हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 52


IV/ A-2051

शान्तिनिकेतन

22.3.42

पूज्य पंडितजी,

              सादर प्रणाम!

       दोनों कृपा-पत्र यथासमय मिल गये। इधर घर पर एक अतिथि और आ गये हैं- पुत्र-रत्न! सो उनकी खातिरदारी में ही उलझा हूँ। आपको विस्तृत पत्र दो एक दिन बाद दूँगा। पलाश के विषय में तो शीघ्र ही भेज दूँगा, पर नदियों के बारे में दस-बारह दिन बाद। इस बीच आपको सूचित कर दूँ कि एकेडेमिसियन मैं नहीं होना चाहता हूँ। युष्मदादि साहित्यिकों से संबंध होना मेरा जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण प्रसंग है। विश्वभारती पत्रिका बिल्कुल एकेडेमिक पत्रिका नहीं है और इसके सम्पादन के लिये मैं अकेला जवाबदेह नहीं हूँ। साथ ही, इस पत्रिका की सबसे बड़ी सार्थकता यह है कि वह बंगाल के हृदय में हिन्दी के प्रति सम्मान बढ़ावे। यह बात निरन्तर मेरे मन में काम करती रहती है। अगर विश्वभारती शान्तिनिकेतन से न निकलकरयह कहीं और स्थान से निकलती और मैं ही सम्पादक होता तो भी उसका रुप ठीक वही नहीं होता। इन सब बातों को विचार कर आप कोई धारणा बनावें। गलतियाँ हों तो ज़रुर सुझावें। मैं आपके प्रत्येक शब्द का मूल्य ठीक-ठीक जानता हूँ। कोई भी आपकी सूचना या आदेश मेरे लिए बहुत मूल्यवान है। मैं नाना कारणों से उसका पालन न भी कर सकूँ तो भी निश्चित जानिये कि आज नहीं तो दस साल बाद किसी अनुकूल परिस्थिति में उनका ठीक-ठीक उपयोग होगा ही। पंडित मैं बनना ज़रुर चाहता हूँ, परन्तु ठूँठ पंडित नहीं, जीवंत, सरस, गतिशील। आपका आशीर्वाद रहे तो इस जन्म में नहीं तो अगले जनम में।

आपका

हजारी प्रसाद

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली