ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति


सांझी बनाने की विधि


आजकल सांझीकला कागज के कटे हुए सांचों द्वारा सूखे रंग से जमीन पर मिट्टी ( गारे) के ८-९ इंच ऊँचे, ३- ४ गज लंबे- चौड़े आठ कोने या आठ पहलू कारीगरी से बनाए गए चौंतरे ( चबूतरे ) पर बनाई जाती है या चौंतरा घुटा हुआ, किंतु कुछ तरी लिए हुए रहता है, जिस पर सूखे रंग जम सकें। यह चौंतरा भी कलापूर्ण ठीक नाप का अठकोने वाला या अठपहलुआ बनाया जाता है। सांझी बनाने से पहले इस पर सिंदूर से रंगी हुई डोरी छोड़कर एक नक्शा बनाया जाता है, जिससे सांझी में बनाए जाने वाली बेलों की लपेट, फूल और जाल की जगह और हाशिए की मारवाड़ी बेल और बीच में कोई देवमूर्ति या देवलीला का दृश्य बनाने को स्थान अलग छांट दिया जाता है। बेल- फूल- जालों की लपेट के नक्शे, बेलबूटे और मूर्तियों तथा भवनों के परिश्रम से कागज के काटे गए सांचे होते हैं। इन सांचों के काटने की कैंची भी खास तरह की होती है। सांझी बनाते समय फबने वाले सूखे रंग इन सांचों पर अंगुली से सावधानी से छाने जाते हैं, जिससे कि एक रंग दूसरे पर न गिरे। यानी सांचे के फूल का रंग फूल पर, डाल का डाल पर और पत्ती का रंग पत्ती पर ही सावधानी से डाला जाता है और बड़ी सावधानी से कागज का सांचा उठाया जाता है। इस प्रकार कागज का सांचा उठ जाने से बेलबूटा, जाल, फूल उस रंग के बन जाते हैं। 

इसी प्रकार मूर्ति पर रंग छाना जाता है। एक भाग पर डाला गया रंग, दूसरे स्थान (अंग, वस्र या आभूषण ) पर न पड़, यह सावधानी रखी जाती है। आकाश, पहाड़, नदी, जलाशय आदि सब एक अंगुली से छाने हुए रंग से चित्र में यथास्थान बिना सांचे के बनाए जाते हैं। इस प्रकार एक बड़ा सुंदर चित्र सूखे रंग के बेलबूटों और फूलों से बना दिया जाता है। सांझी के लिए कागज के सांचे के कई खाके होते हैं, जिससे मूर्ति के सब अंग, वस्र, आयुध, आभूषण, श्रृंगार और शेड लाइट आ जाएँ, क्योंकि एक ही खाके में से ये सब चीजें काटने में नहीं आ सकतीं। अतः चित्र में बनाई गई वस्तु को सांचे में लाने को अनेक खाके बनाए जाते हैं। सांझी बनाते समय इनका मिलान बड़ी सावधानी से किया जाता है। 

बेलबूटे, जाल, फूल के खाके संख्या में २ से ६ तक होते हैं और मूर्तियों के, भवनों के कई- कई, यानी १ से १० तक खाके होते हैं। वे बड़े कीमती होते हैं। विविध प्रकारों की बेलों की लपेट और जाल की मिलावट के नक्से का बनाना सबसे कठिन काम होता है। इन्हें सांझी का कुशल कारीगर ही बना सकता है, ये सब चीजें सूखे रंग की बनाने के लिए रंगों की मिलावट, रंग का ठीक उपयोग और सांचे पर रंग डालने के लिए कलाकार में योग्यता, अनुभव और ज्ञान की आवश्यकता है। सांझी ६ से ८ घंटे में बनकर तैयार होती है। इसकी मनोहरता, सुंदरता रात्रि के दीपकों में ही देखने से मालूम होती है। 

डिजायन, जिसे हिंदी में रुपांकन कहते हैं, की सभी कलाओं में खास विशेषता होती है। रुपांकन कला के नमूने बड़े कीमती और संग्रह करने योग्य सामग्री मानी जाती है। कश्मीरी दुशालों पर की बेलें, छपी साड़ियों के बेलबूटे, सूती- ऊनी छींटे, कालीन गलीचे, चादर, जाजम, शतरंजी आदि पर बनाए गए बेलबूटे और फूलों के नमूने सांझीकला के प्रदर्शन में सहज देखने को मिलते हैं। इनके सांचों से ब्रज के कलाकारों के चित्रकला का ज्ञान और अनुभव का सहज अनुमान लगता है। ब्रज में प्राचीन सांचों का अपूर्व भंडार है। निश्चय ही यह चित्रकला के भंडार की मूल्यवान निधि है। इनकी रक्षा या संग्रह ब्रज की कला का ही नहीं, अपने देश की एक खास कला की रक्षा करना है।

सांझी बनाते समय सांचों का ठीक- ठाक मिलान करना, सांचे में काटे हुए स्थानों को याद रखना, उन पर उचित फबता रंग छानना और रंग की मिलावट करना, कुशल कलाकार का ही काम है। क्योंकि थोड़े भी बेमेल रंग होने से वह वस्तु फीकी जंचती है और सांझी में रंगों की मिलावट न होने से फीका रंग आ जाता है। रंगों की मिलावट और बनावट एवं खिलावट ही सांझी की कला है। सांझी बनाने वाले का उसकी पहली अंगुली पर पूरा काबू होना चाहिए, जिससे जितना जरुरी है उतना ही रंग अंगुली से सावधानी से डाला जा सके। सांझी बनाने में रंग अधिक न उड़ने का और सफाई का जितना अधिक रखा जाएगा, उतनी अधिक सांझी बनेगी।

सांझी में जो रंग ( सूखे ) काम में आते हैं, वे कम खर्चीले होते हैं, जो घर में ही बनाए जा सकते हैं। जैसे पिसे चावल का सफेद रंग, कोयले पीसकर काला रंग, पीली- सफेद मिट्टी छनी हुई, ईंट पिसी हुई का मलयागिरी रंग, सफेद- काला मिलाकर सलेटी, सफेद में लाल मिलाकर कंजई, सफेद में थोड़ा सिंदूर मिलाने से चेहरी रंग, हरा मिलाने से कपूरी, नीला मिलाने से आसमानी आदि रंग बना लिए जाते हैं, गुलाल और हिरमिच के रंग भी काम आते हैं।


मंदिरों के अतिरिक्त कुछ वर्षों पहले तक ब्रज के बालक घर- घर में अपनी- अपनी सांझी बनाया करते थे। किंतु महँगाई और गुणग्राहकता की कमी के कारण अब बहुत कम सांझी बनती हैं। ग्रामों में एवं शहरों में भी घर- घर बालिकाएँ गोबर की सांझी १६ दिन तक बनाती है। सांझी और टेसू के गीत गाए जाते हैं। जिनका ब्रज के लोककथा साहित्य से संबंध होता है। इस प्रकार यह ब्रज की सांस्कृतिक और जनपदीय ललित कला है।



संदर्भ :- गोपाल प्रसाद व्यास, ब्रज विभव, दिल्ली १९८७ ई. पृ. ४८४- ४८७

 

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