बुंदेलखंड संस्कृति

हिन्दी साहित्य में रासो काव्य परम्परा

झांसी को कटक

दूसरा महत्वपूर्ण कटक भग्गी दाऊजू "श्याम' कृत "झांसी कौ कटक' है। भग्गी दाऊजू झांसी के जनकवि थे, जो सन् १८५७ की क्रान्ति के प्रत्यक्षदर्शी थे। स्व् डॉ. वृन्दावन लाल वर्मा ने अपने प्रसिद्ध उपन्यास ""झांसी की रानी'' में महारानी लक्ष्मीबाई के समकालीन कवियों में इनका उल्लेख किया है। डॉ. भगवानदास माहौर ने "मनदेश' कृत "लक्ष्मीबाई रासो ' नामक ग्रन्थ में इनके सम्बन्ध में विस्तृत प्रकाश डाला है। भगगी दाऊजू जू एक अखाड़िया उस्ताद कवि विख्यात थे। कहा जाता है कि भग्गी दाऊजू ने राजनी लक्ष्मीबाई के विषय में पूरा रायसा लिखा थ, परन्तु ""रायसा'' कहा जाय अथवा उसका छोटा रुप ""कटक'' उसके केवल ४ छन्द विनाश से बच सके हैं। जितना कुछ अंश एक खझण्डत प्रति से श्री भगवानदास माहौर को उपलब्ध हो सका है, उससे तो यह एक ""कटक'' ही सिद्ध होता है- ""रायसा'' नहीं ""इति कटक संपूर्ण। पौष सुदी १४ संवत १९५७ मु. झाँसी महारानी के समकालीन इस जनकवि ने चार चरण वाले ""मंज'' छन्द में जितना भी कुछ गेय प्रबन्ध रचा होगा वह रानी लक्ष्मीबाई तथा ओराछा के दीवान नत्ये खाँ के बीच होने वाले युत्द्ध के तुरन्त बाद रचा गया होगा-

""धन्य प्रताप श्री बाई साव कौ ऐसो नाव निकारौ।''

इस पंक्ति के पश्चात् यह रचना खण्डित है। संभवतः बाद की रचना में कवि ने १८५७ के स्वातनत्र्य युद्ध का थोड़ा बहुत वर्णन अवश्य किया होगा, परन्तु वह सब लुप्त हो चुका है। "भग्गी दाऊजू' के कटक का बहुत कुछ अंश हमारे अनुमान से बहुत समय तक उनके द्वारा अथवा उनके शिष्यों के द्वारा मौखिक रुप से सुनाया जाता रहा होगा। स्मृति में जो कुद सुरक्षित रह सका, उसे लिपिबद्ध करने का प्रयास उनके बाद ही किसी भक्त द्वारा हुआ है। खेद है कि वह प्रितिलिपि भी केवल खण्डित रुप में बच पाई। कवि ने झाँसी की भूमि के प्रति अपने ममत्व का बहुत ओजपूर्ण वर्णन किया है। अधिकांश छन्दों की समाप्ति का चौथा चरण कवि की भावना का परिचय देते हुए अपने आप में बहुत कुछ बता देता है-

""जो झाँसी की लटी तकै सुन ताय कालिका खाई।''

"लटी का अथ्र् है अवनति, "तकै' का अर्थ है देखना, छन्द की मात्रा के विचार से सनु' शब्द का प्रयोग हुआ है। इस प्रकार कवि की घोषणा है कि जो भी कोई झाँसी की अवनति देखना या सुनना चाहेगा, उसे कालिका खायेगी अर्थांत वह जगदम्बा का कोप भाजन होगा।

"कटक' में झाँसी के बसाये जाने का भी उल्लेख कवि ने बड़े स्वाभिमान से किया है-

""जा झाँसी सिव राव हरी की अतिशुभ घरी बसाई।''

अर्थात् झाँसी को शिव राव हरी नेवालकर नाम के एक मराठा सरदार ने बसाया था।

नत्थे खाँ द्वारा सागर पर अधिकार करने के कारण पर "भग्गी दाऊ जू' नत्थे खाँ को सागर पर विजय प्रापत हुई।

कटक ग्रंथ में झाँसी के प्रमुख सरदारों की वीरता का कवि ने अत्यन्त ओज पूर्ण वर्णन किया है।अपने पक्ष की बढ़ती तथा शत्रु पक्ष की दीनता का निम्न पंक्तियों में वर्णन देखने योग्य है-

""इतै चैन दिन रैन ज्वान सब खाते माल मिठाई।
उतै खपरियन में लयै महुआ भूंजत फिरै सिपाई।।

इस कटक में युद्ध क्षेत्र की संक्षिप्त सी मारकाट का वर्णन है एवं वीभत्स चित्रणों का भी प्रायः अभाव ही है। फिर भी सम्पूर्ण रचना ओज से पूर्ण है।

बुन्देली शब्दों के प्रयोग की दृष्टि से झाँसी कौ कटक एक समृद्ध रचना है। बुन्देली बोली के कुछ शब्द बड़ी स्वाभाविकता तथा उपयुक्ता के साथ प्रयुक्त किए गए हैं, जैसे -ठक्का ठाई लड़ाई, ठकुरास क्षत्रियत्व, खपरियन फूटे घड़ों के नीये के अर्ध वृर्त्ताकार टुकड़े, धुकाई धोकना, न्याउ युद्ध, बकबकाय क्रोधित होकर, मिसमिसाय दांत पीसकर क्रोधित होते हुए लसगरी लश्करी, सेना के अर्थ में, झींकत परेशान होते हुए, डिगरत "डगर' का कर्ता, चलने के अर्थ में झड़झड़ात ध्वन्यार्थक शब्द, सुमर स्मरण, अगारी अग्र भाग, जड़के कसकर मारने के अर्थ में आदि।

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि झाँसी कौ कटक भाषा, शब्द प्रयोग, छन्द शैली आदि दृष्टियों से एक विशिष्ट रचना है। इसके साथ ही स्वातन्त्र्योन्मुख जन भावना तथा वीरता बढ़ाने वाली प्रेरणा उत्पन्न करने में इस रचना जैसी काव्य कृतियों का हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण स्थान है।

 

भिलसांय कौ कटक

बुन्देलखण्ड के उपलब्ध "कटक' ग्रंथों में "झाँसी कौ कटक' के पश्चात् "भिलसांय कौ कटक' आता है। इसके रचयिता भैरों लाल हैं। ये जाति के ब्राह्मण थे। इनके पिता का नाम द्विज दुर्गा प्रसाद है। भैरों लाल का जनम बुन्देलखण्ड में महोबा, जिला हमीरपुर के निकट श्रीनगर नामक ग्राम में हुआ था। "भिलसांय कौ कटक' में इन्होंने अपना परिचय निम्न प्रकार दिया है-

""दुज दुरगा परसाद के सुत कवि भैरो लाल।
जन्म भूमि श्रीनगर है, सुखद विशाल।। ""

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि भैरोलाल अजयगढ़ दरबार में जाकर रहे और अजयपाल महाराज की प्रशंसा में काव्य रचना की। "भिलसांय कौ कटक' की भाषा प्रवणता देखकर यह कहा जा सकता है कि भैरोलाल एक सिद्धहस्त कवि थे। अवश्य ही इन्होंने "भिलसांय कौ कटक' के अतिरिकत और भी रचनायें लिखी होंगी। इन्होंने "भिलसांय कौ कटक' के अतिरिक्त और भी रचनायें लिखी होंगी। इनकी काव्य भाषा संस्कृत निष्ठ खड़ी बोली से प्रभावित बुन्देली है। कहीं-कहीं एकाध शब्द अवधि का भी मिल जाता है।

"भिलसांय कौ कटक' अन्य कटक ग्रन्थों की अपेक्षा आकार में कुछ बड़ा है। जन कवियों की ये रचनायें अधिकतर लोगों के द्वारा सुनी सुनाई जाकर, केवल कण्ठ पर विद्यमान रही। बहुत पीछे उनका संकलन किया गया। यही कारण है कि बहुत कम रचनायें अपने मूल रुप में उपलब्ध हो सकी हैं। अजयगढ़ के नरेश रणजोर सिंह ने "भिलसांय कौ कटक' अपनी एक पुस्तक के परिशिष्ट में मुद्रित कराते हुए उसे भली प्रकार सुरक्षित कर दिया है।

"भिलसांय कौ कटक' में बुन्देलों और बघेलों की पारस्परिक शत्रुता का वर्णन किया गया है। इसमें कुटरा नामक स्थान पर हुए युद्ध का वर्णन है तथा कवि ने अर्जुनसिंह दीवान की आज्ञा से इस युद्ध का विवरण लिपिबद्ध किया जैसा कि प्रसतुत कटक के एक छन्द से ज्ञात होता है-

सुकवि सो भैरोलाल को-हुकुम दियो सुख पाय।
कुटरे कौ संग्राम यह-कहै विचिर्त बनाय।।
अर्जुन सिह दिमान की, सुन आयसु अनुकूल,
वीर बुन्देल बघेल कर, सुयश कहौं सुख मूल।।''

भिलसांय कौ कटक में अजय गढ़ के दीवान केशरी सिंह और बाघेल वीर रणमतसिंह के युद्ध का वर्णन किया गया है। बाबा रणमतसिंह बधेलखण्ड क्षेत्र के माने हुए क्रान्तिकारी थे। ये कोठी, जिला सतना के निकटवर्ती एक ग्राम "मनकहरी' के रहने वाले थे, जहाँ इनकी गढ़ी का ध्वंस आज भी विद्यमान है। सन् १८५७ के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में इन्होंने अत्यन्त नृशंसतापूर्वक अंग्रेजों का वध किया था। जब ब्रिटिश सरकार ने इनके द्वारा किये जाने वाले अत्याचारों का उततरदायित्व रीवा महाराज पर डाला तो वहाँ के दीवान दीनबन्धु ने इन्हें आत्म समपंण के लिए बाध्य कर दिया था। बाबा रणमतसिंह और उनके कतिपय साथियों को ब्रिटिश सरकार ने प्राण दण्ड दिया था। अजयगढ़ के बुन्देली राज्य से रणमत सिंह की लड़ाई काव्य के अन्तर्साक्ष्य के अनुसार इन्हीं दिनों की है। "भिलसांय कौ कटक' में युद्ध तिथि एक छन्द में निम्न प्रकार दी हुई है-

""संवत् उन्नीस सै सुनौ- शुभ चौदहा की साल।
कुटरे के मैदान में, ऐसौ बीतौ हाल।।''

अर्थात् यह युद्ध संवत् १९१८ विक्रमी तदनुसार सन् १९५७ ई में कुटरे के मैदान में हुआ था। इस लड़ाई में जीत अजयगढ़ की ही हुई थी। बाद में अंग्रेजों ने भी बाघेल वीर रणमतसिंह को दण्ड दिया था। वर्तमान में बाबा रणमतसिंह को बघेलखझ क्षेत्र में एक महान स्वतन्त्रता सेनानी के रुप में स्मरण किया जाता है।

भिलसांय कौ कटक में कवि द्वारा अजयगढ़ की सेना तथा रणमतसिंह की सेना, दोनों का ही वर्णन किया गया है, पर अजयगढ़ की सेना की कुछ अधिक प्रशंसा की गई है। इस रचना में युद्धस्थल की मारकाट के वर्णन का साधारण रुप ही देखने को मिलता है फिर भी कवि ने प्रमुख सरदारों और सामन्तों के नामों का विवरण दिया ही है। सेना प्रयाण के समय ललकारते हुए, उत्साह भरे वीरों से युक्त का वर्णन निम्न छन्द में देखिये-

""कर शोर महा घनघोर घनो ललकार परी अलवेलन की।
भर बांह तिवालन भालन सौं बगमेल चली हटहेलन की।
भट हांकत हूंकत हूलत सूलत रुलन रेल सकेलन की।
रणधीर बुन्देल अधीर भए, लख धावन वीर बघेलन की।।''

उपर्युक्त छन्द में अन्तिम पंक्ति में कवि ने बघेला वीरों की भी प्रशंसा कर दी है। ऐसे वर्णनों की इस रचना में कमी नहीं है।
"भिलसांय कौ कटक' भाषा प्रयोग एवं छन्द विधान की दृष्टियों से, "पारीछत कौ कटक' तथा "झाँसी कौ कटक' की अपेक्षा उत्कृष्ट रचना है। रचना को और अधिक विस्तार देकर कवि इसे एक रासो का रुप भी दे सकता था। "पारीछत कौ कटक' तथा "झाँसी कौ कटक' जन गीतात्मक शैली में लिखे गए काव्य हैं, परन्तु "भिलसांय कौ कटक' में दोहा, कवित्त, छप्पय, कुण्डलियाँ, घनाक्षरी, सवैया, सोरठा तथा मंज आदि छन्द प्रयुक्त किए गए हैं तथा इसे इतिवृत्तात्मक शैली में लिखा गया है। निष्कर्ष रुप में कहा जाता है कि "भिलसांय कौ कटक' ऐतिसाहिसक एवं साहित्यिक महत्व की रचना है।

 

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