झारखण्ड

संताल - मारनी : एक अनूठा तीर्थस्थल

पूनम मिश्र


संताल मारनी झारखण्ड प्रदेश में देवाधिदेव महादेव की नगरी देवघर या बैद्दनाथ धाम से लगभग १७ किलोमीटर की दूरी पर पूर्व की ओर "सारवां" नामक गांव में अवस्थित एक रहस्यमय तीर्थस्थली है। इस स्थान पर अभी सिर्फ मिट्टी का एक ऊंचा टीला हे, पर उसकी मिट्टी ही बतलाती है कि यह किसी समय खुंखार रही होगी। सारवां - टिकैत की ड्यौढी और टुण्डी - राज कचहरी के बीच में यह टीला है, जिसपर घास भी बहुत कम उग पाती है। इस टीले को ही आस-पास के लोग संताल-मारनी के नाम से जानते हैं। इस टीले के साथ अनेक लोक कथाएं एवं आश्चर्यजनक संस्मरण जुडे हुए हैं।लोगों का ऐसा विश्वास है कि यह मिट्टी का टीला - संताल-मारनी अनेक देवी एवं चमत्कारिक गुणों से भरा पड़ा है।

गांव एवं अगल-बगल के गांव के बड़े बुजुर्ग-बुजूर्ग एवं जानकार लोगों से पता चला संताल-हूल के समय विद्रोही संतालों ने सारवां राजा तक धावा किया था। हलाँकि अभी पूरे थाने की यह स्थिति है कि चार सौ लोग भी संताल जनजाति के नहीं होंगे।इसका कारण चाहे जो भी रहा हो, लेकिन १८वीं शताब्दी के मध्य में इनकी अच्छी आबादी रही होगी,ऐसा अंदाज है। क्योंकी ऐसा नही होने से यहाँ के जमींदार घटवार पर उनके द्वारा आक्रमण किये जाने का कोई अन्य कारण नहीं हो सकता। अब यह बात तो एक सामान्य बुद्धि का मनुष्य भी सहज ही समझ लेगा कि यदि संताल जनजाति के लोगों की यहाँ घनी आबादी नहीं होती, तो फिर यहाँ घटवार जमींदार से उनकी दुश्मनी क्यों होती? वे क्यों उनपर आक्रमण करते?

जानकार लोगों की मान्यता है कि उन दिनों वहाँ के घटवार बाबू मर्दन सिंह थे।बाबू साहब जाति के भूइयां थे। वे कभी जनजातियों के ही श्रेणी में थे, किन्तु बाद में राजपूतों अथवा क्षत्रियों की श्रेणी में गिने जाने लगे थे। जब विद्रोही संतालों ने पूरे अस्र -शस्र के साथ इन पर अचानक धावा बोल दिया तब पूरे महल में कोहराम मच गया। हाली- महाली के साथ -साथ घटवार मर्दन सिंह भी घबड़ा गए ; क्योंकी विद्रोही संतालों की सेना विजय-झण्डा फहराते बढ़े चले जा रहे थे। राजा - बगीचा में पहुँचकर संताल - विद्रोहियों ने अपना पड़ाव डाल दिया। वहां कुछ देर विश्राम कर लेने के बाद विद्रोही महल को चारों ओर से घेर लेने की तैयारी करने लगे। मर्दन सिंह को जैसे ही यह खबर लगी तो वे अन्दर महल में गए और महल की औरतों को बोध- प्रबोध देते हुए कहा कि"तुम सभी बच्चों के साथ कोठा दुमंजिले पर की एक कोठरी में चुपचाप किवाड़ बन्द कर बैठ जाओ तथा देवी की प्राथना करो एवं मन ही मन देवी का नाम लो।" सुनते ही सभी महिलायें तत्काल बच्चों के साथ कोठे पर चली गईं और एक कोठरी में बन्द हो गई।अन्दर महल से बाहर आने के बाद घटवार मर्दन सिंह कुलदेवी - काली के कमरे में गए जहाँ वेदी की बगल में दीवाल की खूँटी पर उनकी दो तलवारें और ढ़ाल लटक रही थी। वे ध्यानावस्थित ही कुछ समय तक वहीं देवी की अराधना अपने एक पैर पर खडे होकर विनम्र भाव से करते रहे। देवी उनकी अराधना से प्रसन्न हो गई और देवी का आदेश हो गया कि "हे पुत्र, डरो नहीं।मैं तुम्हारे साथ हूँ। संताल विद्रोहियों से तुम्हें चिन्तित होने की आवश्यकता नहीं है।" इसपर मर्दन सिंह ने कहा," माँ, डरु नहीं तो क्या करु ?हमारे पास न तो ज्यादे लोग हैं, न ही मुकाबले के लिए उचित मात्रा में अस्र -शस्र है। मैं क्या तमाम लोग त्राहि - कृष्ण कर रहे हैं।" इसपर देवी ने आकाशवाणी से निर्देश दिया: " पुत्र, मुकाबले के लिए अस्र- शस्र नहीं है,तो नहीं सही, लेकिन डरो मत। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। मैं तुम्हें वरदान देती हूँ कि तुम उनकी मुकाबला अच्छी तरह से कर सकोगे। आंखे खोलो, देखो, तुम्हारे सामने कुछ गोलियां है, कुछ और बना लो। इन गोलियों से ही उनका मुकाबला हो जाएगा। तलवार का उपयोग तुम एकदम पीछे करना।" 

घटवार मर्दन सिंह ने जब आंखे खोली, तो ठीक सामने कुछ गोलियां पड़ी मिलीं।उनका पुरा शरीर रोमांचित हो उठा। मानो कोई अदृश्य शक्तियां वरदान दे रही हों। वेदी के सामने माता टेककर एकबार पुन: देवी को प्रणाम किया। पूरे जोश से उनकी आंखे लाल-लाल हो गई। गोलियों को दोनों हाथों में लेते हुए उन्होंने चंचल मुद्रा में पुकारा -"ऐ कोई है?"

"जी हाँ" कहते हुए उत्तर में दो भयभीत प्यादों ने प्रवेश किया।

घटवार मर्दन सिंह ने उत्तेजित मुद्रा में प्यादों से कहा-'तुम लोग जाओ और महल तथा दरबार में स्थित सभी लोगों से कह दो कि वे घबराएँ नहीं। मैं अभी आ रहा हूँ।और हाँ उनसे यह भी कह दो कि मुझे महादेवी के अनुकम्पा से वह चीज अमोघ के रुप में मिल गई है, जिससे एब एक भी उपद्रवी आक्रामक बचकर यहाँ से नहीं जा सकेगा। चलो मैं आ रहा हूँ। " इतना कहकर घटवार मर्दन सिंह ने अपने कथ्य को कुछ क्षणों के लिए विराम दिया।

प्यादे नौ - छौ विचारते, तदनुसार कार्य करने चले गए और मर्दन सिंह मिट्टी की ओर गोलियां (अंटे), पता नहीं क्या - क्या डालकर बनाने लगा। काफी अंटे हना लेने के बाद वहाँ से निकले और दरबार में उपस्थित होकर अण्टे दिखलाते हुए घोषणा करने लगे :

"तुम लोगों की रक्षा के लिए एक अदृश्य शक्ति कार्यशील है। तुमलोग घबराओ नहीं। तुम लोग इन गोलियों का उपयोग करो, साथ ही महुआ के चूरण का बारुद और उरद के छर्रे बन्दुकों में भरकर दनादन चलाओ, देवी तुम्हारे साथ रहेगी, इसलिए संताल विद्रोही तुम्हारा मिकाबला नहीं कर सकेंगे।"

घटवार मर्दन सिंह का इतना कहना था कि सभी घोर चिन्ता में डूब गए। यह कैसी आज्ञा है! इसका अंजाम तो अन्तत: सर्वनाश ही होगा। सभी लोग बेमौत मारे जाएंगे। उनके समर्थक तो ऐसी बेढ़ंगी आज्ञा से यह समझ रहे थे कि "घटवार मर्दन सिंह शायद पागल हो गये हैं। उनकी मानसिक स्थिति खराब है। सच है, कभी-कभी विपत्ति में धैर्य के साथ- साथ दिमाग भी अपना संतुलन खो बैठता है।"

अत: वे कुछ क्षणों तक गम्भीर अवस्था में किंकर्तव्यविमुढ़ होकर खड़े- खड़े घटवार मर्दन सिंह के किसी और आज्ञा का इन्तज़ार करने लगे। लेकिन कुछ ही पलों के बाद उनको ऐसा अनिभव हुआ कि मर्दन सिंहजी अपने आदेश पर चट्टान की तरह अडिग हैं। उन्होंने यह आदेश पूरे चेतन अवस्ता में दिया है।उनका होशो आवास पूर्णतया संतुलन में है। इसी बीच विद्रोही संतालों के नारे, मांदर और नगाड़ों की कर्णभेदी आवाज सुनाई पड़ी। इससे किसी को भी यह समझने में तनिक भी देर नहीं लगी कि विद्रोही महल (गढ़ी) के लिए कूच कर चुके हैं। घटवार मर्दन सिंह के कानों में आवाज पहुँचते ही वे शेर की भांति कड़कर दहाड़ उठे:

तुमलोग उल्लू की तरह टुकुर-टुकुर क्या दाख रहे हो?
जो कहता हूँ सो करो। मेरा आदेश ब्रह्मवाक्य है।
इसमें विजय का बीज है।जीत तुम्हारी होगी।
जबानों, तुम मेरे रण बांकुरे हो।बस एक बार अपने
धैर्य और अद्मय साहस का परिचय दो। तनिक समय
भी गंवाएं हिना तैयार हे जाओ। सम्हालो अपने अस्र-शस्र।"

इतना कहकर घटवार मर्दन सिंह लपकते हुए देवी के कमरे में चले गए तथा कुछ ही पल में वहां से ढ़ाल-तलवार हाथों में लिए सामने उपस्थित हो गये।उनकी चंचल और लाल-लाल आंखों से जैसे चिंगारियां निकल रही थी। इस बीच सभी लोग बांस की कमानियां, गोलियां, तोपें आदि लेकर तैयार हो गये।कुछ उत्साहित युवक महल के ऊपर और कुछ अहाते में पूरे जोश के साथ विशिष्ट स्थानों पर खड़े हो गये। महल के नीचे दरवाजे के बीच घटवार मर्दन सिंह दांत कड़मड़ाते हुए कभी चहलकदमी करता तो कभी खड़े हो उपद्रवियों के जत्थे से आ रहे नारे और वाद्द यन्त्रों की आवाज सुनकर उत्तेजनापूर्ण भाव प्रदर्शन कर रहे थे। इधर महल के बाहरी अहाते में इकत्रित लोग जोर-जोर से नारे लगाये जा रहे थे:

"घटवार मर्दन सिंह की जय;
घटवार मर्दन सिंह की जय।"

जोश का आलम यह था कि मानो वे लोग मर्दन सिंह के नेतृत्व में एवं उनकी आज्ञा से दुनिया के किसी भी शक्तिशाली से शक्तिशाली फौज को परास्त कर मटियामेट कर दें। संताल- विद्रोही अभी घटवार मर्दन सिंह के महल से काफी दूरी पर ही थे कि युद्ध छिड़ गया।कुछ ही देर में उपद्रवियों के तीर, धनुष,बल्लम-बर्छे सभी बेकार साबित हो गये।क्योंकी संताल विद्रोही गोलियां लगते ही धड़ाधड़ धाराशायी होने लगे। इससे घटवार मर्दन सिंह एवं उनके विश्वासी योद्दाओं में अदम्य साहस प्राप्त हो गया। वे अब और अधिक उत्साह के साथ संताल विद्रोहियों का सामना करने लगे।इनमें आश्चर्यजनक उर्जा का संचार होने लगा।इधर संताल - विद्रोही लगातार धाराशायी हो रहे थे।इस तरह कुछ लोगों के धाराशायी हो जाने के बाद विद्रोही-दल में कुछ पल के लिए धबराहट आ गई, किन्तु पुन: साहस बटोरकर वे एक -दूसरे को जोर- जोर से ललकारते हुए पूरे जोश के साथ हमला करने लगे।

अन्धाधुन्ध गोलियों की बौछार ने उन्हें गिरते -पड़ते भगोड़ों की तरह भागने को लाचार कर दिया। घटवार मर्दन सिंह में अजब का ताकत आ गया था। वे मानो अकेले हजारों विद्रोहियों को समाप्त कर देना चाहते थे।पूरे जोश में आकर मर्दन सिंह शेर की तरह गरजते हुए आगे की ओर लपक पड़े।संताल-विद्रोही मर्दन सिंह एवं उनके लोगों का साहस एवं तगड़ा प्रत्याक्रमण देखकर बुरी तरह भयभीत हो गये और तेजी से पीछे की ओर मुड़ गए।तब तक उनके बहुत साथी मिट्टी चूम चुके थे। लेकिन घटवार मर्दन सिंह के दल के लोगों ने दौड़ कर चारों ओर से उन्हें घार लिया।लगभग सवा किलोमीटर तक इसी क्रम में आने के बाद दोनों दलवालों ने आमने- सामने जम कर लड़ाई की। संताल - विद्रोही साहस खो चुके थे, इसलिए कुछ घंटों में ही सभी जान से मार दिये गये। बचे वही, जो जी-जीन लेकर इधर उधर भाग गये।

स्थानीय लोगों की यह मान्यता है कि उसी दिन से इस जगह का नाम संताल-मारणी पड़ गया।

 

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