मलिक मुहम्मद जायसी

जायसी गुरु-परंपरा

मलिक मुहम्मद जायसी निजामुद्दीन औलिया की शिष्य परंपरा में थे। इस परंपरा की दो शाखाएँ मानी जाती है -- एक मनिकपुर कालापी और दूसरी जायसी की। जाससी ने पहली शाखा के पीरों की परंपरा का उल्लेख काफी प्रशंसनीय अंदाज से किया हे। 
 

पद्मावत और अखरावत दोनों में जायसी ने मानिकपुर कालापी वाली गुरु परंपरा का उल्लेख विस्तार से किया है। शेख महदी को ही जायसी का दीक्षा गुरुमाना जाता है। रामचंद्र शुक्ल के अनुसार इस बात का ठीक- ठीक अंदाज नहीं होता है कि जायसी मानिकपुर के मुहीउद्दीन के मुरीद थे या जायस के अशरफ जहाँगीर के।

पद्मावत के दोनों पीरों के बारे में इस प्रकार उल्लेख किया गया है :-

सैय्यद अशरफ पीर प्यारा।
जेहि मोहि पंथ दीन्ह उजियारा।।
गुरु मोहिदी सेवक में सेवा।
चले उताइल जेहिका सेवा।।

"आखिरी कलाम' में जायसी ने केवल सैय्यद अशरफ जहाँगीर का ही उल्लेख किया है। पीर शब्द का प्रयोग भी इन्हीं के नाम के पहले प्रयोग किया गया है। जायसी ने खुद को अशरफ जहाँगीर के घर का बंदा बताया है। इससे इस बात का अंदाजा लगाया जा सकता है कि जायसी के दीक्षा गुरु सैय्यद अशरफ जहाँगीर ही थे। इन्होंने बाद में शेख मेहदी की सेवा करके बहुत कुछ सीखा होगा।

 

सैय्यद अशरफ एक महान सुफी संत थे और उनकी मृत्यू ८०८ हिजरी में हुई थी। जायसी अशरफ की मृत्यू के काफी बाद अवतार प्राप्त हुए थे। जायसी ने उन्हें पुज्य पीर माना है। उन्होंने पद्मावत में ही अपने गुरु- परंपरा और अपने गुरु की बात स्पष्ट रुप से लिख दी है --

सैय्यद अशरफ पीर पियसरा।
तिंह मोहिं पंथ दीन्द उजियारा।।
जहाँगीर ओई चिस्ती, निहकलंक जस चाँद।
ओइ मखदूम जगत के हौं उन्हके घर बांद।।

जायसी के अनुसार सैय्यद अशरफ जहाँगीर चिश्ती वंश के थे ओर चाँद जैसे निष्कलंक थे। वे जगत के मखदूम ( स्वामी ) थे और मैं उनके घर का सेवक हूँ। 

इससे स्पष्ट है कि जायसी स्वयं को उनके घर का सेवक के रुप में मानते थे। वे आगे कहते हैं --

उन्ह घर रतन एक निरमरा।
हाजी शेख सभागाई भरा।।
तिन्ह घर ढ़??? दीपक उजियारे।
पंथ देइ कहं दइअ संवारे।।
संख मुबारक पूनिउं करा।
सेख कमाल जगत निरमरा।।

मुहम्मद तहां निचिंत पथ जोहि संग मुरसिद पीर।
जेहि रे नाव करिआ औ खेवक बेग पाव सो तीर।।

जायसी कहते हैं, सैय्यद अशरफ जहाँगीर के घर में एक निर्मल रत्न "हाजी शेख' हुआ, जो सौभाग्य संपन्न था। उनके घर में मार्ग दिखलाने के लिए दो उज्जवल दीपक संवारे। एक शेख मुबारक, जो पूनम की कला के समान था और दूसरा शेख कमाल, जो संसार भर में निर्मल था। मलिक मुहम्मद का कहना है कि विश्व में जिसके संग मुरशिद और पीर हों, वह मार्ग में निर्जिंश्चत रहता है, जिसकी नाव में पतवारिया और खवैया दोनों हों, वह शीघ्र तीर पर पहूँच जाता है।

पद्मावत में एक स्थान पर जायसी लिखते हैं --

गुरु मोददी खेवक में सेवक।
चलै उताइल जिन्ह कर खेवा।।
अगुआ भएउ सेख बुरहानू।
पंथ लाइ जहिं दीन गियानू।।

अलहदाद भ तिन्हकर गुरु।
दीन दुनिअ रोसन सुरखरु।।
सैय्यद अहमद के ओइ चेला।
सिद्ध पुरुष संघ जेहिं खेला।।

दानिआल गुरु पंथ लखाए।
हजरति ख्वाज खिजिर तिन्ह पाए।।
भए परसन ओहि हजरत ख्वाजे।
लई मेर जहं सैय्यद राजे।।

उन्ह सोमै पाइ जब करनी।
उधर जीभ प्रेम कवि बरनी।।
ओइ लौ गुरु हौं चेला निति बिनबौं भर चेर।
उन्ह हुति देखइ पावौं दास गोसाइ केर।।

गुरु मोहदी खेने वाले हैं। मैं उनका चेला हूँ। शेख बुरहान अगुआ हैं। उन्होंने मार्ग पर लाकर ज्ञान दिया। बुरहान के गुरु अलहदाद थे, वे हमारे गुरु हैं। मैं उनका सेवक हैं। मैं नित्य उनका सेवक बनकर उनकी वंदना करता हूँ। उनकी ही कृपा से मैं भगवान का दर्शन पा सकूँगा।

 

| कवि एवं लेखक |

Content Prepared by Mehmood Ul Rehman

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