छत्तीसगढ़

Chhattisgarh


राजीव लोचन का मन्दिर

राजिम के प्रसिद्ध राजीवलोचन का मन्दिर चतुर्थाकार में बनाया गया था। उत्तर में तथा दक्षिण में प्रवेश द्वार बने हुए हैं। महामंडप के बीच में गरुड़ हाथ जोड़े खड़े हैं। गर्भगृह के द्वार पर बांये-दांये तथा ऊपर चित्रण है, जिस पर सर्पाकार मानव आकृति अंकित है एवं मिथुन की मूर्तियां हैं। पश्चात् गर्भगृह में राजिवलोचन अर्थात् विष्णु का विग्रह सिंहासन पर स्थित है। यह प्रतिमा काले पत्थर की बनी विष्णु की चतुर्भुजी मूर्ति है। जिसके हाथों में शंक, चक्र, गदा और पदम है जिसकी लोचन के नाम से पूजा होती है। मंदिर के दोनों दिशाओं में परिक्रमा पथ और भण्डार गृह बना हुआ है।

महामण्डप बारह प्रस्तर खम्भों के सहारे बनाया गया है।

उत्तर दिशा में जो द्वार है वहां से बाहर निकलने से साक्षी गोपाल को देख सकते हैं। पश्चात् चारों ओर नृसिंह अवतार, बद्री अवतार, वामनावतार, वराह अवतार के मन्दिर हैं।

दूसरे परिसर में राजराजेश्वर, दान-दानेश्वर और राजिम भक्तिन तेलिन के मंदिर और सती माता का मंदिर है।

इसके बाद नदियों की ओर जाने का रास्ता है। यहां जो द्वार है वह पश्चिम दिशा का मुख्य एवं प्राचीन द्वार है। जिसके ऊपर राजिम का प्राचीन नाम कमलक्षेत्र पदमावती पुरि लिखा है।

नदी के किनारे भूतेश्वर व पंचेश्वर नाथ महादेव के मंदिर हैं और त्रिवेणी के बीच में कुलेश्वर नाथ महादेव का शिवलिंग स्थित है।

राजीवलोचन मंदिर यहां सभी मंदिरों से प्राचीन है। नल वंशी विलासतुंग के राजीवलोचन मंदिर अभिलेख के आधार पर इस मंदिर को 8 वीं शताब्दी का कहा गया है। इस अभिलेख में महाराजा विलासतुंग द्वारा विष्णु के मंदिर के निर्माण करने का वर्णन है।

राजीवलोचन की विग्रह मूर्ति के एक कोने में गजराज को अपनी सूंड में कमल नाल को पकड़े उत्कीर्ण दिखाया गया है। विष्णु की चतुर्भुज मूर्ति में गजराज के द्वारा कमल की भेंट और कहीं नहीं मिलती।

इसके बारे में जो कहानी प्रचलित है वह इस प्रकार है: ग्राह के द्वारा प्रातड़ित गजराज ने अपनी सूंड में कमल के फूल को पकड़कर राजीव लोचन को अर्पित किया था। इस कमल के फूल के माध्यम से गजराज ने अपनी सारी वेदना विष्णु भगवान के सामने निवेदित की थी। विष्णु जी उस समय विश्राम कर रहे थे। महालक्ष्मी उनके पैर दबा रही थीं। गजराज की पीड़ा को देखते ही भगवान ने तुरंत उठकर नंगे पैर दौड़ते हुए राजीव क्षेत्र में पहुंचकर गजराज की रक्षा की थी।

राजिम में कुलेश्वर से लगभग 100 गज की दूरी पर दक्षिण की ओर लोमश ॠषि का आश्रम है। यहां बेल के बहुत सारे पेड़ हैं, इसीलिए यह जगह बेलहारी के नाम से जानी जाती है। महर्षि लोमश ने शिव और विष्णु की एकरुपता स्थापित करते हुए हरिहर की उपासना का महामन्त्र दिया है। उन्होंने कहा है कि बिल्व पत्र में विष्णु की शक्ति को अंकित कर शिव को अर्पित करो। कुलेश्वर महादेव की अर्चना राजिम में आज भी इसी शैली में हुआ करती है। यह है छत्तीसगढ़ की धार्मिक सद्भाव का उदाहरण।

""कुलेश्वर महादेव'' मंदिर जो त्रिवेणी के बीच में स्थित है, उसके महामंडप के पास एक शिलालेख है जिसके अनुसार यह मंदिर 8-9 वीं शताब्दी का निर्मित है। यह मंदिर उस समय के तकनीकी ज्ञान का जीवंत प्रमाण है। बरसात में नदी की बाढ़ से उसकी रक्षा के लिये चबूतरे को विशेष रुप से ऊंचा बनाया गया था। इसके अलावा जितनी ऊंचाई पर मंदिर है, उतनी ही नहीं बल्कि उससे भी अधिक मंदिर के नीचे नींव भी मजबूत पत्थरों से घिरी हुई है। सन् 1967 में राजिम में जब बाढ़ आई थी तब यह मंदिर पूरा डूब चुका था। केवल कलश भाग दिखाई देता था। लेकिन बाद में पानी नीचे उतर जाने के पश्चात् देखा गया कि कोई नुकसान नहीं हुआ। इस मंदिर के शिवलिंग की मूर्ति में पैसा डालने से वह नीचे चला जाता है और  की प्रतिध्वनि गूंजित होती है।

राजीव लोचन मंदिर के दूसरे परिसर में राजिम भक्तिन तेलिन मन्दिर है जिसके बारे में एक अनोखी कहानी प्रचलित है। ऐसा कहा जाता है कि इस जगह का नाम राजिम तेलिन के नाम पर ही रखा गया है। पहले इस जगह का नाम पदमावती पुरी था। महानदी, सोंढुर और पैरी इन नदियों के कारण यह जगह उपजाऊ थी, तिलहनों के लिए खासकर यह जगह बहुत ही अच्छी जमीन है। तैलिक वंश के लोग तिलहन की खेती करके तेल निकालते थे। इन्हीं तैलिकों में एक धर्मदास भी था, जिनकी पत्नी का नाम शांति था, दोनों विष्णु के बड़े भक्त थे। उनकी बेटी थी राजिम जिसके साथ अमरदास नाम के इन्सान की शादी हुई। राजिम तेलिन विष्णु की भक्तिन थी। राजीव लोचन के मुर्ति विहीन मंदिर में जाकर पूजा करती थी। उस मूर्ति विहीन मन्दिर के बारे में जो कहानी उस वक्त प्रचलित थी वह इस प्रकार थी - सतयुग में राजा रत्नाकर नाम का एक राजा था, जो यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे थे, परन्तु राक्षसों द्वारा यज्ञ में विध्न उत्पन्न करने के कारण यज्ञ पूर्ण नहीं हो पाया। राजा रत्नाकर ने विष्णु के अवतार राजीव लोचन का स्मरण किया और कठोर तपस्या करने लगे। विष्णु तक राजा का आन्र्तनाद पहुंचा, लक्ष्मी को भी सुनाई दिया। लक्ष्मी ने अनुरोध किया कि विष्णु रत्नाकर कीे मदद करने उसी वक्त वहां पहुंचें। विष्णु वहां पहुंचे और यज्ञ पूर्ण कराया, उसके बाद उन्होंने राजा से वर मांगने को कहा। 
राजा रत्नाकर भाव विभोर हो गय। भाव विभोर होकर राजा ने कहा - "आपके जिस स्वरुप का मैं अभी दर्शन कर रहा हूँ, उसी स्वरुप का मैं रोज सपरिवार दर्शन करता रहूँ।" विष्णु जी ने ये सुनकर बैकुन्ठ में जाकर विश्वकर्मा को बुलाया और उनसे कहा कि "मैं एक कमल का फूल धरती पर छोड़ रहा हूँ - उस कमल के ऊपर ही मेरे नाम के एक मन्दिर का निर्माण करो", इस प्रकार विश्वकर्माजी द्वारा रातों-रात एक भव्य मन्दिर का निर्माण कराया। राजा रत्नाकर सपरिवार मन्दिर में राजीव लोचन के दर्शन करते थे, और पूजा करते थे।

इसके बाद बहुत साल बीत गये। बहुत काल बीत गया। एक बार राजीव लोचन की मूर्ति की प्रशंसा सुनकर कांकेर के कंडरा राजा दर्शन के लिये आये। उस वक्त यह जगह जंगल में परिवर्तित हो गई थी। कांकेर का राजा राजीव लोचन के दर्शन कर सोचने लगे कि "ऐसे दिव्य विशाल मूर्ति को इस जंगल से निकालकर अपने राज्य में प्रतिष्ठित करुँ" - जब राजा ने पुजारियों से अपने मन की बात कही, तो पुजारी तैयार नहीं हुए। धन का लालच दिया पुजारी तैयार नहीं हुए। तब कांकेर के राजा ने जबरदस्ती मूर्ति को उठवाकर एक नाव में रखवाया और दूसरी नाव में स्वयं बैठ महानदी के जल मार्ग से अपने राज्य कांकेर की ओर जाने लगे। मार्ग में भारी तूफान आया। और इस तूफान के कारण कांकेर नरेश अपनी नाव के साथ रुद्री धाट के पास महानदी के जल में डूब गया।

इधर राजिम तेलिन जो मन्दिर में जाकर पूजा करती थी, मूर्ति विहीन मन्दिर में जाकर, जब वह एक दिन नहाने गई, तो उसे एक शिला दिखाई दिया। अपने हाथ से रेत हटाकर जब उसने देखा कि शिला बहुत बड़ी तथा गोल और चिकनी है, उसने सोचा कि यह तो धानी (तेल निकालने का यन्त्र) के ऊपर रखने लायक है। और उसके बाद उस शिला को घर ले आई और ऊखल पर रख दिया। ऊखल लकड़ी का बना होता है। और इस ऊखल के भारीपन और रगड़ से तेल निकलता है। जबसे राजिम तेलिन ने उस शिला को धानी में रखा, तब से उसके व्यवसाय में उत्तोरोत्तर वृद्धि होने लगी।

उस वक्त दुर्ग में जगपाल नाम के विष्णु पूजक राजा राज्य करते थे। उनका नित्य का नियम था कि दुर्ग से प्रतिदिन धोड़े पर बैठकर त्रिवेणी संगम में स्नान कर राजिम में भगवान के मूर्ति विहीन मन्दिर का दर्शन कर और शंकरजी का दर्शन कर अपने राज्य को वापस चले जाते थे।

एक दिन रात में राजीव लोचन ने स्वप्न दिया कि वे राजिम तेलिन के घर जाएँ और वहाँ धानी के ऊपर जो शिला रखी है, उसे मन्दिर में ले आयें क्योंकि उसी शिला में वे विद्यमान हैं। उसके बाद राजीव लोचन ने कहा ""राजिम तेलिन से बलपूर्वक लेकर उसको दुखी नहीं करना क्योंकि राजिम तेलिन मेरी अन्यन्य भक्त है।''

राजा जगपाल राजिम तेलिन के घर में जाकर धानी पर रखी शिला को देखकर भाव विभोर हो गये। राजिम तेलिन एक बार राजा की ओर देखा और एक बार शिला की ओर। राजा जगपाल ने तेलिन से उस शिला की मांग की। तेलिन ने साफ इन्कार कर दिया। उस शिला की प्राप्ति के बाद उसकी दशा सुधर गई थी। राजा जगपाल ने उसे स्वर्ण राशि का प्रलोभन दिखाया कि शिला के तौल के बराबर वे स्वर्ण राशि ले ले और शिला उन्हें दे दे। और फिर राजीव लोचन की मूर्ति के शिला को तराजू के पलड़े में रखा गया और दूसरी ओर सोना रखा गया। राजिम तेलिन ने सोचा कि राजीव लोचन अगर यही चाहते है तो फिर यही होगा। किन्तु वह तराजू का पलड़ा इंच भर भी नहीं उठा। राजा जगपाल जितनी भी स्वर्ण रखते गये। पर तराजू नहीं उठा उस रात को राजा जगपाल को फिर से स्वप्न में राजीव लोचन दिखाई दिये और सुनाई दीया कि - "तुझे अपने धन का बहुत अंह है, इसीलिये मैंने तुझे सबक सिखाया, खैर तेरे सुकर्मो से मैं खुश हूँ। इसी लिये ध्यान से सून अब तुझे क्या करना पड़ेगा तू जिस पलड़े पर स्वर्ण रखता है, उस पर सवा पत्र तुलसी भी रख देना।" राजा जगपाल भूखे प्यासे सो गये थे। अब उनके मन में खुशी हुई। अगले दिन स्वर्ण के साथ पलड़े में सवा पत्ता तुलसी रख शिला के बराबर स्वर्ण राजिम तेलिन को देकर मन्दिर में शिला को प्रतिष्ठित कराया। राजिम तेलिन राजीव भक्तिन माता के नाम से जानने लगी। एक दिन भक्तिन माता राजीव लोचन के मंदिर द्वार पर जाकर बैठ गई। वह ध्यान समाधि में बदल गया और उन्हें मोक्ष मिला। इस क्षेत्र के भक्तजन बसंत पंचमी को राजीव भक्तिन माता महोत्सव मनाते हैं।

राजीव लोचन मन्दिर के दूसरे परिसर पर राजिम तेलिन का मन्दिर है। इस मन्दिर के गर्भगृह में एक शिलाप ऊँची वेदी पृष्ठभूमि से लगा हुआ है - इसके सामने ऊपरी भाग पर सूरज, चाँद एवं सितारे के साथ साथ एक हाथ ऊपर उठाकर प्रतिज्ञा की मुद्रा में खुदा है जिसका अर्थ यह है कि जब तक धरती पर सूरज, चाँद एवं सितारे आलोक बिखेरते रहेंगे। राजिम तेलिन की निष्ठा भक्ति और सतीत्व की गवाही देते रहेंगे। राजिम तेलिन की धानी भी एक जगह स्थापित है। शिल्लापट्ट के मध्य जुते बैलयुक्त कोल्हू का शिल्पांकन है। इसी मंदिर में राजिम तेलिन सती बनी थी। उस मन्दिर की दीवारों में धुंए के निशान मन को दुखी कर देती हैं।

कालांतर में उस जगह का नाम राजिम तेलिन के नाम पर ही रखा गया।

रामचन्द्र मंदिर

राजिम में राजीवलोचन मन्दिर से थोड़ी दूर पर पूर्व दिशा में रामसीता मन्दिर स्थित है। यह मन्दिर रतनपुर के कलचुरी नरेशों के सामन्त जगतपाल के द्वारा बनवाया गया था। ये मन्दिर 12 वीं शताब्दी के हैं।

इस मन्दिर के गर्भगृह में राम,सीता एवं लक्ष्मण की मूर्कित्तयाँ हैं।

इस मन्दिर के चार अंग है - महामंडप, अन्तराल, गर्भगृह, प्रदक्षिणापथ, महामण्डप के स्तम्भों का शिल्प की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। एक स्तम्भ पर शालमंजिका की बड़ी सुन्दर मूर्ति है। जिसे लोग भ्रान्तिवश सीता की मूर्ति मानते हैं। महामण्डप के कुछ स्तम्भों पर मिथुन मूर्तियाँ है। मन्दिर के अन्तराल प्रवेश द्वार पर तथा उसके सामने के दो स्तम्भों पर जो मिथुन मूर्तियाँ हैं, वे खजुराहो कि मूर्तियो की याद दिलाती हैं।

मन्दिर में एक जगह बन्दर परिवार का बड़ा मनोरंजक दृश्य है। कही माँ शिशु, संगीत समाज का अंकन है, तो कहीं विभिन्न पशु-पक्षियों का अंकन है जैसे हिरण, धोड़ा, हाथी, बैल, चूहा, तोता, कही गंगा की प्रतिमा है तो कहीं यमुना की, कहीं गणेश की मूर्ति है तो कहीं वाराह अवतार की प्रतिमा है। महामंडप के एक छोर पर गरुड़ की मूर्ति भी है जिसे विष्णु का वाहन माना जाता है। रामचन्द्र विष्णु के अवतार थे, मानों गरुड़ की उपस्थिति यह प्रमाणित कर रहा है।

रामचन्द्र मन्दिर के प्रांगण में ही उनके सामने काल भैरव का मन्दिर स्थित है। इस मन्दिर के सामने दो श्रृंगारिक नारियों की मूर्तियाँ विद्यमान हैं जिन्हें शायद दूसरी जगह से लाकर यहाँ प्रतिष्ठित किया गया है। ये दोनों मूर्तियां कला के उत्कृष्ट नमूने हैं।

राजिम - एक संगम स्थल

राजिम को इलाहाबाद जैसा एक संगम स्थल माना गया है। यहाँ पर 8-9 वीं शताब्दी के प्राचीन मंदिरों से लेकर वर्तमान में कई जातियों एवं सम्प्रदायों के देवालय निर्मित हो गये। लोग राजिम को छत्तीसगढ़ का प्रयाग मानते हैं, यहाँ पैरी नदी, सोंढुर नदी और महानदी का संगम है। इसीलिये इस संगम में अस्थि विसर्जन तथा संगम किनारे पिंडदान, श्राद्ध एवं तपंण किया जाता है। वर्तमान समय राजिम में रोज़ लगभग पचास पिण्डदान का कार्य हो रहा है।

पिण्डदान के पश्चात् राजीव लोचन के दर्शन करने के बाद ही लोग वापस लौटते हैं। राजीव लोचन का प्रसाद चावल से बना पीड़ियाँ सभी जाति सम्प्रदाय के लोग साथ ले जाते हैं। खासकर अस्थि विसर्जन व पिंडदान के बाद तो ले ही जाते है। कई गावों में इन पीड़ियों को सुरक्षित रख दिया जाता है क्योंकि वे मानते हंै कि किसी को मृत्यु के कुछ धंटे पहले यह प्रसाद अगर खिलाया जाये तो उसे स्वर्ग की प्राप्ति होती है। पीड़िया बहुत साल तक रख सकते है। राजीव लोचन को प्रसाद-पीड़ियों का महत्व इस प्रकार बहुत ज्यादा है।

चम्पारण

चम्पारण आज बहुत बड़ा वैष्णव तीर्थ बन गया है। शुरु में यहां चम्पकेश्वर महादेव का स्वयं भू लिंग के प्रतिष्ठित होने के कारण मूलतः शैव सम्प्रदाय के लोग आते थे। पंचकोसी यात्रा का एक धाम यहां था। संवत् 1535 में एक धटना धटी। कृष्ण भक्त वल्लभाचार्य का जन्म यहाँ हुआ।

काशी विश्वनाथ से दक्षिण भारत की ओर जाने का प्राचीन राजमार्ग चम्पकेश्वर और राजिम होकर ही जाता था। श्री लक्षणभ उनकी पत्नी इल्लमा और अन्य परिजनों के साथ काशी विश्वनाथ से अपने घर तेलंगाना की ओर जा रहे थे। इल्लमा गर्भवती थी। इसी क्षेत्र में आकर उनका गर्भस्राव हो गया। बच्चा बहुत ही निर्जीव लग रहा था। सभी ने सोचा कि बच्चा मृत है। उसे विशाल वृक्ष की छाया में पत्तों पर लिटा दिया गया। दूसरे दिन वही बच्चा पैर का अंगूठा चूसता वहीं पर खेलता मिला था। वही बालक बाद में वैष्णव भक्ति की शुद्धाद्वेैत धारा का प्रवर्तक बना। आचार्य वल्लभ के नाम से प्रसिद्ध हआ। चम्पारण्य बहुत बड़ा वैष्णव तीर्थ बन गया।

इस प्रकार यह शैव एवं वैष्णव सम्प्रदायों के संगम स्थल के रुप में यह एकता का प्रतीक बन गया है। चम्पारण नाम चम्पारण्य से बना - इसका अर्थ है चम्पक (चम्पा फूल) का अरण्य (जंगल)। चम्पारण्य में चम्पा के फूल बहुत ही दिखाई देते हैं।

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Content Prepared by Ms. Indira Mukherjee 

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