छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर'

लघु भारत : छत्तीसगढ़


छत्तीसगढ़ी संस्कृति

भूमिका

छत्तीसगढ़ी संस्कृति में व्याप्त कबीरीय विचारणा

 

भूमिका :

संस्कृति सतत् विकास मान मानवीय चेतना की सर्वोत्तम परिणति है। यह मानव मात्र की जीवन-निधि है। अत: इसमें किसी प्रकार की सीमा रेखा नहीं खींची जा सकती है। भारत जैसे विशाल देश में अनादि काल से ही विभिन्न संस्कृतियों का मिलन एवं पारस्परिक आदान-प्रदान होता रहा है। और इस प्रक्रिया में अखण्ड भारतीय संस्कृति का निर्माण हो सका है। वस्तुत: भारतीय सभ्यता और संस्कृति का महत्व इस प्राय: द्वीप में सदियों से विकासमान अनेक प्रादेशिक संस्कृतियों के सुमेल में अंतर्निहित है। उन्होंने अपने विभिन्न रुपों और बहुविध विशेषताओं से भारतीय सभ्यता और संस्कृति को ने केवल सुन्दर और विराट बनाया है, वरन् उसे वह अदम्य जीवनीशक्ति भी दी है, जो उत्थान पतन के अनेक वात्याचक्रों के बीच जीवित रहकर विकास कर सकी है। उनमें से किसी एक की अवहेलना उसके महत्व को खण्डित कर देगी।

छत्तीसगढ़ी संस्कृति अपने रुप की संरचना में भारतीय संस्कृति का लघु रुप है। जैसे भारतीय संस्कृति का स्वरुप मोजक (Mosaic ) है, ठीक उसी प्रकार छत्तीसगढ़ी संस्कृति भी मोजक है। भारतीय संस्कृति में हर आंचलिक संस्कृति अपना विशिष्ट व्यक्तित्व रखते हुये अपने सम्भार से भारतीय संस्कृति को सौंदर्यमय और एश्वर्यमय बना रही है। ठीक उसी प्रकार छत्तीसगढ़ में कई संस्कृतियां मिलती हैं। और वे अपनी विशेषता से परिपूर्ण होते हुए भी छत्तीसगढ़ के सर्वांगीण सांस्कृतिक व्यक्तित्व में एक सौन्दर्यछटा और कांति की रचना करती हैं।

छत्तीसगढ़ नाम से स्पष्ट है - "अनेकता में एकता'। छत्तीसगढ़ की संस्कृति एक सुंदर वाटिका है। यहां छत्तीस प्रकार के रंगीन गमले हैं। उनमें छत्तीस प्रकार के फूल खिले हुये हैं। सबकी अपनी पहचान है। सबका अपना व्यक्तित्व, सबकी अपनी आभा, और सबकी अपनी सुगंध है। बगिया में प्रवेश करते ही सभी की सामूहिक सुगंध प्राणों को भर देती है। उसका समग्र सौंदर्य अभिभूत कर लेता है। उसका वैविध्य आत्महरा है। इन सबके बीच एक रेशमी तार परिव्याप्त है और वह है उसकी "प्राच्य प्रकृति' अर्थात वह कमनीयता जिसकी तिर्यंक भंगी केवल ललाटेन्दु के जटाजूट में द्वितीया के चांद में देखी जा सकती है। प्रकृति की वैभवमयी क्रोड़ में संस्कृति की शैवालिनी मृदु मंथर गति से धीरे-धीरे, हौले-हौले बहती जा रही है - "महासागर' में विलीन होने के लिए।

आरण्यक सांस्कृति की प्रकृतिमयता, जीवन्तता, संतुलन, समन्वय, धर्मप्राणता, मूल्यवादिता, समावेशी चरित्र, मानवीयता, उदारता, सह-अस्तित्व और चिदम्बरीय-चेतना, सभी बातें हमें छत्तीसगढ़ी संस्कृति में सुगुंफित दिखाई पड़ती हैं। यही वासुदेव के हृदय पर सुशोभित बैजयंती हार के रुप में लहराती हुई दिखाई पड़ती है। आरण्यक संस्कृति की विशालता और व्यापकता उसकी विराट् चेतना का द्योतक है। छत्तीसगढ़ी संस्कृति में हमें यही विराट्ता दिखाई पड़ती है, जो अनादि युग से आज तक भारतीय-संस्कृति की तरह सभी को अपने संवेदनशील बाहों में भरे एक जटिल रुप में हमें आने के लिए आह्मवान कर रही है।

छत्तीसगढ़ी संस्कृति की प्रकृति और जीवन-चर्या में सहिष्णुता और समाहार दो तत्व सदा ही विद्यमान रहे हैं। प्रगति की अंधदौड़ में वह पीछे रह गई है, पर अपने सांस्कृतिक जटिल विधान में और मिश्रित संरचना में किसी भी सार्वभौम या विश्वव्यापी संस्कृति से कहीं अधिक आधुनिक है।

आदिम संस्कृति, प्राचीन संस्कृति तथा आधुनिक वैज्ञानिक संस्कृति सभी छत्तीसगढ़ी संस्कृति के बहुआयामी व्यक्तित्व में समा गई है। साहित्य, संस्कृति और कला सभी में प्राचीन काल से आज तक भारत में जितने विकास दिखाई पड़ते हैं, उन सबका एक लघु रुप छत्तीसगढ़ की संस्कृति में है। आदिम संस्कृति के साथ आर्य, द्रविड़, बौद्ध, जैन, सिक्ख, कबीर-पंथी, इस्लाम, इसाई आदि की सांस्कृतिक धाराएं यहां की संस्कृति में दिखाई पड़ती है।

आधुनिक वैज्ञानिक व तकनीकी विकास से उत्पन्न कम्प्यूटर कल्चर से भी यह गहराई से प्रभावित है। इसकी प्रकृतिधर्मिता सदा संभावना का द्वार खोलती है।

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छत्तीसगढ़ी संस्कृति में व्याप्त कबीरीय विचारणा

शताब्दियों से भारतीय संस्कृति में असंख्य सांस्कृतिक धाराएं मिलती और नये रुपों में प्रगट होती हुई दिखाई पड़ती हैं। इन तारों को अलग कर पाना असाध्य ही नहीं असंभव भी है। सामाजिक संरचना में धार्मिक और सांस्कृतिक अनेक स्वर्णिम और रजत तार अपने ताने-बाने में भारतीय जीवन को बुनते रहै हें। फलस्वरुप जिस अखिल मानवीयता की परिकल्पना यहां दिखाई पड़ती है, वह विश्व जीवन में एक गहरी छाप छोड़ती है। धार्मिक और सांस्कृतिक सहिष्णुता व अवबोध, मामन्जस्य और संतुलन यही वि को भारतीय जीवन की देन है। भारतीय संस्कृति के इस सर्वग्राही और समाहारी व्यक्तित्व की छाप, उसकी क्रोड़ में खेलने वाली जितनी सांस्कृतिक चेतनाएं है - उनमें दिखाई पड़ती है।

छत्तीसगढ़ अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण संपूर्ण भारतीय जीवन में एक खास स्थान रखता है। वह अपने आप में एक छोटा भारत है - ""भौगोलिक, सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और साहित्यिक'' - सभी रुपों में।

भाषा की दृष्टि से छत्तीसगढ़ भारतीय संस्कृति को आत्मसात् किए हुए है, पर साथ ही अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण वह मिश्रित और समावेशी प्रकृति के अनुरुप एक मिश्रित और विकासमान जन-भाषा को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बनाये हुए है। ऐतिहासिक दृष्टि से यहां भी समय के अंतराल में अनेक जाति-प्रजाति, संस्कृति, कलादर्शन आदि धाराएं मिलकर एक मुख्य जीवन प्रवाह के रुप में बहती रही हैं। उसकी इस समावेशी प्रकृति के कारण कबीर-पंथ का सम्पूर्ण जीवन में फैलाव अतिशीघ्र होता है। छत्तीसगढ़ संस्कृति की पहली और अंतिम पहचान है - उसकी मानवीयता और संवदेनशीलता। यही कबीरीय संदेश की भी मुख्य बातें हैं। समय चक्र के साथ जब कबीर का आगमन होता है और उनकी वाणीं वायुमंडल में गूंजती है, तब हवा की तरंगों पर अटखेलियाँ खेलती यह रागिणी यहां के लोक जीवन में झंकृत हो उठती है। इसलिए हम कबीर पंथ को बहुत गहराई से छत्तीसगढ़ी संस्कृति में परिव्याप्त देखते हैं।

कबीरीय चेतना आने से पहले मानों छत्तीसगढ़ की जीवन्त प्रकृति उसकी आगवानी के लिए बाँह फैलाये खड़ी थी। अविलम्ब वह चारों और फैलकर यहां के जीवन के साथ एकरस हो गई। इसलिए इस कबीरीय चेतना को हम छत्तीसगढ़ में उपलब्ध आदिवासी, सत्नामी, पिछड़ा वर्ग, ब्राह्मण, बौद्ध, जैन, सिक्ख, ईसाई, मुसलमान तथा और भी जितने मत-मतांतर हैं, सब में कमोवेश से इसे प्रतिध्वनित पाते हैं। इतना ही नहीं छत्तीसगढ़ के आस-पास अन्य क्षेत्रों में इस वाणी का प्रभाव देखा जा सकता है।

छत्तीसगढ़ की भूमि अनादिकाल से संतों - ॠषियों और मुनियों का प्रिय क्षेत्र रहा है। उनके प्रभाव से वह अपने यहां एक उदात्त स्वरुप को बना सका है। पर इस ऐतिहासिक कालखंड में हम कबीर पंथ को सर्वाधक रुप से यहां फैलते हुए देखते हैं। छत्तीसगढ़ के साधु संत और योगी भी आस-पास के क्षेत्रों में भ्रमण करते रहे और लोक चेतना जगाते रहे।

मूलभूत रुप से छत्तीसगढ़ संस्कृति लोक संस्कृति है। क्योंकि यह आदिवासी क्षेत्र है और आदिम जातियां यहां के मूल निवासी हैं। कबीर - कबीर की वाणी तथा उनका जीवन दर्शन सभी कुछ जनवादी है। उसका यही जनपदीय व्यक्तित्व छत्तीसगढ़ी संस्कृति के साथ सबसे अधिक तालमेल रखता है। जनता की आत्मपीड़ा, उसकी मौन ललकार, विश्वमानवता के मंदिर में समानता और प्रेम का अधिकार आदि वे सपने हैं, जो कबीरीय संदेश के मूल तत्व हैं। सह-अस्तित्व, पारस्परिक सहयोग, संतुलन आदि बातें जो छत्तीसगढ़ी संस्कृति की मूल बातें हैं, कितनी कबीरीय वाणी के कारण हैं और कितनी भारतीय संस्कृति के प्रभाव के कारण तथा कितनी छत्तीसगढ़ी संस्कृति की देन है, कह पाना असंभव है? किसने किसको कितना दिया और लिया, शायद यह राज तभी खुलेगा, जब प्रकृति के महामौन को वाणीं मिलेगी। तब इतिहास से कोई स्वर मुखरित होगा या फिर आकाश में कोई जीवन रागिणी लहरायेगी। हम तो केवल इतना ही कह सकते हैं कि भारतीय संस्कृति और छत्तीसगढ़ी संस्कृति तद्रूप और अद्वेैत हो गई हैं।

ऐसी जनश्रुति है कि कबीर दास केवल आये ही नहीं, परंतु बहुत समय तक यहां की प्रकृति के मोहपाश में बंध गये। यहां की प्रकृति ने इस अक्खड़-फक्खड़ वीतरागी और मस्तमौला को ऐसा बांधी कि बहुत समय तक मनन, ध्यान और तपस्या आदि करते रहे। गुरुनानक जी के साथ उनकी मुलाकात अमरकंटक के पास छ: किलोमीटर दूर कबीर चौरा में हुई थी।

""छत्तीसगढ़ में कबीर-मत के प्रचार व प्रसार में सर्वाधिक महत्वपूर्ण भूमिका महामना धर्मदास जी की थी। वे बांधवगढ़ के निवासी थे। उन्होंने कवर्धा को अपने धर्मोपदेश का केन्द्र बनाया। और अवर्धा के कबीर चौरे के महंत कालान्तर में गुरु धर्मदास जी के सीधे उत्तराधिकारी बने।''...

दामाखेड़ा आज भी भारतीय कबीर - पंथ में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। बिलासपुर संभाग में अधिकांशत: मुसलमान कबीर एवं कबीर-पंथ के लिए श्रद्धा रखते हैं। सभी अपना-अपना मत मानते हुये भी एक बिंदु पर आकर मिल जाते हैं, और वह है - महात्मा, युगपुरुष लोकनायक कबीर। चाहे ये पंथी हो या नहीं, उच्चवर्ग के हों या निम्न वर्ग के, शिक्षित हों या अशिक्षित पर निरक्षर-मसीहा और सत्यनिष्ठ गुरु के प्रति सबकी सामूहिक आस्था, विश्वास और भक्ति है। पनिका वह पिछड़ी जाति है, जो सर्वत्र प्राय: कबीर पंथी है। पनिका नाम भी प्रतीकात्मक है। पनिका अर्थात् (पानी + का)। कबीरदास जी को जन्म से ही मां ने त्याग दिया था। लहर तारा तालाब में एक पत्ते पर सोते हुये एक दूसरी मां को वे मिल गये थे।

"पनिका' जाति इसलिए अपने को पनिका कहलाना पसंद करती हैं। उसकी मान्यता है कि वह कबीर का सबसे अधिक प्रतिनिधित्व करती है।

""पनका द्रविड वर्ग की जनजाति है। छोटा नागपुर में यह "पान' जनजाति के नाम से जानी जाती है। ऐसा कहा जाता है कि संत कबीर का जन्म जल से हुआ था और वे एक पनका महिला द्वारा पाले पोषे गये थे।''

पानी से पनका भये, बूंदन रचा शरीर।
आगे आगे पनका गये, पाछे दास कबीर।।

पनका प्रमुख रुप से छत्तीसगढ़ और विन्ध्य क्षेत्र में पाये जाते हैं। आजकल अधिसंख्य पनका  कबीर पंथी हैं। "कबीरहा' कहलाते हैं।...

जनश्रुति है कि कबीर व गुरुनानक देव की भेंट अमरकंटक के पास हुई थी। यह बिलासपुर-अमरकंटक मार्ग पर स्थित है। आज भी वहां पर एक कबीर-चौरा है, जो इन दो महान संतों की ऐतिहासिक भेंट के महा-आकाश को सुना रहा है। समुचित व्यवस्था एवं देखरेख के अभाव में आज यह चौरा जरा-जीर्ण है। पर यह जगह इस प्रदेश में व्याप्त कबीर के व्यापक जन प्रभाव को बताती है।..... (दलितों में कबीर-पंथ एवं सतनाम-पंथ अधिक प्रचलित है; क्योंकि दोनों ही मार्ग जाति, वर्ग आदि में भेद को मिटाकर समानता, प्रंम और सहयोग का पाठ पढ़ाते हैं।) कबीर-पंथ रींवा मार्ग से छत्तीसगढ़ में प्रवेश करता है। कबीर-पंथ को रींवा में लोकप्रिय बनाने का श्रेय गुरु धर्मदास जी को जाता है। दामाखेड़ा जो बिलासपुर-रायपुर मार्ग पर स्थित है, आज कबीर-पंथ का महत्वपूर्ण केन्द्र है। बिलासपुर भी कबीर पंथ के अनुयायियों का एक अत्यंत महत्वपूर्ण अन्य केन्द्र है।...

""सिक्ख सम्प्रदाय के आदि गुरुनानक देव भी निर्गुण उपासक थे। भक्ति भाव से परिपूर्ण होकर वे जो भजन गाया करते थे, उनका संग्रह सिक्खों के धर्मग्रंथ श्री गुरु ग्रंथ साहब में किया गया है। श्री गुरु ग्रंथ साहब में संत कबीर की वाणियों को भी शामिल किया गया है। ये कबीर की प्रामाणिक रचनाएं मानी जाती हैं। श्री गुरुग्रंथ साहब का संकलन पांचवें गुरु श्री अर्जुन देव ने सन् १६०४ ईं. में किया था। मध्यप्रदेश के शहडोल जिले में बिलासपुर-अमरकंटक मार्ग पर अमरकंटक से लगभग ६ कि.मी. दूर कबीर चौरा नामक स्थान है। यहां कबीर-नानक के नाम से कुण्ड है। ऐसी मान्यता है कि उस काल में यह स्थान सिद्ध पुरुषों के मिलन का केन्द्र था तथा यहां संत कबीर और गुरुनानक की भेंट हुई थी।''...

छत्तीसगढ़ की दूसरी लोकधारा सतनामी पंथ है, जो कबीर पंथ का युगानुरुप विकास है। कबीर और घासीदास दोनों ही छत्तीसगढ़ के लोकजागरण के अग्रदूत हैं।

डॉ राजेन्द्र प्रसाद जी ने अपनी पुस्तक, "कबीर-पंथ का उद्भव एवं प्रसार' में लिखते हैं कि कबीर पंथ में तीन शाखाओं का आविर्भाव हुआ।

१.

श्री योगीदास की नारनौली शाखा।

२.

श्री जगजीवन की कोटवा शाखा।

३.

श्री घासीदास की छत्तीसगढ़ शाखा।

""संतनाम पंथ और घासीदास जी''

छत्तीसगढ़ के रायपुर जिला के अंतर्गत गिरोद ग्राम में श्री घासीदास का जन्म सन् १७७२ ईं. में हुआ था।...

आज भी सतनाम पंथ में दीक्षा के समय गुरुजन अपने शिष्य को - $ "ओऽम' सत्यनाम कबीर

के शब्द का मंत्र देते हैं। इसमें दोनों के घनिष्ट संबंध का पता चलता है। वर्तमान में इस शाखा का मुख्य केन्द्र ग्राम खण्डुआ, जिला - रायपुर में स्थित है।...

कबीर जैसा आदमी ही "इत्यादि जन' का नेता हो सकता है। अत: छत्तीसगढ़ संस्कृति और कबीर पंथ यहां की धररी की "जीवन गीत' हैं। शायद यह कहना अनुचित नहीं होगा कि कबीर भारतीय जन मानस के "प्राणाशय' हैं।

कबीर दास जी कहते हैं-

लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।
-कबीर

छत्तीसगढ़ी संस्कृति और कबीर की वाणी भारतीय मनीषा की जीवन्त प्रतिच्छबि है। जैसाकि छत्तीसगढ़ नाम से स्पष्ट है - वह मिश्रित, बहुआयामी, अनेक मुखी और विविध है। किसी भी दृष्टि से देखें तो हमें उसकी यही विविधता में एकता का रुप दिखाई पड़ता है। सामाजिस स्तर पर यहां आदिवासी, हरिजन, पिछड़ी जाति, अन्य वर्ग, ईसाई, मुसलमान, बौद्ध, जैन और न जाने आकर चली जाने वाली कितनी जातियों का मिश्रण है। पर सभी इसे अपना स्थान और जन्मभूमि मानते हैं और इससे प्यार करते हैं। छत्तीसगढ़ की प्रकृति की रमणीय गोद में हम निम्नलिखित धाराओं को प्रेम से रहते हुये देखते हैं।

१.

धार्मिक स्तर पर हिन्दू धर्म के विविध रुप।

२.

आदिम संस्कृति के विभिन्न रुप।

३. समय-प्रसार में विकसित होने वाली अनेक क्रांतिकारी चेतनायें और ईसाई और मुसलमान आदि।

सांस्कृतिक दृष्टि से यहां आर्य, द्रविड़, आदिम, बौद्ध, जैन, सिद्ध, नाथ आदि संस्कृतियों का एक सुंदर इकेबाना  गुलदस्ता दिखाई पड़ता है। इसमें रंग, बहार, गंध, ताजगी और एक आत्मीय आह्मवान आदि किसी भी चीज की कमी नहीं है।

भौगोलिक दृष्टि से यहां मैदान, पठार, घने जंगल, खनिज पदार्थ, सब प्रकार का मौसम, सब प्रकार के जानवर, और सब प्रकार की बीहड़ता आदि पर एक दारुण सौन्दर्य विद्यमान है। इसकी उपत्यकाओं में जीवन संगीत गूंज रहा है। यह प्रदेश राजनीतिक दृष्टि से प्राचीन काल से आज तक भारतीय इतिहास के सभी रुप, सभी रंग, सभी भीषणता व सभई रमणीयता तथा सभी सौन्दर्य और सभई कुरुपता को उत्थान पतन के गीत सुनाता जा रहा है। भारतीय इतिहास के जितने रुप हैं सब यहां मौजूद हैं।

आर्थिक दृष्टि से भी प्राचीन और नवीन / कृषि और औद्यौगिक / सरल और जटिल / अर्थव्यवस्था के सभी रुप यहां मिलते हैं। कृषि, पशुपालन, वन सम्पदा, उद्योग धंधे, रत्नगर्भा-पृथ्वी और ऐश्वर्यमयी "बनानी' (जंगल) सभी कुछ जीवनदायी और सुखद है। यहां के लोगों की आज की दिशाहीनता के बीच भी भारतीय जीवन की कोमलता, स्निग्धता और मानवीयता देखी जा सकती है। इस प्रकार छत्तीसगढ़ ""माइक्रो और मैक्रो कसम'' (Micro cosm : Macro cosm ) का एक बेहतरीन नमूना है।

 

१.

हितवाद् समाचार पत्र; रायपुर; २९ अप्रेल २००१

२.

तिवारी, डॉ. शिवकुमार; मध्यप्रदेश की जनजातियां; मध्यप्रदेश ग्रंथ अकादमी भोपाल; पृष्ठ १३५

३.

हितवाद् समाचार पत्र; रायपुर; २९ अप्रेल २००१

४.

संपादन : जनसंपर्क विभाग, मध्यप्रदेश सरकार; संत कबीर और उनकी वाणी; पृष्ठ ४ एवं ५

५.

संपादन : प्रसाद, राजेन्द्र, कबीर पंथ का उद्भव और प्रसार; गीता प्रिंटिंग प्रेस, सक्ती बाजार, रायपुर; पृष्ठ ८५

६.

संपादन : प्रसाद, राजेन्द्र, कबीर पंथ का उद्भव और प्रसार; गीता प्रिंटिंग प्रेस, सक्ती बाजार, रायपुर; पृष्ठ ८८

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