ब्रज-वैभव

ब्रज कला एवं संस्कृति

रास-नृत्य : स्वरुप और विकास

नित्यरास और लीला


आज रासलीलाओं के प्रस्तुतीकरण की भी एक परिपाटी बन चुकी है। रास के प्रदर्शन को-- निरुयरास और लीला -- द्विविध विभक्त किया जा सकता है। नित्यरास के अंतर्गत रास के आरंभ का उपक्रम, स्तुति, मंगलाचरण एवं आरती, सखी- परिकर द्वारा प्रशस्ति गान, रासारंभक के लिए प्रार्थना, राधाकृष्ण की पारस्परिक अभ्यर्थना और तदुपरांत रास- नृत्य की एकल, युगल एवं सामूहिक रुप में प्रस्तुति की जाती है। रास के इस नृत्य में स्वरुप ( पात्र ) विविध स्थानकों का विन्यास करते हैं। विविध चारियों द्वारा अंगों की चेष्टाओं को व्यंजित किया जाता है। श्री कृष्ण के अनेकविध करण एवं अंगहार दर्शकों के प्रमुख आकर्षण रहते हैं। "रास में नाचत लालबिहारी' की अनुगूंज के साथ ही मृदंग की थाप "ता थेई त त त ता थेई' का घोष करती संपूर्ण वातावरण को भक्तिमय बना देती है। श्री कृष्ण की लंबी छलांग के साथ ही मृदंग पर जब 

ता धिलांग धिक धिलांग
धिक तक तो दीम तो दीम
थेई ता थेई ता
धिलांग धिलांग धिलांग


के शब्द निकलते हैं तब रास- दर्शन आत्मविभोर हो जाता है। रास- मंच के मयूर नृत्य, एवं दंडा- नृत्य आदि अन्यतम आकर्षण हैं। नृत्य- गीतों के रुप में प्रयुक्त ब्रजवाणियों का अक्षय भंडार उपलब्ध है और आज भी यह साहित्य सृजन की प्रक्रिया मे उत्तरोत्तर विकसनशील बना हुआ है। रास के इस मंच पर सभी वैष्णव संप्रदायों के अनुगतों एवं आचार्यों की ब्रजवाणियाँ स्वीकार की जाती है। हिंदी साहित्य का भक्तिकाल हो अथवा रीतिकाल या आधुनिककाल ब्रजभाषा की भक्तिमयी रचनाएँ इन रासलीलाओं के कलेवर का निर्माण करती हैं। चाचा वृंदावनदास, ब्रजवासीदास, नागरीदास, ललित किशोरी, नारायण सवामी ओर माधुरीजी जैसे महानुभावों ने तो रास- मंच की कुछेक लीलाओं के प्रदर्शन में कबीर आदि निर्गुण संतों की वाणियाँ भी सुनी जाती हैं। इस प्रकार यह मंच सांप्रदायिक आग्रह से मुक्त रह कर सबको समान भावभूमि पर रस- विभोर करता है। आधुनिक युग के संकीर्ण वातावरण में रास- मंच की यह उपलब्धि निस्संदेह रुप से महत्वपूर्ण कही जा सकती है।


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