छत्तीसगढ़

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डा: राधाबाई - स्वतंत्रता सेनानी

केयूर भूषण जी, स्वतंत्रता सेनानी, लेखक, समाज सुधारक, के साथ एक साक्षातकार-

       

सन् 1930 की बात है। कुछ सत्याग्रहियों को अमरावती जेल से रायपुर जेल लाया जा रहा था। डॉ. राधाबाई अपने साथियों को लेकर स्टेशन पहुँचीं। उनके एक हाथ में थी भोजन की थाली और दूसरे में तिरंगा झंडा। अँग्रेज कलेक्टर की आज्ञा से लाठियों का प्रहार होने लगा। डॉ. राधाबाई पर सबसे ज्यादा प्रहार हुए, तिरंगा जो वे लिए हुए थीं।

डॉ. राधाबाई गांधीजी के सभी आन्दोलनों में आगे रहीं। कौमी एकता, स्वदेशी, नारी-जागरण, अस्पृश्यता निवारण, शराबबंदी, इन सभी आन्दोलनों में डॉ. राधा बाई की भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण रही। शराबबंदी का मोर्चा सबसे कठिन था। शराबियों का शराब झुड़ाना, शराब बेचने वालों से शराब भट्ठी बंद करवाना - इस पिकेटिंग में महिलाओं को लाठी से मारा-पीटा जाता था। उनके बाल पकड़कर घसीटा जाता था। वे गिरफ्तारी कर ली गयी। डॉ. राधाबाई के साथ थीं केकती बाई, फूलकुंवर बाई, पोची बाई, रुखमिन बाई, पार्वती बाई।

महात्मा गाँधी सन् 1920 में पहली बार रायपुर आये। उस वक्त धमतरी तहसील के कन्डेल नाम के गाँव में किसान सत्याग्रह चल रहा था। गाँधीजी का प्रभाव छत्तीसगढ़ में व्यापक रुप से पड़ा। डॉ. राधा बाई तब से गाँधीजी द्वारा संचालित सभी आन्दोलनों में आगे रहीं, उस समय रोज़ प्रभातफेरी निकाली जाती थी। खादी बेचने में, चरखा चलाने में महिलाएँ आगे रहती थीं, महिलाएँ जो एकादशी महात्म्य सुनने के लिये आतीं, वे सब देशहित के बारे में चर्चा करने लगती थीं। डॉ. राधा बाई वही चरखा सिखाने बैठ जाती थीं, सब मिलकर गाती - "मेरे चरखे का टूटे न तार - चरखा चालू रहे।" ऐसा करते हुए वे अलग-अलग जगह घूमतीं। डॉ. राधा बाई का मकान, जो मोमिनपारा मस्जिद के सामने था, वहाँ और भी बहनें एकत्रित होतीं - पार्वती बाई, रोहिणी बाई, कृष्ण बाई, सीता बाई, राजकुँवर बाई। चरखा काटने के बाद वे प्रभातफेरी निकालतीं। सत्याग्रह की तैयारी करतीं सफाई टोली निकालतीं, पर्दा-प्रथा रोकने की कोशिश करती, सदर बाज़ार का जगन्नाथ मन्दिर बनता सत्याग्रह स्थल। सब जाति की बहनें पर्दा-प्रथा के खिलाफ़ भाषण देतीं। मारवाड़ी समाज की महिलाएँ जो पर्दा-प्रथा के कारण अपने-आप में घुटन महसूस करतीं, वे पूरी कोशिश करतीं इस प्रथा को ख़त्म करने की। छत्तीसगढ़ में पर्दा-प्रथा नहीं था। ब्लाऊज पहनने की प्रथा भी नहीं थी। अगर कोई पहनती, तो कहा जाता कि नाचने वाली का पोशाक पहन रखा है। पं. सुंदर लाल शर्मा की पत्नी श्रीमती बोधनी बाई ने उनकी प्रेरणा से सबसे पहले ब्लाउज़ पहनना शुरु किया। धीरे-धीरे सभी महिलाओं ने ब्लाउज़ पहनना शुरु कर दिया।

डॉ. राधा बाई का एक बहुत ही महत्वपूर्ण काम था - वेश्यावृत्ति में लगी बहनों को मुक्ति दिलाना। छत्तीसगढ़ी भाषा में "किसबिन नाचा" कहते थे - जिसमें गाँवों और शहरों में सामंतों के यहाँ वेश्याओं का नाच हुआ करता था, जैसे देवादासी प्रथा और मेड़नी प्रथा जो आज भी दूसरी जगहों में जारी है। "किसबिन नाचा" करने वालों की अलग एक जाति ही बन गई थी। ये लोग अपने ही परिवार की कुँवारी लडकियों को किसबिन नाचा के लिये अर्पित करने लगे थे। डॉ. राधा बाई के साथ सभी ने इस प्रथा का विरोध किया और इस प्रथा को खत्म किया। खरोरा नाम के एक गाँव में इस प्रथा की समाप्ति सबसे पहले हुई। वे लोग खेती बाड़ी करने लगे। यह अनोखा परिवर्तन राधा बाई के कारण ही सम्भव हुआ था।

डॉ. राधाबाई शुरु में दाई का काम करती थीं। रायपुर नगर पालिका में। इतने प्रेम और लगन से वे काम करतीं कि सबकी वे माँ बन गई थीं। जन उपाधि के रुप में राधा बाई डॉ. कहलाने लगी थीं। उनके सेवाभाव को देखकर नगर पालिका ने उनके लिए टाँगे-घोड़े का इन्तजाम किया था।

डॉ. राधा बाई का जन्म नागपुर में हुआ था, सन् 1875 में। उनकी शादी नागपुर में हुई थी, राधा सिर्फ 9 वर्ष की थीं जब वे विधवा हो गई थीं, पड़ोसिन के घर में उन्हें प्यारी-सी - सखी मिली जिसके साथ वे रहने लगीं, हिन्दी सीखने लगीं, दाई का काम करने लगीं थीं। पड़ोसिन सखी भी एक दिन चल बसी। उनके बेटा बेटी राधा बाई के भाई-बहन बने रहे। किसी को पता भी नहीं चलता था कि वे दूसरे परिवार की हैं। 1918 में वह रायपुर आईं और दाई का काम करने लगीं। 1920 में गाँधीजी जब पहली बार रायपुर आये, तो राधा बाई को लगा कि उन्हें पथ-प्रदर्शक मिल गया। सन् 1930 से 1942 तक हर एक सत्याग्रह में भाग लेती रहीं। न जाने कितनी बार वे जेल गई थीं। सभी, यहाँ तक कि जेल के अधिकारी भी उनका आदर करते थे।

अस्पृश्यता के विरोध में राधा बाई ने बहुत ही महत्वपूर्ण काम किया था। सफ़ाई कामगारों की बस्ती में वे जाती थीं, और बस्ती की सफ़ाई किया करती थीं। उनके बच्चों, को बड़े प्रेम से नहलाती थीं, उन बच्चों को पढ़ाती थीं। डॉ. राधा बाई धर्म-भेद नहीं मानती थीं, सभी धर्म के लोग उनके घर में आते थे। मुस्लिम भाइयों की भाई दूज के दिन वे पूजा करती थीं और भोजन खुद बनाकर उन्हें खिलाती थीं।

2 जनवरी, 1950 को राधा बाई 85 वर्ष की आयु में चली बसीं। उनका मकान एक अनाथालय को दे दिया गया। डॉ. राधा बाई जैसी महान नारी हमारे दिल में हमेशा जीवित रहेंगी।

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Content Prepared by Ms. Indira Mukherjee

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