बुन्देल खण्ड की लोक संस्कृति का इतिहास

नर्मदा प्रसाद गुप्त

आचरण

लोकरंजन


मनोरंजन, मनोविनोद और आमोद-प्रमोद में मनोरंजन ही उपयुक्त है, क्योंकि मनोरंजन का अर्थ है 'मन का रँगना' और 'मन का रँगना' मन की तृप्ति का परिचायक है । जिस वस्तु में मन रँग जाय, वही मन को तृप्ति और प्रसन्नता दे सकती है और वही मनोरंजन होने का दावा कर सकती है । समय काटने (पासटाइम) और मनोरंजन में बहुत अंतर है । मनोरंजन अभावात्मक न होकर भावात्मक आनंद है, जबकि 'पासटाइम' में अभावात्मक संतोष प्राप्त हो सकता है । समय काटने में एक बोझ की थकन से गुजरने की-सी प्रतीति होती है जो मनोरंजन की उत्फुल्लता से बिलकुल भिन्न है । विनोद, आमोद, प्रमोद आदि से 'रंजन' की व्याप्ति अधिक है । साथ ही 'रंजन' मनोरंजन से जन्य अनुभूति या रस का वास्तविक अर्थ देता है । मनोरंजन अपनी रुचि के अनुसार भिन्न-भिन्न होते हैं, इसलिए उनका वैयक्तिक आधार प्रबल होता है, परंतु जब लोकमन अपनी लोररुचि की छाप किसी मनोरंजन पर छोड़ देता है, तब वह लोक का मनोरंजन अर्थात् लोकरंजन हो जाता है ।

       लोकरंजन किसी एक वर्ग का न होकर लोक का होता है । वह युग के अनुसार बदलता रहता है । हर युग की सांस्कृतिक चेतना (लोकमन) लोकरंजन का चयन करती है और तदनुरुप बच्चे, युवा और वृद्ध मनोरंजन का ताना-बाना बुनते हैं । परिस्थितियों की भूमिका प्रधान होती है । आर्थिक स्थिति का हाथ ज्यादा रहता है । कभी-कभी एक गरीब का बच्चा किसी कीमती खिलौने के लिए मचल पड़ता है और बार-बार उस खिलौने की जिद करता है, जो किसी धनी के बच्चे के हाथ में है । धनी बच्चा उस पर गर्व करता है और अपने को उच्चतर दिखाने की कोशिश करता है । इस प्रकार दोनों में मानसिक संघर्ष की नींव पड़ती है, जो बाल-मनोविज्ञान की एक समस्या के रुप में चर्चित हुई है । इसी प्रकार पुरुष और स्री के मनोरंजन अलग-अलग रहें हैं । जाति, वर्ग और पेशे का प्रभाव भी मनोरंजन के चयन में अपनी भूमिका अदा करता है । देशगत संस्कार एक अलग असर छोड़ते हैं । पुरानी पीढ़ी पुराने खिलौने ही महत्त्वपूर्ण समझती है और बच्चों को बार-बार उन्हें देती है, जबकि नयी पीढ़ी नये खिलौनों को पसंद करती है । इस तरह एक तरफ परम्परित रुचि   और संस्कृति का दबाव काम करता है, तो दूसरी तरफ संस्कृति के नये समवाय (पैटन्र्स) प्रभावी होते हैं । नयी समाज की संरचना के लिए नये खिलौने देना जरुरी है । इन सभी पूर्वाग्रहों और प्रभावों के बावजूद लोक अपने लोकरंजन का निर्धारण अपनी लोकसहज प्रक्रिया से करता रहता है ।

       लोक द्वारा मनोरंजन चुने जाने की प्रक्रिया सहज रुप में निरंतर गतिशील रहती है । सभी प्रकार की क्रियाएँ, अंतरक्रियाएँ (इण्टरैक्शन्स) और प्रतिक्रियाएँ उस प्रक्रिया में स्वत: घटित होती रहती हैं । श्रीमद्भागवत के दशम स्कंध में रुक्मी (रुक्मिणी का भाई) और बलराम के चौसर खेलने का वर्णन है । जब बलराम जीतते हैं, तब रुक्मी कहता है-"तुम तो चरवाहे हो, चौसर क्या जानो । चौसर और बाणों से राजा खेलते हैं, तुम जैसे (जंगली) नहीं ।" स्पष्ट है कि मनोरंजन में वर्गीय चेतना रहती थी, भले ही यहाँ रुक्मी ने बलराम को व्यंग्य की चोट की हो । मनोरंजन का मनोविज्ञान यही है कि हर बच्चा अपने परिवार से उत्तराधिकार में मनोरंजन प्राप्त करता है, फिर वह कुछ बड़ा होकर अपने पड़ोस, जाति और पेशे के वर्ग से कुछ भिन्न मनोरंजन अर्जित करता है । शिक्षा उसे मनोरंजन सिखाती है । समग्र रुप में एक तरफ कुल, जाति, वर्ग और देश-गत पूर्वाग्रह उसके मनोरंजन से जुड़े रहते हैं, तो दूसरी तरफ वह अपनी शिक्षा और अर्जित ज्ञान से मनोरंजन के प्रति उदार और तटस्थ दृष्टि रखने का प्रयत्न करता है । फिर भी उसके व्यवहार और आचरण में पूर्वाग्रहों का अंकुश मौजूद रहता है । इस प्रकार परम्परित और अर्जित लोकरंजन संघर्षमयी स्थिति में रहकर लोकरंजन की विकास-दिशा को गति देते रहते हैं । वे लोकसंस्कृति से प्रेरणा पाते हैं और लोकसंस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हुए उसके विकास की रेखाओं का परिचय कराते हैं ।

       युग के परिवर्तन में लोकरंजन के बदलाव के बीज छिपे होते हैं, जो लोकादर्शों की वर्षा से अँकुआने लगते हैं और लोकसंस्कृति की खाद पाकर बढ़ जाते हैं । बहुत समय तक पुराने और नये लोकरंजन साथ-साथ चलते हैं, फिर कुछ उपयोगी पुराने और कुछ प्रमुख नये मिलकर एक नवीन लोकरंजन-समूह बना लेते हैं । इस तरह लोकरंजन का अपना इतिहास निर्मित होता है । यह निश्चित है कि लोकरंजन के क्रमिक विकास का रेखाचित्र बनाना कठिन है, पर मोटे रुप में उसकी परम्परा खोजी जा सकती है । किसी भी लोकरंजन की यात्रा में मन को ताजगी देने की क्षमता ही प्रधान शक्ति होती है । उसका एक ध्येय होता है, जिसको पाने के लिए लोकमन लोकरंजन से स्फूर्ति पाकर दौड़ता रहता है । इस रुप में लोकरंजन शरीरिक, मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य का विकास करता है ।

       सामान्यत: लोकरंजन के साधनों को तीन वर्ग में विभाजित किया जा सकता है-शारीरिक, मानसिक और आत्मिक । शारीरिक में शिकार, खेल, पैदल चलने की प्रतियोगिता, कुश्ती, जल-क्रीड़ा, गेंद-क्रीड़ा, दौड़, वन-विहार, पशु-युद्ध हस्ति-युद्ध, दोला-केलि आदि; मानसिक में नृत्य, गीत, कथा-वाचन और श्रवण, नाटक, रास, शतरंज, जुआ, चित्रकला, कवि-समाज आदि तथा आत्मिक में यज्ञ-हवन, पूजा-पाठ, तीर्थ-यात्रा आदि परिगणित होते हैं । वस्तुत: ये साधन उपयोगिता और आवश्यकता के अनुसार प्रचलित हुए थे । मनोरंजन का मनोरंजन और साथ में स्फूर्ति, कल्पना और ज्ञान का रंजन । लेकिन दूषित साधनों-जुआ और सुरा-सुन्दरी ने कई अवसरों पर कुरुचि और अश्लीलता का जाल फैलाया, जिसमें व्यक्ति का मन फँसकर रोगों का शिकार हो गया । लोकमन बचा रहा और उसकी सुरक्षा का कारण भारतीय लोकसंस्कृति की मर्यादा और आत्मसंयम से परिपूर्ण अस्मिता है ।

       भारतीय लोकरंजन की प्रमुख विशेषता है-भेदभावविहीन समता की भावना । लोकरंजन किसी विशिष्ट जाति, वर्ग और धर्म का न होकर पूरे लोक का होता है । उसकी अपनी जनतंत्रात्मक संस्कृति है, जिसमें किसी भी प्राणी के प्रति न तो घृणा और पक्षपात है और न निर्दयता और निष्ठुरता । सर्वत्र स्वच्छंदता और लोकहित की भावना अपनी सत्ता बनाये रखती है, जिससे कुत्सित मनोवृत्तियों की साजिशें नहीं चल पातीं ।

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आदि कालीन लोकरंजन

इस अंचल के आदिकाल की सीमा रामायण-काल तक को स्पर्श करती है । आदिवासियों के जीवन में आत्मरक्षा की भावना ही प्रधान थी, अतएव उसके सभी व्यापार भूख, आवास और शरीर-रक्षा से जुड़े थे । भूख-प्यास की तृप्ति के लिए जंगल से फल तोड़ना और पशु-पक्षी का शिकार करना, आवास के लिए गुफाओं की खोज करना या वृक्षों पर मचान बनाना तथा रक्षा के लिए पत्थर के हथियार बनाना उनके प्रमुख कार्य थे । कामेच्छा भी एक भूख थी, जिसकी तृप्ति से आनन्द मिलता था । इस प्रकार के जीवन में व्यक्तिगत मनोरंजन के अवसर तो आते थे, लोकरंजन का ज्ञान नहीं था । जैसे ही काम और रक्षा की प्रवृत्ति ने समुदाय के जीवन की नींव डाली, वैसे ही लोकरंजन का प्रथम चरण अपनी छाप छोड़ गया । समुदाय द्वारा किसी मोटे-ताजे पशु का शिकार, उसे आग की लपटों में भूनना और आग के चारों ओर घेरे में उछल-कूद मचाना या नाचना एक क्रमबद्ध कार्य के रुप में सम्पन्न होता था । इस कार्य-चक्र में उछल-कूद और नाच   आदिम लोकरंजन था ।

       आदिकालीन लोकरंजन का दूसरा चरण तब शुरु होता है, जब गुहा-जीवन अधिक स्थायी हो गया था । इस समय गुहावासियों के लोकरंजन में नृत्य के साथ-साथ रेखाचित्र (पुतरियाँ) या गुहाचित्र लिखने की प्रधानता थी । गुहाचित्रों के अध्ययन से पता चलता है कि नृत्य, गायन, वादन और जानवरों की लड़ाई, शिकार, जानवरों की क्रीड़ाएँ तथा समूह-मैथुन, भोज, क्रीड़ाएँ आदि तीन प्रकार के लोकरंजन प्रचलित थे । गुहावासी जब आखेटीय जीवन के साथ-साथ पशु-पालन और खेती करने लगे, तब उनके लोकरंजन में परिष्कार आया । लोकनृत्य, लोकसंगीत, और लोकचित्र का खुरदरापन, फूल-पत्ती जैसा संतुलन, चिकनापन और लयात्मकता लेने लगा । फसलों और पशुओं की रखवाली के लिए रात को अलाव जलाकर गप्पें मारना, कथाएँ कहना-सुनना और जानवरों की बोलियों की नकल करना प्रचलित हो गया था । दिन में अवकाश के समय पत्थर, वृक्ष, पशु और कृषि-संबंधी खेल भी होते थे । उदाहरण के लिए चपेटा, इड़ा साँवरी या चिरोल (सिलोर) मार डण्डा, गोट-पड़ा और आती-पाती खेल रखे जा सकते हैं ।

       इस अंचल के आदिवासी पुलिन्द, शबर, निषाद, रामठ, दाँगी, गोंड आदि की बस्तियाँ और छोटे-छोटे गाँव बस गये थे, लेकिन उन्होंने वनोपज को नहीं छोड़ा था । उनके मनोरंजनों में बन का हाथ भी था । आखेट और पशु उनके जीवन के अनिवार्य अंग थे, लेकिन वे लोकरंजन के उपकरण भी थे । बस्ती तक सीमित महिलाएँ घर पर ही मिट्टी की बनी मूर्तियों और खिलौनों से आनंदित होती थीं । बैलगाड़ियों की बनावट भी एक मनोरंजन थी । बौद्धिक खेलों में उनकी पहुँच होने लगी थी, पर अंतत: शारीरिक शक्ति-संबंधी खेल अधिक उपयोगी सिद्ध हुए थे ।   पैदल दौड़ की प्रतियोगिता, पत्थर और लकड़ी के हथियार चलाने या धनुष से तीर चलाने के खेल या प्रतियोगिता, गाड़ी-दौड़, सीधे लट्ठे पर चढ़कर तरह-तरह के खेल खेलना, लकड़ी पर कारीगरी करना आदि अन्य शारिरिक लोकरंजन, जैसे कुश्ती, पशु से लड़ना आदि जुड़ गये थे । नरयावली (जिला-सागर) के एक गुफाचित्र में नटों के करतब दिखाते हुए लोग अंकित हैं ।

       वैदिक   युग में ॠषियों ने इस अंचल के उत्तर में अपने आश्रमों की स्थापना की । उनके गीतों से प्रभावित होकर कृषकों ने कृषिपरक, प्रकृतिपरक, ॠतुपरक और प्रेमपरक लोकगीत रचे । उनके अनुष्ठानों से एक नयी लोकसंस्कृति की प्रेरणा मिली, जिससे लोकरंजन की दिशा में परिवर्तन आया । मृण्मय भाण्ड़ों में रेखांकन से अलंकरण, सामूहिक नृत्यों की एकरसता, गायन की लयबद्धता, आंचलिक वाद्यों के लोकसंगीत की ग्राम्यता, मुखौटे पहनकर राक्षसों की तरह अभिनय आदि का विकास हुआ । लोकगीत गाना और स्वाँग रचना हर घर का रंजन बन गया ।

       रामायण-काल में यहाँ के आदिवासियों ने वैदिक लोकरंजनों को अपनाना शुरु कर दिया था । दूसरी तरफ राक्षसों के सुरा-पान, बहुरुपियापन और स्वच्छंद रंजनों ने भी प्रभावी छाप छोड़ी थी । आशय यह है कि बुंदेलखंड के लोकरंजनों पर बाहर के प्रभाव भी कम न थे ।

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इस काल में यादवों के प्रभाव से चाँचर, दिवारी, गिल्ली-डंडा, गाय खेलाना जैसे लोकरंजन विकसित हुए । ग्रामों में पशुओं और दण्डों से संबंधित विभिन्न रंजन होते थे, जबकि नगरों में जुआ खेलना प्रमुख हो गया था । धनी वर्ग में चौसर और जुए का प्रचलन अधिक था । नरवर के राजा नल एवं पुष्कर की द्यूत-क्रीड़ा का परिणाम नल-दमयंती की व्यथा-कथा से हर किसी का परिचय है । द्यूत में निष्णात होने के लिए द्यूतविद्या 'अश्रऋदय' सीखना पड़ती थी । पाँसों के देवता की सिद्धि के लिए मंत्र का प्रयोग किया जाता था, जिससे अनुकूल पाँसे पड़ते थे । एक बुंदेली लोककथा में राजकुमारी अपने अनुकूल पाँसों के लिए बिल्ली के माध्यम से ऐसी चालाकी करती थी कि अभिमंत्रित पाँसे रख देती थी । मंत्र और जादू वन्य जातियों की ही देन हैं । इस अंचल के शबरों में मंत्रों का पूरा ज्ञान था ।

       साधारण वर्ग दौड़, आँख-मिचौनी, धूल के खेल, जल की क्रीड़ाएँ, वृक्षों पर चढ़ने के खेल, बाँसुरी बजाना, गेंद के विविध खेल अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार चुनता था । कृषकों में कृषि-संबंधी उत्सव और मनोरंजन होते थे । कुछ लोकरंजन जातिगत आधार ग्रहण करने लगे थे । क्षत्रियों में हथियार, कुश्ती, जुआ और नृत्य-गीत-संबंधी रंजन लोकप्रिय हो गये थे, जबकि ब्राह्ममणों में ज्ञान, धर्म और कला-संबंधी एवं वैश्यों में व्यापार-संबंधी अधिक प्रसिद्धि पाने लगे थें । ब्राह्मणों में 'समाज' और 'शास्रार्थ' तथा वैश्यों में 'अंकविनोद' और 'गोष्ठ' अधिक रुचिकर माने जाने लगे थे । गणिकाएँ क्षत्रियों और वैश्यों के मनोविनोद का प्रमुख साधन हो गयी थीं ।

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चेदि देश के सोलह महाजनपदों में से एक था और दशार्ण केवल एक जनपद था । दोनों में राजतंत्र था, पर राजा का चुनाव लोक करता था । इस रुप में यहाँ लोक की आवाज बुलंद रही । दूसरे, बौद्ध और जैन-धर्मों के उत्कर्ष से लोकमहिमा का प्रतिष्ठा बढ़ी । जातकों में लोकरंजन के अनेक उल्लेख मिलते हैं । भरहुत और साँची के स्तूपों में संगीत और नृत्य के दृश्य तथा कुछ वाद्य उत्कीर्ण हैं । भरहुत के एक स्तम्भ में नट के खेल का साक्ष्य मिलता है । इस समय के प्रमुख लोकरंजन पाँच वर्गों में रखे जा सकते हैं-(१) कलापरक, जैसे-गायन, वादन, नृत्य, नाटक-लीला; (२) खेल, जैसे-बाँस के खेल, गेंद के खेल, लाठी के खेल, मार-पीट के खेल, जुए का खेल, चौसर आदि, (३) युद्धपरक, जैसे-अश्व, महिष, वृषभ, मेष, बकरों, मुर्गों, बतखों तीतरों का युद्ध और कुश्ती एवं मुष्टि-युद्ध; (४) भोगपरक, जैसे-सुरा, मेरय (कच्ची शराब), वेश्या आदि तथा (५) कथनपरक, जैसे-कथा कहना, भांड़ का रंजन करना, विदूषक के कथन आदि ।

       लोकरंजकों के भी वर्ग बन चुके थे । नट घुमक्कड़ कलाकार थे । वे जगह-जगह जाकर अपने नृत्य-संगीत से लोकरंजन करते हुए अपनी जीविका चलाते थे । उनका यह वर्ग ही जाति के रुप में परिवर्तित हो गया था । इसी प्रकार गंधर्व भी घूम-घूमकर उच्च वर्ग का रंजन करते थे । उनमें शंख, भेरी जैसे वाद्यों के वादकों के अलग-अलग वर्ग   थे । 'समाज' में विविध लोकरंजनों का प्रदर्शन करने के लिए होड़ लगती थी । अनेक प्रकार का हस्तलाघव दिखाने वाल मायाकार (जादूगर) और सपं के खेलों में रंजन करने वाले अहिगुण्ठिक (सँपेरे) भी अलग-अलग वर्गों में संगठित थे । गणिकाओं और वेश्याओं के भी वर्ग थे ।

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मौय -शुंग काल

कौटिल्य के अर्थशास्र में नट-नर्तक, गायक, वादक, चारण, वाग्वीजक (विभिन्न बोलियाँ बोलने वाले),   सौमिक (मदारी), प्लवक (रस्सी पर चलने वाले) विभिन्न रुपों में लोक का मनोरंजन करते थे ।   उत्सवों में नृत्य-संगीत का आयोजन होता था ।   उत्सवों, समाजों और विहारों में अनेक प्रकार के अभिनय होते थे ।   कठपुतलियों के खेल भी प्रचलित थे ।   उद्यानयात्राएँ धनिकों, सामन्तों   और राजाओं के लिए   मुख्य साधन थीं ।   वहाँ जूआ, सुरापान, अभिनय और सुंदर दृश्य प्रमुख थे ।   साधारण लोग जलक्रीड़ाएँ पसंद करते थे । क्रीड़ा--शकुनि अर्थात् तोता, मैना, मोर   आदि पक्षी पालने और उन्हें पढ़ाकर रंजन करने का रिवाज था ।   पशुओं और पक्षियों का आखेट, उनको पालतू बनाकर नचाना और उनकी लड़ाइयाँ रंजन के लोकप्रिय रुप थे । इसी तरह दौड़, कंदुक-क्रीड़ा, विहार या पर्यटन, हथियारों का कौशल और सौन्दर्य-प्रतियोगिता के अनेक रुप लोकप्रचलित थे ।   गणिकाओं और वेश्याओं का रंजन चर्चित रहता था ।

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पवाया के मंदिर के तोरण पर संगीत-समारोह का एक अनुपम दृश्य उत्कीर्ण था और वह प्रस्तरखंड चार वर्ग फुट वर्गाकार आकृति का है, जो खुदाई में प्राप्त हुआ था । उसमें वीणा, सारंगी, बाँसुरी, ढपली, मृदंग और मंजीर वाद्यों के साथ वादन, गायन और नृत्य का अद्भुत दृश्यांकन है, जिससे तत्कालीन लोकरंजन का साक्ष्य मिलता है । भीतरगाँव (देवगढ़, जिला ललितपुर, उ.प्र.) और पवाया में प्राप्त मृण्मूर्कित्तयों में कुछ ऐसी हैं, जो अलंकरण के उद्देश्य से निर्मित की गयी हैं, परन्तु कुछ खेलने की दृष्टि से उपयोगी हैं। स्पष्ट है कि मिट्टी के खिलौने बनाये जाते थे, जिनसे बालक और किशोर खेलते थे । इस काल में गायन-वादन, नृत्य, आलेखन, अभिनय और खिलौने बनाने के अलावा माला गूँथना, पुष्पों से सज्जा करना, कथा कहना, पहेली बुझाना, समस्यापूर्ति करना आदि लोकरंजक कलाएँ प्रचलित हो गयी थीं ।

       आदिवासी संस्कृति के प्रभाव के कारण इस अंचल में इन्द्रजाली खेल भी लोकरंजन के मुख्य माध्यम थे । झूला झूलने का प्रचलन था । स्रियाँ कठपुतलियों के खेल में रुचि लेती थीं । ॠतूत्सव में पलाशपुष्पों के रंग डालने का रिवाज था । नाग-वाकाटक शैव थे और शिव नटराज हैं, इसलिए संगीत और नृत्य तो प्रधान रंजन थे ही, उनके गणों के स्वरुपों से बहुरुपिया-कला का भी विकास हुआ ।   वाकाटकों ने चित्रकला विशेषतया भित्तिचित्रांकन को महत्त्व दिया था ।   इस प्रकार इस युग में लोकरंजन का सनातनी स्वरुप निर्मित हुआ । यह बात अलग है कि इस अंचल में यक्षों की संस्कृति ने महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है । यक्ष जितने तन से स्वस्थ और सुंदर थे, उतने ही मन से । कार्तिक अमावस्या को मनोविनोद में रात्रि-जागरण करना यक्षों की देन है, इसीलिए उसे यक्षरात्रि कहा जाता है । इस तरह कार्तिक अमावस्या लोकरंजन का महोत्सव बन गयी थी । आज भी जुआ खेलकर दिवारी मनाने की प्रथा उसी का अवशेष है ।

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इस युग में पुष्यभूति, प्रतिहार, परमार और राष्ट्रकूट वंशों का शासन रहा ।   हर्ष के बाद इस अंचल में शेष तीनों वंश युद्ध करते रहे, जिसके फलस्वरुप तीनों ने कुछ भूभाग अपने अधीन कर लिए और अपने लोकरंजन इस भूमि पर छोड़कर चले गए ।   आशय यह है कि लोकरंजनों में विश्रृंखलन और समन्वय की स्थितियाँ एक साथ बनी रहीं । इस अंचल के गाँवों में शिकार और मद्य (महुए का आसव) का पान लोकरंजन के प्रमुख साधन थे । घरों में पशु-पक्षी पालकर उनसे विनोद करना स्री-पुरुष और बालिका-बालक सभी का सहज कार्य था । घरों के आस-पास पौधे लगाना और दीवालों पर आलेखन करना घरेलू स्रियों का शौक था ।   वे जलक्रीड़ा, नृत्य-संगीतगोष्ठी और कथाकथन में भी शामिल होती थीं ।   बालक और बालिकाएँ तरह-तरह के खेलों में आनंद लेते थे । गाँवों में लोकरंजक वर्ग और जातियाँ भी निवास करते थे । मदारी और नट-तरह-तरह के खेल दिखाते थे,   नट-नटी नृत्य-संगीत में कुशल थे, बहुरुपिए रुप धारण करने में अपना दिन बिताते थे और खिलौने बनानेवाले रात भर अपनी कला का प्रयोग करते थे । कभी-कभी नगर के इन्द्रजाली अपने खेल और चमत्कार ग्रामों में प्रदर्शित करने आते थे ।   वाण ने 'हर्षचरित' और 'कादम्बरी' में विन्ध्याचल के गाँवों का अच्छा वर्णन किया है ।

       नगरों में युद्ध के वातावरण ने लोकरंजन का आनंद छीन लिया था । होड़ की प्रवृत्ति से जुए, चौपड़ आदि में काफी बढ़ाव आ गया था । प्रतिहारों ने लोकरंजन में कलात्मक रुचि को जाग्रत करने का प्रयास किया था ।   इस अंचल में उनके द्वारा निर्मित मंदिरों में नृत्य, संगीत और अभिनय-परक रंजन अंकित हुए हैं । साथ ही युद्धपरक संस्कृति से प्रेरित जानवरों की लड़ाई, बाघ और हाथियों के युद्ध, वारविलासिनियों के वासनापरक हावभाव और मैथुन-दृश्य यत्र-तत्र मिलते हैं । परमारों के मंदिर अधिकतर विदिशा और रायसेन की तरफ हैं । उनमें भी लोकरंजन की विविधता दर्शायी गयी है । डॉ. वा. वि. मिराशी ने भवभूति के नाटकों का मंचन कालप्रियनाथ (सूर्य) के मेले के अवसर पर कालपी में यमुना-किनारे सूर्यमंदिर में होना बताया है, जिससे पता चलता है कि नाटक लोकरंजन के लोकप्रिय साधन थे । नाटूयगृहों की व्यवस्था भले ही न रही हो, पर नाटकों के लोकमंच का प्रमाण मिलता है । कालपी में सूर्य का मेला यमुना के किनारे एक टीले के पास आज भी लोकप्रिय है ।   इस अंचल में प्रयुक्त 'पुतरिया' पुत्रिका का ही तद्भव रुप है, जिसका प्रयोग 'हर्षचरित' (कनकपुत्रिका, पत्रभंगपुत्रिका) और 'कादम्बरी' (कर्पूरपुत्रिका) में हुआ है । गेंद और पुतरियों (गुड़ियों) के खेल लोक-प्रचलित थे । उच्च वर्ग में सोने-चाँदी और मणियों की पुतरियाँ होती थीं, पर लोक में मिट्टी, लकड़ी, कपड़े और सस्ती धातु की पुतरियाँ खेली जाती थीं । उच्च वर्ग में चतुरंग, चौसर, जैसे-घर के खेल खेलने का चलन था, जबकि लोक में अलाव जलाकर कथा कहने-सुनने का रिवाज था । पौराणिक कथाओं की कड़ियाँ इसी युग में जोड़ी गयी थीं, जिनमें लोकरंजन के विविध रुप प्रसंगवश व्यक्त हुए हैं ।

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चंदेल काल

चंदेलकालीन लोकरंजन के साक्ष्य तत्कालीन मंदिरों, शिलालेखों और ग्रंथों में मिलते हैं । खजुराहो के मंदिरों में एक तरफ नृत्य, संगीत और उत्सव-आयोजन के दृश्य उत्कीर्ण किये   गये हैं, तो दूसरी तरफ आखेट, हस्तियुद्ध, युद्ध आदि के । लक्ष्मण मंदिर के गर्भगृह की बाह्य भित्ति पर होली खेलने और लोकगीत गाने के लोकचित्रण यह सिद्ध करने में समर्थ हैं कि क्रीड़ागिरि, केलिसरसी जैसे विनोद भले ही राजसी-सामंती वर्ग तक सीमित रहे हों, लेकिन लोकरंजन के अनेक साधन इस युग में मौजूद थे । वि. सं. ११०१ के खजुराहो अभिलेख में यशोवर्मन द्वारा विष्णु मंदिर के निर्माण के समय उत्सवों के आयोजन का उल्लेख मिलता है । वि. सं. ११८६ के कालं स्तंभ-अभिलेख में 'महानाचनी' से राजनर्तकियों के समूह की स्वामिनी का संकेत मिलता है । जिन मण्डन के 'कुमार पाल प्रबन्ध' में चंदेल-नरेश मदनवर्मन के समय के वसन्तोत्सव का वर्णन मिलता है, जिसमें गायन, वादन और 'धूलिपर्वोत्सव' (होली) पर गंधित चूर्ण से रंजित करना प्रमुश बताया गया है ।

       इस युग में उत्सव और यात्राएँ दोनों होते थे । इतिहासकार अल्बेरुनी ने कई उत्सव दिवसों का उल्लेख किया है । चैत्र की एकादशी को झूले का दिन, पूर्णिमा को वसन्तोत्सव, आश्विन पूर्णिमा को पशुओं का त्योहार और कुश्तियों का आयोजन, कार्तिक प्रतिपदा को दीपावली का उत्सव तथा फाल्गुन पूर्णिमा में स्रियों का दोलोत्सव एवं होली आदि । वत्सराज के 'कर्पूरचरित'   नामक रुपक में 'नीलकण्ठयात्रा महोत्सव' की चर्चा आई है । उत्सवों पर नाटकों का मंचन होता था । 'प्रबोध-चंद्रोदय' और वत्सराज के रुपकों को अभिनीत किया गया था ।   वत्सराज कृत 'रुपकषटकम्' में गायन, आलेखन और नर्तन का उलेलेख कई जगह आया है (हास्यचूड़ामणि, पृ. १२३, समुद्रमंथन, १५८, रुक्मिणीहरण, पृ. ५७) ।   किरातार्जुनीय व्यायोग और समुद्रमंथन समवकार के अन्तिम श्लोकों में कविनाटककारों की गोष्ठियों एवं नाट्याभिनय से रंजित होने की अनुभूति स्पष्ट है । 'प्रबोध-चंद्रोदय' में 'वाक्कलह' (अंक ३, पृ. ११६) और 'रुपकषटकम्' में 'काव्यशास्र' विद्वद्गोष्ठी नामों से अभिहित किया गया है । सभी नाटकों में सुरापान गोष्ठियों, द्यूत, वेश्यावृत्ति, नारीसेवन एवं ताम्बूलभक्षण जैसे भोगमूलक लोकरंजन के उल्लेख मिलते हैं (प्रबोध, ३/२०, पृ. १२५ एवं रुपकषटकम् पृ. २५, ११९, १२३, १३८, १४८) । झला, हिंडोला, भौंरा फिराना, जल-क्रिड़ा, चौपड़ और इंद्रजाल उस समय लोकप्रचलित थे ।   गाथा पढ़ना और सुनना परिष्कृत लोकरंजन था, यही परम्परा आल्हा लोकगाथा के संदर्भ में सुरक्षित बनी रही ।

       वत्सराज के किरातार्जुनीय में नट, शैलूष और इंद्रजालपुरुष जगत्प्रमोद को आविष्कृत करने वाले कहे गये हैं ।   कवियों को मुदित करनेवाला, सूक्तियों का अमृत बरसाने वाला और परितोषभरे बादलों के रुप में बरसने वाला बताया गया है । इतिहासकार डॉ. शिशिरकुमार मित्र किरात स्रियों को मयूरनृत्यों की संगति में गीत गाकर मनोरंजन करनेवाली मानते हैं । वत्सराज ने अनेक स्थलों पर 'समाजों' के रुप में सचेतन संस्था का स्मरण किया है, जिसके सदस्य 'सामाजिक' के रुप में लोकरंजन के सजग सहृदय होते थे । राजशेखर ने 'काव्यमीमांसा' में नर्तक गायक, वादक, चारण, चितेरे, विट, वेश्या, ऐन्द्रजालिक के अतिरिक्त हाथ के तालों पर नाचनेवाले, तैराक, रस्सों पर नाचनेवाले, गाँतों से खेल दिखलानेवाले, पहलवान पटेबाज और मदारी का उल्लेख किया है । इन सबका महत्त्व राजसभा और गोष्ठियों में आँका गया है, परन्तु यह निश्चित है कि वे लोक और लोकरंजन में उससे भी अधिक महत्त्व रखते थे ।

       लोकगाथा 'आल्हा', तत्कालीन रुपक और इतिहास इस तध्य की पुष्टि करते हैं कि चंदेल-काल में नारी का अपहरण किया जाता था । वत्सराज के 'रुक्मिणीहरण' (४/१४) से स्पष्ट है कि कन्याओं का खड्ग के बल पर अपहरण और उसके कारण युद्ध एक आम बात थी । अपहरण राज्यविस्तार की राजनीति का अंग बन चुका था । अपहरण के लिए युद्ध होना और युद्ध में आम जनता की क्षति स्वाभाविक है । इस कारण अपहरण के खिलाफ लोक की प्रतिक्रिया तेजी से हुई और आप को यह आश्चर्य होगा कि वह प्रतिक्रिया पुरुष की ओर से न होकर समस्त नारी जाति से हुई, जिसका अवशेष एक खेल के रुप में सुरक्षित है । वह खेल आज स्रियों के लोकरंजन का हिस्सा बन चुका है, पर उसका अपना एक इतिहास है । नौरता का सुआटा अपहरण का दैत्य है, जिसका विनाश करने के लिए कुमारियाँ गौरा देवी से प्रार्थना करती हैं । वै नौ रात्रियों में व्रत-उपासना करती हैं, जिससे प्रसन्न होकर गौरा उसका वध कर डालती हैं । दैत्य की पुत्री ढिरिया या झिंझिया से टेसू का विवाह वैवाहिक रीति से होने का अर्थ अपहरण की समाप्ति है ।   कुछ भूभागों में यह जनश्रुति है कि टेसू ने उस दैत्य का वध किया था । यदि यह सही हो,   तो भी यह अपहरण के विरुद्ध मानवी प्रतिक्रिया है । इसी खेल का एक अंग मामुलिया है, जिसमें नववधू रुपी मामुलिया को सजा-सँवारकर महाबोलों के साथ विवाह करने के उपरान्त विदा की जाती है । बहरहाल, यह खेल पहले प्रतीकात्मक रहा और मध्ययुग में अपहरणों के विरुद्ध जूझने की प्रेरणा देता रहा, फिर लोकरंजन का साधन बन गया । इसके एक गीत में 'चंदेली' और 'महोबा' (चंदेलों की प्रमुख राजधानी) आया है-"चाराना चंदेली दैहों, बाराना बैरागै जैहों । पानी पियन महोबे जैहों, दाने खाँ दरबाजे जैहों ।।" लोकगीत की रचना सार्थक होती है, पर बाद में उसका रुपान्तरित स्वरुप समझना कभी-कभी कठिन हो जाता है । उसके कुछ पुराने शब्द ही उसके सही अर्थ और इतिहास की पहचान कराते हैं । इस लोकरंजक खेल की सही परख करने और उसे लोक को समझाने की बहुत जरुरत है ।

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तोमर काल

पन्द्रहवीं शती और सोलहवीं के प्रारम्भ के दो दशक अर्थात् सवा सौ वर्ष बुंदेलखंड की लोकसंस्कृति के इतिहास में क्रान्तिकारी ठहरते हैं । इस समय लोकरंजन में   भी एक व्यापक परिवर्तन आया । कलात्मक लोकरंजनों को संगठित कर उन्हें सामूहिक आयोजना के लिए मंच प्रदान करने का महत्त्वपूर्ण कार्य इसी समय किया गया जिससे संगीत, नृत्य और अभिनय से जुड़े लोकरंजनों में ही नहीं, दूसरे शारीरिक श्रम से संबद्ध खेलों, व्यायाम आदि में भी परिवर्तन आया । विभिन्न क्षेत्रों में अखाड़े बने और लोकरंजक वर्गों में एकता का मार्ग खुल गया । विदेशी संस्कृति के आक्रमणों से रक्षा करने के लिए संगठन और एकता बहुत जरुरी थे ।

       लोकरंजन के लिए इस समय के ग्रंथों-विष्णुदास के महाभारत और नारायणदास, रतनरंग एवं देवचन्द्र द्वारा रचित छिताई-कथा या छिताईचरित में कौतुक, बिनोद, तमाशा और रंग बिनोद शब्द आये हैं । स्पष्ट है कि लोकरंजनों में काफी विविधता आ गयी थी । कलात्मक लोकरंजनों के अंतर्गत गायन, वादन, नृत्य, अभिनय, कथा कहना, गारी गाना और लीलाएँ खेलना शामिल थे । मानसिंह तोमर ने देसी संगीत को पूरे देश में फैलाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया था । छिताईचरित में जगह-जगह लोकगीतों के गायन का उल्लेख मिलता है । यहाँ तक कि विवाह के समय (खास तौर से ज्योंनार में) गायी जाने वाली लोकरंजक गारियाँ (छंद, १६९) इस युग में प्रारम्भ हो गयी थीं । उन्हें कवि ने 'सुधा समान' कहा है । 'गीत-नाद-रस' (छंद, ८७३) से भी संगीत की रसानुभूति का पता चलता है । नृत्य के लिए 'नाच' (महाभारत, विराट पर्व, ३/७८) के प्रयोग से स्पष्ट है कि नृत्यकला का लोकरुप प्रतिष्ठित हो गया था । चंदेल-काल में प्रयुक्त 'महानाचनी' या 'महानचनी' से लोकनृत्यों की खयाति का संकेत मिलता है । 'छिताईचरित' में अभिनय के लिए 'नाटक', 'नाट्यशाला', 'नट-नाटक' और 'नटरम्भा' का प्रयोग हुआ है । नाट्यशाला में नाटक मंचित होते थे, पर नट-नाटक (छंद, २१०) से तात्पर्य लोकनाट्यों से ही है । दोनों के अलावा कवि ने रास (छंद, ६१८) के समारोह का उल्लेख किया है (छंद ६१८) जिससे रासलीला के नृत्यनाटक का भी पता चलता है । पूतरी-मठ (छंद, ४५९) से मूर्तिकला, चित्रसारी (छंद, १२०) से चित्रकला और कथा सुनने से गंगास्नान के फल की प्राप्ति (छंद, १०३०) द्वारा कथा-वाचन के लोकरंजनों का बोध हो जाता है ।

       खेलों के अंतर्गत आँवरी (महाभारत, आदिपर्व, ३/दोहा ९ एवं छिचाई. छंद, ५७२), गेंद (महा, आदि पर्व, ३/१३४),), जुआ (महा, सभा, २/६४ एवं छिताई. छंद, ९६), जलक्रीड़ा (छिताई, छंद, ९७९), चोर मिहचनी (छंद, १२१) एवं फाग खेलना (छंद, ३५९) प्रसंगवश आए हैं । व्यायाम में मुद्गर, नाल और मलखम्भ (छंद, १६१-१६२) का वर्णन है । इनके अलावा हिंडोरा (छंद, १२२), जात्रा (छंद, ६४०), अहेर (छंद, २१२) और बंसी खेलना (छंद, ५०७) भी यत्र-तत्र उल्लेखित किये गए हैं । पेशेवर लोकरंजक नट (छंद, २१० एवं महा. सभा. २/८१) एवं पातुर (छंद, ७२६) लोकप्रसिद्ध रहे हैं ।  

       तोमर-काल में लोकरंजन की प्रमुख संस्था अखाड़ा थी (महा. आदि. ३/१६०, विराट्, ३/७८) । महाभारत में कुश्ती और कला के दोनों अखाड़ों की चर्चा है, छिताई चरित में केवल कलाओं के अखाड़ों की । छिताई चरित के अनुसार कला के अखाड़े दो प्रकार के होते थे-एक वे, जो स्थायी रुप से बने होते या बनाये जाते थे (छंद, २१०, ४८८) और दूसरे वे, जो अस्थायी रहा करते थे और कलाकारों के साथ जाते थे (छंद, ७२६) । मानसिंह तोमर द्वारा निर्मित 'राछ' नामक रंगशाला प्राप्त हुई है जिसमें अखाड़ा हुआ करता था । तोमरकालीन कवि ने लिखा है-"डाँग बँधाई महल जू भये । तहाँ-तहाँ भूप अखरे ठये ।। चारों जात त्रियन की कहीं । ते सब मान अखारे रहीं ।।"

       लोकरंजन के आनन्द को इस युग में रंग (छंद, ७६) या रस (छंद, ८७३) कहा जाता था । कहीं-कहीं लीण (लीन) (छंद, ८७४), फूलना (छंद, ८६६), सिहाना (छंद, १२०), सुख होना (छंद, ९७९) आदि शब्द प्रयुक्त हुए हैं । छिताईचरित में प्रख्यात संगीतकार गोपाल नायक का नाम भी आया है (छंद, ८०८, ९१२), जो अलाउद्दीन ने श्रीरंग की मूर्कित्त उसे लौटा दी थी । छिताईचरित के नायक समरसिंह को संगीत के बल पर छिताई मिलती है । वस्तुत: छिताईचरित तत्कालीन परिस्थितियों में संगीत-विजय की घोषणा का काव्य है, जिससे उस समय के लोकरंजन की लोकप्रतिष्ठा का पता चलता है ।

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(१५००-१६७५ ई०)

डेढ़-पौने दो सौ वर्ष के इस कालखंड में लोकरंजन के कुछ नये आयाम उभरे और उन्होंने उसे व्यापकता प्रदान की । ओरछा के ख्यात् भक्तकवि हरिराम व्यास की बानी के पदों में लोकरंजन के लिए 'बिनोद' शब्द ही प्रयुक्त हुआ है । तुलसी ने भी इसी शब्द को महत्त्व दिया है । इस युग में लोकसंस्कृति की सुरक्षा एक प्रमुख समस्या थी, इसलिए शिशु से   लेकर वृद्ध तक की अस्मिता पहचानी जाने लगी थी । यही कारण है कि शिशु-विनोद और बाल-विनोद को प्रधानता दी गई थी । गोद में लेकर हिलाना-डुलाना, उछालकर फिर पकड़ना और पकड़कर फिर उछालना तथा पलना में झुलाना जैसे आंगिक व्यापार शिशु और माता-पिता, दोनों के लिए विनोद थे (रामचरितमानस, १/२००/४ ) । थोड़े बड़े होने पर चन्द्रमा माँगना, नाचना, किसी वस्तु के लिए हठ करना आदि शुरु हुए । फिर आँगन   के बालविनोद, जिनमें खिलौना प्रमुख थे (गीतावली, १/१९/८) । उसके बाद मित्रों के साथ तरह-तरह के खेल विनोद के साधन बने, जैसे-आँखमिचौनी, गोली खेलना, भौंरा चलाना, चकडोर, धनुष-बाण के खेल और नृपलीला । चकडोर में चक एक गोल खिलौना है और डोर जोड़ देने से हुआ डोरी से चलनेवाला एक गोल खिलौना, जिसे इस अंचल में चकरी नाम से जाना जाता था । धनुष-बाण के खेल अभी बीसवीं शती के प्रारम्भिक तीन दशक तक खेले जाते रहे हैं । बाँस की कमठी की धनुइया और सन के डण्ठल के एक सिरे पर महुआ कुचलकर बनायी लुगदी लगाकर धनुष-बाण बनाया जाता था और निसाना, उड़त्ता आदि खेले जाते थे । नृपलीला का बुंदेली 'राजा-राजा' या 'राजा-सिपाई' है, जिसमें एक बालक राजा बनता है और शेष मंत्री, सेनापति, सिपाही, सभासद आदि ।  

कलात्मक विनोदों में गायन, वादन, नृत्य, अभिनय, आलेखन और मूर्ति बनाना प्रमुख

थे । रामचरितमानस में लोकगीतों या मंगलगीतों का उल्लेख बार-बार हुआ है (१/२२८/२ एवं १/२४८/१) और पुरानी कथा-कहानी या लोककथाएँ कहने-सुनने का रिवाज भी स्पष्ट है (२/१४१/१) । विनयपत्रिका में हाथ से ताली बजाकर नचाने का पता चलता है (पद ९८), परमालरासो (७/७६) से स्पष्ट है कि जन्म की खुशी में लोकनृत्य होते थे । सामूहिक नृत्य भी प्रचलित थे (मानस, ७/७२/१) । रास और अन्य लीलाएँ अभिनीत होती थीं (बानी सं. ४५८, ७११-१२, ७१३-१८) । तुलसी ने ऐपन से थापा लगाना और उसे पूजना, चित्र लिखना और चित्रशाला का उल्लेख किया है (दोहावली, ४५४ । मानस, १/२६० । गीता., १/७३) । मूरति, प्रतिमा और पूतरी शब्द भी मूर्तिकला के प्रमाण हैं । स्वाँग धरना भी उस समय की लोककला थी (बानी, २५१ एवं विनय, २५२), लेकिन स्वाँग धरने और स्वाँग करने में अंतर है । स्वाँग करने में   'स्वाँग' लोकनाट्य का अभिनय शामिल है, जो और पहले से प्रचलित था । विवाह-संस्कार में ज्यौंनार के समय गारियाँ गाना इस अंचल का विशेष विनोद है, जिसे तुलसी और केशव ने सही रुप में समझा है । तुलसी ने व्याख्या की है-

               १.   जेंबत देहिं मधुर धुनि गारी । लै लै नाम पुरुष अरु नारी ।।

               २.   गारी मधुर सुर देहीं सुंदरि, बिंग्य बचन सुनावहीं ।

       आचार्य केशव ने तो गारी की रचना तक कर दी है-

               वह रावरे पितु करी पत्नी तजी बिप्रन थूँक कें ।

               अरु कहत हैं सब रावणादिक रहे ताकहँ ढूँक कें ।।

               यह लाज मरियत ताहि तुमसों भओ नातो नाथ जू ।

               अब और मुख निरखै न ज्यों त्यों राखिये रघुनाथ जू ।।

                                                          राम. ६/३६

       तत्कालीन लोककवियों ने भी इसी तरह की व्यंग्य-विनोदमयी गारियाँ रची हैं । एक उदाहरण प्रस्तुत है-

               हमनें सुनी अबध की नारी दूर रहैं पुरसन सें ।

               खीर खाय सुत पैदा करतीं लाला बड़े जतन सें ।।

               नार ताड़का तुमें देखकें दौरी आई बन सें ।

               कछु करतूत बनी नइं तुमसें धर छेदी बानन सें ।।

               बैन तुमायी तुमें छोड़कें जाय बसी रिसियन कें ।

               बुरो मान जिन जइयो लाला इन साँची बातन सें ।।

               साँची झूठी तुम सब जानो का कै सकत बड़न सें ।

               लगत रओ नीको लाला आये हते जा दिन सें ।। टेक ।।

       विवाह में विनोद के ऐसे दो प्रसंग और हैं-एक कोहबर का विनोद, जिसमें लहकौर प्रमुख है (तुलसी ने 'हास-बिलास-रस' और 'कौतुक-विनोद-प्रमोद' कहकर उसे महत्त्व दिया है, मानस-१/३२७/७-८) तथा दूसरा कंकन छोड़ने का विनोद, जिसमें साली-सरहजें बार-बार व्यंग्य करती हैं (तुलसी ने 'मंगल, मोद, बिनोद न थोरे' लिखा है) । लोककवियों ने दोनों प्रसंगों के अनुरुप लोकगीतों और गारियों की रचना की है । तुलसी ने गारी देने का प्रयोग किया है, जबकि विवाह में इस अंचल की यह रीति है कि गारी गायी जाती है, दी नहीं जाती । फाग में गारी देने की रीति उस समय थी (गीता. ७/२२), पर बाद में कुछ भूभागों से बिल्कुल समाप्त हो गयी है ।

खेलों में बंदर के खेल, जलक्रीड़ा, जुआ, फाग खेलना और नट के खेल प्रमुख थे, जिनका उल्लेख रामचरितमानस (४/७/१२), बानी (६६५), रामचंद्रिका (२८/१०) और गीतावली (२/४७/९-१५), में हुआ है ।   खग-मृग-तरु से खेलने का भी अपना रस है । शिकार खेलना हर युग का विनोद रहा है । वसंत में फाग खेलना, चाँचर खेलना और फगुआ लेना इस युग में नयी धज लेकर आये थे ।   तुलसी ने फागोत्सव का वर्णन भलीभाँति किया है (गीता, ७/२२) । उसमें फगुआ का आंचलिक रुप उभरा है, जिसके अनुसार यहाँ फगुआ के लिए भौजाइयाँ, सालियाँ और सरहजें अपने देवर और भउआ   (जीजा या बहनोई) को, पत्नियाँ-पतियों को और प्रेमिकाएँ-प्रेमियों के पटा पर बैठाकर काजल लगाती हैं, महावर से उनके चरण रंजित करती हैं और माथे पर टिकुली लगाकर रंग से सराबोर कर देती हैं । ऐसी दशा बनाती हैं कि उन्हें नचाकर और हा-हा कराके ही छोड़ती हैं । लोग गधों पर विदूषकों की तरह बहुरुप रखकर बैठते हैं और निर्लज्ज होकर कूटोक्तियाँ कहते जाते हैं । पुरुष और स्रियाँ परस्पर गाली देते हैं, जिन्हें सुनकर लोग हँसते हैं । हरिराम व्यास की रचना 'बानी' में 'टेसू के राज्य' का साक्ष्य मिलता है, जिसमें 'टेसू' के खेल का रहस्य समझ में आ जाता है (छंद, १६७) ।

सावन में झूला झूलना, दीपावली में दीपों की पंक्तियाँ देखना और कजरियों में हरियाली, जलविहार आदि   उत्सवपरक विनोदों में प्रमुख थे (गीता. ७/१८, ७/२० एवं परमालरासो १०/४८३) । वन-विहार, पुष्प-सज्जा (फूल-रचना) और पालतू पक्षियों एवं पशुओं से विनोद करना प्रकृतिपरक लोकरंजन के रुप में प्रचलित थे (बानी, ४०४, ६६३-६४ एवं विनय, ३३१) ।   चंग (पतंग) का उल्लेख मानस (२/२४०/३) में मिलता है । बानी (छंद ४२३) में 'बतरस' विनोद का पता चलता है ।

इस कालखंड में लोकरंजन के संस्थान 'अखाड़ों' के उत्कर्ष का प्रमाण मिलता है । मानस में दो तरह के अखाड़ों का वर्णन है-एक मल्लविद्या (कुश्ती) के अखाड़े (५/३/२) और दूसरे संगीत-नृत्य के अखाड़े (६/१०/४) । 'कविप्रिया' में कला के अखाड़ों के व्यापक प्रसार और महत्त्व का प्रमाण मिलता है । उसमें संगीत, नृत्य और अभिनय के अतिरिक्त कविता-पाठ की प्रतियोगिता भी होती थी, जिसके लिए कविता के नियमों (काव्यशास्र) की रचना कर आचार्य केशव ने रीतिकाव्य का प्रवर्तन किया था । ऐसे अखाड़े की महिमा का जीता-जागता स्वरुप ओरछा के प्रवीणराय-महल के नाम से प्रसिद्ध अखाड़े में मिलता है अथवा केशव के निम्न दोहे में-

              कियो अखारो राज को, सासन सब संगीत ।

                      ताखो देखत इन्द्र ज्यों, इन्द्रजीत रनजीत ।।

                                                          कविप्रिया, १-४१

अखाड़े के राज्य में गायिकाएँ, नर्तकियाँ, कवयित्रियाँ तो थी हीं, नट-नटी, मागध, सूत, भाट और विदूषक भी थे । भड़ैंती करने वाले भाँड़ और राई नचने वाली बेड़िनी का 'रामचंद्रिका' में साक्ष्य यह सिद्ध करता है कि उस समय की लोकचेतना महाकवियों तक को गुदगुदाने लगी थी, उन महाकवियों तक को जिनके कुल के दास भाषा बोलना नहीं जानते

थे । चंग और खिलौना बनाने वाले शिल्पी जैसे लोककलाकारों को नकारना उचित नहीं है क्योंकि वे लोकरंजन की सामग्री ही नहीं खोजते, वरन् लोकसंस्कृति के मानचित्र के लिए नयी-नयी रेखाएँ लिखते हैं । कौतुक की भी काफी चर्चा हुई है, पर कौतुकी केवल चमत्कृत करता है, जबकि विनोदी एक विशेष प्रकार का ' सचु' (मानस, १/९९/५) यानी आनन्द देता है । तुलसी ने ' सचु' कहकर विनोद के आनन्द को अन्य आनन्द से विशिष्ट रुप में अंकित करना चाहा है, तभी तो वे तुरंत उसे उस आनन्द की संज्ञा दे देते हैं, जो करोड़ों मुखों से कहे जाने पर भी पूरा नहीं हो पाता ।

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बुंदेलखंड की स्वतंत्रता की अलख जगानेवाले वीर चम्पतराय और छत्रसाल बुंदेला ने लोकरंजन को अपनी दृष्टि से देखा था, इसीलिए वे युद्ध को युद्ध न मानकर 'तलवारों का खेल' कहते थे । 'छत्रप्रकास' (२०/१४) में अरिमुण्डों के उछालने की उपमा नटों के 'बटा के खेल' से दी गयी है । छत्रसाल का महाकवि भूषण की पालकी में कंधा लगाना कवि कार नहीं, कविता का सम्मान करना था और 'कबित्त' गायकी उस समय के लोकरंजन, का एक अंग थी । इस रुप में छत्रसाल ने लोकरंजक और लोकरंजन दोनों का महत्त्व प्रतिष्ठित किया था । स्पष्ट है कि यह युग लोकरंजन के उत्कर्ष का युग था ।

       युद्धपरक संस्कृति के लोकरंजन गिने-चुने होते हैं । सैनिकों का प्रमुख रंजन 'मुजरा' होता है (शुभकरन रायसो, छंद १३१) । बहुधा मुगलसेना के साथ 'अखाड़ा' भी चलता था, जो सैनिकों को ताजगी देता था । 'छिताईचरित' में सुलतान अखाड़े को बुलाने का हुक्म देता है और शुभकरन रायसो में भी । इस अखाड़े में संगीत और नृत्य के पेशेवर कलाकार ही होते थे, जो सैनिकों की थकान दूर करने के लिए संगीत की सुरा पिलाते थे । असल में, युद्ध के साथ भोग की भूख बढ़ जाती है, जिसकी संतृप्ति सुरापान और संगीतरस से होती है । करखा और कवित्त-गायकी तो उत्साह बढ़ाते हैं, लेकिन लहू का फगुआ एक अनोखे तृप्तिपरक रंजन का परितोष देता है । यह सब एक विशिष्ट बर्ग तक सीमित रंजन है, इसलिए इसे लोकरंजन मानना उचित नहीं है ।

       इस युग के कलात्मक विनोदों में गायन, वादन, नर्तन, चित्रण, अभिनय आदि प्रमुख थे । गायन के अंतर्गत शास्रीय और स्वच्छंद रीतियाँ प्रचलित थीं । शास्रीय राग-रागनियों की चर्चा इस युग के ग्रंथों में खूब हुई है (कामरुपकथा, १०/४२-१५०), लेकिन लोकगायकी के उत्कर्ष का भी पता चलता है (काम. १३/३२, स्नेह-सागर, ४/३८) । बोधा के 'विरहवारीश' (२०/६, २६/६८) में कबित और करखा गायकी का उल्लेख है । नृत्य की विविध गतों और बारीकियों के साथ-साथ भावनृत्य और लोकनृत्य की विविधता का भी पता चलता है (विरह. १४/४-९, १६/२४, २७/३३) । कवि कहता है कि 'डोला कैसी पुतरियाँ नची नगर की नारि' (७/४९), जिससे 'पुतरियाँ' बनाने की लोककला के अस्तित्व का प्रमाण मिल जाता है । पुतरियों का खेल भी प्रचलित था (सनेह., ६/३३), जिसे इस अंचल में 'पुतरा-पुतरिया को खेल' कहा जाता है । चित्र लिखने को 'चतेवर' कहा जाता था और चित्रकार को चतेवरी (काम. १/६४) । सनेह-सागर में 'चित्र पुतरिया' से 'सबी' (लिखन बैठ जाकी सबी-बिहारी) का बोध होता है (२/९८) । स्वाँग, रास, सांगीत (नौटंकी) और नाटक के अभिनय में लोग रस लेते थे (रतनहजारा, ९९, छत्रसाल ग्रंथावली, पृ. २३, छंद ५७, विरह. १३/२१, वही १०/८) । रास के लिए इस अंचल में 'रहस' शब्द भी प्रचलित था (विरह. १६/२२) । 'विरहवारीश' में 'सांगीतक' (१३/२१) का प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ होता है-सांगीत (नौटंकी) करनेवाली, जिससे स्पष्ट है कि १७५२-५८ ई. में नौटंकी के लिए 'सांगीत' शब्द प्रयुक्त होने लगा था । गाथा पढ़ना, किस्सा और उपाख्यान तथा वार्ता कहना काफी व्यापक रुप ले चुका था (कृष्णचंद्रिका, १०/२०, काम. ३/६७, विरह, १५/३८, वही, १७/५०) ।

       खेलों में और अधिक विविधता आ गयी थी । सनेह-सागर में (१/४७-४८) गेंद और ढेला-संबंधी खेल, हुडुरबा (हुडुडुबाउकबड्डी का खेल), वृक्षों पर डण्डे से खेलना (सिलोरमारी डण्डा), पीपल के पत्ते तोड़ना (पीपरपाती), खाई-कूप-नदी-नारे नाकना और जमुना में उतरना (जलक्रीड़ा) का उल्लेख है । शिकार, चौपड़ और जुआ के खेल परम्परित थे । 'विरहवारीश' में जुआयुद्ध (२४/३) का आशय है-बाजी लगाकर युद्ध करना । नटों द्वारा बाँस पर चढ़कर खेल करना और बटा के खेल   बहुत लोकप्रिय थे (विरह. १४/४९ एवं १९/१४, छत्रप्रकास, २०/१४) । 'रतनहजारा' (२८१) में शतरंज और 'विरह-सुभान-दम्पति-विलास' में 'गुनीन के आम' (इन्द्रजाल से आम-अमरुद आदि प्रकट हो जाना) दो विशिष्ट खेल बताये गये हैं । 'छत्रप्रकास' में खिलौनों (४/३) और 'स्नेह-सागर' में पुतरियों के खोलों (६/३३) का संकेत है । चौपड़ का खेल तो ऐतिहासिक बनाया पन्नानरेश अमानसिंह और उनके बहनोई अकोड़ी के गढ़ीदार प्रानसिंह ने । जनश्रुति और राछरे गीतों के अनुसार खेल के कारण ही प्रानसिंह अपने साले के हाथों मारे गये थे । आमानसिंह के संबंध में कई विनोद भी प्रसिद्ध हुए हैं, जो बीरबल के विनोदों की तरह लोकप्रसिद्ध हैं ।

       दूसरे लोकरंजनों में बीरा (पान का बीड़ा), गुड़ी (पतंग-चंग), फिरकी, मुजरा, पालतू पक्षी, वेष बदलना, भंग या सुरापान आदि प्रमुख थे (रतन, ३३५, ५८६, विरह. १३/४४, १५/१७, २६/७६, काम. ५/१९, विरह. १७/२, सनेह. ९/५३, विरह. १२/१८) । वैवाहिक संस्कार में कंकन छोड़ना, आगौनी, गारी गाना, राछ फिरना आदि विनोद पहले से चले आ रहे थे । झूला या हिंडोरा झूलना बहुत पसंद किया जाता था । अक्षयतृतीया (अखती) के नाम-विनोद (अर्थात् पति से पत्नी-नाम और पत्नी से पति-नाम कहलाना) का वर्णन 'छत्रसाल ग्रंथावली' (पृ. ४३, छंद ३६) और सनेह-सागर (६/७०) में किया गया है । सनेह-सागर का एक छंद देखें-

              अपने हाँतन लेंय बुदरिया अत सुंदर सटकारी ।

              आयीं निकट स्याम कें सब मिल ब्रजमंडल की नारी ।

              कोऊ गहै पीतपट छोरु कोऊ हाँत उँगरिया ।

              बेग नाम लीजै प्यारी कौ नातर सहौ बुदरिया ।।

       सनेह-सागर (४/३९-४०) में कुलदेबी-पूजन का विनोद मिलता है, जिसके अनुसार भाँवरों के बाद मैर के घर जाते समय दूल्हा को किसी पत्थर या अन्य वस्तु के निकट ले जाकर कहा जाता है कि 'इन कुलदेवी की पूजा करो' । दूल्हा के द्वारा पूजी जाने पर स्रियाँ हास्य-विनोद से सराबोर होकर दूल्हे का परिहास करती हैं कि 'लाला, अब तो दुलहिन के चेरे (शिष्य) हो गये' । फाग खेलना भी आंचलिक वैशिष्ट्य रखता है । फगुवारों की टोली आने पर बाँस घालने का रिवाज व्रज में प्रचलित रहा है, पर इस अंचल में नहीं है । लेकिन 'सनेह-सागर' (५/३४-३५) में उसके वर्णन से ऐसा प्रतीत होता है कि पहले यहाँ भी इस तरह की फाग प्रचलित थी ।

       'विरह-विलास' में हर ॠतु के लोकरंजन दिये गए हैं । उदाहरण के लिए, कार्तिक में घर को दीपकों से आपूर्ण करना, आकाशदीप (आग्गासिया) रखना, गाना-बजाना होना, जुआ खेलना, ग्वाल-ग्वालियों का नृत्य करना, विवाह और गौने में गारियाँ गाना तथा फागुन में फाग गाना, नाचना, स्वाँग बनाना, फाग खेलना, गधों पर चढ़कर तरह-तरह के वेष धरना, गोबर-कीच से सने सुरा के नशे में पुरुषों का एवं हाथ में लट्ठ लिए, लटें बिखराये, उन्मत्त-सी नारियों का फाग खेलने के रस में डूब जाना वर्णित है । ग्रंथों में जहाँ कौतुक का प्रयोग है, वहाँ अचरज होने या सुखदायक का भाव है, लेकिन कलात्मक विनोदों और खेलों में रसयुक्त होने की अनुभूति का (कास. ५/१९, १/१४ एवं सनेह. ४/४५) । बोधा कवि ने 'मजेदार सब जग खेलबो है' द्वारा जागतिक व्यापारों को खेल माना है और वह खेल   मजेदार या आनन्द से परिपूर्ण है । वास्तव में, जगत और जीवन को खेल मानने से ही आनन्द की उपलब्धि संभव है और खेल का दर्शन ही सच्चा जीवन-दर्शन है ।

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उत्तर बुंदेल युग

बुंदेलखंड के महाभारत कहे जाने वाले गठेवरा-युद्ध के बाद एक गिरावट का युग आया, जिसमें लोकमूल्यों का पतन हुआ, लेकिन विलासपरक लोकरंजनों का और विकास दिखाई पड़ा । इस युग में तमाशा, कौतुक और मजाखें शब्दों का प्रयोग होता रहा । मजाखें मजाक का ही रुपान्तरण है, जिसका अर्थ दिल्लगी या विनोद की बातें हैं । पद्माकर ने 'जगद्विनोद' के एक छंद (३९१) में 'विनोद के रसाला' कहकर 'विनोद' (लेकरंजन) की रसवत्ता को मान्यता प्रदान की है । जब वसंत आता है, तब रस, रीति, राग, रंग, तन, मन, सब कुछ और हो जाते हैं-'औरै रस औरै रीति औरै राग औरै रंग, औरै तन औरै मन औरै बन ह्मवै गये', । इसी प्रकार 'विनोद' का रस कुछ और ही होता है, जिससे तन-मन कुछ और हो जाते हैं, भले ही ठाकुर ने इस युग को नीरस बताया हो-

       रुप है न रस है न गुन है न ज्ञान कहूँ,

              सील है न सत्य है भारी निरस जमानो है ।

       रीति है न प्रीति है न नीति है न न्याव कहूँ,

              घर घर देखियत हरष हिरानो है ।।

       'ठाकुर' कहत भूलो सकल संजोग भोग,

              कठिन कुजोग लोग सबही बिरानो है ।

       कौन को जतैये कहाँ जैये कहाँ पैयै बीर,

              मन बहराइबे को ठौर न ठिकानो है ।।

इस समय के कलात्मक विनोदों में गायन-वादन, चित्र, नृत्य, अभिनयादि सभी मौजूद थे । पद्माकर तो 'सराग' कविता को महत्त्व देते थे (पद्माभरण, १०४) । चित्र और चित्रसारी भी थे । शबीह को पुतरिया कहा जाता था-'चित्र कैसी पूतरी न पाई चित्रसारी में', (जगद्विनोद, छंद ३७५) । स्वाँग और स्वाँग बनानेवाले बहुरुपिया दोनों का उल्लेख पद्माकर-ग्रंथावली (प्रकीर्णक, छंद ५६) में हुआ है । कवि ने फिरंगी का स्वाँग धारण किये पावस ॠतु का वर्णन किया है (वही, ६३) । रासलीला, दानलीला आदि लीलानाटकों के अभिनय होते थे (जग. ३८९, ५२५ एवं प्रकी. ८७) । दतिया जिले में पत्र-पाणडुलिपियों के सर्वेक्षण में प्राप्त संवत् १८५९ (१८०२ ई.) के एक पत्र में   डौंगरपुर (परगना र्तृहुड़े) के पन्ना व पलट् भाँड का नाम आया है, जिससे भँडैंती के प्रचलन का पता चलता है । १८४२ ई. के बुंदेला-विद्रोह का एक कारण 'राई' नृत्य भी है । नारहट के महल में 'राई' लोकनृत्य हो रहा था कि अंग्रेजी पल्टन के कुछ सिपाही अचानक पहुँचे और वे बेड़नी नर्तकी को बलात् उठाकर ले गये । मधुकरशाह ने उसे ससम्मान लौटाने का संदेश भिजवाया, पर अंग्रेज अधिकारी ने दूत को उत्तर दिया-"बेड़नी अब केवल हमारे सामने नाचेगी । मधुकरशाह को राई का शौक है तो अपनी रानियों को नचवायें ।" यह सुनकर मधुकरशाह को आग लग गयी और नारहट में पड़ी अंग्रेजी पल्टन का एक भी सैनिक जीवित नहीं लौट पाया ।   यहीं से बुंदेला-विद्रोह का श्रीगणेश हुआ था । दतिया के गुल्ला नर्तक की चर्चा मैथिलीशरण गुप्त ने अपने एक संस्मरण में की थी ।   इस समय तक गंजीफा कला (ताश) इस अंचल में भी आ गयी थी, पर उसका कोई साक्ष्य अभी तक प्राप्त नहीं है ।

       किसा-कानियाँ (लोककथाएँ) कही-सुनी जाती थीं । उन्हीं के आधार पर कथाकाव्य रचे गये थे । लोकगीतों के विविध रुप प्रचलन में थे । रासो और वीर-रसपरक काव्यों से ही नहीं, छोटी-छोटी कटककाव्य-रचनाओं से स्पष्ट है कि करखा गायकी गायी जाती थी ।   उसके गायक जाँगरे कहलाते थे (हिम्मतबहादुर विरुदावली, छंद ४२ एवं छत्रसाल कौ कटक, छंद १८१) ।   'हरबोले' वीर-रसपरक कथा-गीतों को गाँव-गाँव जाकर सुनाते थे और योद्धा की मानसिकता तैयार किया करते थे । दूसरे प्रकार के लोकगीत कृष्णपरक और श्रृंगारपरक थे । लीलापरक और बारामासी लोकगीतों की बहुलता थी । आज तक लोकमुख में जीवित गेंदलीला और बारामासी इसी दौर की रची हुई थीं । तीसरे थे संस्कारपरक, जिनकी प्रेरणा का एक उदाहरण यहाँ प्रस्तुत है । पद्माकर का एक दोहा है-

       छुटी न गाँठ जु राम सों, तियन कहो तिहि ठाँहिं ।

       सियकंकन को छोरबो धनुष तोरबो नाहिं ।।

इसी विनोदपरक प्रसंग को लोकगीतकार ने इस प्रकार लिखा है-

       जो नईयाँ धनुष को टोरबो,

              कठिन गाँठ कंकन छोरबो ।...

       खेलों के दो रुप स्पष्ट हैं । एक है उनका वीर-रसपरक और स्वास्थ्यवर्द्धक रुप, जिसमें शारीरिक व्यायाम प्रधान होता है । बच्चों के खेलों में चाँई-माँई, आँखमिचौनी, दुका-दुकौअल, छुआ-छुऔअल, गिल्ली-डंडा, खो, घोड़ा-घोड़ी, मगरतला, नौनापारी, कबड्डी, पकड़ा-पकड़ी, गोली आदि प्रमुख थे । मामुलिया, सुअटा, और रोटी-पन्ना आदि बालिकाएँ खेलती थीं । अखाड़े में कुश्ती लड़ना, नट के खेल, जलक्रीड़ा, पटा-बनैती, मृगयादि बड़ों के खेल के अंतर्गत आते थे । 'छत्रसाल कौ कटक' में दानकवि ने पटेबाजी का उल्लेख किया है ।   (छंद ३०) और पद्माकर के छंदों (प्रकी. ११, ३५) में भी पटा-बनैती का वर्णन है, जिससे स्पष्ट है कि इस युग में पटा-बनैती खूब प्रचलित थी । 'जगद्विनोद' (छंद ३००, ४०५) में 'नट के बटा' और 'जलविहार' के संकेत मिलते हैं । चरखारी के गोपाल कवि ने १८३०-५६ ई. के मध्य 'मृगयाविनोद' नामक एक ग्रंथ की रचना की थी, जिसमें शिकार-संबंधी सामग्री, भेद आदि के साथ कुछ विनोदपरक बातें भी लिखी गयी हैं । उदाहरण के लिए, जंगल में गाना गाकर जानवरों को मोहित करने वाले अहेर-गायक और जंगली जानवरों की बोली बोलनेवाले वनरसिया जहाँ शिकार में सहायक थे, वहाँ विनोद के साधन भी थे । दूसरे प्रकार के खेल बुद्धिपरक थे, जैसे-पासासारि (जग. १६९), इंद्रजाल (जग. ७२१, कलि. २६), चेटक (जग. ६२४) आदि ।

       अन्य विनोदों में कई वर्ग हो जाते हैं-(क) वाटिका-विहार, क्रीड़ाकमल, फूलरचना आदि का प्रकृतिपरक (ख) होरी, अखती, दीपावली आदि लोकोत्सवपरक (ग) सुरा, भंग आदि मद्यपरक (घ) लुकंजन, जादू आदि सम्मोहनपरक (च) झूला, जलविहार आदि ॠतुपरक और (छ) शिवविवाह, स्वाँगादि हास्यपरक । पद्माकर और ठाकुर के छंदों में इन सबका उल्लेख है, पर लुकंजन, क्रीड़ाकमल और हास्यपरक दृश्य नये हैं (जग. १०६, १२४, ६७४) । फूल-रचना और झूला का समन्वित चित्र प्रस्तुत है-

       फूलन के खंभा पाट-पटरी सुफूलन की,

              फूलन के फँदना फँदे हैं लाल डोरे में ।

       कहै 'पद्माकर' बितान तने फूलन के

              फूलन की झालरें त्यों झूलतीं झकोरे में ।

       फूल रही फूलन सुफूल फुलवारी तहाँ,

              फूलई के फरस फबे हैं कुंज कोरे में ।

       फूलभरी फूलजरी फूलझरी फूलन में, ।

              फूलई सी झूलत सुफूल के हिंडोरे में ।।

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पुनरु त्थान युग

१८५७ ई. के स्वतंत्रता-संग्राम की असफलता के बाद बुंदेलखंड की रियासतें अंग्रेजों की सुरक्षा में रहकर आश्वस्त होने लगी थीं ।पुराने लोकरंजन नये रुप में उभरने लगे थे ।   विशेष रुप में वे, जिनके द्वारा अंग्रेज साहबों को खुश करना जरुरी था ।   ऐसे रंजनों के लिए एक विशेष वर्ग भी उत्पन्न हो गया था । वह जहाँ रंजनों में कुशल था, वहाँ साहबों और स्वामियों की चापलूसी और सेवा में भी ।   सबसे प्रमुख उदाहरण शिकार का है ।   प्रसिद्ध फागकार ख्याली ने शिकार के दस गुण बताये थे-

       प्रथम जंघ बल होय, दुतिय अभ्यास अस्र कर ।

       तृतीय रैन दिन भ्रमै, करे संका न सत्रु कर ।

       पाँचें सब छल जान, छठें घर दिसा न भुल्ले ।

       रात खबर दिन रैन, आठवें समर न डुल्ले ।

       नवें नेम निस दिन रहे, मन जीतै रन-रार में ।

       घामो तुसार इक सम गिनें, जे दस गुन रयें सिकार में ।।

       महाराजा रनजोरसिंह की पुस्तक 'युद्धबोध मृगया विनोद' (१९१४ ई.) के पृ.७४ में बंदूक से संबंध रखने वाले शिकारी खेलों का विवरण लिखा गया है । 'खेल हकाई' में ढोल, नगड़िया, तुरही और बिगुल बजाकर शिकार की हँकाई होती है । हकवा लोग ढेला-पत्थर फेंकते हैं । छीरा बाँधकर शिकार के लिए रुकावट पैदा की जाती है, जिसमें बिजूखे खड़े करना या आदमियों की दीवार बना देना ही खास साधन होते हैं ।   उसके बाद खेल गायरे का, खदेला, टहलाई, अगोट, ढुकाई, पनवा, बिरोल, चुल, घमोरी, पाल, डाली, झेलिया, डोंगे, ऊसर जमीन के खेलों का वर्णन है ।   इन खेलों के नाम बुंदेली हैं और इनसे तरह-तरह के शिकार का पता चलता है । एक दूसरी पुस्तक-'सीता बालविनोद' मुझे हस्तलिखित रुप में मिली है, जिसके रचयिता कविवर रामरसिक हैं और जिसमें 'मामुलिया खेल' का वर्णन है । वर्णनानुसार मालिन द्वारा मामुलिया लाना, सीता की माता द्वारा नगर बुलौआ, सीता की भौजी का सजधज कर शामिल होना, हाथी पर मामुलिया को जुलूस के रुप में ले जाना, गीत गाना, भाट और नटों का नाचना, चौकी रखकर मामुलिया सजाना, जल-चंदन-चावल-पान-सुपारी-फल-फूल-धूप-दीप आदि से पूजा,   भोग लगाना, इनाम-निछावर देना, फिर नौका द्वारा जल में सिराना और कन्याओं के भोजन इस खेल की क्रमिक रेखाएँ हैं ।

       कलात्मक विनोदों में गायन-वादन, नृत्य-संगीत, चित्रांकन, काव्य-पाठ, प्रहेलिका, स्वाँग, भँड़ैती, अभिनय, रहस, लीलानाटक, संवाद आदि प्रमुख थे ।   इन सबके प्रमाण रसिक (रामरसिक या माधुर्योपासक) रानियों की रचनाओं-वृषभानुकुँवरि 'रामप्रिया' कंचनकुँवरि, रतनकुँवरि और रुपकुँवरि के काव्यग्रंथों में बिल्कुल स्पष्ट हैं ।   इन रानियों ने अपने को ढाढिन कहा है (रतनमाला, रतनकुँवरि, छंद, ९ एवं कांजनकुंज-विनोदलता, पृ. ५), जिससे स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि विनोदों के लौकिक आनन्द द्वारा अलौकिक रस प्राप्त करने की थी ।   ऐसी दृष्टि से प्रकट है कि संगीत, नृत्य और अभिनय को काफी महत्त्व प्राप्त था । लोककवि ईसुरी ने स्पष्ट कहा है कि जब तक जीवन है, तब तक विनोद है-

               जो कोउ जियै सो खेलै होरी, खेलकूँद लेव गोरी ।

               कर लेव भेंट गरे मिल-मिल कें, कजा पै नइयाँ जोरी ।....

       संगीत और नृत्य जहाँ राजसी वर्ग में प्रचलित थे, वहाँ साधारण जन में भी । राजा और उसके सामान्त संगीत-नृत्य की विलासिता में डूबे रहते थे ।   जनानी ड्योढियों में उनके समारोह होते रहते थे । वे अपने-अपने रावलों में पातुरों को बुलाकर गीतों और नृत्यों का आनन्द लेती थीं । कभी-कभी रानियों में विनोदों को लेकर होड़ मच जाती थी, क्योंकि राजा को आमंत्रित कर उन्हें प्रसन्न करने की लालसा हर रानी में प्रबल होती थी ।   त्यौहारों और विशेष अवसरों पर राजसी आयोजन सबके लिए खुले होने पर लोकरंजन का रुप ले लेते थे ।   रियासतों में दरबारी कलाकार होते थे और उनका सम्मान पूरे राज्य में होता था ।   लेकिन लोककलाकार लोकोत्सवों में सभी का रंजन करते थे । फाग और ख्याल गायकी इस युग में उत्कर्ष की चरम सीमा तक पहुँच चुकी थी । ईसुरी, गंगाधर और ख्याली तथा उनके समकालीन चौकड़िया और उसके काथ होने वाले 'राई' लोकनृत्य को एक नयी दिशा दे चुके थे । रामलाल पाण्डे और गंगाधर ने सैरों और ख्यालों की गायकी में   ऐतिहासिक योग दिया था । ढाढ़ी-ढाढिन, नट-नटी और वारवधू-गणिका वर्गों के अलावा बैड़िनी और पतुरिया के वर्ग बन चुके थे ।

       अभिनय के क्षेत्र में स्वाँग, भाँड़ों की नकलें, रामलीला, रहस और नाटक सभी लोकप्रिय थे । 'वृषभान-विनोद' (प्रकाशन, १९१४ ई.) में स्वाँग और लीला-मानलीला का वर्णन है (छंद १०६, १४०-१६८), 'रतनमाला' (छंद, ३८८-९८) में सरजू तट पर राम-सीता के रहस का चित्रण है और 'भजनमाला' (प्रकाशन, १९०८ ई.) के छंद, १०३ में कृष्ण और गोपियों के संवाद का संकेत है । इस अंचल में कार्तिक में दानलीला का रसमय अभिनय होता था, जो लोकाभिनय की विशिष्ट उपलब्धि थी । किसी गली-खोर में   जाती हुई कतकारियों को ग्वाल बाल छेंक लेते थे और दोनों में काव्यात्मक प्रश्नोत्तरों की होड़ लगती थी ।   गौलारे और आस-पास के लोग इकट्ठे होकर श्रोता बन जाते थे । यह सब नुक्कड़-नाटकों से भी अधिक सहज और प्रकृत रुप था । भाँड़ हिन्दू और मुसलमान-दोनों होते थे ।   वे अपनी वाक्पटुता, अनुकरण और हास्य-व्यंग्य के तीखेपन के लिए प्रसिद्ध थे । संगीत और नृत्य में भी कुशल होते थे ।   एक तरफ उनकी लयकारियाँ अन्तर्मन को गुदगुदा देती थीं, तो दूसरी तरफ उनके चुटीले व्यंग्य अच्छों-अच्छों को तिलमिला देते थे । महफिलों में उनका अच्छा सम्मान था ।   कभी-कभी उनके तमाशे के बाद आयी गायिका नर्तकी (पातुर) अपना रंग जमाने में असफल हो जाती थी । रामलीला के बीच-बीच लोकनाट्यों की बहार एक मौलिक दृश्य खड़ा कर देती थी, जैसे-जनकपुरी के बाजार में कुँजड़ा-कुँजड़ी के नाटकीय संबाद और धनुष-यज्ञ में काने या पिट्टा राजा के संवादात्मक अभिनय के बहाने तत्कालीन राजनीति, सामाजिक संबंध और बहुचर्चित व्यक्तित्व का व्यंग्यात्मक प्रतिबिम्बन पूरी लीला को सजीव कर देता था । नौटंकी और पर्शियन शैली के नाटकों की बड़ी धूम थी । बारातों में नौटंकियाँ अनिवार्य-सी थीं ।   बाद में बैड़िनियों की राई-मंडली भी जाने लगी थी । चरखारी रियासत की थियेटर कम्पनी में आगाहस्त्र के नाटकों ने जन-जन को बाँध लिया था । चित्रकला, काव्यकला और प्रहेलिका-विनोद भी प्रमुख थे ।   इन सबमें काव्य-गोष्ठियाँ ही अधिक प्रभावशाली सिद्ध हुई थीं ।

       लोककवियों ने हास्यपरक लोकगीतों की रचना की थी । "हमसें बलम की का बिगरी मोरी कतरी सुपारी न खाँय" वाला चर्चित गीत इसी समय का है ।   नायिका का उलाहना विनोद के प्रति भी है-"चंदा की चाँदनी में चौपड़ बिछाई, हमसे बलमं की का बिगरी वे तो खेलन बीरन घर जायँ ।" ज्यौंनार की गारियाँ अनेक कवियों ने रची हैं जिनमें राम के जन्म को लेकर व्यंग्य-विनोद किये गये हैं । रतनकुँवरि की एक गारी की कुछ पंक्तियाँ देखें-

        ये नयी बात अबध में देखी खीर खाय सुत जाये जू ।

         नृप तौ बृद्ध सकल जग जानत कौसिक महलन आये जू ।...

खेलों में   चौपड़ रानी थी । उसका प्रचलन सभी वर्गों में था ।   मध्ययुग के लोकगीतों और लोककथाओं में चौपड़ का उल्लेख मिलता है । असल में, वह पति-पत्नी के प्रेम का प्रतीक माना जाता   था । इस कारण रात में चौपड़ बिछाकर पति की प्रतीक्षा पत्नी के प्रेम की कसौटी है । अगर पति नहीं खेलता, तो प्रेम में कहीं खटाई है । होड़ लगाकर खेलना अधिक विनोद-रस का द्योतक है-

       जो सिय हार जाहिं तो प्रीतम मन भाई कर होंय सुखारी ।

       कहत सखी सब स्वामिनि जीतीं हारे चौसर चतुर खिलारी ।

       'कंचनकुँवरि' कहै सिय पिय से अब दीजे पिय ननद हमारी ।।

       ताश फारसी में गंजीफा कहा जाता है । मेरे   मित्र स्व. रामनाथ गुप्त 'हरिदेव' के पास गंजीफा के गोल ताश थे । उन पर हाथ से लिखे चित्र बने हुए थे । ग्वालियर संग्रहालय में गंजीफा के सात समूह पौराणिक कथाओं के चित्रों से अलंकृत हैं, जिनसे स्पष्ट है कि गंजीफा का भारतीय रुप ही प्रचलित हो गया था ।   शतरंज का शौक भी काफी प्रबल था । फाग खेलना और फगुआ लेना बहुत लोकप्रिय था । साली और सरहज से होली खेलने का रिवाज था । फागगीतों का गायन और नृत्य हर गाँव का श्रृंगार था । भौजी-देवर के विनोद आम थे । ईसुरी की फागों से उसकी पुष्टि होती है ।   रसिक कवयित्रियों में तो होरी एक विशिष्ट विनोद सिद्ध होता है (वृषभानुविनोद, छंद ५२ से ९२ और फागें छंद १०४ से १११) ।   इसी तरह झूला या हिंडोरा भी प्रमुख था । अकती में बोदर से नाम लेने का विनोद परम्परित था । बाग, वर्षा, सर और वन का विहार तथा जलक्रीड़ा, सुमन-श्रृंगार, गोदना आदि पहले से चले आ रहे थे । कुछ लोग विनोद के लिए तोता, मैना, तीतर, बटेर, लालमुनैया आदि पक्षी पालते थे, उनका पोषण करते और पढ़ाते थे तथा उनकी बोली सुनकर प्रसन्न होते थे ।   इस समय के चित्रों से ज्ञात होता है कि लोकविनोदों में पतंग चढ़ाने का अपना स्थान था । उनकी होड़ में मेला-सा लग जाता था ।   मेला देखना भी एक लोकरंजन था । लोककवि ईसुरी और गंगाधर ने खजुराहो के मेले की प्रशंसा की थी-"मेला खजराये कौ भारी, चलौ देखिये प्रयारी । कात ईसुरी चलकें देखो दिल खुस हो जै भारी ।"

       संवादात्मक विनोदों में खेल-गीत, पद्य-संवाद और गाथा-संवाद प्रचलित थे । चंदा मामा, थाई-थाई थप्पी, अटकन-चटकन, तेली के तमोली के, इत्तन-इत्तन पानी, हुक्कू-हुक्कू पालकी, इली-मिली दो बालें आयीं आदि खेल-गीत खिलाड़ियों और दर्शकों-दोनों का मन प्रसन्नता से भर देते हैं । गाथा-संवादों में पुरानी गाथायें सुनने और कहने का आनन्द है । पद्य-संवाद या तो दो कवियों के   बीच होता है या फिर दो गायक दलों में, जिन्हें दूसरों की रचनाएँ याद हैं ।   दो दलों की प्रश्नोत्तर शौली फाग, सैर और ख्याल साहित्य में इतनी लोकरंजक होती थी कि उनके फड़ दो-तीन दिनों तक जमे रहते थे । तलवार और कलम, ऊधौ और गोपी, सगुण और निर्गुण, नायिका-भेद आदि पर कड़ी प्रतिद्वन्द्विता होती थी । दो कवियों के विनोद में गंगाधर व्यास और ईसुरी की पत्नी, घनश्यामदास पाण्डे और नाथूराम माहौर आदि के संवाद चर्चित रहे हैं । समस्यापूर्तियों का भी बोलबाला था । गोष्ठी या फड़ में एक नयी समस्या चुनौती की तरह खड़ी रहती थी और हर कवि उसकी पूर्ति में छंदों की रचना करता था । अच्छी पूर्ति से कवि का यश फैलता था ।

इस कालखंड के विनोदों की प्रधान विशेषता है-उनकी फड़वाजी, जिसमें एक तरफ चुनौती होती है, तो दूसरी तरफ होड़ । कुश्ती, दौड़ आदि शारीरिक विनोदों से लेकर प्रहेलिका, समस्यापूर्ति जैसे बौद्धिक विनोदों तक एक   प्रतियोगी मानसिकता की लहर ने एक निराली जागृति उत्पन्न कर दी थी, जिसके कारण लोकरंजन का पुनरुत्थान व्यापक रुप में फैल गया था और उसी की नींव पर आधुनिक विनोदों की प्रतिष्ठा संभव हो सकी थी ।

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आधुनिक काल

आजादी के पहले तक परम्परित विनोदों का प्रचलन रहा और नये विनोदों की श्रृंखला भी शुरु   हुई । दोनों में द्वन्द्व भी चला और विजय-पराजय के पलड़े ऊपर-नीचे होते रहे । विनोद-दृष्टि में एक परिवर्तन भी आया, जो आजादी के बाद ज्यादा स्पष्ट हुआ । उदाहरण के लिए, परम्परित गुड़िया और आधुनिक मेम गुड़िया के अंतर को परखा जा सकता है । लोकजीवन की यांत्रिकता ने परम्परित विनोदों   में काँट-छाँट कर दी और अब क्रिकेट संस्कृति के मशीनी खेल क्रीड़ांगन की शोभा बने । सिनेमा, रेडियो, ट्रांजिस्टर और टेलिविजन ने हमें यंत्र-सा बना दिया है, लेकिन इस   त्रासदी के विरुद्ध एक प्रतिक्रिया भी उभरने लगी है । आधुनिक विनोदों के कुछ प्रयोग कविवर बिहारी लाल (बिजावर) की 'सामयिक उपमावली' में मिलते हैं । उन्होंने कैरम, बिलियई, फुटबाल, रेडियो, सिनेमा चाबीदार खिलौना, फोनूग्राफ, विद्युत हिंडोल आदि की उपमाओं से जीवन-दर्शन व्यक्त किया है । ठीक इसके विपरीत लोककवि पुराने विनोदों की याद में खो जाता है ।   'लोकगायनी' में रामचरण हयारण 'मित्र' की कुछ पंक्तियाँ देखें-

              चंदा-पौआ, पत्थर-फोरा उर रोटी-पन्ना कीं,

              घरघूला, सुअटा कीं, ब्यावकरन बन्नी-बन्ना कीं ।

              अटकन-चटकन दई चटाकन खेलत मुसकाबे कीं,

              झूला डार मिचकियाँ लै-लै कें मलार गाबै कीं ।

              डार गरें गलबइयाँ नदिया में हेड़ा लैबे कीं,

              छुआ-छुअउअल, धार पार करबे डोंड़ा खेबे कीं ।

              रुठी गुइयन मना लैन कीं, हारी जितवाबै कीं,

                       किस्सा और कानियाँ संगै कैबे कीं, क्वाबे कीं ।

            प्रतीक्रिया पहले कवि में होता है या बौद्धिक जन में, फिर लोक या आम आदमी में । कुत्ता पालने का रिवाज पुराना है, उसमें विनोद भी किया जाता था, पर अंग्रेजी कुत्तों ने एक नया शौक पैदा किया है, जिसको केन्द्र में रखकर लोककवि ने चुटीला व्यंग्य किया है-

              कुत्ता पाल लेव मोरे नये जजमान, कुत्ता पाल लेव ।

              कुत्ता की पींठ जैसे आगरे की छींट, झामा पैर लेव । कुत्ता० ।

              कुत्ता की खुरीं जैसे मौन दयी पुरीं, एक और लेव । कुत्ता० ।

              कुत्ता   की आँख जैसे निबुआ की फाँक, तनक चींख लेव । कुत्ता०

              कुत्ता   के कान जैसे महोबा के पान, बीरा चाब लेव । कुत्ता० ।

              कुत्ता   की पूँछ जैसे समधी की मूँछ, हाँत फेर लेव । कुत्ता० ।

वस्तुत: बदली हुई दृष्टि और परिस्थिति से लोकरंजन में काफी बदलाव आया है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि लोकरंजन विनष्ट हो गये हैं । जबतक लोक हे, तबतक लोकरंजन रहेगा ही ।   आज के इस यांत्रिक जीवन में थकन और टूटन के क्षण बहुत बढ़ गये हैं, इसलिए लोकरंजन एक अनिवार्य मुद्दा बन गया है ।   सवाल यह हे कि लोकतंत्र के अनुरुप लोकरंजन की मानसिकता प्रतिष्ठित करने के लिए कौन-सा शंख फूँका जाय । इस अंचल का कवि सचेत था, उसने स्वयं महसूस किया था-

              सावन झूला झूलबो, फागुन झोरिन झेल ।

              नीकौ लगत न लाल कों, सखि अकती कौ खेल ।।

              अब सावन में झूला झूलना, फागुन   में अबीर-गुलाल की झोलियाँ झेलना और अकती (अक्षयतृतीया) का खेल अच्छा नहीं लगता, लेकिन सारस, हंस, चकोर, कोयल, मोर, मुनैयाँ   आदि लिखे गये देखकर व्यक्तिमन बिनमोल बिक जाता है ।   तात्पर्य यह है कि आज लोकरंजन में चयन की प्रक्रिया जारी है । इसमें कोई विवाद नहीं है कि लोकरंजन में लोकरुचि के अनुकूल चयन और परिवर्तन हमेशा होता रहा है और आज भी वह चक्र गतिशील है ।

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९५ 

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