देवनारायण फड़ परम्परा  Devnarayan Phad Tradition

बगड़ावतों और रावजी का युद्ध

सिर कटने के बाद भी नियाजी का युद्ध क्षेत्र में डटे रहना 


नियाजी को युद्ध करते हुए पांच महीने से भी ज्यादा समय हो जाता हैं। भवानी (जयमती) सोचती है कि ऐसी क्या बात है नियाजी लगातार युद्ध कर रहें हैं। पता लगाना चाहिये, और रानी नेतुजी के पास जाकर कहती है कि क्या बात है भाभी जी देवर नियाजी को पांच महीने से ज्यादा समय हो गया है युद्ध करते हुए, क्या तुमने इनके शरीर पर कहीं तलवार या भाले का निशान देखा है? ऐसी क्या बात है? वापस आते समय कपड़ो के ऊपर खून का निशान तक नहीं होता। इसका क्या कारण है? देख पता करना और मुझे बताना। नेतु कहती है की रानी सा आज नियाजी के युद्ध से आने के बाद पता कर्रूंगी।

शाम को नियाजी युद्ध क्षेत्र से बाबा रुपनाथ के पास जाकर रंग महल में वापस आते हैं। खाना खाते समय नेतु पंखा झलती हुई नियाजी से कहती है एक बात पूछती हूं। आपको कई दिन हो गये लड़ाई करते हुए, आपके शरीर पर मुझे कभी कोई तलवार का निशान या कपड़ो पर खून तक लगा न नहीं आया, क्या राज है? इस बात को मुझे बताओ। नियाजी कहते है नेतु ये बात बताने की नहीं है और तू मत पूछ मैं नहीं बताऊगां। नेतु जिद करती है तो नियाजी कहते है कि ठीक है मैं तुझे बता देता हूं लेकिन ये किसी और को मत बताना। नेतु कहती है नहीं बताऊगीं।

नियाजी बाबा रुपनाथ की सारी प्रक्रिया नेतु को बता देते हैं। और अगली सुबह वापस युद्ध करने चले जाते हैं। पीछे से रानी जयमती आती है और नेतु से पूछती है कि नियाजी से क्या बात हुई। नेतु पहले तो मना कर देती है। बहाना बना लेती है कि वह नियाजी से पूछना भूल गई। रानी जयमती नेतु को कहती है कि भाभीजी आप तो झूठ कभी नहीं बोलती हो आज झूठ क्यो बोल रही हो? नेतु कहती है कि रानी सा आप किसी को नही कहना और वो सारी बात जयमती को बता देती कि बाबा रुपनाथजी के पास एक ऐसा कड़ा है जिसे उनके शरीर पर घुमाने से नियाजी के सारे घाव भर जाते हैं। रानी जयमती वहां से सीधी बाबा रुपनाथ की धूणी पर आती है। उन्हें प्रणाम कर वहां घड़ी दो घड़ी रुकती है और पता लगाती है कि बाबा रुपनाथजी वो कड़ा कहां रखते हैं। उसे पता चलता है कि कड़ा बाबा के आसन के नीचे रखा हुआ है। और वो अपनी माया से चील बन जाती है और बाबा के आसन के नीचे से कड़ा अपनी चोंच में उठा कर उड़ जाती है।

बाबा रुपनाथजी समझ जाते हैं कि निया ने जरुर भेद खोल दिया है। जब नियाजी युद्ध करके लौटते है तो बाबा रुपनाथ उससे कहते हैं कि निया तूने भेद किसे बताया है। निया को अफसोस होता है और कहते हैं कि आखिर औरतों के पेट में कोई बात नहीं टिकती। और बाबा रुपनाथ को प्रणाम कर वापस रण क्षेत्र में लौट आते हैं।

रण क्षेत्र में नियाजी के पास रानी जयमती (भवानी) आती है और कहती है कि नियाजी मुझे अपना शीश दे दीजिए। आपने वचन दिया था कि मैं एक बार आपसे जो भी मांगूगीं आप मुझे वो दे देंगे।

नियाजी अपने हाथ से ही अपना शीश काटकर भवानी के थाल में रखकर देते हैं और कहते हैं कि भाभीजी मेरा वचन पूरा हो गया।

नियाजी का सिर कटने के बाद उनकी छाती में आँखे निकल आती हैं, नाभि की जगह मुँह बन जाता है और गले के ऊपर कमल का फूल खिल जाता है। सिर कटने के बाद भी नियाजी अपने दोनों हाथों से हाथियों की पूंछ पकड़कर घुमा-घुमाकर फेंक देते हैं। जिनके नीचे दबकर कई सैनिक मर जाते हैं।

भवानी नियाजी से कहती है कि आपका माथा कटने के बाद भी आप लड़े जा रहे हैं और कहती है कि माथा तो है नहीं मैं आपकी आरती कर्रूं तो तिलक कहाँ कर्रूं।

नियाजी कहते हैं माताजी मैं आपको मान गया हूं। बस आपने आरती कर ली। भवानी सोचती है कि यह तो अभी रुकेगा नहीं।

भवानी सोचती है कि यह तो सिर कटने के बाद भी लड़ता जा रहा है इसलिए क्यों न मैं इसे नील का छींटा दे दूँ (जो कि अशुभ होता है) जिससे नियाजी खाण्डा डाल देंगे।

नियाजी को भवानी की बात समझ आ जाती है और उनकी वाणी होती है कि भाभीजी मेरे ऊपर नील का छींटा मत डालना। इससे मेरा मोक्ष नहीं होगा।

मैं खाण्डा डाल देता हूँ लेकिन माँ चामुण्डा मेरा वंश खत्म मत करना जैसे तूने भूणाजी, मेहन्दू जी और मदनो जी को छोड़ा है वैसे मेरे वंश को छोड़ देना।

इस पर भवानी नेतुजी के महीने के गर्भ को जीवित छोड़ देने का वचन देती है। नियाजी अब खाण्डा छोड़ देते हैं और पृथ्वी माता से निवेदन करते हैं कि मुझे धरती में समा ले।

जब सवाई भोज को नियाजी की मौत का पता लगता है तो वह भवानी को कोसते हैं कि तू मेरे निया जैसे भाई को खा गई।

भवानी कहती है कि मैं तो डायन हूं। नियाजी की क्या सोच करते हो, मैं तो द्रौपदी बनकर कौरवों और पाण्डवों को खा गई, मेरा तो काम ही यही है।

सवाई भोज कहते हैं कि नियाजी जैसा भाई तो मुझे कभी नहीं मिल सकता। वह मेरे २२ भाइयों के बराबर एक ही था।

भवानी कहती है कि मैं कई देवी देवताओं को खा गई, तू एक नियाजी की क्या बात करता है। मैं तो बड़े- बड़ों को खा गई।

सवाई भोज कहते हैं कि माँ चामुण्डा दूर रह ये तेरी करनी मुझे जचीं नहीं।

 

 
 

पिछला पृष्ठ   ::  अनुक्रम   ::  अगला पृष्ठ