हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 62


IV/ A -2062

विश्वभारती पत्रिका

साहित्य और संस्कृति सम्बन्धी

हिन्दी त्रैमासिक

हिन्दी भवन

शान्तिनिकेतन, बंगाल

11.12.43

आदरणीय पंडित जी,

       कृपा-पत्र मिला। पाँच जनों की जो जमात आप इकट्ठी कर रहे हैं, उनमें अधिकांश मेरे परिचित हैं। व्योहार साहब को व्यक्तिगत रुप से मैं नहीं जानता, पर आपने जो कुछ लिखा है, उससे इतना स्पष्ट है कि हमारी जमात के अच्छे मेंबर हो सकते हैं। आपको यह सूचित करते मुझे हर्ष हो रहा है कि मैं पहले से कुछ ज्यादा चतुर हो गया हूँ और यह समझने लगा हूँ कि धनी आदमी और गरीब आदमी एक ही समान धरातल पर खड़े नहीं हो सकते। पर इस चतुरता को अवान्तर प्रसंग समझने में मुझे बराबर आनंद मिलता है। सब मिलाकर मैं आपके सांस्कृतिक मंडल का स्वागत करता हूँ। एक बात बड़ी मेहनत और तपस्या के बाद समझ सका हूँ। यह सहजभाव से ही आपको भी बता देना चाहता हूँ। वह यह कि, वही सांस्कृतिक संस्था पनप सकती है, जो अपने भीतर से अपना कार्यकर्ता तैयार करती रहे। बाहर की ओर जो संस्था ताकेगी, वह मरने को बाध्य है। जो कोई भी सांस्कृतिक संस्था हम बनावें, उसके मूल में यह सिद्धान्त जंरुर काम करना चाहिए। उसे अपने योग्य भिन्न-भिन्न कार्यों के निर्वाहक आदमी अपने में से ही तैयार करना चाहिए। कविवर रवीन्द्रनाथ ठाकुर का शान्तिनिकेतन इसलिए बड़ा हो सका है कि उन्होंने विश्वासपूर्वक अपने लोगों में से ही विधुशेखर भट्टाचार्य, क्षितिमोहन सेन, जगदानंद राय, कालीमोहन घोष, नंदलाल बोस आदि आदमी पैदा किए हैं। ये लोग आश्रम के वैसे ही अध्यापक थे, जैसे अन्यत्र हुआ करते हैं। पर कवि ने उन्हें काम देकर अपने महान् हृदय और महान् आदर्श के अनुकूल बना लिया। दूसरी बात इस प्रसंग में जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है, वह यह कि आदमी तैयार करने के लिये काम देने की आवश्यकता है। काम-काज के भीतर से ही आदमी तैयार होते हैं। केवल नाम कमाने के लिये या ढिढोरा पीटने के लिये नहीं, बल्कि निश्चित रुप से मानवजाति की सेवा करने वाले लोगों की पंक्ति में बैठने की शुभाभिलाषा लेकर काम करने वाले ही संस्था को जीवित रख सकते हैं। यह समझ कर अगर शुरु किया जायेगा कि हिन्दी पिछड़ी हुई भाषा है और उसमें जहाँ कहीं से नोच बटोर कर कुछ लिख देने से ही सांस्कृतिक काम हो जायेगा तो मूल में भूल होगी। हिन्दी के माध्यम

से हमें उसी श्रेणी की, मनुष्य जाति की सेवा करनी है, जो संसार की समृद्ध-से-समृद्ध भाषा के माध्यम से उक्त क्षेत्र का श्रेष्ठ-से-श्रेष्ठ व्यक्ति कर गया है। यह बात मैं आपकी परिकल्पिपत संस्थाके लिये भी कह रहा हूँ और उन अन्य शुभ प्रयत्नों के लिये भी जो हिन्दी विश्वविद्यालय या और वैसे ही महान् प्रतिष्ठानों के लिये हो रहे हैं। हिन्दी में हमें घटिया दर्जे का काम नहीं करना है। हिन्दी का मुकाबला संसार की बड़ी-से-बड़ी भाषा से है। नहीं, हिन्दी उतनी ही सेवा का स्वप्न देखती है, जितनी अन्य समृद्ध भाषाएँ कर रही हैं, यदि बस पड़े तो वह अधिक सेवा और अधिक लगन का अवसर भी खोना नहीं चाहती।   

       एक और तीसरी बात मेरे और आपके बीच की है। वह यह है कि मैं मानता हूँ कि दुनिया खेल का मैदान है। खेल में क्या हार और क्या जीत। लड़के भी खेल में रोने से हिचकिचाते हैं। सो इस दुनिया को खेल ही माना जाय। जब तक खेला जाय, तब तक जम के खेला जाय। हार जाया जाय तो राम राम, जीत गये तो राम राम। आपको कैसी लगती है यह बात। मुझे ऐसा लगता है कि आपको भी पसन्द आयेगी। सो जो कुछ किया जाय खेल की मस्ती के साथ। मैं सर्वदा आपके साथ हूँ। हाँ, यह आपने बहुत अच्छी कही कि हमारा मण्डल सम्मेलन की कुर्सियों की परवाह न करे। इन कुर्सियों का लोभ हास्यस्पद ढंग से हमारे साहित्यिकों को ग्रस रहा है। समाचार पत्रों के वक्तव्य देख कर मुझे तो हँसी आती है। सो यह ठीक है।

       ओरछा के ज्योतिषी ने यदि आपको ७५ वर्ष की आयु का आश्वासन दिया है तो शान्तिनिकेतन का ज्योतिषी क्या ऐसा गया गुजरा है कि एक साथी का भी इन्तजाम न कर सके। खेद है कि आपने यहाँ के ज्योतिषी की शक्ति को कम कूता है। आप बिल्कुल निश्चिन्त रहें।

       घर पर सभी कुशलपूर्वक हैं। यहाँ का चतुर्वेदी आपको प्रणाम करता है। एक छोटा और है। सब आपको प्रणाम कहते हैं।

       आचार्य श्री क्षितिमोहन सेन और मैं इस बार आरियेंटल कानफरेंस (बनारस) में विश्वभारती के प्रतिनिधि होकर जा रहे हैं। आपको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि शास्री मोशाय (पं. विधुशेखर शास्री) फिर यहाँ आ गये हैं। स्थायी रुप से यहीं रहेंगे।

       शेष कुशल है।

आपका

हजारी प्रसाद  

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली