बुंदेलखंड संस्कृति

लक्ष्मीबाई रासो

छन्दमदनेश जी ने प्रायः कल्याणिंसह कुड़रा कीछन्द शैली को अपनाया है। कुड़रा कृत "झाँसी कौ राइसौ' में छन्दों के नाम न दिये जाकर सबको छन्द के नाम से ही रखा गया है। केवल दोहा, चौपाई, कवित्त आदि को ही कवि ने स्पष्ट नाम दिया है। मदनेश जी ने भी लक्ष्मीबाई रासो में हरिगीतिका मोती दाम, पद्धति आदि छंदों का नाम न देकर केवल छंर मात्र लिख दिया है। ऐसे ही कुछ और भी छंद है जिनका कवि ने नामकरण नहीं किया है। उदाहरण स्वरुप -"जब करन चाळौ पयान। गर्धव सुनाई तान' इस धारा केअन्य कुछ कवियों के ग्रन्थों में भी इस छन्द का नाम नहीं दिया गया है। उपर्युक्त के अतिरिक्त इस रायसो में दोहा, चौपाई, सोरठा, कुण्डलियां, कवित्त, आल्हा चौपाई, सिहर या सैर, अमृत ध्वनि, किरवान तथा छप्पय आदि छंदों का प्रयोग किया गया है। साकी नाम का छंद प्रायः दोहा छन्द का ही रुप है। दोहे को गेय बनाने के लिए उसमें कुछ और शब्द या शब्दांश जोड कर प्रायः ग्रामीण लोगों को बमभोला गाते भी सुना जा सकता है। कवि ने सिहर या सैर तथा अाल्हा चौपाई छंदों के साथ साकी छंद का प्रयोग किया है। स्पष्ट है कि ये दोनों छंद गेय हैं और इनके साथ संगति बिठाने के लिए दोहे को इस रुप में प्रस्तुत किसर गसर है। पहले दोहे को गवैया उतार चढ़ाव के साथ ध्वनि खींचकर संयत रुप सेगाता है और फिर ओज पूर्ण रुप में आल्हा चौपाई पढ़ता है। साकी और आल्हा चौपाई का उदाहरण इस प्रकार है।

साकी - सकत सेन तौ अब विचला दई, जा पौंचे बाई के पास।
कुन्नस करतन बाई लखे, उर मैं उपजौ अधिक हुलास।।
आल्हा चौपाई- तब मन मुस्क्याकें रानी, सो सबहिं कहा समुझाय।
आज बात चंपा नें, है मेरी राखी आय।।'

उपर्युक्त पंक्तियों में साकी छंद और आल्हा चौपाई का तालमेल ठीक दिखलाई पड़ता है। वैसे ऊपर के साकी छंद का दोहा रुप निम्न प्रकार होगा।

"सकल सेन बिचला दई, पौंचे बाई पास।
कुन्नस करतन बाई लख, उपजौ अधिक हुवास।।

डॉ. भगवानदास माहौर ने गृन्थ के भूमिका भाग में इस छंद का हवाला दिया है। उन्हें झाँसी के ही श्री नारायण प्रसाद रावत ने साकी को दीर्घ दोहा बतलाया था। जिस प्रकार के आल्हा छंद का प्रयोग मदनेश जी ने किया है उसमें प्रथम और तृतीय चरण में १२-१२ एवं द्वितीय तथा चतुर्थ चरण में १३-१३ मात्रायें हैं जो आल्हा छंद जिसे वीर छंद कहते हैं की श्रेणी में नहीं आता क्योंकि वीर के प्रतयेक चरण में ३१ मात्रायें एवं अंत में गुरु लघु होता है।

सिहर नाम का छंद बुन्देलखण्ड में प्रलित सैर छंद ही है। अमृत ध्वनियों का प्रयोग युद्ध वर्णनों में किया गया है। इस छंद के प्रत्येक चरण में २४-२४ मात्रायें एवं छै चरण होते हैं पर मदनेश जी ने अमृत ध्वनियों से पहले दोहे की दो पंक्तियां फिर चार पंक्तियां अमृत ध्वनि की रखी है। ऐसा भी देखने को मिलता है कि किसी-किसी अमृतध्वनि के चरणों में मात्रायें कम व अधिक भी हैं। इस दृष्टि से इसे रासो ग्रंथ में प्रयुक्त छंद शैली कुछ विशिष्टता से पूर्ण है। मनदेश जी ने प्रचलित छंदों को भी कुछ नवीन रुप देकर रखा है। छंदों के उतार-चढ़ाव आदि में कोई विशेष अन्तर नहीं आया है।

"छछूंदर रायसा' में दोहा तथा नराच छंदों का प्रयोग किया गया है। "गाडर रायसा" में कुण्डरिया, छंद को दो तीन रुपों में प्रयुक्त किया गया है। "घूस रायसा' में दोहा, कुण्डरिया, सोरठा, भुजंग प्रयात तथा कवित्त छंदों का प्रयोग किया गया है।
आलोच्य काव्यों में प्रयुक्त छन्दों का विभाजन निम्न प्रकार किया जा रहा है-

१. मात्रिक छंद अ. सम ब. अर्द्ध सम।
२. वर्णिक छंद अ. सम ब. मुक्तक।
३. अनिश्चित छंद-मात्रिक, वर्णिक।

 

 

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