ब्रज-वैभव

मथुरा मूर्ति कला

मथुरा संग्रहालय


मथुरा का यह विशाल संग्रह देश के और विदेश के अनेक संग्रहालयों में वितरित हो चुका है। यहाँ की सामग्री लखनऊ के राज्य संग्रहालय में, कलकत्ता के भारतीय संग्रहालय में, मुम्बई और वाराणासी के संग्रहालयों में तथा विदेशों में मुख्यत: अमेरिका के 'बोस्टन' संग्रहालय में, 'पेरिस' व 'झुरिच' के संग्रहालयों व लन्दन के ब्रिटिश संग्रहालय में प्रदर्शित है। परन्तु इसका सबसे बड़ा भाग मथुरा संग्रहालय में प्रदर्शित है। इसके अतिरिक्त कतिपय व्यक्तिगत संग्रहों में भी मथुरा की कलाकृतियाँ हैं।

मथुरा का संग्रहालय यहाँ के तत्कालीन जिलाधीश श्री एफ. एस. ग्राउज द्वारा सन १८७४ में स्थापित किया गया था। प्रारम्भ में यह संग्रहालय स्थानी तहसील के पास एक छोटे भवन में रखा गया था। प्रारम्भ में यह संग्रहालय स्थानीय तहसी के पास एक छोटे भवन में रखा गया था। कुछ परिवर्तनों के बाद सन १९०० में संग्रहालय का प्रबन्ध नगरपालिका के हाथ में दिया गया। इसके पाँच वर्ष पश्चात तत्कालीन पुरातत्व अधिकारी डॉ. जे. पी. एच. फोगल के द्वारा इस संग्रहालय की मूर्तियों का वर्गीकरण किया गया और सन १९१० में एक विस्तृत सूची प्रकाशित की गई। इस कार्य से संग्रहालय का महत्व शासन की दृष्टि में बढ़ गया और सन १९१२ में इसका सारा प्रबन्ध राज्य सरकार ने अपने हाथ में ले लिया।

सन १९०८ से रायबहादुर पं. राधाकृष्ण यहाँ के प्रथम सहायक संग्रहाध्यक्ष के रुप में नियुक्त हुए, बाद में वे अवैतनिक संग्रहाध्यक्ष हो गए। अब संग्रहालय की उन्नति होने लगी, जिसमें तत्कालीन पुरातत्व निदेशक सर जॉन मार्शल और रायबहादुर दयाराम साहनी का बहुत बड़ा हाथ था। सन १९२९ में प्रदेशीय शासन ने एक लाख छत्तीस हजार रुपये लगाकर स्थानीय डेंम्पीयर पार्क में संग्रहालय का सम्मुख भाग निर्मित कराया और सन् १९३० में यह जनता के लिए खोला गया। इसके पश्चात ब्रिटिश शासनान्तर्गत यहाँ कोई नवीन परिवर्तन नहीं हुआ।

सन १९४७ में जब भारत का शासन सूत्र उसके अपने हाथों में आया तब से अधिकारियों का ध्यान इस सांस्कृतिक तीर्थ की उन्नति की ओर भी गया। द्वितीय पंचवर्षीय योजना में इसकी उन्नति में अलग के धन राशि की व्यवस्था की गई और कार्य भी प्रारम्भ हुआ। सन १९५८ से कार्य की गति तीव्र हुई। पुराने भवन की छत का नवीनीकरण हुआ और साथ ही साथ सन १९३० का अधूरा बना हुआ भवन भी पूरा किया गया।

मथुरा की मूर्ति कला का प्रादुर्भाव यहाँ की लोक कला के माध्यम से सम्पन्न हुआ। लोक कला की दृष्टि से देखा जाय तो मथुरा और उसके आसपास के भाग में इसके मौर्य कालीन नमूने विधमान हैं। लोक कला से सम्बन्धित ये मूर्तियाँ 'यक्षों' की हैं। 'यक्ष' पूजा तत्कालीन लोक धर्म का एक अभिन्न अंग थी। संस्कृत, पालि और प्राकृत साहित्य में 'यक्ष' पूजा का वर्णन विषद् रुप में वर्णित है। पुराणों के अनुसार यक्षों का कार्य पापियों को विघ्न करना, उन्हें दुर्गति देना और साथ ही साथ अपने क्षेत्र का संरक्षण करना था।१  मथुरा से इस प्रकार के यक्ष्म और यक्षणियों की ६ प्रतिमाएँ प्राप्त हो चुकी हैं।२  जिनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण 'परखम' नामक ग्राम से मिली हुई अभिलिखित यक्ष मूर्ति है (सी-१) धोती और दुपट्टा धारण किए स्थूलकाय 'मणिभद्र यक्ष' स्थानक अवस्था में है। इस यक्ष का पूजन उस समय बड़ा ही लोकप्रिय था। इसकी एक विशालकाय प्रतिमा मध्यप्रदेश के 'पवाया' ग्राम से भी प्राप्त हुई है, जो वर्तमान समय में ग्वालियर के संग्रहालय 
में प्रदर्शित है। मथुरा की यक्ष प्रतिमा भारतीय कला जगत में 'परखम यक्ष' के नाम से प्रसिद्ध है। शारीरिक बाल और सामर्थ्य की अभिव्यंजक प्राचीन काल की ये यक्ष प्रतिमाएँ केवल लोक कला के उदाहरण ही नहीं अपितु उत्तर काल में निर्मित बोधिसत्व, विष्णु, कुबेर, नाग (चित्र-१) आदि देव प्रतिमाओं के निर्माण की प्रेरिकाएँ भी हैं।

शुंग और शक क्षत्रप काल में पहुँचते-पहुँचते मथुरा को सं.सं.-कला केन्द्र का रुप प्राप्त हो गया। जैनों का देव निर्मित स्तूप, जो आज संग्रहालय संख्या के 'कंकाली' टीले पर विराजमान था, उस काल में विधमान था।३  इस समय के तीन लेख, जिनका सम्बन्ध जैन धर्म से है, अब तक मथुरा से मिल चुके हैं।४  यहाँ से इस काल की कई कलाकृतियाँ भी प्राप्त हो चुकी हैं जिनमें बोधिसत्व की विशाल प्रतिमा (लखनऊ संग्रहालय बी.१ बी) अमोहिनी का शिलाप (लखनऊ संग्रहालय, जे.-१), कई वेदिका स्तम्भ जिनमें से कुछ पर जातक कथाएँ तथा यक्षिणयों की प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं, प्रमुख हैं।

इस समय की कलाकृतियों को देखने से ज्ञात होता है कि इस काल पर 'भरहुत' और सांची की विशुद्ध भारतीय कला का प्रभाव स्पष्ट है।५   शुंगकालीन मथुरा कला की निम्नांकित विशेषताएँ गिनाई जा सकती हैं -

(१) मूर्तिवस्रों में हरहरावन न होकर एक प्रकार का भारीपन

(२) स्री और पुरुषों की मूर्तियों में अलंकारों का बाहुल्य है।

(३) मूर्तियाँ अधिक गहरी व उभारदार न होकर चपटी हैं। उनका चौतरफा अंकन (
CARVING IN ROUND) भी मथुरा कला का वैशिष्ट्य है, जो परखम यक्ष प्रतिमा से ही मिलने लगता है।

(४) भाव प्रदर्शन की ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया है, अत: शान्ति, गांभीर्य, कुतुहल, प्रसन्नता, वैदुष्य आदि भावों का इन मूर्तियों के मुखों पर सर्वथा अभाव है।

(५) इस काल की मानव मूर्तियों में बहुधा आँखों की पुतलियाँ नहीं बनाई गई हैं।

(६) स्रियों के केश संभार बहुधा, पुष्पमालाओं, मणिमालाओं तथा कीमती वस्रों से सुशोभित रहते हैं (चित्र-३)

(७) पुरुषों की पगड़ियाँ भी विशेष प्रकार की होती हैं। बहुधा वे दोनों ओर फूली हुई दिखलाई पड़ती हैं और बीच में एक बड़ी सी फुल्लेदार कलगी से सुशोभित रहती हैं। कानों के पास पगड़ी के बाहर झाँकने वाले केश भी खूब दिखलाई पड़ते हैं (चित्र-२)


इस काल की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि बौद्ध धर्म से सम्बन्धित मूर्तियों में बुद्ध की मूर्ति नहीं बनाई जाती थी। उसके स्थान पर प्रतीकों का उपयोग किया जाता था जिनमें भिक्षा पत्र, वज्रासन, उण्णीश या पगड़ी, त्रिरत्न, स्तूप, बोधि वृक्ष आदि मुख्य हैं।

इस सम्बन्ध में एक सातत्य बात यह भी है कि मथुरा कला में प्रभामण्डल का उपयोग प्रतीक रुप में किया गया है जो अन्यत्र नहीं दिखलाई पड़ता है।६  मथुरा कला की शुंग कालीन कला-कृतियों में वैष्णव और शैव मूर्तियाँ भी पाई गई हैं जिनमें बलराम७  लिंगाकृति शिव (चित्र-१०) और पंचवाण कामदेव (सं.स.१८.११८) विशेष रुप से उल्लेखनीय हैं।

 

१. वामन पुराण, ३४.४४; ३५.३८।

२. वासुदेवशरण अग्रवाल,
PRE KUSHANA ART OF MATHURA, JUPHS, भाग-६, खण्ड-२,
पृ.८९
(१) परखम से प्राप्त यक्ष-स. स. ०० सी-१, (२) बरोद से प्राप्त यक्ष्, स.स. ०० सी-२३
(३) मनसा देवी यक्षिणी, (४) नोह यक्ष (५) पलवल यक्ष-लखनऊ स.स.ओ. १०७

३. कृष्णदेव वाजपेयी, मथुरा का देव निर्मित बौद्ध स्तूप, श्री महावीर स्मृति ग्रंथ, खण्ड-१
एन. पी. जोशी, जैन स्तूप और पुरातत्व, १९४८-४९, पृ. १६८-९१।
वही पृ. १८३-८७१

४. एस. वी. देव HISTORY OF JAINA MONACHISM , पृ.-९९

५. के.डी.बी. काड़किंरगटन,
MATHURA OF THE GODS मार्ग खण्ड ९, संख्या-२, मार्च १९५६, पृ.४१-४२

६. मथुरा संग्रहालय संख्या, ३६.२६६३; ००. के-११ (प्रभामण्डल को इस रुप मों श्रीनील कंठ पुरुषोत्तम जोशी द्वारा प्रथम पहिचाना गया है)

७. लखनऊ संग्रहालय संख्या, जी. ११५।

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