ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

ब्रज-संस्कृति का अविभाज्य अंग-संगीत

अष्टछाप से इतर


अष्टछापके के अतिरिक्त ब्रजभूमि में जन्में ऐसे और भी अनेक महानुभाव संगीतज्ञ भक्तगण हुए हैं, जिन्होंने विविध राग- रागिनियों में राधाकृष्ण की युगलमूर्ति की केलि का सुमधुर गान किया है। इनमें प्रमुख हैं -- श्री भट्टदेव, श्री विट्ठल बाहुदेव, श्री हरिराम व्यास, श्री हितहरिवंश, श्री नागरीदेव, श्री विहारिण देव, श्री रुपसखी, श्री ललित किशोरी, श्री भगवत रसिक, श्री पीतांबर, श्री ध्रुवदास, श्री हित वृंदावनदास, घनानंद, विद्यापति, रसखान, मीराबाई आदि। भारतीय संगती पर इन भक्त गायकों का अमिट प्रभाव पड़ा है। जब भक्त के मनप्राणों की आंतरिक चेतना पर इष्ट की कृपा होती है, तब अलौकिक संगीत एवं काव्य की उदभावना स्वतः ही सहज रुप में हो जाती है। इस दृष्टि से ब्रज- वसुंधरा सदा से ही लाभान्वित रही है।

ब्रज के अन्य प्राचीन संगीतज्ञों पर यदि दृष्टिपात किया जाए, तो उनमें श्री धीरज, श्री मदनरायजी, श्री ज्ञानदान, धोंधी नायक, बख्शू नामक के नाम प्रसिद्ध हुए हैं। अठारहीं शताब्दी में नंदगाँव के वासी एवं "आनंदसागर' के रचयिता आनंदघन हुए हैं। इनके अतिरिक्त उन्नीसवीं शताब्दी के अंत एवं बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में ब्रज में जो संगीतज्ञ हुए, उनमें सर्वाधिक प्रसिद्ध एवं लोकप्रिय श्री गणेशीलाल चौबे का नाम अग्रगण्य हे। इन्हें राजा- महाराजाओं से अनेक सम्मान प्राप्त हुए थे। इनकी पद्धति विशुद्ध भक्तिभाव एवं रस- सौष्ठव से परिपूर्ण थी। इन्होंने संगीतशास्र पर सांगोपांग रचना करने की दृष्टि से "गीतमार्तण्ड सत्य संगीत- निर्णय' नामक ग्रंथ का प्रणयन भी किया। बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में मथुरा में श्री गोपाल लाल, द्वारकेश लाल तथा घनश्याम लाल सुमधुर कीर्तनकार एवं संगीतज्ञ थे। बंशीधरजी भी इसी काल के प्रसिद्ध संगीतज्ञ हुए हैं। ये सारंगी के भी कुशलवादक थे, साथ ही ध्रुपद एवं ख्याल गायकी के सुललित गायक थे।

ब्रजभूमि के प्राचीन संगीतज्ञों में एक उच्चकोटि के भक्त गायक सिद्ध संत ग्वारिया बाबा हुए हैं, इन्होंने स्वर विस्तार के गणित- शास्र की रचना की थी। इनका विचार था कि "नाद ब्रह्म है। उस नाद की साधना साधारण जीव के वश के परे हैं।' अतः संभवतः इसी विचार धारा के वशीभूत होकर वे स्वयं अपनी रचनाएँ यमुना जल में प्रवाहित कर गए। यह भारतीय संगीत का दुर्भाग्य ही रहा कि ग्वारिया बाबा की दुर्लभ एवं अपूर्व रचनाओं से वह पूर्णतः लाभान्वित न हो सका। बाबा से स्व. रामचंद्र "मूँगाजी' को जो कुछ प्राप्त हुआ, उसे उन्होंने संग्रह कर लिया, यह संतोष का विषय है। मथुरा में एक कुशल सितार वादक बाबा सियारामदास भी हुए हैं, जिन्होंने "राग- सागर' नामक एक तारवाद्य का आविष्कार किया। इनकी शिष्य परंपरा में अनेक कुशल संगीतज्ञों ने संगीत की अत्यधिक सेवा की है। गायन, नृत्य, सितार, वीणा आदि के गुणीजनों के अतिरिक्त ब्रज में अनेक पखावज वादक भी उच्चकोटि के हुए हैं।

 

Top

   अनुक्रम


© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र