसँ हुनक #ुपयोग कयल गेलनि। जँ प्रयोजन पड़ैत छलैक तँ हिन्दिएसँ काज चलि जाइत छलैक। तखन, स्वतंत्रता-आन्दोलनमे मैथिली कविताक स्वर मुखर नहि भेलैक से नहि. कोनो ने कोनो रुपें कतेको मैथिली कवितामें स्वतंत्रता आन्दोलनक समर्थनमे स्वर उभरिए कऽ रहलैक। भोलाबाबूक जे कविता छनि "युवक' से कोन भावनाक परिचायक थिक ? अरे, युवककें जगयबाक प्रयोजन की? प्रेरित करबाक उद्देश्य की? ... ई जे चेतना, ई जे प्रेरणा एहि तरहें देल गेलैक अछि, तकर की लक्ष्य रहल होयतैक? महावीर झा "वीर, विनीतजी, भुवनजी, किरणजी, ईशनाथ बाबू आदिक अनेक रचनामे ई स्वर मुखर अछि। ... यदि एहि तरहें तकबैक, विश्लेषण करबैक तखन सभ किछु भेटत, मैथिली कवितामे सभ तरहक स्वर मुखर भेल अछि ।''

- ""किछु गोटेक कहब छनि जे मैथिली कवितामे नवीनता भुवने जी अनलनि एहि प्रसंग अपनेक की मान्यता ?''

- ""कोन तरहक नवीनता ? .... किछु नवीनता भुवनजीक कवितामे अवश्य देखना जाइछ .... मुदा, तें ई कहब जे सभ तरहक नवीनता वैह अनलनि, से हमरा जनैत सम्पूर्ण तथ्य नहि। किरणजी, श्यामानन्द बाबू, मल्लिक जी, तंत्रनाथ बाबू एवं अनेको प्रतिभावानकें सेहो एकर श्रेय छनि। ... असलमे ... सुमनजी विहुँसैत बजलाह - कोन कवि प्राजिनता लऽ कऽ अबैत अछि? सभक तँ यैह इच्छा रहैत छैक जे किछु नवीन दृष्टि उपस्थित करिऐक। विचारलासँ स्वयं स्थिति स्पष्ट भऽ जायत ।''

ओसाराक काते-काते रोपल गेनाक गाछ अपन शेशवक सपनामे झूमि रहल अछि । ....

सुमनजी प्रश्नक उत्तर दैत-दैत भुवनजीकक प्रसंग संस्मरण सुनबऽ लगलाह । कहलनि जे हमरालोकनिक बीच तेहन ने हार्दिक संबंध छल जे ... एक बेर संयोगसँ मिथिला मिहिरमे एकटा कार्टून छपलैक । एहि कार्टूनक कारणें, भुवनजीक हमरालोकनि पर मानहानिक मोकदमा कऽ देलनि । मोकदमाक सुनबाई मुजफ्फरपुरमे होइत छलैक। से, मोकदमा की भेलैक, हमरालोकनिकमे स्नेह-संबंध आरो बढिते गेल । हम जे तारीखपर जाइ तँ बुझू जे एक तरहें हमर डेरा भुवनेजीक ओहिठाम रहैत छल । हमरोलिकनिमे तँ एहने मीठ-मधुर संबंध रहल। .. हम रही दरभंगा राजक कर्मचारी .. ओहो राज-दरभंगाक विद्रोहक समय हमरे ओतऽ टिकथि ।

- ""मैथिलीमे जे लिखबाक शैली छैक, तकर प्रसंग अपनेक की विचार ?''

- "शैलीक प्रसंग हम मध्यमार्गीय छी। खासकऽ छन्दमे विविध स्वरशैलीक ग्रहण अनिवार्य होइछ ।'

- ""मुदा एहि सन्दर्भमे जे अनेकरुपता देखल जाइत छैक, की ताहिमे सामंजस्य नहि आनल जा सकैत अछि ?''

- ""एहि प्रश्नपर सुमनजी किछु काल धरि मौन भऽ गेलाह । पुन: साकांक्ष होइत कहलनि - 'ठीके पुछलहुँ अहाँ ... यैह तँ हम एखमनो पड़ल-पड़ल सोचि रहल छलहुँ। मैथिली लिखबाक शैली जँ एही तरहें अनेक रुपक रहि गेलैक तँ भविष्यमे आन भाषा-भाषीकें मैथिली सिखबा-बुझबामे बड बेसी कठिनताक अनुभव होयतनि । संगहि छात्र-समुदायकें दृष्टिमे रखैत ई कहल जा सकैत अछि जे ई स्थिति दयनीय अछि । ओना, हिन्दी-बंगला सभमे सेहो तँ लिपि-वर्त्तनीमे भेद देखबैक। भेद मेटयबाक एक मध्यम मार्गअछि जे मैथिली ए-ऐ क बीच ओ-औ क बीच एक स्वर संकेत स्थिर कऽ तदनुसार टाइप ढराओल जाय ।''

- ""कहल जाय किर्त्तनिया नाँच थिकैक कि नाटक ?''

- "देखू, नट अवस्यन्धते धातुसँ नाटक आ नृती गात्रदिक्षेप सँ नृत्य नाच बनैछ । दूहूमे भेद स्पष्ट छैक, किन्तु किर्त्तनियाँ दूहूक समन्वित रुप थिक । किर्तनियाँमे कथोपकथन नाटकीय रहिते छैक, हँ, तखन एहिमे गीतक संख्या अधिक ओ गीत नृत्याश्रित अर्थात् भाव क्रियाश्रित। तें कतेक प्राचीन पुस्तकमे नाच क्रिया अभिनयो ले भटैछ । ... हमरासभकें तँ देखलो अछि। जेना पारिजात हरण नाटक छैक। ओकर कोनो रोचक अंककें उठौलक, कने नाच-गानक संग अभिनय कयलक, दर्शक समुदाय कें आह्मलादित प्रमुदित करैत रहल। एहि प्रकारकक प्रयोग थिक किर्त्तनियाँ नाँच ! मुदा, नाटकक हेतु जे व्यापकता चाही, जे पूर्णता चाही, से नहि रहैत छलैक । ई सभ लाक्षणिक, एखन एतबा रहओ ।'

एही बीच मे एक गोटे अयलाह आ खाटपर अबिकऽ बैसि रहलाल । किछु काल धरि मुमनजीक संग गप्प करैत रहलाह आ उठिकऽ जखन जाय लगलाह तँ सुमनजी सेहो उठिकऽ अरिआइत अयलथिन ।

हमरालोकनिमे विचार होइत अछि जे सुमनजीसँ समकालीन साहित्यपर किछु पुछियनि । किछु साकांक्ष होइत पुछैत छियनि - ""जी, कहल जाय, अपनेक दृष्टिमे अपनेक समकालीन कविलोकनिमे सर्वश्रेष्ठ कवि के छथि ?''

- ""औ हम सर्वश्रेष्ठ प्रसंग तँ नहि कहब ... हँ तखन एतबा अवश्य कहब जे जखन जनिकर रचना पढ़लहुं, नीक रहलनि तँ प्रभावित हो#ति छी, आह्मलादित होइत छी। रचनाकारसँ बेसी रचनापर दृष्टि रहैछ । असलमे समसामयिक कविमे  तारतम्यक निरुपण बड़ कठिन । #ुचितो नहि। .... समसामयिक साहित्यिकमे स्व० अच्युतानन्ददत्त, परमानन्ददत्त, भुवनजी, स्व० पं० श्यामानन्दझा, ईशनाथझा, पुलकित लालदास 'मधुर", धनुषधारी दास, कालीकुमार दास, रामनिरेषण मिश्र, राजेश्वर ठाकुर, श्री बल्लभ झा, कविवर सीताराम झा, दामोदर लालदास एवं कंटकजीक रचना-साधना ओ सहयोग अविस्मरिणीय । जीवंत समसामयिकमे बाबू लक्ष्मीपति सिंह, न्यायाचार्य आनन्द झा, मधुपजी, यात्रीजी, किरणजी, हरिमोहन बाबू, तंत्रनाथ बाबू, जीवनाथ बाबू, मोहल जी, प्रमोदजी, व्यास जी, कलेशजी, बहेड़जी, अणुजी एवं अनुसामयिकमे रमाकर जी, प्रभाकर जी, शेखर जी, गोविन्दजी, श्रीमन्त पाठक, अमरजी, राघवाचार्य, विषपायी, जीबू बाबू एवं विन्देश्वरजी आदिक कविता वस्तुत: हृदयकँ आह्मलादित करैत आयल अछि । एहि प्रसंग ..... आर की कहब ?'

- "तथापि'

- "से की'

-'जेना अपनेक समकालीन कवि लोकनिमे बहुत कवि छथि। हुनकालोकनिमे की वैशिष्ट्य छनि? किनकर रचना अपनेकें अधिक लीक लगैत अछि?'

-'पहिने कहलहुँ जे एहि प्रसंग अधिक की कहब? .....अच्छा, जेना के, कोन कवि?

-जेना किरणजी .....

-'मैथिलीक दिग्गज पक्षधर, प्रखर प्रतिभा, अखण्ड कर्मठता ओ तीख-चीख विचारसँ विपक्षकें तिलमिला देनिहार व्यक्तित्व छनि। कविता, कथा, एकांकी विविध दिशामे हुनक प्रतिभाक प्रसार अछि। आन्दोलनकारी तँ छथिहे। आर की जिज्ञास्य अछि?'

-'आ, तंत्रनाथ बाबू?'

-'ओ अत्यन्त कुशाग्रबुद्धिक प्रतिभाधर छथि। अमित्राक्षरक सफल प्रयोग कीचक वधमे कए काव्यकें नव मोड़ देलनि। व्यंग्य रचनामे ओ निपुण छथि, हास्य हुनक रचनामे वंकिमा लेने, 'सेटायर 'क तँ ओ प्रसिद्ध-प्रस्तोता छथिहे। एम्हर जाहि योगें ओ काव्य-रचनामे लागल छथि से हुनक कवि-हृदयक द्योतक थिक।'

-'जी, मधुपजीक प्रसंग'.....

-'औ, हमरा तँ जे किछु कहबाक छल, से तँ हम कतेक ठाम कहने छिऐक। ओकरे देखि लेबैक, कहबाक कोन प्रयोजन?'

-'जी, से देखने छिऐक, मुदा..... एहि प्रश्न पर सुमनजी विहुँसय लगलाह। पुन: किछु साकांक्ष होइत कहलनि- 'मधुपजीक प्रसंग कहले की जाय? हुनक जीवने कवितामय भय गेल छनि। पद-पदमे सरसता, गेयधार्मिता रहैत छनि। बूझि पड़ै-ए जेना मधुपजीक शब्द-शब्दमे यमक स्वत: उपजि जाइत होइनि!'    

-'मुदा किछु गोटेक विचार छनि जे मधुपजीक कवितामे यमकक अधिक प्रयोग दुरुहता आनि दैत छनि। अपनेक की विचार?'

-'आब, देखू एकर कोनो उत्तर छैक? अयँ औ, कविता पढ़बैक मधुपजीक, रससिद्ध कविक, आ चाहबै जे 'अखबार 'क भाषा हो, से संभव होयतैक? तखन 'अखबारे' पढ़ू, रोचक कथा-वार्त्ता पढ़ू। 'मधुप'जीक कविताक आस्वादनक हेतु तँ एकटा हृदय चाही।'

-मधुपजीक कोनो पुस्तककें देखि कऽ अपनेकें ऊ कहियो सेहन्ता भेलैक जे एहिपर अपनेक हस्ताक्षर रहैत?'

-'सेहन्ता की होयत?..... अयँ औ, अहाँ मधुपजीक कोन पुस्तककें देखलियनिअछि- झांकार, शतदल सँ राधाविरह धरि, मुक्तकसँ महाकाव्य धरि- जाहिपर हमर हस्ताक्षर नहि हो! मधुपोजीक ई रहैत छनि जे हुनक पुस्तकपर हम लिखियनि आ हमरो रहैत अछि जे हुनक पुस्तकपर हमरो किछु रहय।.....

-'आ, यात्रीजी लोकनिक प्रसंग अपनेक कोहन धारण अछि?'

-"यात्रीजी अद्भुत प्रतिभाक नवधर्मा कवि छथि। मिथिलाक माटि-पानिक सुरभि आ गाम-धरक आह्मलाद हुनक कवितामे ओत-पेरोत रहैत छनि।..... भाव अभिनव, अभिव्यक्तिक मार्मिकता ओ भाषाक छटा देखिते बनय।..... ई कोनो जरुरी नहि जे हुनक विषय-वस्तुसँ सभठाम सहमते रही।..... हे, उपेन्द्र ठाकुर, 'मोहन 'क कविता पढ़लहुँ अछि?..... स्निग्ध कवि छथि। कोमल-कोमल भावक सहज विन्यास जे हुनक कवितामे रहैत छनि से वस्तुत: हमरा आकर्षित कऽ लैत अछि।..... मर्मस्पर्शी अनुभूति-वेदना, संवेदनासँ ओत-प्रोत। हम हुनकासँ बड़ बेसी प्रभावित छी। तहिना, रमाकरजी आ जीवनाथ बाबू, अमरजी, गोविन्दजी आ आरसीबाबूक कोमल सरस पद-रचनासँ आह्मलादित होइत रहलहुँ अछि।..... भोलाबाबू जतबे लिखने छथि, बड़ थोड़ लिखने छथि, मुदा, से बड़ ओजस्वा ओ प्रेरक।....."

साँझक बसातमे सुमनजीक निश्चल सरल स्वरुप झलकि उठैत छनि। किछु सोतैत छथि, मोने-मोन ठेकनबैत छथि आ कहि उठैत छथि-..... मणिपद्मजी चतुरस्र प्रतिभाक भावुक कवि छथि।..... खूब लिखलनि, खूब कहलनि अछि। लोक साहित्यक खोजी श्री वर्माजी विलक्षण प्रतिभाक कवि छथि। राजकमलजीक कविता विशेष आकर्षक, अणुजीक नक्षत्र एवं किसुनजीक आत्मनेपद, स्व. बन्धुजीक 'चाणक्य', व्यासजीक 'पतन', अमरजीक 'आशादिशा', लक्ष्मण झाक 'उत्सर्ग' आ अमरेन्द्रजीक 'एकलव्य' हमरा नीक लागल छल। राधाकृषण 'बहेड़', प्रभाकरजी, 'श्रीश'जी, रामदेव बाबू, मार्कण्जेय प्रवासी एवं प्रवासी साहित्यालंकार आदिक कोमल पद-रचनासँ सेहो आह्मलादित होइत रहलहुँ अछि।..... कतेक नाम लिय-कविनवतिका मन पाड़ि दैत छी -

                      नवतिका कवि देवताकेर

                      नवनवा थिक नमस्या

                      किन्तु शत-शत देवता प्रति

                      थोड़ अक्षत समस्या

प्रसंग बदलैत-बदलैत हास्य-व्यंग्यपर आबिकऽ रुकि गेलैक तँ एकटा प्रश्न स्वत: उपजि

गेलैक- 'जी, अमरजीक प्रसंग अपनेक केहेन धारणा अछि?'

-'पहिने ई कहू जे जँ कोनो कविसम्मेलनमे अमरजी नहि उपस्थित रहथि तँ ओ जमतैक?'

-'जी जमतैक।..... वर्फ जकाँ जमि जयतैक।' अमरनाथ किंचित विहुँसैत बजलाह।..... वातावरण मे एकटा निश्छल हँसी गूँजि उठलैक।

-'हँ तँ बेस कहलहुँ।'-सुमनजी हँसैत बजलाह- 'एहीसँ अमरजीक प्रतिभा ओ साधनाक महत्वकें बूझल जा सकैत अछि। हास्ये नहि, आनो रसमे, साहित्यमे आनो विधामे, हुनक प्रतिभा विलक्षण अछि।

-'नवीन पीढ़ीक कवि लोकनिमे अपने कोन-कोन कविसँ अधिक आशान्वित छी?

-'कोन-कोन कवि?..... अहीं नाम गनाउ।'

-'..........'

-'अरे, अहीं सभ कहू ने!'  

-'जी अपने कहतिऐक तँ नीक रहितैक।'

-'नवीन पीढीक कविलोकनिमे हम..... सर्वश्री हंसराज, सोमदेव, कीर्तिनारायण मिश्र, वीरेन्द्र मल्लिक, मार्कण्डेय प्रवासी, नचिकेता, कुलानन्द, विदित, प्रदीप, मिहिरजी, गुंजन, विनोद, विरंचि, मंत्रेश्वरजी, सुकान्त, मोहन भरद्वाज, धूमकेतु, शिवाकान्त, इन्दु, पूर्णेन्दु एवं भीमनाथजीसँ अधिक प्रभावित छी। .....आरो, अनेक नवीन पीढ़ीक कविलोकने छथि, हुनक क्षमता ओ प्रतिभापर हमरा नीक आस्था अछइ। अहाँ दूहू भाइक नाम एखन कोना लिय?" कहि हँसि पड़ैत छथि।

-'नवीन कविताक प्रसंग अपनेक की मान्यता अछि?

सुमनजी किछु विहुँसैत बजलाह-'बड़ नीक धारणा अछि। एहिसँ बड़ बेसी आशान्वित छी। औ साहित्यक विकास तँ एहिना ने होइत छैक। .....पहिने कतेक गद्य पद्य जकाँ प्रतीत होइत छलैक आ 'पद्यागंधी गद्य' कहबैत छलैक। आब से बदलि गेलैक अछि। आब पद्य होइत छैक गद्य जकाँ, 'गद्यगंधी पद्य'- तँ एहिमे अनर्थे की?..... परिवर्तन तँ होयबेक चाही। दिशा-दृष्टि

धरि स्वस्थ रहबाक चाही।"

गप्पक धारा बदलैत-बदलैत कथा साहित्यपर आबिकऽ रुकि जाइत छैक। किछु काल धरि हमरालोकनिमे कथाक प्रसंग गप्प चलैत रहैत अछि। गप्प सुनिकऽ सुमनजी कहैत जाइ छथि- "कथा वर्त्तमान युगक अत्यन्त प्रभावी साहित्यविधा थिक। ज्ञान-विज्ञान, इतिहास-पुराण, धार्मिक-नैतिक, वैयक्तिक-सामाजिक, मनोविज्ञान-नृतत्व, भूगोल-खगोल मभ विधाक ज्ञान लोक कथा माध्यमे बुझ चाहैछ। पहिने नीति-व्यवहारक शिक्षण उद्देश्य छलैक। .....हमरा जनैत कथातत्व आधुन्क साहित्यक जेना श्वासोच्छ्वास बनि गेल हो!'

-'एतबे नहि, ओकर दिनानुदिन विषय विस्तार भेल गेल छैक। मैथिलियोक कथाकार आब प्रेम-विवाह, वर्गीय परिधि विषयसँ शोषक-शोषित आदि स्थूल चित्रणसँ सूक्ष्म विश्लेषण दिस बढि रहल छथि। कथा-साहित्य दिस जेना लेखकक प्रवृत्ति बढ़ल अछि, ताहिसँ स्पष्ट बूझि पड़ैछ जे जेना कविता-क्षेत्र मे आधुनिक भाषामे मैथिली सगर्व स्थित अछि तहिना कथा साहित्योमे ओ स्था ग्रहण करत। की अहूँसभ एहिसँ सहमत छी ने?.....

- ""एहिमे असहमतिक तँ कोनो प्रश्ने नहि छैक ! वास्तवमे मैथिली कथा-साहित्य बड़ बेसी प्रगति कयलक अछि । जी, कहल जाय, मैथिलीक कथाकार लोकनिमे अपनेक दृष्टिमे सर्वश्रेष्ठ के छथि ?'

- "देखू, पहिने कहलहुं, हमरासँ एकर उत्तर असंभव । .... अरे, सर्वश्रेष्ठ कहबाक कोन प्रयोजन? जे नीक लागल से नीक लागल । कोनो कथा उठौलहुँ, चारि पाँती पढ़लहुँ, आकर्षित कयलक तँ पूरा पढ़लहुँ, बोझिल पड़ल तँ छोड़ि देलिऐ ।' 

- "तथापि जेना हरिमोहन बाबू .....'

- "हरिमोहन बाबूक नाम सूनिकऽ पहिने सुमनजी विहुँसऽ लगलाह - ' हुनक हास्य-व्यंग्यक लहिर तँ अद्भुत होइत अछि ... तखन अहाँ से पूछल धारणा, से पहिने इ कहू जे कोनो व्यक्तिक मूल्यांकन कोना कयल जयबाक चाही ? .... हमरा जनैत मूल्यांकन करबाक सोझ रास्ता छैक जे ई सोचि ली जे ओ जँ नहि रहितथि तं तखन की होइत ? से कने विचारिकऽ देखि लियऽ तँ .... आइ जँ हरिमोहन बाबू नहि रहितथि, हुनक रचना नहि रहिति तँ मैथिली#ेक की स्थिति होइतैक ? घर-घर, गाम-गाममे एतबे किएक, आनो भाषा-भाषी क्षेत्रमे जे आइ मैथिली पसरल अछि, तकर बहुत-किछु श्रेय हमरा जनैत हरिमोहन बाबूकें छनि । .... स्वदेश (मासिक) क कोनो अंक हम बिनु हुनक रचने नहि छपने छी ।''

किछु कालधरि हमरालोकनिमे हरिमोहन बाबूक कता-कविता आ हुनक अद्भुत व्यक्तित्व प्रसंग गप्प चलैत रहैत अछि। अवसर पाबि मिहिर जी किछु विहुँसैत पुछैत छथिन - 'कहल जाय, अपने जखन' मिहिर'क सम्पादन करैत रहिऐक तँ कोन-कोन रचनाकारक रचनाकें पाबिकऽ अधिकउल्लसित होइऐक ?'

- ".... कोन-कोन रचनाकार ?'

... किछु विसरल बातकें मोन पाड़ैत समुनजी साकांक्ष होइत बजलाह - ' हरिमोहन बाबू आ कविवर सीताराम झाक रचना जखन कार्यालयमे आबय तँ अवश्ये अधिक आह्मलादित होइ। मोनमे यैह होइत छल जे ई अंक नीक जायत।....... पाठकक अनुकूल रचना दऽ सकबैक। असलमे हरिमोहन बाबू ओ कविजीक रचना ओहि समयमे धूम मचौने छल। लोक उत्सुकताक संग हिकालोकनिक रचना पढ़ैत धल।.....' 

गप्पक क्रम किछु काल धरि पताइत-भसिआ#ति जकां रहलैक। हम पुन: गप्पक सूत्रकें पकड़ैत पुछैत छियनि - ' हरिमोहन बाबूक अतिरिक्त आन कोन-कोन कथाकारसँ  अपने प्रभावित छिऐक?'

- 'हरिमोहन बाबूक अतरिक्त हम व्यासजी, योगानन्द बाबू, उमानाथ बाबू, मनमोहन जी, शैलेन्द्र बाबूक कथासँ प्रभावित रहैत छी। वर्माजी, शेखरजी, राधाकृष्ण बहेड़, ललित आ मायानन्दक कथा हमरा नीक लगैछ ।....... पं. श्री शंकर मिश्र, बाबू नन्द किशोर लालदास, डा०   परमेश्वर मिश्र प्रभृति सेहो कथाकार छथि जनिक कथासँ हम प्रभावित भेल छी। बहेड़ा, सहरसा, सुपौल, कलकत्ताक साहित्य-मंडलक अनेक नक्षत्र एहि क्षेत्रमे चमकैत छथि। मुदा, एखन सभक नामक स्मरण नहि भऽ रहल अछि। .....' 

-' आ, नवीन कथाकारलोकनिक प्रसंग?' 

-' हुनकोलोकनिक प्रसंग यैह बात। जनिक रचना आकर्षित कयलक, जनिक रचनासँ आह्मलदित भैलहुँ, से रचना नीक लागल।.....तखन हंसराज, प्रभास, गुंजन सोमदेव, धूमकेतु, राजमोहल जी, छत्रनन्द, साकेतानन्द, श्यामानन्द ठाकुर, सुभाषचन्द्र यादव, रामदेव बाबू, शशिकान्त ..... आ .....हँ, जीवकान्तोजीक कतोक कथाक ' टेकनीक'  रोचक लगैछ। .....आरो ......आरो कथाकारक रचनासँ आह्मलादित भेल छी। मैथिलीमे कथा-सीहित्य प्रगति करत से विश्वास अछि।' 

-' राजकमल जीक प्रसंग अपनेक केहन धारणा अछि ?'  

-'  राजकमलजीक प्रतिभा अद्भुत ......हुनक कवितायात्रा '  स्वरगंधा'   सँ शुरु भेल छल जकरा ओ '  प्रतिपदा'  एवं '  चित्रा'  कें अर्पित कयने छलाह। हम तहियेसँ दूरहुँ रहि हुनक गतिशीलता देखैत अयलहुँ, तृप्त होइत रहलहुं। हुनका परम्परावादसँ फारक लोक भलँ कहो किन्तु देशक माटि-पानिक सुरभि-संस्कार हुनक रचनामे गमकैत भेटत। जीवनक अन्तिम पटाक्षेपक समय उग्रताराक प्रति भक्ति ओ तांत्रिक साधनाक प्रति आकर्षण, हुनक हताश मनोवृत्तिक नहि, अन्त:संस्कारक प्रवृत्तिक साक्ष्य अछि। अल्पजीवनोमे ओ साहित्य-जीवनमे चिरायु भेल छथि।' 

 

साँझ आब नहि रहत। .....चारुकात भक-भक करैत बिजलीक बल्बसभ बरि गेलैक अछि। .....मैथिलीक पत्र-पत्रिकाक प्रसंग गप्प उठि जाइत छैक। जखन प्राचीन 'मिथिला मिहिर' ओ 'मिथिलांक'क चर्चा चलऽ लगलैक तँ सुमनजी मुखर भऽ जाइत छथि। कहऽ लगैत छथि जे- 'मिथिला मिहिर'क अपन परंपरा रहलैक। मिथिलेश संरक्षित रहने ओकर विशिष्टता-शिष्टता रहलैक, तहिना सामान्य जनभावनासँ किछउ असम्पृक्तता सेहो रहलैक। ............हम ओही समय १९३५ मे अयलहुँ। नव छलहुँ, नवे सम्पर्क जोड़लहुँ। .....परंच, ई स्मरण कऽ गर्वबोध होइछ जे अचिरे म०म० गंगानाथ झा, म०म० बक्सीजी, म०म० बालकृष्ण मिश्र जी, प्रो० अमरनाथ झाजी, म०म० डॉ० उमेश मिश्रजी, मुन्शी रघुनन्दन दास, कविवर सीताराम झा, जनसीदन जी, गुरुवर कविशेखर जी, पं० त्रिलोचन झा, ज्यो० बलदेव मिश्र, राजपंडित बलदेव मिश्र, पं० कुशेश्वर कुमर, भोलालाल दास जी, पं० शशिनाथ चौधरी प्रभृतिक सहयोग शुभाशंसा बरोबरि प्राप्त होबय लागल। तथा समसामयिक साहित्यक बन्धु स्व० अच्युतानन्द दत्त, परमानन्द दत्त, पं० ईश्नाथ झा, रमानाथ बाबू, धनुषधारी लाल दास, कालीकुमार दास आदि दिवंगत बन्धुक एवं जीवंत सुहृद्वर्गमे सर्वश्री किरणजी, नरेन्द्र बाबू, मधुपजी, मोहनजी, व्यासजी, जयदेव बाबू, योगानन्द बाबू लोकनिक अशेष सहयोगसँ कृतार्थ होइत रहलहुँ।''

-'ओहि समयमे लेख आदि प्राप्त करबामे पारिश्रमिकक व्यवस्थो छलैक?'- मिहिर जी जिज्ञासा करैत छथि।

सुमनजी हँसैत कहैत छथि-'ओहि समयमे तकर कोन चर्चा? साहित्यिक लोकनि विशुद्ध सेवा-भावनासँ लिखैत छलाह ओ सम्पादक अपन प्रेमसम्पर्क सँ प्राप्त करैत छलाह। हम तँ मैथिली लेखकसँ सहजें, हिन्दियोक महारथीसँ ओहिना अमूल्य लेख प्राप्त करैत रहलहुँ। हरिऔधजी, मैथिलीशरण गुप्त, राहुल सांकृत्यायन, शिवपूजन सहायजी, महारथीजी, दिनकरजी, केसरीजी, आरसीजी, जयकिशोर जी आदिसँ रचना सहजें प्राप्त कऽ ली। हँ, प्रेमचन्दजी सँ प्राप्त नहि भऽ सकल। ओ अपन एक पत्रमे स्पष्ट लिखलनि जे 'श्रद्धापुष्पाक्षतसँ देवते प्रसन्न होइत छथि। हम तँ कलमक मजदूर थिकहुँ। मजदूरी भटले पर लेख बी.पी. सँ कही तँ पठा सकैत छी। ओहि समय पारिश्रमिक देबाक व्यवस्था नहि रहने वंचित रहलहुँ। ओहि समय साहित्य-सेवा अर्थक माध्यम नहि बनि सकल छल। एकर चर्चा हम 'प्रेमचन्द जी सँ भेंट' शीर्षक 'गंगा' मे प्रकाशित लेखमे कयने छी।"

-'दैनिक स्वदेशक प्रकाशनक की उद्देश्य छलैक? की प्रयोजन?'

-'एक शब्दमे यैह बुझि लियऽ जे बिना दैनिक पत्रक प्रकाशने मैथिली जनभाषा नहि भऽ सकैत अछि। एतबे किएक, एकर भाषात्व पर्यन्त सिद्ध करब कठिन भऽ जायत। जँ जन-जन मे मैथिलीकें घुला-मिला देबाक अछि, मैथिलीकँ अष्टम् अनुसूचिमे स्थान देअयबाक अछि, मिथिलांचलक समस्याकें देशक समक्ष प्रस्तुत करबाक अछि तँ ई मानऽ पड़त जे बिना दैनिक पत्रे हमरालोकनिक शब्द आहत अछइ, वाणी मौन अछि आ कोनो प्रकारक अधिकारकें प्राप्त करब असंभव। ........यैह सभ किछु कारण छलैक जे हम दैनिक पत्र 'मिनीडेली बुलेटिन' बुझू, प्रकाशित कयने रही। संगहि हमरा ईहो देखा देबाक छल जे जँ प्रयास कयल जाय तँ अल्पेराशिमे ई संभव भऽ सकैत अछि।'

-'एहि कार्यमे अपनेकँ समाज सँ सहयोग भेटल रहैक?'

-'औ, एहि प्रसंग हमर धारणे भिन्न अछि। क्यो ककरो सहयोग दैत नहि छैक प्रत्युत सहयोग लेल जाइत छैक। यदि क्यो हमरा सहयोग नहि करैत अछि तँ ई हमर कमजोरी थिक, ई हमर त्रुटि थिक। हमरा तँ एहि कार्यमे सभ तरहें सहयोग भेटल। .....मुदा, कयले की जाय, एकटा प्रश्न-चिन्ह बनिकऽ 'स्वदेश' रहि मेल, समस्याक बीच सरि गेल।'

-'सम्प्रति मैथिलीमे दैनिक पत्रक की संभावन छैक?'

-'जखन सभ क्यो दिन-राति एहि प्रसंग सोचि रहल छी तँ निस्संदेह हमरालोकनिक ई

इच्छा वास्तविक रुप ग्रहण करब करत। देखियौक की की होइत छैक। भविष्ये एकर उत्तर देत।'

-'मैथिलीक विकासमे अवरोधक स्थिति के उतपन्न करैत अछि?'

-'पाठकक समस्ये तँ मैथइलीमे सभसँ पैघ अवरोधक स्थिति उत्पन्न करैत अछि। यावत धरि एहि समस्याक समाधान नहि होयतैक, तावत धरि हमरा लोकनिक प्रत्येक पक्ष अपूर्ण रहत। .....ई तँ धन्य थिकाह हरिमोहन बाबू आ सीताराम झा जे आइ मैथिलीमे किछुओ पाठक बनि सकल।'

-'जी एहि सन्दर्भ मे कविसम्मेलनक भूमिकाक प्रसंग अपनेक केहेन धारण अछि?'

-"बड़ बढियाँ धारणा अछि। पाठक श्रोतक तँ निर्माण होइत छैक। मैथिलीक प्रचार-प्रसारमे, साहित्यिक रुचि जगयबामे, नव-नव प्रतिभाकें आगाँ अनबामे कवि सम्मेलन मैथिलीक हेतु वरदान सिद्ध भेल अछि।"

-"एहि प्रसंग रवीन्द्र जीक गीत-कविताक स्थान केहन रहल अछि?"

-बड़ नीक रहल। .....मुदा ओना रवीन्द्र जीकँ हँसैत-हँसबैत देखैत छियनि तँ ई नहि जे हुनकामे कवित्व प्रतिभाक कमी छनि। कतहु-कतहु तँ तेहन मार्मिक भावना, किछु तेहन कल्पना सुनब जे चकित रहि जायब।'

-'अपनेकें दिनकरजीक संग केहन संबंध छल?'

-'मुजफ्फरपुरमे बैशालीमे दिनकरजीक रचना छपलनि। मोन मुग्ध भऽ उठल। श्री शिवजी, दिनकरजी, केसरीजी, नेपालीजी, बेनीपुरुजी, मनोरंजनजी, उग्रजी, कलाकार महारथीजी, जयनाथ मिश्रजी, हवलदार जी, राधाकृष्णजी आदि-आदि कवि-साहित्यिकसँ घनिष्ठ संपर्क बढ़ल। 'मिथिलांक' मे प्रकाशकन बाद किछु वैयक्तिक स्नेह-संबंध स्थानीय ओ बाहरक साहित्यिकसँ बढि गेल छल। ओ सभ विस्तृत कथा अछि।"

-'रमानाथ बाबूक निधनसँ अपने किछु रिक्तताक अनुभव करैत छिऐक?'

-'रमानाथ बाबूक प्रसंग कहले की जाय? .....ओ तँ मैथिलीक महासाधक छलाह। भाषा शैलीक हुनक आग्रह निष्ठा बनि गेल। शैली लऽ कऽ मध्यमार्गी हमरालोकनसँ मतभेद होइतो छलनि परंच साहित्यसेवा क्षेत्रमे बड़ आत्मीयता।

.....कविक कवि कहनिहार वैह छलाह। अपन श्रृंगार तिलक हम हुनके समपंण कयने छियनि। समपंणक पाँती देखऔक ने-

तदपि सुमन अर्पित सुचित

ग्रहण करथु रुचिमान।

साहित्यक कुसुमाकरे

'रमानाथ' मतिमान।।

घड़ी देखब हम छोड़ि दैत छी। .....समय बीतल जा रहल छैक द्रुतवैगसँ .....मुदा हमरालोकनिकें बुझा पड़ै-ए जेना समय नहि बितलैए।

-'अपनेक जीवनमे कतेको मोड़ अयलैक अछि। कोन मोड़ अधिक आह्मलादक भेल अछि?'

-'सभ मोड़ हमरा हेतु आनन्दप्रद भेल अछि। जखन जाहि स्थितिमे रहलहुँ, जखन जाहि परिवेशमे रहलहुँ तखन ओहीमे रमैत रहलहुँ। जखन बच्चाक संग रहलहुँ तखन बच्चे जकाँ हँसैत-खेलाइत हमरा नीक लगैत अछि। युवक संग रहलहुँ तँ तखन युवके भऽ जाइत छी। आ वृद्ध .....तँ बृध्दे-सन। पयस्विनीक एकटा कविता अहाँसभ पढ़लहुँ अछि?'

-'जी, 'पहाड़क तीन रुप'!

-'तँ-हँ सैह .....तँ बुझिते छिऐक सभ स्थिति, सभ रुप हमरा हेतु समाने अछि! सभमे आनन्द, सभमे खुशी!'

-'राजनीति या साहित्य दूनू संग-संग चलि सकैत अछि?'

-'किएक नहि? खूब नीक जकाँ चलि सकैत छैक। .....राजनीतिमे तँ लोककें व्यापक क्षेत्र भेटैत छैक, जीवनक व्यापक अनुभव प्राप्त होइत छैक। आ, यैह अनुभव तँ साहित्य-सर्जनक हेतु चाही। .....हँ, तखन राजनीतिकें लोक बदनासकऽ देने छैक। नहि तँ रानीतिमें लोक किएक जाइत अछि? एहि हेतु ने जे देश समाजक किछु सेवा कऽ सकी। हम तँ कहब अपन अनुभवक आधार पर कहब जे राजनीति अपन शुद्ध रुपमे बड़ बेसी कल्याण-प्रद। .....तखन एतबा अवश्य जे किछउ गोटे राजनीतिक अर्थ किछु आने लगबैछ। तँ ताहि ले, की करबैक? मेघ-मण्डित दिनकें दुर्दिन कहबाक अभ्यास तँ लोककें छेके।'

-'अपनेक साहित्यिक जीवनमे राजनीतिसँ किछु व्यवधान उपस्थित भेल अछि की नहि?'

 

-'नहि, किन्नहु नहि .....प्रत्युत् एहिसँ हमरा प्रेरणे भेटल अछि। हम तँ अधिक रचना एम्हरे कयलहुँ अछि। तें हमरा साहित्यिक जीवनमे एहिसँ कोने प्रकारक व्यवधान नहि उपस्थित भेल अछि।'

-'जी, अपनेक तँ व्यक्तित्वे ततेक विशाल अछि जे बहुत रास प्रश्न पुछऽ पड़ि रहल अछि। किछु प्रश्न आर छैक .....जँ आज्ञा होइक.....'

-'हँ-हँ .....जखन एतेक पुछबे कयलहुँ तँ आब सभटा पूरा कैए लियऽ। '-ई कहिकऽ सुमनजी भभा-भभा कऽ हँसऽ लगलाह। तरंग आ तुफानमे जीबैत ई व्यक्तित्व एहिना हँसि सकैत अछि। हम अनुभव करैत छी, सामान्य लोकसँ बहुत किछु भिन्न सुमनजी छथि।

-'मिथिला-मिहिरक हेतु अपनेक की संदेश अछि?'

-'औ, 'मिहिर'क संग तँ हमर जीवनक इतिहास अछि। निरंतर प्रगति करैत रहय, चमकैत रहय, यैह हमर अभिलाषा। .....हमरा तँ एहू बेर शेखर जी सँ गप्प भेल छल जे मैथिलीक पत्र एखन 'धर्मयुग'क साजसज्जा नहि पाबि सकैछ, किन्तु बंगलाक 'देश' ओ 'दिनमान' बनि सकैछ। हर्ष अछि जे मिहिर ताहू देस अग्रसर अछि'।

-'अपनेक जीनवक कोनो अविस्मरणीय घटना रहल अछि।'

-'अविस्मरणीय घटना..... अरे जे घटनाक विस्मरण नहि भेल होअय, सैह तँ भेल अविस्मरणीय घटना। आ, से जीवनक कतेक घटना एखन हमरा स्मरणे अछि..... असलमे हँ, एकटा आर..... से तँ आब अहूँ सभकें अनुभव होइत होयत।'

-'से की?'

-'माने कोनो रचना कयलहूँ, रचना पूरा भेल आ तखन पढ़लापर जँ नीक लागल तँ सेहो हमरा ले, आनन्दप्रद घटना भऽ जाइत अछि।'

-'अपनेक कोनो एहन इच्छा अछि, जकर पूर्कित्त नहि भेल होअय, कोनो एहन कचोट?'

-'इच्छा नहि हो तकरे इच्छाक पूर्कित्त नहि भेल अछि। '-ई कहैत हँसि पड़ैत छथि।

राति क्रमश: सीढ़ीपर चढ़ऽ लागल छल। हमरालोकनिकमे समसामयिक जीवनपर किछु काल छरि गप्प होइत रहल।

-'जी एकटा आर प्रश्न आछि।'

-'से की?' .....आब कोन?'

हम एक बेरि पोखरिकें देखैत छी, पोखरिक जल-तरंगकँ देखैत छी आ तखन कनेक विहँसैत पुछैत छियनि -'अपनेकें एहि पोखरि सँ किछु प्रेरणा भेटल अछि की नहि?'

-'तँ किएक नहि, खूब प्रेरणा भेटल अछि। एहिसँ खूब मच्छड़ उड़ैत अछि आ खूब कटैत अछि आ ताहिसँ जे निद्रा द्रवीभूत होइछ से कम प्रेरणात्मक, उत्तेजनात्मक नहि।'

-'अपनेकें आइ हमरालोकनि बड़ कष्ट देलहुँ।

-'नहि, कष्ट की? साहित्यालाप कतहु कष्टप्रद भेलैक अछि!'

हम कनेक साकांश होइत कहलयनि 'अपने की कहबैक, अपनेक स्वरुपे हमरा लोकनिकें सभ किछु कहि दैत अछि।'

-'अरे, से की? .....से की होयत' .....ई कहिकऽ सुमनजी हँसऽ लगला। आ, हमरालोकने जखन पवर छूबिकऽ प्रणाम कयलनियनि तँ विहुँसैत कहलनि -'औ, अहाँ सभ तँ असले प्रश्न छोड़ि देलहुँ। ई कहाँ पुछलहुँ जे हम कतेक अभिनन्दन लखने छी?'

एकटा निर्मल हँसी चारुकात छिड़िया गेलैक। घरसँ बाहर भऽ कऽ जखन हमरालोकनि परतीपर अबलहुँ तँ नाटकक प्रसंग गप्प चलऽ लगलैक। कनेक साकांक्ष होइत 'सुमन'जी कहलनि- 'मैथिली साहित्यक मध्यकाल नाटकप्रधान छल। किन्तु आधुनिक मैथिलीमे नीक नाटकक किछु अभाव रहलैक अछि। किरणजी, ईशनाथ बाबू, जीवनाथ बाबू, गोविन्दजी, हरिश्चन्द्रजी, अमरजी, विविध विधाक प्रतिभासम्पनान श्री शेखर जी, राजेश्वर बाबू, प्रबोध नारायण सिंह, यादव जी, मंडलजी एवं बाबू साहेब चौधरी आदि अनेक साहित्यकार एहि दिशामे विशेष कार्य कयलनि अछि। .....दोसर दिन कहियो एहि सभपर गप्प होयतैक। .....डॉ. लक्ष्मण झा, सुभद्र बाबू, डॉ. श्री कृष्ण मिश्र, डॉ. रमाकान्त पाठक, पं. भोलानाथ मिश्र, बाबू कृष्णनन्दन सिंह साहेब, राधाकृष्ण चौधरी, डॉ. जयकान्तमिश्र, कृष्णकान्त मिश्र, सुधाकान्त मिश्र, प्रो. श्री भक्तिनाथ सिंह ठाकुर, नवीवबाबू, इन्द्रकान्त जी. डॉ. उपेन्द्र ठाकुर आदिल कृतित्व सतत स्मरणीय।'

परतीपर ठाढ़ भेल हमरालोकनिमे किछु-किछु साहित्यिक गप्प होइत रहल। हम कहलियनि जे मैथिलीमे गीतकारक प्रतिभा बहुत गोटेकँ छनि। ई सूनि कऽ मुमनजी कहलनि -'हँ, से अहाँ ठीके कहैत छी। मैथिली भाषा गीतक भाशा कहले जाइछ। .....हमहूँ पहिने गीत बनबैत छलिऐक। एकटा 'गीतिका' अहाँलोकनिकें देब। किछु गीतक संख्या पुरतैक तखन। पहिने तँ हम मंच पर गबितो छलिऐक, राग-रागिणी तँ हमर पैत्रिक सम्पत्ति थिक। एकटा हमर गीत अछि, प्राय: अहाँसभ देखनो होयबैक-

'हमर व्यथा केर कथा अकथ नहि

आनक अनुभव योग

एहन नहि संयोग भेटल छल

ने पुनि एहन वियोग'

किछु कालक बाद हमरालोकनि फेर प्रणाम कयलियनि आ विदा भऽ गेलहुँ। सुमनजीक कहल गीत 'हमर व्यथा केर कथा अकथ नहि' .....बेरि-बेरि हमर मन-मानसमे गूंजि उठैत छल। .....आ हमरा लगैत अछि, जेना बीतल क्षण एकटा इतिहास भऽ गेल अछि, एकटा एहन इतिहास जे सभ दिन मोन रहत।

 

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