हजारीप्रसाद द्विवेदी के पत्र

प्रथम खंड

संख्या - 98


IV/ A-2094

काशी हिंदू विश्वविद्यालय

  21.8.51

श्रध्देय पंडित जी,

              प्रातः प्रणाम स्वीकृत हो!

       कई दिनों से सोच रहा हूँ कि आपको एक पत्र लिखूँ लेकिन और प्रपंचों में पड़ जाता हूँ - वही शुष्क एकेडेमिक बातें - और मन की बात मन में ही रह जाती है। आपके लेख तो प्राय: ही पढ़ता रहता हूँ। आज एक विचित्र ढंग से आपका लेख पढ़ गया। ब्रजभारती की प्रति कल संध्या को आई थी। सुबह उसे यों ही उलट रहा था - एक पृष्ठ खुल गया। एक लेख पढ़ने लगा। बड़ा जीवंत मालूम हुआ। मन ही मन सोचा, यह कोई चतुर्वेदी जी का समान धर्मा लेखक है। फिर उत्सुकता बढ़ी, पीछे उलट कर नाम देखा तो आपका ही लेख है। पढ़ गया-एक साँस में पी गया। ""रीडर बाजी का अभिशाप"" उसका एक शब्द है। मैं इस अभिशाप के कुफल को प्रत्यक्ष देख रहा हूँ-जिसे बंगला में ""हाड़े हाड़े अनुभव करना"" कहते हैं। विश्वविद्यालयों को आपने शुष्क विद्या चर्चा का क्षेत्र कहा है। हमारे विश्वविद्यालय वस्तुतः उतने शुष्क हैं नहीं जितने ऊपर-ऊपर से दिखाई देते हैं-तीन बातें इन उद्यानों को ऊसर उजाड़ रेगिस्तान बना रही हैं। सर्वप्रथम तो गुरु-शिष्य के संबंध नैतिक मानों द्वारा नहीं बल्कि परिभाषित कानूनों द्वारा नियंत्रित हो रहा है। गुरुओं के श्रेणी भेद हैं। कोई ऊंचा, कोई नीचा। एक-एक स्वर कानून द्वारा निर्धारित है। सब स्वरों का मूल आधार वेतन है। गुरु का अधिकार कानूनन तै हैं। शिष्य के, कैंसिल के, सिनेट में सबके अधिकार कानून द्वारा सुपरिभाषित हैं। इनसे संघर्ष और रागद्वेष बढ़ता है। राजनितिक गुट बनते हैं और इस प्रकार अध्यापक का अध्यापन और सौम्य जीवन आहत होता रहता है। दूसरी बात है, नोटबुक और एग्जामिनरशिप की प्रतिद्वेंदिता। अनेक नैतिक ह्रासों और चित्तगत कमियों के मूल में ये बातें हैं। तीसरी बात है शासन यंत्र का शास्रचिंतन यंत्र पर प्रभुत्व। यंत्र दोनों ही हैं, पर शास्रचिंतन यंत्र फिर भी विद्यायतन का मुख्य और पवित्र यंत्र है। मैं समझता हूँ इसके मूल में केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति है। बड़े-बड़े विद्यायतन होंगे तो अनेक विभाग होंगे, अनेक पदाधिकारी होंगे, उनके अंतर्वैभागिक संबंध होंगे, अंतर्वैयक्तिक संबंध होंगे और उलझनें बढ़ती जाती हैं। ज्यों-ज्यों उलझनें बढ़ती हैं त्यों शासन यंत्र अधिकाधिक आवश्यक होता जाता है और शास्रचिंतन   करने वाला यंत्र नियंत्रित होता जाता है। इन्हीं बातों से विद्यायतन का वातावरण बिगड़ रहा है। नहीं तो इन विश्वविद्यालयों में संभावना की कमी नहीं है। खैर, यह तो प्रसंगगत बात है।

       मुझे आपके लेख के स्थल पर ५६ नंबर की प्रशंसा देखकर बड़ा आनंद आया। इसमें तो कोई संदेह नहीं कि ब्रज संस्कृति के सर्वोत्तम निदर्शन आप ही हैं। संस्कृति का प्रयोग आजकल बहुत होता है, परंतु कोई नहीं समझता कि संस्कृति को लेक्चर देकर नहीं समझाया जा सकता, केवल "सुसंस्कत" आदमियों को दिखाकर ही उसे बताया जा सकता है। मैं ब्रज की बात सोचता हूँ तो सबसे पहले आप याद आते हैं लेकिन यह कहना कहाँ तक उचित है कि सारी ब्रज संस्कृति "गो संस्कृति" है। कलकत्ते का ५६ नंबर वाला जीव इतना व्यापक है क्या आदरणीय पं. श्रीराम शर्मा मानेंगे किब्रज संस्कृति "गो संस्कृति" है पुराने पंडित लक्षराम के उदाहरण के लिए "गौर्वाहका" कहा करते थे और अब

       आपका यह लेख बहुत ही स्फर्तिदायक है। सभी जनपदों के लिए भी इसमें उपयोगी सुझाव हैं। परिक्षाओं से क्या फायदा होगा यह तो हम नहीं कह सकते लेकिन ब्रज के लोकगीतों, लोक कथानकों आदि आदि का अध्ययन बहुत आवश्यक है। मैंने श्री सत्येन्द्र जी की पुस्तक "ब्रज लोक संस्कति" पढ़ी है, बहुत अच्छी लगी है। इसमें कुछ बातें ऐसी मिल गईं जो हमारी कठिन ऐतिहासिक समस्याओं की कुंजी देती हैं। इस प्रकार की और भी पुस्तकें निकलनी चाहिए।

       मैंने सुना है कि आप इधर बहुत अस्वस्थ रहने लगे हैं। कभी काशी आकर दस-पंद्रह दिन बिताइए। थोड़ा परिवर्तन भी होगा और एक बार मस्ती से फिर कुछ चर्चा होगी। एक हिंदी भवन यहाँ भी बनवा दीजिए। बहुत दिनों से आपके दर्शनों की इच्छा है। यदि आप छुट्टियों में (अक्तूबर में) टीकमगढ़ रहते हों तो लिखें। यदि इधर आना संभव हो तो सूचना दें। आशा करता हूँ इस समय स्वस्थ और प्रसन्न हैं।

आपका

हजारी प्रसाद द्विवेदी

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र १९९३, पहला संस्करण: १९९४

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प्रकाशक : इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, नई दिल्ली एव राजकमल प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली