देवनारायण फड़ परम्परा  Devnarayan Phad Tradition

पाँचों भाईयों की फौज और रावजी से बदला

देवनारायण और अन्य भाई राताकोट की राड़ में


पीपलदेजी आकर देवनारायण को उठाती है और कहती है की जागो तीन लोकों के नाथ। आपकी गायों को रावजी घेर ले गये है। राताकोट में दो दिनों से बंद पड़ी है। नापाजी गुहार कर रहे हैं। गायों को छुड़ा कर वापस लाओ।

ये सुनकर देवनारायण नींद से जागते हैं और अपने भाईयों को साथ लेकर राण पर चढ़ाई करते करने के लिए तैयार हो जाते हैं

साडू माता देवनारायण को रण में जाने के लिए मना करती हैं क्योंकि देवनारायण अभी छोटे होते हैं। देवनारायण अपने घोड़े   का ताजणा नीते गिरा देते हैं। जब सा माता ताजणा उठाने के लिए नीचे झुकती हैं तो देखती हैं कि चारों तरफ नीलागर ही नीलागर हैं। सा माता को अहसास होता हैं कि देवनारायण तो स्वयं भगवान के अवतार हैं इसलिए वो उन्हें रण में जाने की इजाजत दे देती है।

सब लोग रण में चले जाते हैं लेकिन भांगीजी को खेड़ा चौसला की रखवाली के लिए छोड़ जाते हैं। शीतला माता, काला-गोरा भैरु, शिव-पार्वती और अन्य सभी देवता भी राताकोट की लड़ाई में देवनारायण के साथ चल पड़े। देवनारायण, मेदूजी, भूणाजी, मदन सिंह जी, अस्सीजी और भाटजी घोड़ों पर सवार होकर राण पर चढ़ाई करते हैं।

जब सा माता को पता चलता है कि देवनारायण पीछे से भांगी जी को छोड़ गये हैं तब सा माता भांगीजी के पास आती है जहां भांगीजी सवामण भांग घोट र होते हैं और कहती है कि तू डर के मारे लड़ने नहीं गया और अपने भाईयों को रण के लिये भेज दिया। भांगीजी ने कहा माताजी मेरे पास तो घोड़ा भी नहीं है। मैं चढ़ाई कैसे कर्रूंगा। सा माता कहती है भांगी तू मेरी काली घोड़ी ले जा मगर एक बात का ध्यान रखना घोड़ी मरे या जीवे इसे वापस साथ में लेकर आना। भांगीजी इतनी बात सुनते ही सीधे घुड़साल में जाकर काली घोड़ी को खोलकर सवार हो राताकोट की ओर चल पड़ते हैं। रास्तें में एक तेली और तेलण घाणी में तेल निकाल रहे होते हैं। उससे जाकर बोले रे तेली थोड़ा खल-काकड़ा दे दे, घोड़ी को खिलाना है। तेलण थोड़ी तेज थी बोली कितने चाहिये ? भांगीजी ने कहा जितनी तेरी इच्छा हो उतनी दे दे। तेलण बोली पैसे दे नहीं तो वापस जा यहां से। इतना सुनते ही भांगीजी तेली और तेलण के एक दो थप्पड़ जड़ (मार) देते हैं और सारा खल-काकड़ा खा जाते हैं और घोड़ी को भी खिलाते हैं और सारा तेल पी जाते हैं।

भांगीजी ने सोचा की लड़ने के लिये जा रहे हैं मगर अपने पास न तो शस्र है और न ही टोप है। तेली की घाणी को उठाकर तो सिर पर ओढ़ लेते हैं और तेल निकालने की लाठ को भाला बनाकर कंधे पर रखकर दौड़ पड़ते हैं। रास्ते में उन्हें देवनारायण मिलते हैं। नारायण पूछते हैं भांगीजी आप कैसे आये ? भांगीजी ने कहा माताजी ने भेजा है, अपनी घोड़ी देकर युद्ध करने के लिये। मेरे पास शस्र नही थे तो रास्ते में तेली की घाणी के टोप बना ली और लाठ का भाला।

भांगीजी घाणी का टोप अपने सिर पर ओढ कर, घाणी की लाठ को कंधे पर रख कर, सबसे आगे-आगे चलकर राताकोट पर चढ़ाई कर देते हैं।

युद्ध में तोप का गोला भांगीजी की काली घोड़ी के पांवों में आकर लगता हैं और घोड़ी वहीं मर जाती हैं। भांगीजी घोड़ी को अपनी कांख में लेकर भागते हैं। देवनारायण के पास आकर कहते है आप इस घोड़ी का ध्यान रखना मैं अमल भांग खाकर आता हूं।

देवनारायण नीलाधर घोड़े के मुंह के झाग लेकर घोड़ी के छींटें मारते हैं, घोड़ी वापस जिन्दा हो जाती है और भांगीजी को कहते है। आप जाओ और राताकोट में जाकर गायों के बन्धन काट कर ग्वालों के हवाले करो। मदन सिंह और मेदूजी को कहते हैं कि आप महल में जाकर अपने बाप का बैर लो। मदन सिंह जी और मेदूजी महलों में जाकर ज्वाला हाथ में लेकर युद्ध में कूद पड़ते हैं।

 

 
 

पिछला पृष्ठ   ::  अनुक्रम   ::  अगला पृष्ठ