झारखण्ड

टांगीनाथ : एक तीर्थस्थल झारखण्ड में

पूनम मिश्र


झारखण्ड की धरती रत्नों की धरती तो है ही, देवभूमि भी है। इस धरती में चारों तरफ बहुत ही प्राचीन तीर्थस्थल हैं। इसके अलावा गिरिडीह के समीप अवस्थित मधुबन जिसे जैन मतावलम्बियों का मक्का कहा जाता है,पारसनाथ क्षेत्र भी इसी झारखण्ड की धरती में है। झारखण्ड में अनेक देवी- देवताओं के मन्दिर, मूर्ती, गढ़ के अवशेष, शिलालेख, शिवलिंग आदि मिले हैं एक ओर जहाँ महान सिद्ध शक्ति स्थलों में एक प्रमुख स्थल रजरप्पा धाम गोला के नजदीक है तो दूसरी ओर बारह ज्योतिर्किंलग में एक प्रमुख लिंग रावणेश्वर बैधनाथ धाम देवघर में विराजमान है जहाँ प्रतिवर्ष लाखों -करोड़ों के तादाद में भक्त लोग भगवान भोलेनाथ का दर्शन कर पुण्य का भागी बनने के लिए आते हैं।इनमें से कुछ तीर्थस्थलों का वैज्ञानिक पुरातात्विक एवं मानव शास्रीय अध्ययन हुआ है, किन्तु बहुत से जगहों का अध्ययन होना अभी शेष है।जहाँ अध्ययन एवं खोज हो भी रहा है वहाँ गहन अध्ययन की नितान्त आवश्यकता है।

शिव देवाधिदेव महादेव हैं। वे दासों के दास हैं। करुणासागर हैं। आदिदेव हैं। ओढ़रदानी हैं। सामान्य लोग एवं सीधे - सादे झारखण्ड के जनजातियों में तो शिव का सबसे अधिक महत्व है यहाँ के अधिकांश जनजाति इस शिव को परिवार के सदस्य के रुप में देखते हैं। गुमला जिले में घाघरा से करीब तीन किलोमीटर घाघरा नेतरहाट पक्की सढ़क पर एक स्थान है - देवाकी। यहाँ एक छोटी और खुबसूरत पहाडी नदी जिसका नाम भी घाघरा है प्रवाहित होती है। इसी नदी के कछरे एवं नदी के मध्य भाग की गुफा में अनेकों शिवलिंग बिखरे रहते हैं। अगल - बगल के हिन्दु एवं आदिवासी समाज के लोग यहाँ आकर नित्य पूजा अर्चना करते हैं। खोज करने पर पता चला कि उरांव भाषा में देवाकी का अर्थ देवगृह से है। देवाकी दो शब्दों देव और आकि के मेल से बना है। जिसका अर्थ क्रमश: देव घर होता है। इस तरह से यह स्थान बैद्दनाथ धाम के समान ही पवित्र है जहाँ शिव अपने परिवार के सदस्यों, अन्य देवी - देवताओं एवं गणों के साथ निवास करते हैं।

उपरोक्त वर्णन से यह स्पष्ट हो जाता है कि झारखण्ड की धरती पर शिव उपासना की कोई नई परम्परा नहीं है। शिव की पूजा आदिवासी समाज के लोग अपनी परम्परा एवं लोक संस्कार के आधार पर करते आ रहे हैं। इस बात की पुष्टि मानवशास्रीय लेखों,पुस्तकों एवं अध्ययनें से भी हुआ है। (देखे डा० कैलाश मिश्र का लेख)। छोटानागपुर के असुरा क्षेत्र के उत्खनन एवं खोज के आधार पर कुछ विद्वान यहाँ की सभ्यता एवं संस्कृति को सिन्धु - नदी- घाटी की सभ्यता के समकक्ष मानते हैं।(राय, १९३७: २२५-६)

अब मैं शैव तीर्थस्थलों में एक प्रमुख तीर्थस्थल टांगीनाथ, जो कि आज के गुमला जनपद में अवस्थित एक पहाडी के उच्च शिखर पर है, का वर्णन करने जा रही हूँ। टांगीनाथ चैनपुर से १६ मील की दूरी पर गुमला जनपद के डुमरी प्रखण्ड के अन्तर्गत मझगांव नामक गांव में पहाडी के सर्वोच्च शिखर पर अवस्थित एक विलक्षण तीर्थस्थली है।यह क्षेत्र बारहवें प्रिंसली राज के अधीन था। आजकल यहाँ ईसाई धर्म को धारण कर लेनेवाले उरांव जनजाति के लोग सर्वाधिक हैं। ईसाई धर्मावलम्बी इस क्षेत्र में १८ वीं सदी के अन्त में आए थे। मझगांव ग्राम का पश्चिमी भाग एक लम्बी पहाडी से सुरक्षित है जिसे लुच-पुरपथ कहते हैं। इस पहाडी का वह प्रदेश जो मझगांव की ओर इंगित है। मझगांव पहाड के रुप में विख्यात है।यह पहाडी स्वतन्त्र भारतीय गणराज्य के दो प्रदेश झारखण्ड एवं छत्तीसगढ़ को स्पष्ट विभाजित करती है। इस पहाडी का शीर्षभाग (जो चपटा हुआ है) जोकि ------- के रुप में जाना जाता है, कुछ आदिवासी ग्राम एवं आवास के लिए स्थान प्रदान करता है।

मझगांव संरचनात्मक दृष्टिकोण से तीन प्रकार के टोलों, मुहल्लोंमें विभक्त है। मझगांव मुख्य दन्त्रोली और लीटीयाछुआ। मझगांव मुख्य में उरांव एवं खेरवारनजाति के अलावे चीक बराईक जनजाति एवं अहीर जाति के लोग निवास करते हैं। लोटियाचूआयों तो पहाडी के शीर्ष पर अवस्थित है फिर भी यह गांव की सीमा के अन्दर ही आता है।यहाँलगभग १८ कोरबा जनजाति के परिवार निवास करते हैं। गाँव की समस्त आबादी का लगभग साठ प्रतिशत हिस्सा उरांव जनजाति के लोगों की है।

टांगीनाथ तीर्थस्थल पहाडी के शीर्ष है जिसे क्षेत्रीय भाषा में स्थानीय लोग टांगीनाथ पहाड के नाम से जानते हैं। यह स्थान मुख्य मझगांव से पश्चिम की दिशा में है। यह पहाड लगभग ३०० फीट की ऊँचाई पर है और लोग सामान्यतया उत्तर की दिशा से इसपरपहुँचते हैं। ऊपर चढ़ने के समय मध्य रास्ते में एक खुबसूरत झरना मिलता है जो हमेशा जलप्रवाहकरता रहता है।यह जलप्रपात केरजाबेला नामक कंटीले जमीन से निकलता है।

टांगीनाथ तीर्थस्थली के अतिरिक्त लगभग एक किलोमीटर की दूरी पर दूसरी तीर्थस्थली भी अवस्थित है जिसे देवता झूमरा कहा जाता है।यह टांगीनाथ पहाड से पूर्व की दिशा में अवस्थित है।छोटी पहाडी के समीप एक और पवित्र स्थान है जिसे जोगी टोंगरी के नाम से जाना जाता है और यहाँ बहुत से मूर्ती इत्यादि उत्खनन के

दौरान मिले हैं। जोगी टोंगरी दन्त्रोली के आसपास है। टांगीनाथ पहाड और लुकपुटपाथ के पहाडी एवं धान के खेतों से अनेक शिवलिंग गणेश आदि देवताओं के मूर्ति आदि मिले हैं। मान्यता ऐसी है कि अगर कोई व्यक्ति कुछ दिन तक रहे और रात में और दोपहर में भी जब लोग नहीं रहते हैं तो बहुत ही आश्चर्यजनक और रोमांचक अनुभूति का आन्नद यहाँ रहनेवाले को मिलता है। किसी ने मध्य रात्रि में नगाड़े की झनकार सुना तो किसी ने विशाल त्रिशूल के पीछे से ओंकार का महामन्त्र।

 

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