बुंदेलखंड संस्कृति

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मौर्ययुगीन बुंदेली समाज और संस्कृति

 

ई० पू० ८०० से ई० पू० २०० तक का काल महाजनपदीय शास्रों का परिचय देता है। मध्यप्रदेश शब्द इतना व्यापक है कि उसमें बुंदेलखंड पर बनने वाले प्राय: सभी जनपदों सा समावेश हो जाता है। मध्यप्रदेश में चेदि, वत्स, मत्स्य और शूरसेन की गणना की जाती है। मौर्य युग के पूर्व मध्यप्रदेश में नागवंश का साम्राजय रहा है। विद्वानों की दृष्टि में नाग ब्राह्मण माने गए हैं तथा इनसे शैव साधना जुड़ी हुई है। नागों तथा नवनागों की धर्मसाधना के प्रतीक सिक्कों पर मिलते हैं। नन्दी, त्रिशूल और शिवनिग्रह प्रमुख माने जाते हैं। उनकी मूर्तियाँ नागछत्रों से युक्त हैं और वे अपने भारशिव तथा शिव का नन्दी कहते हैं। नागों का उत्तराधिकार वाकाटकों को मिला था। वाकाटक भी ब्राह्मण थे। नागों के वंश को शिशुनाग वेश भी कहा गया है।

       बिम्बीसार के समय में समस्त मध्यप्रदेश में बस्तियाँ थी। शिशुनाग, काकवर्ण और महान्दी इस जाति के प्रबल शासक रहे हैं। बुंदेलखंड में नाग लोग मातृतंत्र को मानने वाले थे। जिसका प्रमाण ॠग्वेद के सपंराज्ञी के उल्लेख से मिलता है। नागों का स्री तंत्र महाभारत काल में पुरुष तंत्र में बदल गया।

       मौर्यकाल में जैनधर्म, बौद्धधर्म, वैष्णव, शैव, पाशुपत और शाक्त उपासनाओं के उल्लेख मिलते हैं। बुंदेलखंड में दुर्गापूजा विशेष प्रसिद्ध हुई। हरिवंश पुराण के अनुसार वही विन्ध्यवासिनी देवी बनी। वन्य जातियों में वृक्ष चैत्य, शाल वृक्ष, सिद्ध साध्य, गंधर्व नदी तथा कालावाची नक्षत्र भी पूजित रहे हैं। कौटिल्य का अर्थशास्र और विभिन्न जातक इसके प्राण हैं।

       पं० द्विवेदी ने भरत, वात्सय जीवक, न्यदि, वररुचि, वात्स्यायन चाणक्य का महाभारत की विभूतियों में दर्शाते हुए चाणक्य को बुन्देलखण्डी दर्शाया है। उनके अनुसार विष्णुगुप्त चाणक्य का जन्म स्थान वर्तमान बुंदेलखंड के पन्ना नगर से २५ मील दक्षिण-पूर्व तथा नागौद से १५ मील पश्चिम स्थित वर्तमान "नाचना' नाम का जनरल कनिंघम द्वारा पहचाना गया "चणक' ग्राम है। झाँसी के पास "गुर्जरा' और "एरछ' दोनों स्थानों को बुद्ध से जोड़ा गया है।

       इस काल के ब्राह्मण के स्वधर्म में अध्ययन, अध्यापन, यजन, याजन, दान देना तथा उसका प्रतिग्रहण था तो क्षत्रियों में भी अध्ययन, यजन, दान शस्र जीव और भूतराक्षकर्म माना गया है। बौद्ध और जैन धर्म ग्रन्थों में ब्राह्मणों की अपेक्षा क्षत्रियों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन है। वैश्यों के स्वधर्म में व्यापार, पशुपालन और कृषि तो शूद्रों को स्वभावज कर्म परिचर्या दाय में मिली। वैदिक युग की वर्ण व्यवस्था अब वंशागत हो गई थी और एक दूसरे में समन्वय की कोई व्यवस्था नहीं थी।

       मौर्य काल में लोकाभिमुख कला के दर्शन, भृत्माण्ड, मुद्राओं, राजप्रसादों, अशोक के स्तम्भों, पौरसभओं में होते हैं। धर्मो का भी लोक रंजन था। इस युग की विलक्षण बात यह है कि भारतवर्ष का विदेशों से संबंध जुड़ा। ग्रीक संस्कृति का भारतीय संस्कृति पर प्रभाव पड़। इसी प्रकार हकमानी साम्राज्य, यूनानी साम्राज्य, यूनानी साम्राज्य और चीन के साथ भी संबंध बढ़े और उनसे भारतीयों ने प्रभाव ग्रहण किए और प्रभावित भी किया।

       मौर्यकाल में बुंदेलखंड का शासन चंद्रगुप्त के अधीन रहा है ऐसा कोई निश्चित साक्ष्य नहीं मिलता है। बुद्धघोष के प्रमाण और जूनागढ़ के शिलालेख भी चन्द्रगुप्त का दक्षिणापथ पर अधिकार साबित नहीं करतै हैं अत: यह अनुमान लगाया जा सकता है कि चाणक्य भले ही बुंदेलखंड का है परंतु समस्त प्रदेश नागों और स्थानीय शासकों के अधीन रहा है। सागर के रानीगर के मंदिर में चन्द्रगुप्त का आना बताया जाता है पर इसका कोई साक्ष्य नहीं है। नागवंशी आचार-विचार, रहन-सहन द्रविड़ों के हैं; अत: इस काल में बुंदेलखंड के समाज और संस्कृति में दो प्रबाव लक्षित किए जा सकते हैं; आर्य संस्कृति और द्रविड़ संस्कृरति।

 

 

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