ब्रज-वैभव

पुनीत स्थल ब्रजधाम

ब्रज का महात्म


स्कन्द पुराण के अनुसार भगवान, श्री कृष्णजी के प्रपौत्र श्री ब्रजनाभ ने महाराज परीक्षित के सहयोग से श्री कृष्णजी की लीला स्थलियों का प्राकट्य कराया अनेकों मंदिरों, कुण्डों, बाबड़ियों आदि का निर्माण कराया। यहाँ प्रभु बल्लभाचार्य, श्री चैतन्य महाप्रभु आदि ने सम्पूर्ण ब्रज चौरासी कोस की यात्राएँ की। इसी तरह ब्रज के गौरव का इतिहास बहुत प्राचीन है। 'ऊद्यौ मोय ब्रज बिसरत नाहीं' ये शब्द हैं ब्रज छोड़कर द्वारिका पहुँच कर द्वारिकाधीश बनने वाले श्री कृष्णजी के। ब्रज की याद करके जिनके नेत्रों में अश्रु छलक उठते थे। यहाँ ब्रजराज कहलाए जाने वाले सर्वेश्वर प्रभु को गोप-ग्वालों और गोपिकाओं के साथ मनोहारी अद्भुत लीलाएँ करते देखकर स्वयं ब्रह्माजी को भी शंका उत्पन्न हुई थी कि यह कैसा भगवद् अवतार बताया जा रहा है। अन्त में वे भी हार मानकर कहते हैं- 'अहो भाग्यम्! अहो भाग्यम्!! नन्दगोप ब्रजो कसाम।' इसी ब्रज भूमि पर चरण रखते ही ब्रह्मज्ञानी उद्धव का सब ज्ञान ही लुप्त हो गया और अन्त में उन्हें भी कहना पड़ा- 

ब्रज समुद्र मथुरा कमल, वृन्दावन मकरन्द।
ब्रज-बनिता सब पुष्प हैं, मधुकर गोकुल चन्द।।

ब्रज के माहात्म को कहाँ तक कहा जाए? सभी सम्प्रदायों के आचार्यों ने ब्रज की महिमा का गुणगान किया है। इसकी समता का कोई अन्य भूमिखण्ड नहीं है। यहाँ स्वयं परमात्मा परमेश्वर नर रुप धारण कर 'नन्द-नन्दन' के रुप में निराकार से साकार हो गए हैं।

ब्रज धाम में बालक-बालिकाओं से श्री कृष्ण के बालरुप की अनुभूति होती है और वे भगवान के सखाभाव से स्मरण होते हैं। युवा-युवतियों को उनके लीला रुप की अनुभूति होती है। ब्रज प्रदेश की सभी बीथियों में उनके राधा-कृष्ण का पावन प्रेम बिखरा प्रतीत होता हैं। यहाँ की हर एक गतिविधि उनको आज भी दिव्य दिखाई देती है। वृद्धों के हृदय में भगवान की विरहग्नि प्रज्वलित हो उठती है। उनको राधा-कृष्ण का न होना वैराग्य की ओर प्रेरित करता है। ब्रज की ऐसी ही विचित्र महिमा है।

 

 

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