ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

भारतीय संगीत को ब्रज की देन

ब्रज-संगीत के राग


कृष्णभक्त कवि रागों के अच्छे ज्ञाता थे। भारतीय संगीत शास्र में रागों के भाव, ॠतु व समय का वर्गीकरण किया गया है, जिसे इन कीर्तनकारों ने पग- पग पर निभाया है। विनय के पदों में जहाँ बिलावल, कान्हड़ा, धनाश्री, रामकली, नट, केदार, सारंग, मल्हार, परज, और विहागरौ सोरठ, आसावरी, देवगंधार, टोड़ी झिंझोटी, गौरी, खंबावती तथा मुलतानी आदि दैन्य एवं विनय भावप्रधान रागों का प्रयोग है, वहीं करुण प्रसंगों में केदार और गुनकली, श्रृंगार भावना में मालकोंस और हमीर, हर्षोल्लास- विनोद के प्रसंगों में काफी, जैतश्री, जैजैवंती, कान्हरौ, ललित गौडमलार, नट, भैरव, पूर्वी, वसंत और सारंग एवं वीरता के प्रसंगों में मारु राग की भावानुकूल सुखद जूरी मिली है।

भक्ति संगीत में समय और ॠतु- सिद्धांत का निर्वाह भी बखूबी हुआ है। पुष्टिमार्गीय सेवाक्रम में आठ झांकियाँ होती है -- मंगला, श्रृंगार, ग्वाल, राजभोग, उत्थापन, भोग, संध्या- आरती और शयन। इन कवियों ने इन झांकी- प्रसंगों के पदों में संगीत के शास्रीय समय विधान का समन्वय किया है। मंगला प्रसंग में संधिप्रकाश रागों -- विभास, रामकली, ललित, भैरव आदि का प्रयोग है तो कलेऊ ( सूर्योदय उपरांत ) में आसावरी और बिलावल, गोचारण, राजभोग तथा छाक प्रसंगों में सारंग तथा खंडिता प्रसंगों में अधिकतर रात्रि में गाए जाने वाले करुण रागों का प्रयोग किया हे। इतना ही नहीं यह सब क्रम ॠतुओं के अनुसार है, क्योंकि पुष्टिमार्ग में वर्षोत्सव- विधि का भी विधान है। उदाहरणार्थ, होली के बाद ग्रीष्म की संधि में विभास, खट, भैरव आदि ठंडे राग गाएँगे तो शिशिर में रामकली, ललित आदि उष्ण प्रकृति के राग। वर्षा में मल्हार के विविध रुप आएँगे तो वसंत ॠतु में वसंत एवं होली में उल्लासमय काफी राग।

कृष्णभक्त कवियों ने केवल प्रमुख राग- रागिनी ही नहीं, प्रधान- अप्रधान सभी रागों को अपने गीतों का आश्रय बनाया है, जैसा कि सूर के इस पद में उल्लेख है ( प्रधान छत्तीस रागिनी)--

ललिता ललित बजाय रिझावत मधुर बीन कर लीने।
जात प्रभात राग पंचम षअ मालकोंस रस भीने।।
सुर हिंडोल मेघ मालव पुनि सारँगसुर नट जान।
सुर सावंत भुपाली ईमन करत कान्हरौ गान।।
ऊँच अड़ाने के सुर सुनियत निपट नायकी लीन। 
करत विहार मधुर केदारौ सकल सुरन सुखदीन।।
सोरठ गौड़ मलार सुहावन भैरव ललित बजायौ।


मधुर बिभासे सुनत बिलाबल दंपति अति सुख पायौ।।
देवगिरी देसाक देब पुनि गौरी श्री सुखवास।
जैतश्री अरु पुरवी टोड़ी आसावरि सुखरास।।
रामकली गुनकली केतकी सुर सुघराई गाये।
जैजैवंती जगत मोहनी सुरसों बीन बजाये।।
सूहा सरस मिलत प्रीतम सुख सिंधुवार रसमान्यौ।
जान प्रभात प्रभाती गायौ भोर भयौ दोऊ जान्यौ।।

-- सूरसागर

 

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