धरती और बीज

राजेन्द्र रंजन चतुर्वेदी

उपसंहार - धरती और बीज - प्रक्रिया और परिवेश


'लोक-परंपरा में धरती-संबंधी अवधारणा', 'बीज-संबंधी अवधारणा', 'प्रकृति की संपूर्णता में धरती और बीज का संबंध' एवं 'धरती-बीज और मनुष्य' का अध्ययन करते हुए जहाँ हमने प्रकृति और जीवन की भौतिक प्रक्रियाओं के तारतम्य को समझने का प्रयास किया है, वहीं 'सौंदर्यबोध में बीजवृक्ष', 'कथा-अभिप्रायों में वृक्ष-वनस्पति', 'लोक अनुष्ठानों में वृक्ष-वनस्पति' तथा 'चिंतन-प्रणाली और अभिव्यक्ति प्रणाली में बीज-वृक्ष-संबंधी बिंबों' का अध्ययन करते हुए हमने मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया तथा परिवे के संबंध को पहचानने का यत्न किया है।

  1. भौतिक प्रक्रिया

  2. भौतिक और मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया : अंतरावलंबन

  3. मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया

  4. लोककथा : अभिप्राय

  5. चिंतन में व्याप्त परिवे श-तत्त्व

  6. निष्कर्ष

१. भौतिक प्रक्रिया


१.१. प्रकृति की संपूर्णता

बीज से वृक्ष होने की प्रक्रिया को जनपदीयजन की पीढियों ने हजारों बरस से देखा है और हजारों बार देखा है। उसके इस परंपरागत अनुभव ने जाना है कि बीज से वृक्ष होने की यह प्रक्रिया एकांत नहीं है। बीज की विविधता का संबंध मिट्टी की विविधता से है और मिट्टी की विविधता का संबंध पानी से है। पानी धरती को प्रभावित करता है तथा दोनों मिलकर बीज को प्रभावित करते हैं। धरती और पानी के संबंध को मेघ प्रभावित करता है। मेघ को वायु प्रभावित करती है। वायु को ॠतु प्रभावित करती है। ॠतु को सूरज प्रभावित करता है और सूरज ब्रह्मांड की एक विााल माला का एक फूल है और ये सारे फूल काल के सूत्र में गुँथे हुए हैं।

आज कल से अलग नहीं है, दिन रात से अलग नहीं है, जाड़ा गर्मी से अलग नहीं है, उसी प्रकार मनुष्य का जीवन धरती और बीज से अलग नहीं है और प
शु-पक्षी का जीवन मानव-जीवन से अलग नहीं है। जनपदीयजन का र्दान शास्र है 'सबकुछ का सबकुछ से अभिन्न संबंध अर्थात् प्रकृति की संपूर्णता।' 

१.२. निरंतर गति और नियति

धरती और बीज के इस अध्ययन ने प्रकृति की उस निरंतर गति की ओर इंगित किया है, जो प्रकृति के कण-कण में विद्यमान है और जिससे जड़ और चेतन सभी उसी प्रकार अविच्छिन्न हैं, जैसे जलााय की एक लहर से दूसरी लहर। 

इस गति को लोकमानस ने 'माया' और 'लीला' के रुप में पहचाना है, भगवदिच्छा, ऊपरवाले की मौज, नियति, काल और प्रकृति भी उसी गति के दूसरे नाम हैं। इसे आप प्राकृतिक प्रक्रिया भी कह सकते हैं। मानव-जीवन की प्रक्रिया प्राकृतिक प्रक्रिया से विच्छिन्न नहीं है। इसी तथ्य को लोकमानस यों कह लेता है- 

                         करी गोपाल की सब होय।

                               अथवा 

                         तिनका ज्यों बयार बस। 

लोकमानस तथा
शास्र दोनों ने संपूर्ण परिव श्ेा की प्रक्रिया की पृष्ठभूमि में विद्यमान अदृय विवेक की सत्ता अथवा एकसूत्रता को स्वीकार किया है। 

१.३. सभ्यता का आधार : अन्न

धरती और बीज-संबंधी लोकवार्ता का अध्ययन करके हम यह भी समझ सकते हैं कि प्रकृति से मनुष्य के संबंध का द्वार धरती और बीज-संबंध है तथा धरती और बीज से मनुष्य के संबंध का द्वार मनुष्य की मूल-प्रवृत्ति भूख है। धरती और बीज के संबंध से अन्न उपजता है और अन्न मनुष्य का भोजन है। अन्न ही प्राण है, वही जीवन का आधार है और मनुष्य के पारिवारिक, सामाजिक और सांस्कृतिक सभी संबंध इसी आधार पर टिके हुए हैं। मानव-जीवन के सभी उद्योगों का आधार भोजन है। जब भोजन का स्वरुप बदलता है तब प्रकृति से मनुष्य का संबंध भी बदलता है और इसी के साथ मनुष्य का जीवन के प्रति दृष्टिकोण तथा आस्था-विश्वास भी बदल जाते हैं।

२. भौतिक और मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया : अंतरावलंबन


धरती और बीज का भौतिक परिदृय मनुष्य की मनोवैज्ञानिक अवधारणाओं की रचना में उपकारक होता है, वहीं मनोवैज्ञानिक-अवधारणाएँ भौतिक-परिदृय को प्रभावित करती हैं और यह प्रक्रिया निरंतर चलती है, इसी को इतिहासकार सभ्यता का विकास कहते हैं।

 
३.
मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया

३.१. सौंदर्यबोध

मनुष्य के मन में प्रेम हिलोरें लेता है, तो वह रागात्मक तानों-बानों के विस्तार में पक्षियों के संगीत और पुष्पों के सुकुमार सौंदर्य को बुन लेता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि प्राकृतिक परिवे
का सुकुमार सौंदर्य मानव की सौंदर्य चेतना को विकसित करता है, परंतु यह भी तथ्य है कि सौंदर्य-चेतना उसी प्रकार मानव-मन में है, जिस प्रकार अज्ञात का भय बालक के मन में होता है फिर अँधेरा उसे उद्दीप्त कर देता है। इसी प्रकार आँगन में 'नीबरिया का पेड़, खेत में फूल सरसों, सरोवर पर खड़ा खजूर, मार्ग में छितराई दूब, आम की डाल पर गूँजता कोयल का गीत, मुस्कराती कलियाँ, फूलों पर उड़ती तितलियाँ, गुनगुनाता भौंरा, केसर क्यारी, फूली फुलवार, चंपे की डाल, पना की बेल, करील की कुंज, कदंब, हरसिंगार, फूलों की सेज और गुलाब, केवड़ा, बेला और चमेली की महक, मेहँदी रचे हाथ और पाँवों पर लगा महावर, फूलों का गजरा, नीम की डाल पर खड़ा हुआ झूला, कमल जैसे नेत्र, मुखारविंद और चरण कमल लोकमानस से सौंदर्यबोध में रसे-बसे हैं।

३.२. भाषा-संपदा 

बीज-वृक्ष-परिवे
का जो बिंब मनुष्य की संवेदना ने ग्रहण किया है, वह नैगेटिव से पोजिटिव की भाँति उसकी भाषा में लाक्षणिक शब्द, प्रतीक, उपमा, रुपक और दृष्टांत के रुप में प्रकट हुआ है।

यह उल्लेखनीय तथ्य है कि भाषा की संरचना में बिंबों की भूमिका का महत्त्व इसलिए होता है कि वे बिंब उन सी लोगों के मानस पर समान रुप में अंकित होते हैं, जो उस परिवे
में रहते हैं। वक्ता और श्रोता दोनों के मन पर समान रुप से अंकित होने के कारण वे बिंब एक मन की बात दूसरे मन तक पहुँचाने में सहायक होते हैं। बीज, अंकुर, जड़, शाखा, तिनका, काँटा, खेत और दाना जैसे हजारों शब्द बीज-वृक्ष की प्रक्रिया से संबद्ध हैं, किंतु निरंतर प्रक्रिया में विकसित होकर वे जीवन के विविध संदर्भों को व्यक्त करते हैं। शब्द और जीवन के संदर्भ का संबंध इतना गहरा है कि ये हजारों शब्द हमारे सांस्कृतिक इतिहास की पूरी कहानी सुना सकते हैं, क्योंकि मनुष्य की युगयात्रा वृक्षों की छाया में ही आगे बढ़ी है।

३.३. देवभाव

पीपल, नीम, कदंब, आक, केला, आँवला, बरगद, गूलर और तुलसी की पूजा लोकजीवन में आज भी प्रचलित है और पूजा की परंपरा का यह सूत्र उस युग से जुड़ा है, जब से मनुष्य वृक्षों के आश्रय में रहता है। वृक्षपूजा की परंपरा का अध्ययन करके हम वृक्ष तथा मनुष्य के संबंधों का इतिहास तथा देवभावना के संलिष्ट सूत्रों को समझ सकते हैं।

३.४. परंपरा का सूत्र

यह वृक्ष-वनस्पति और मानवजीवन के संबंध की परंपरा का सूत्र है कि-जौ, चावल, हल्दी, सुपाड़ी, नारियल तथा आम और अ
शोक के पत्तों के बिना लोकजीवन में कोई भी मांगलिक कार्य संपन्न नहीं हो सकता।

३.५. लोकमानस : चिंतन की वि
शेषता

जनपदीयजन के सोचने की सबसे बड़ी वि
शेषता यह है कि वह खंड-खंड करके नहीं सोचता। जनपदीयजन जब एक चीज के संबंध में सोचता है तब दूसरी चीज को वह भूल नहीं जाता। जब वह धरती और बीज के संबंध में सोचता है, तब सारा ब्रह्मांड उसकी दृष्टि में होता है तथा जब वह विश्व की उत्पत्ति और विकास के संबंध में सोचता है, तब धरती और बीज के बिंब उसकी आँखों में होते हैं। जनपदीयजन जब प्रकृति के संबंध में सोचता है, तब जीवन के बिंब उसके पास होते हैं और जब जीवन के संबंध में सोचता है, तब प्रकृति के बिंब उसके पास होते हैं। 

लोकमानस के सोचने की दूसरी वि
शेषता जीवन के व्यवहारिक प्र श् नों को अधिक महत्त्व देना है। उसका ज्ञान मात्र सैद्धांतिक नहीं है, उसका ज्ञान उसके जीवन की पद्धति में है।

जिस प्रकार पास के द्वार दूर के संबंध में सोचा जाता है, जिस प्रकार ज्ञात के द्वार अज्ञात के संबंध में सोचा जाता है, उसी प्रकार अपने अनुभव के द्वारा दूसरे के संबंध में सोचा जाता है-'जग कैसौ, कि मोसौ।' सोचने की इस प्रक्रिया में यह कितना स्वाभाविक है कि लोकमानस इस प्रकार सोचे कि चंदा, सूरज, पेड़-पौधे,
शिला-सभी मेरी तरह संवेदनाील और अनुभव शील हैं।

३.५.१. संवेदना और मन:स्थिति : लोकमानस ने अपनी भावनाओं के साथ वृक्ष-वनस्पति को देखा और अनुभव किया है कि 'वे मेरे सुख में सुखी हैं और मेरी वेदना से व्यथित हैं।' किसी अवस्था में उसने पत्तों पर विद्यमान ओस की बूँदों को हीरे की तरह देखा तो कभी भिन्न अवस्था में आँसुओं की तरह।

३.५.२. आत्मद
श् ान : प्रकृति में अपना जैसा भाव देखना आत्मद श् ान है। लोकवार्ता के सर्व-सजीवत्ववाद से द र्शनाास्र के 'आत्मा के सिद्धांत' का संबंध रेखांकित करने योग्य हैं। सर्व-सजीवत्ववाद से अथवा कण-कण में चेतना की अनुभूति तथा चराचर में व्याप्त परमात्मा की अवधारणा के संबंध का प्र श् न विचारणीय है।


३.६. चिंतन प्रक्रिया और बिंब

चिंतन की प्रक्रिया दिखती नहीं है किंतु अंतस्तल पर अंकित चित्रों के द्वारा अग्रसर होती है। जिस प्रकार स्वप्न में बिंब बनते हैं और चित्रभाषा के माध्यम से जीवन-कथा संवेदनाओं में साकार हो जाती है, ठीक उसी प्रकार चिंतन की प्रक्रिया भी बिंबों के आधार पर चलती है। चिंतन की प्रक्रिया उतनी ही प्राकृतिक है, जितने प्राकृतिक हमारे सपने हैं। स्वप्न और चिंतन में इतनी समानता है कि चिंतन को जागरित अवस्था का स्वप्न और स्वप्न को निद्रावस्था का चिंतन कहा जा सकता है।

३.६.१. लोक और शास्र : बीज-वृक्ष के बिंब : जनपदीयजन ने बीज-वृक्ष के बिंबों के माध्यम से बहुत-कुछ सोचा और अनुभव किया है, उसकी अनुभूतियाँ शास्र के चिंतन में पुनर्जन्म धारण करती हैं, इस प्रकार शास्र का चिंतन लोकअनुभूतियों से जुड़ा है।

लोक और
शास्र के बीच आदान-प्रदान की प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है और इसी प्रक्रिया से लोकजीवन के विश्वबोध का विकास होता है। इस प्रकार लोक और शास्र परस्पर पूरक है, भिन्न नहीं।

जैन द
श् ान हो या बौद्ध द र्शन, वेद हों या उपनिषद्, आगमाास्र हों या पुराण, वेदांत और न्याय हो या सांख्य और मीमांसा, योग और वै शेषिक हो अथवा भक्तों की वाणी, संत हों या सूफी हों-विश्व की उत्पत्ति और विकास की जिसने जो भी व्याख्या की, उस व्याख्या में बीज-वृक्ष संबंधी बिंबों को आधार बनाया गया। बीज से वृक्ष बनने की प्रक्रिया को पहचानकर ही शास्र ने सूक्ष्म से स्थूल की ओर चलनेवाली गति को पहचाना एवं स्पष्ट किया कि जैसे पीपल के छोटे से बीज में वि शाल वृक्ष अव्यक्त रुप में समाया है, उसी प्रकार अव्यक्त से व्यक्त की उत्पत्ति होती है।

३.६.२. आधारभूत अवधारणाएँ : 'बीज'
शब्द का प्रयोग 'कारण' के अर्थ में होता है और यह 'कारण' अर्थ इस बात का साक्षी है कि बीज और वृक्ष के संबंध को देखकर लोकमानस ने कारण और कार्य के संबंध को पहचाना था। बीज और फल के संबंध को देखकर ही लोकमानस ने जीवन की निरंतरता को पहचाना। बीज और फल के संबंध को देखकर ही लोकमानस ने कर्मफल का सिद्धांत निर्धारित किया, जिसने भारत के इतिहास को प्रभावित किया। कर्म के परिणाम के लिए 'फल' से अधिक उपयुक्त शब्द दूसरा नहीं है। लोकमानस ने मनुष्य जीवन को ओस की बूँद के बिंब के माध्यम से समझा है। ओस की बूँद पत्ते पर कुछ क्षणों तक ठहरती है फिर हवा चलने पर ढल जाती है। जीवन में सुख के साथ दुख जुड़ा हुआ है। जो फूलता है, वह कुम्हलाता भी है। एक दिन फल आते हैं तो एक दिन पतझर भी हो जाता है। संसार के संबंध उसी प्रकार के हैं, जैसे वृक्ष पर पत्ते लगते हैं, फिर झड़ते हैं और हवा उन्हें दूर उड़ा ले जाती है।

३.७. बीज-वृक्ष और मानव देह

भारत के लोकमानस ने वृक्ष-वनस्पति के संपूर्ण जीवन को देखा है और उसके आधार पर अपने जीवन को पहचाना है। अपने जीवन को वह प्रकृति की समग्रता में देखता है, प्रकृति को भिन्न-भिन्न करके नहीं देखता। इसीलिए वह जान सका कि जिस प्रकार की घटना वृक्षों में घट रही है, मनुष्य का जीवन भी उससे भिन्न नहीं है।

बृहदारण्यक (अध्याय ३ ब्राह्मण ९) में महर्षि याज्ञवल्क्य मानव-
शरीर और वृक्ष की समानता का प्रतिपादन करते हैं-'वृक्ष के पत्ते होते हैं, शरीर में रोम। वृक्ष की छाल होती है, शरीर में त्वचा। वृक्ष में गोंद निकलता है, शरीर में रक्त।'

छांदोग्य-उपनिषद् (अध्याय ६ खंड ११) में तत्त्व की व्याख्या करते हुए आरुणि ने वृक्ष को जीव-आत्मा से ओतप्रोत बतलाया है-'यदि कोई वृक्ष के मूल में आघात करे तो यह जीवित रहते हुए केवल रस"ााव करेगा, यदि इसके अग्रभाग में आघात करे तो भी यह रस"ााव करेगा किंतु यदि वृक्ष की किसी
शाखा को जीव छोड़ देता है तो वह भी सूख जाता है ठीक उसी प्रकार जैसे जीव से रहित होने पर शरीर मर जाता है।'

३.८. बीज-वृक्ष : चेतना

भारत के लोक और
शास्र दोनों में वृक्ष-वनस्पति का जीवन चेतना-संपन्न जीवन माना गया है। लोक और शास्र दोनों ने वृक्ष-वनस्पति और मनुष्य के जीवन में समानताएँ परिलक्षित की हैं। यह बात ध्यान देने की है कि 'वृक्षों में चेतना है', इस सत्य को वैज्ञानिक स्तर पर सिद्ध करनेवाला वैज्ञानिक एक भारतीय ही था 'श्री जगदी शचंद्र बसु', जिसने 'फाइटोग्राफ यंत्र' का अविष्कार किया था और विश्व समाज की वनस्पति पर पड़नेवाले विष के प्रभाव को दिखा दिया था।

३.९. जीव-योनि

लोकमानस ने वृक्ष-वनस्पति और मनुष्य में चेतना के स्तर पर कोई भेद नहीं माना। उसके अनुसार चेतना के चार क्षेत्र हैं-चकिंरदर (प
शु), पकिंरदर (पक्षी), मानुष और दरख्त। लोकमानस का विश्वास है कि जीव अपने कर्म के अनुसार इन योनियों में जन्म लेकर कर्मफल भोगता है।

४. लोक कथा : अभिप्राय

लोककथाओं में प्राप्त बीज-वृक्ष-संबंधी अभिप्रायों के पास मनुष्य और प्रकृति के संबंध की कहानी है।

जिस पौधे के जो लक्षण और गुण लोकमानस ने पहचाने, वे लोकमानस पर अंकित हो गए और जीवन के विविध संदर्भों में उनकी विविध कहानियाँ बन गईं, वे वृक्ष-वनस्पति इन कहानियों के पात्र बने।

४.१. पुराकथा : लोककथा का पुनर्जन्म

पुराणकथा और लोककथाओं के अभिप्रायों में इतनी समानता है कि यह कहना उचित ही होगा कि पुराणकथाओं में लोककथाओं का ही पुनर्जन्म हुआ है। लोककथा जीवन-परंपरा में चलती रही, विभिन्न परिवे
शों में पहुँची और भिन्न-भिन्न परिवे शों में उन लोककथाओं की भिन्न-भिन्न व्याख्या की जाती रही, भिन्न-भिन्न अर्थ निकाले गए, यह एक अलग प्रन है और स्वतंत्र अनुसंधान का विषय है, परंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि पुराणकथाएँ लोककथाओं का कायाकल्प हैं। ऐसी सैकड़ों पुराणकथाएँ हैं जो लोकजीवन में आज भी विद्यमान हैं और भिन्न-भिन्न जनपदों में उनके पाठ भिन्न-भिन्न हैं। किसी लोककथा के लिखित रुप में आ जाने से उसकी मौखिक परंपरा समाप्त नहीं हो जाती, मौखिक परंपरा जीवन में रहती है और जीवन के साथ ही अदलती-बदलती रहती है। उसके पास परंपरा की शक्ति होती है। 

४.२. विश्व पुराकथा : आधारभूत समानता 

विश्व के अन्यान्य
श् ाों में भी जो पुराकथाएँ प्रचलित थीं, उनमें भी वृक्ष-संस्कृति व्याप्त है। आदम ने बुद्धि का फल चख लिया था, इसलिए उसकी संतान आज भी शापग्रस्त है। ग्रीस पुराकथा और अफ्रीकी लोककथाओं के वृक्ष-वनस्पति-संबंधी मोटिफ (अभिप्राय) परिशिष्ट (७.१) में इसीलिए उद्धृत किए गए हैं, ताकि मानव-चिंतन में विद्यमान मूलभूत समानता को परिलक्षित किया जा सके। 

५. चिंतन में व्याप्त परिवे श-तत्त्व

प्रत्येक चिंतन परिवे में होता है, कोई भी चिंतन शून्य में नहीं हो सकता। इसलिए चिंतन निरपेक्ष नहीं है, वह परिवे श-सापेक्ष्य है। प्रत्येक चिंतन में परिवे अनिवार्य रुप से उपस्थित रहता है। मनुष्य जो चिंतन करता है, वह परिवे के द्वारा ही प्रेरित और उत्तेजित होता है एवं परिवे से प्राप्त बिंबों के माध्यम से ही वह आगे बढ़ता है। उस प्रकार चिंतन का परिवे से अभिन्न संबंध है।

धरती और बीज के प्रस्तुत अध्ययन में परिवे
के तीन संदर्भ परिलक्षित किए जा सकते हैं-मानव संदर्भ, भारत संदर्भ और जनपद संदर्भ।

५.१. मानव संदर्भ

वर्ण, वर्ग, धर्म, संप्रदाय, जाति, बिरादरी, राजा-प्रजा,
शासक-ाासित, धनी-निर्धन, विद्वान् और निरक्षर जैसे भेद तो औपाधिक हैं। प्रकृति-चिंतन के संदर्भ में तो राष्ट्रीयता और मानववाद जैसी विचारधाराएँ भी संकीर्ण प्रतीत होती हैं। सूरज, चंदा, हवा, पानी, धरती की कोई जाति-बिरादरी नहीं, तो उनसे संबंधित चिंतन भी जाति-बिरादरी की मानसिक भूमि पर नहीं हो सकता। इसलिए ये चिंतन मन की सार्वभौमिक भावभूमि से जुड़े हैं।

जहाँ दूब और अन्य वृक्ष-वनस्पतियों से लेकर मनुष्य तक एक चेतना-सूत्र का साक्षात्कार किया गया, वहाँ मानववाद भी छोटा पड़ जाता है। यह चेतनासूत्र भारत के समान ही दूसरे
श् ाों की पुराकथा और लोककथाओं में भी विद्यमान है। आवयकता उनके तुलनात्मक अध्ययन की है। यही बात भारतवर्ष के सभी प्र श् ाों और जनपदों की लोकवार्ता के अध्ययन के संबंध में कही जा सकती है। तभी इस प्रन का सटीक उत्तर मिल सकेगा कि क्या मनुष्य में विद्यमान भेद परिवेागत हैं और क्या भिन्न परिवे शों में विद्यमान सभी मनुष्यों में मूलभूत समानता है? इससे प्रत्येक संस्कृति में विद्यमान आधारभूत अवधारणाओं की रचना में परिवे श-तत्त्व की भी पहचान की जा सकेगी।

५.२. भारत संदर्भ

बीज और वृक्ष-संबंधी प्रस्तुत अध्ययन का एक मुख्य ध्येय अपने सांस्कृतिक-सूत्रों के "ाोत की पहचान भी है। बीज और वृक्ष मनुष्य के ज्ञान के पहले पाठ हैं और उनके बिंब आधारभूत बिंब हैं। इन बिंबों के सूत्र के सहारे भारतीय-चिंतन-परंपरा की गहराइयों में उतरा जा सकता है।

भारतीय लोकमानस में कण-कण में व्याप्त परमात्मा का अस्तित्व, सबकुछ बदल जाने पर भी न बदलनेवाला सनातन तत्त्व, जीवन की निरंतरता, कर्मफल का सिद्धांत, आत्मा का सिद्धांत आदि भारत के विश्वबोध-संबंधी कुछ ऐसे विचार और अवधारणाएँ हैं, जो प्रस्तुत अध्ययन में रेखांकित हुए हैं। इसे हम परिवे
का भारत-संदर्भ कह सकते हैं।

५.३. ब्रज संदर्भ

ब्रज में कदम अधिक होते हैं, तो स्वभावत: ब्रज के लोकगीतों में कदंब के बिंब बार-बार आयेंगे, करील बार-बार आयेगा। सौंदर्यबोध हो, चिंतन हो, मुहावरे-लोकोक्ति हों अथवा देवभाव हो। जो वस्तु सामने होती है, वह बार-बार आती है तथा जो चीज दूर होगी, उसे बिंब अपेक्षाकृत कम होते हैं। कृष्ण की लीलाभूमि होने के कारण वृक्षों के साथ जुड़े कृष्ण के संदर्भ जनपदीय परिवे
की अभिव्यक्ति हैं। ब्रज में तुलसी वैष्णव-उपासना परंपरा में अंतर्भुक्त है, घर-घर में तुलसी का पौधा मांगलिक भावों से जुड़ा है। सासनी-क्षेत्र में प्रचलित मुहावरों में क्षेत्रीय वनस्पतियों के बिंब भी परिवे श-तत्त्व की व्याप्ति के प्रमाण हैं।

६. निष्कर्ष

इस प्रकार 'धरती और बीज' के अध्ययन से यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रकृति संपूर्ण और अखंड है, उसमें निरंतर गति है तथा मानव-जीवन प्रकृति की ही एक प्रक्रिया है। वृक्ष-वनस्पति तथा अन्य प्राणियों की भाँति मनुष्य का शरीर और प्राण भी पंचमहाभूतों की प्रक्रिया की रचना है। इस अध्ययन का यह भी निष्कर्ष है कि मनुष्य के अंतर्मन में उसका परिवेा बसा हुआ है और उसकी संपूर्ण संस्कृति में वह परिवे ही अभिव्यक्त होता है।
  

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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