छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के बीच सामान्य जन का मसीहा "कबीर'

अविशेष-विशेष का गायक कबीर


कबीर आज के संदर्भ में

विश्व मानव व कबीर

भारत व कबीर

छत्तीसगढ़ और कबीर

आदिवासी और कबीर

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ऐसा कोई न मिल्या जासूँ रहिये लागि।
सब जग जलता देखिया अपनी अपनी आगि।

- कबीर

सूरज का रथ-चक्र आवर्तन व विवर्तन के बीच बढ़ता जा रहा है - सदा बढ़ते जाने के लिए। एक लम्बा सफर है बीहड़ व दुर्गम -

जीवन सफर

इतिहास सफर

सभ्यता व संस्कृति का सफर

ययावरी मानव का लहरीला यात्रा - वृतांत है। बनजारा कबीर चारों ओर घूम-घूम कर न जाने कबसे अलख जगा रहा है।

देश विदेश हौ फिरा, गांव-गांव की खोरि।

- कबीर

पर यह क्या - कबीर जार-जार रो रहा है। पोर-पोर से टीस उठ रही है। एक हूक निकलती है-

जुगुन-जुगुन समझावत हारा, कही न मानत कोई रे।।

- कबीर

श्रान्त - क्लांत चिर-सजग कबीर की आवाज आती है-

मैं कहता हूं जागत रहियो, तू जाता है सोई रे।

- कबीर

यह निसिवासर का जागना कबीर की आधुनिकता है। वे अपने युग से सघन रुप से जुड़े थे और उसका निरन्तर रोन उसकी मानवीयता है। उसकी सर्वत्र सम्बोधन शैली उसकी सामाजिकता है - नहीं  > गणचेतना है > नहीं जन-नायक कबीर का अपने लोगों को उद्बोधन है >> नहीं, नहीं, नहीं .....

"युद्धं देहि' की डॉक है!!! ऐसा विराट् संबोधन काव्य पूरे भारतीय वाङ्गमय में दुर्लभ है। उनके अधिकांश काव्य में "लोक-सम्बोधन' शैली का प्रयोग हुआ है। साधु, अवधूत, भाई, पण्डित, मुल्ला, पाण्डेय, दरवेश, जोगी, माया, मनवा, जगत "तू' कबीर को भी तथा न जाने और कितनों को संबोधित करते, आत्मीय ढंग से तू रे आदि का प्रयोग कर रागोद्रेक करते, जन-जीवन में घुल मिल जाते हैं। जनता से वार्तालाप करते हैं। कभी फटकारते, कभी सहलाते, कभी स्नेह की वर्षा करते तो कभी अपनी विनिम्रता से मन बांध लेते हैं। पर जीवन संग्राम से भागने वाले वे कायर नहीं है।

कायर भागे पीठ दे, सूरा करे संग्राम।

कबीर की जन-क्रांति की बुनियाद तैयार हो जाती है। जनता-जनार्दन युगीन हिरण्यकश्यप को विदीर्ण कर देता है। जन-मानस उध्देलित हो उठता है। इतिहास करवट लेता है, समय चक्र के साथ। कबीर के गाये गीत राम को निवेदित हो चुके हैं। पर उसके अनगाये गीत हमसे पूछ रहे हैं - तुम्हारा गन्तव्य क्या है?

लम्बा मारग दूर घर बिकट पंथ बहु मार।
कह कबीर क्यूँ पाइये दुर्लभ हरि दीदार।।

- कबीर

रचनाकार की प्रासंगिकता की जड़ें उसकी सार्थक और गहन युगीन भूमिका में होतीहै। युग-जीवन के केन्द्र में उसकी उपस्थिति ही वह लोक-धर्मिता है जो नये-नये उन्मेष लाती है। जन कबीर की वह लोकवाणी हमसे पूछ रही है - क्या हम उसके राम को, मर्म को, बंधन को, सत्य को और उसकी बेचैनी व अकुलाहट को समझ पाये हैं? समय निरुत्तर। कौन लेगा भार यह? कौन बिचलेगा नहीं? क्या वर्तमान युग में यह शक्ति व सम्भावना है?

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विश्व मानव व कबीर (Macrocosm or universal man)

आज सांस्कृतिक विघटन है। यह यंत्र युग है। अर्थ युग है। भोगवादी युग है। मूल्यों के क्षरण का युग है। पदार्थवादी युग है। भौतिकवादी युग है। अमानवीय युग है। जीवन रहित युग है। निर्जीव ने सजीव को पृथ्वी से निष्कासित कर दिया है। अब वह अन्तरिक्षवासी है। फ्रुैंकास्टाइन से हारकर वैज्ञानिक ने आत्महत्या कर ली है। यह आत्महन्ता युग है। भोले शंकर भस्मासुर से भाग रहे हैं। केशव कहां जो उनकी रक्षा में आये? तकनीकी में विस्फोट हो चुका है। अब प्रतिबल के रुप में मूल्यवादिता में विस्फोट होना चाहिए। अन्यथा ""डार्कनेस-एट-दी-नून'' है। माँ वसुन्धरा ""वैस्टलैंड'' है। लोभ व भोग के दो पहियों पर विश्व-रथ बढ़ रहा है। कहां? इस ग्रह (Planet ) को मसान-भूमि grave-yard तक या नई दुनिया (A New World ) तक पहुंचाने? कौन जाने?

फ्रायड ने मानव को वासना का भृत्य माना है।
"अहम् ब्रह्मास्मी' ॠषी की आर्ष-वाणी है।

पर दोनों है कहां? धरती से आसमां तक कम्प्यूटर-कलचर के नजारे दिखाई पड़ रहे हैं। कम्प्यूटर म्यूजिक की शमां बन्धी हुई है। इस अमानवीयकरण की प्रक्रिया के बीच मानव में आत्मसंस्थापन कौन करेगा?

उसका गौरव गान कौन करेगा?
मृत्यु को चुनौती कौन देगा?

सिंधु घाटी की वादियों में आज भी कबीर की आवाज गूंज रही है -

""मन मुवा, माया मुई, संशय मुवा शरीर।
अविनाशी जो ना मारे, तो क्यों मरे कबीर।''

कबीर ने वैचारिक क्रांति दी। मूल्यान्वेषण किया। सांस्कृतिक अभ्युदय हुआ। धरती पुनर्नवा हो उठी। वह कबीर का ""सांस्कृतिक महाविद्रोह'' था। कबीर की वैचारिक क्रांति रचनात्मक, मानवीय तथा शाश्वत है। उसने अमानुषपर पर मानवपर की वजय पताका फहराई। कबीर ने अपनी विशेष फकीराना, मस्ती, अन्दाज व तेवर से सामाजिक विसंगतियों / व चारित्रिक विद्रूपताओं / धार्मिक कदाचारों / शाब्दिक जादुगरी / वाक्जाल / दामुँहा रुपों / धार्मिक विषमता / ह्यसोन्मुखता / मिथ्यावाद / बाह्याडम्बर / आंतरिक खोखलापन / संकीर्णता / तंगदिली / श्रम की अवमानना, रुढियों का अंधानुकरणनिहित स्वार्थों आदि की चीड़-फाड़ कर दी।

झूठे झूठे को मिला, दूना बाढ़े नेह।
झूठे को सांचा मिले, तब ही टूटे नेह।।

- कबीर

इहलोक ही कबीर को अभीष्ट है। उसने किसी अपार लोक के लिये नहीं लिखा।

जो मोहि जाने, ताहि मैं जानौ, लोकवेद का कहा न मानौं।

कबीर ने विषमता के विरुद्ध आवाज उठाई / व्यवस्था के खिलाफ धर्मयुद्ध छेड़ा। जुल्म का उग्र प्रखर प्रतिवाद किया। अन्याय के लिये ललकारा / समानता की पैरवी की / मानवीय गौरव की स्थापना की। मानव मुक्ति को अपना जीवन धर्म बनाया। कबीर ने सब कुछ लोक या जन के लिये किया। अपने लिये कुछ भी नहीं। उसने जन-जन से प्रेम किया था और प्रेम की परिभाषा दी थी-

यह तो घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं।
सिर उतारे भुंई धरै, तब पैठे घर माहिं।।

- कबीर

कबीर साहित्य के मर्मज्ञ विज्ञान आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी लिखते हैं -

""हिन्दी साहित्य के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक नहीं उत्पन्न हुआ। मस्ती फक्काड़ना स्वभाव और सब कुछ को झाड़-फटकार कर चल देने वाले तेज ने कबीर को हिन्दी साहित्य का अद्वितीय व्यक्ति बना दिया है।''

कबीर ने क्रांति की। समाज का कोई पक्ष बचा नहीं। युग हिला, इतिहास बदला, पर कहीं भी अर्थ व भोग पर आधारित खूनी क्रांति नहीं हुई। गांधी ने भी क्रांति की कबीर  की तरह अहिंसक व मूल्यवादी। क्रांति मूल्यकेन्द्रित थी, अर्थ केन्द्रित नहीं। आतंकवाद या नक्सलवाद नहीं। राम का विरुद्ध धर्माश्रयी रुप (निरपख- भगवान) तथा सर्वधर्म समन्वय -

जोगी गोरख-गोरख करै, हिंदू राम-नाम उच्चरै।
मुसलमान कहै एक खुदाई, कबीर का स्वामी घट-घट रहा समाई।।

निर्विशेष - विशेष मानव (पंचभूत का पुतला)

हंस देय तजि न्यारा होई, ताकर जाति कहै धौं कोई
स्याह सफेद कि राता पियरा, अवरण-बरण कि ताता सियरा
हिंदू तुरुक कि बूढ़ो बारा, नारि-पुरुष का करहु विचारा।

- कबीर

कहीं भी उसने धर्म और आर्थिक विषमता के नाम पर हिंसावाद, रक्तपात, आतंकवाद का प्रचार नहीं किया। उसने रचनात्मक क्रांति दी। वह क्रांति मूल्यान्वेषण की क्रांति थी। सांस्कृतिक अभ्युदय था। अत: मानवीय व रचना धर्मी थी। गांधी ने कबीर की बात की। और साधन और साध्य दोनों का नैतिक होना जरुरी माना।

स जंत्रारुढ़ वि की भौतिकवादी जीवन दृष्टि की केन्द्रीय-धुरी ""पूंजी'' है। यंत्रवाद, भोगवाद, पदार्थवाद उसकी परिणतियां हैं। कबीर ने निरपेक्ष ज्ञान नहीं, मानव सापेक्ष ज्ञान दिया। अर्थात संवेदनात्मक-ज्ञान और ज्ञानात्मक-संवेदना। कबीर की कविता अत्यन्त संवेदनशील मन की नम आंच है। उसमें राग भी है और ऊष्मा भी, वह व्यापक जीवन से बांधती है और जीवन की गुनगुनाहट का अनुभव कराती है।

आज वि आतंकवाद से जूझ रहा है। अस्थायी सफलता मिल जाने पर भी स्थायी समाधान नहीं मिलता। आतंकवाद बार-बार सिर उठाता है।

कबीर गा रहा है, कह रहा है, चेतावनी दे रहा है-

दुबल को न सताइये, जाकी मोटी हाय।
मुई खाल की सांस सो, लौह भसम होई जाय।।

- कबीर

मानव पर वि एक हो सकता है -

उड़ा बगुला प्रेम का, तिनका उड़ा आकास।
तिनका तिनके से मिला, तिनका तिनके पाश।

- कबीर

विज्ञान ने राग के स्तर पर मानव को इतर जगत से काट दिया। मशीन ने उसे यांत्रिक, जड़ और निष्पंद बना दिया। पहले से आज की लड़ाई की स्थिति व प्रकृति भिन्न है। पहले सजीव व सजीव के बीच लड़ाई थी और आज सजीव व निर्जीव (मानव व मशीन) की लड़ाई है। पहले सभ्यता व संस्कृति का केन्द्र मानव था और आज मशीन है। पहले मनुष्य मशीन को नियंत्रित करता था और आज मशीन मनुष्य को। धरती से आसमां तक मशीन का प्रसार है। मनुष्य अपनी पृथ्वी को मशीन के हवाले कर, नये दिगन्त की खोज में अंतरिक्ष के अनंत विस्तार में भटक रहा है। तब कबीर गा रहा है-

हस सब माहीं, सकल माहीं, हम हैं और दूसर नाहीं।
तीनों लोक में हमर पसार, आवागमन यह खेल हमार।।

- कबीर

इस बं धरती (waste land ) पर कबीर को जीवन की हरियाली लहराती हुई देखना है। प्रेम रहित "लौह युग' की रागमय, रंगमय व जीवनमय देखना है -

हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या
रहें आजाद या जग में, हमन दुनिया से यारी क्या?
जो बिछुड़े हैं पियारे से, भटकते दर-बदर फिरते,
हमारा यार है हममें, हमन को इंतजारी क्या?

- कबीर

आज वि सर्वसंहार के कगार पर खड़ा है। जरा सी चूक / प्रलय-प्रवाह और सब स्वाहा। दुर्गम, बीहड़ यात्रा। चलना बस अंत तक, गिरना ही मुख्य नहीं, मुख्य है संभलना।

कबीर ने वैचारिक स्वतंत्रता की बात केवल कही नहीं; अपने जीवन व व्यवहार में चरितार्थ कर उसे मूर्त और वास्तविक रुप दिया -

साँचे श्राप न लागै, साँचे काल न खाय।
साँचहिं साँचा जो चलै, ताको कहा न शाय।

- कबीर

यह ह्रासशील युग है। सभी तरह के संघर्ष का केन्द्रीय तत्व है - पैसा। भोग व लोभ के दो पहिये पर विश्व-रथ चला जा रहा है। साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, आतंकवाद, लोभवाद, नक्सलवाद आदि सभी उसी के विभिन्न चेहरे हैं।

कबीर ने समानता की बात कही है। विषमता का अन्त करना चाहा है। "Haves : Havenots में बंटे वि को ज्वालामुखी के विस्फोट से कौन बचा सकता है?

आर्थिक प्रगति की सीमा क्या है? आर्थिक नीति का लक्ष्य क्या हो? कबीर के मत से बुनियादी आवश्यकताओं (Bare necessities of life ) की पूर्ति ही इसका लक्ष्य हो सकता है। अधिक संचय न हो क्योंकि यह वितरण नीति की असमानता का द्योतक है। लोभ, कष्ट है, पाप है। आत्मतुष्ट जीवन उचित है। प्रगति के नाम पर जो गला काट प्रतियोगिता चल रही है वही संताप का कारण है।

उदर समाता अन्न लै, तनहि समाता चीर।
अधिन्कहि संग्रह ना करै, ताको नाम फकीर।
साई इतना दीजिये जामे कुटुम्ब समाय।
मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय।

- कबीर

आरामदेह (Comforts ) और विलास (Luxury ) कबीर के अनुसार दुख व संताप के कारण हैं। असमान वितरण, वर्ग संघर्ष का कारण है। अत: उनका मत है कि -

रुखा सूखा खाय के, ठंडा पानी पीव।
देखि पराई चूपड़ी, मत ललचावै जीव।।
आधी औ रुखी भली, सारी सोग सन्ताप।
जो चाहेगा चूपड़ी, तो बहुत करेगा पाप।।

- कबीर

सहजै आवे माल मलीदी, मांगे मिलै सोपानी।
कहहिं कबीर वह रक्त बराबर, जामें खैंचा तानी।।

यहां कबीर संपन्न व विपन्न दोनों ही सीमा का ज्ञान करा रहे हैं। कबीर जीवन भर कामगर व श्रमशील रहे हैं। वे श्रम की महत्ता को बताते हैं। परोपजीवी, परावलम्बी होना अनुचित व सामाजिक अन्याय है। मेहनतकश स्वावलंबी जीवन श्रेयस्कर है।

श्रम ही ते सब कुछ बने, बिन श्रम मिले न काहि।
सीधी अंगुली घी जमो, कबहूँ निकलै नाहि।
श्रम ही ते सब होत है, जो मन राके धीर।
श्रम ही ते खोदत कूप ज्यों, थल में प्रगटै नीर।।

- कबीर

अपनी शक्ति व सीमा में कबीर अणु-परमाणु साधने की क्षमता रखते हैं। उनकी मनीषा एक ही साथ तत्काल व दिक्काल में फैल जाती है। उनका आम-आदमी (Comman Man ) और विश्व-मानव (Universal Man ) या (Microcosm : Macrocosm ) जंत्रारुढ़ वि को कितना बौने मानव के लायक आसान बना पायेंगे, यह देखना समयाधीन है। इतिहास इसकी मीमांसा करेगा। पर मध्ययुग में जिस अकेले व्यक्ति ने समाज के गलित अंग के साथ जुड़कर इतिहास की धारा बदल दी थी वह युग को बहुत कुछ आश्वस्त करता है।

""एक समाना सकल में, सकल समाना ताहि।
कबीर समाना बूझ में, जहां दूतीया नाहिं।''

- कबीर

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भारत व कबीर

जहां स्वतंत्रता निवास करती है वही मेरा प्यारा स्वराज्य है।

कबीर भारतीय - चेतना की प्रतिमूर्ति हैं। उनमें भारत की आत्मा बसती है। उनकी आवाज में देश की आवाज समाई है। आबाल, वृद्ध, वनिता, सामान्य जन से लेकर विशिष्ट जन तक, उनकी वाणी का प्रसार है। कल भी था, आज भी है और कल भी रहेगा।

कबीर को अपने समय का गहन परिचय था। भारत के जर्रे-जर्रे से उसे प्यार था। देश का कोई पक्ष उससे नहीं छूटा। वह भारत में है। भारत उसमें है।

पंडित सुन्दर लाल के शब्दों में -

""भारत की आतमा भीतर से पुकार रही है यदि सत्य है तो यही है। और भविष्य के लिए कोई मार्ग है तो केवल यही है।''...

(१) स्वातंत्र्य भावना (२) एकता (३) गणतांत्रिक चेतना (४) सर्व धर्म समन्वय (५) राष्ट्रभाषा हिन्दी (६) सर्वोपरि (७) आत्मगौरव की संस्थापना आदि।

राष्ट्रजीवन की बुनियादी बातें कबीर ने हमारे सामने रखी। इस तरह उस ने ६०० वर्षों पहले स्वतंत्र-सार्वभौम-भारतीय-गणराज्य का सपना दिया।

फिराक गोरखपुरी के शब्दों में -

""जब तक हिन्दुस्तान जिन्दा है, बल्कि जब तक सभ्यता जिन्दी है, कबीर की सदाबहार रचना कभी बुझ ही नहीं सकती। कबीर का वाणी आने वाले हिन्दुस्तान का सपना है।''...

कबीर व्यक्ति नहीं समाज था, व्यक्ति नहीं समष्टि था। वि मानवता की आत्मा का उच्छ्लन। उसका विचलन समस्त निम्नतम वर्ग (चाहे वि में कहीं हो) का विचलन था। उसका दुख लोक का दर्द था। उसका संघर्ष दलित व पीड़ित वर्गों का अस्तित्व का संघर्ष था। उसका संताप चिरदग्ध मानव का दु:ख था। उसने निर्मम हाथों से बंधन काट दिये। मानव आत्मा का पंछी अनंत आकाश में उड़ चरा। सब प्रकार की व्यवस्थाओं के खिलाफ "जेहाद' उसका मिशन बन गया। वह अ्राजकतावादी बन गया।

हम घर जाल्या आपणा, लिया मुराड़ा हाथ।
अब घर जालौ तासो, जो चलै हमारि साथ।

इस कफन बांध घर फूंक मस्ती के बिना कब क्या हासिल हो सका है? मध्य युग में उसका विद्रोह स्वर सबसे ऊंचा था। आज भी उसकी ललकार आकाश में निनादिन है। तब भी समाज हिला था, आज भी कंपित। उसके क्रांतिकारी रुप ने समाजके दलित वर्गों में नवजीवन की लहर दौड़ा दी। उसकी अक्खड़-फक्खड़ वाणी की उग्रता व प्रखरता सुखोपवादी बरजोर वर्ग सह नहीं सका। सभी प्रकार की धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विषमता, अन्याय, अत्याचार, अनाचार, संकीर्णता, शोषण, दमन, मिथ्याचार, दिखावा, आडम्बर व कर्मकाण्ड आदि के प्रति वह कटु व प्रचण्ड हो उठा। उसने किसी को नहीं बख्शा। उसने अपने को पहले ही जन को दे दिया था। उस "जन' को नष्ट करने वाले को वह क्षमा कैसे कर सकता था?

जनशक्ति उसके पास थी। और एक विशाल जन जीवन का पुख्ता अनुभव / व्यापक परिभ्रमण / विस्तृत जानकारी / एक आत्म समृद्ध व्यक्तित्व / और सूक्ष्म जीवन चेतना / सुदूर प्रसारी अन्तर्दृष्टि तथा आत्महंता आस्था / व अमोघ आत्मा विश्वास / सत्यनिष्ठा / तथा महत् उद्देश्य / भला कबीर की चुनौती का उत्तर निष्कर्मी, परोपजीवी, मिथ्यावादी, सुखोपवादी, पस्तहिम्मत और रुग्ण चित्त वाले कैसे दे सकते थे? इस कर्मवीर, सत्यवीर, धर्मवीर, शूरवीर को नापने के लिए हमारे पास पैमाना ही कहां है?

कबीर का आह्मवान असफल कैसे होता? युग की दिशा बदली। मन बदला। युग बदला। जन मानस जाग उठा।

१.

जिस निरपख भगवान व अविशेष-विशेष मानव की बात कबीर ने की थी वही आज संविधान की सर्वधर्म - समन्वय तथा गणतांत्रिक चेतना का एक कारण बनी। यद्यपि आज उसकी सीमाएं भी स्पष्ट है। शक्ति स्रोतों का अकेन्द्रीयकरण की बात गांधी जी ने की। अन्त्योदय का सिद्धान्त दिया था पर उसका पूरा पालन न हो सका।

२.

उसकी समावेशी व समाहारी दृष्टि संविधान व राष्ट्र भाषा के निर्माण में दिशा निर्देश बनी होगी, पर पूर्णरुप से प्रतिफलित हुई ऐसा नहीं कह सकते।

३.

उसकी वैचारिक क्रांति स्वतंत्रता संग्राम की प्रेरणा बनी होगी। गांधई के व्यक्तित्व में कबीर का आधुनिक रुप दिखाई पड़ता है। अत: स्वतंत्र भारत के बनने में उसकी कहीं एक लघु भूमिका है।

४.

उसकी जन चेतना ने वि के सबसे बड़े प्रजातंत्र को चिंतन का क्षितिज तो दिया पर कितना वास्तविक रुप से मूर्त हो सका विचारणीय है।

५.

उसके साम्यवाद ने सामाजिक न्याय की ओर इंगित किया।

६.

उसके संतुलित विवेक ने जीवन के प्रति एक समन्वयात्मक दृष्टिकोण दिया। सम्वेदनात्मक ज्ञान और प्रत्यक्षानुभव से बना जीवन दर्शन सामाजिक न्याय का संकेत करता है। उससे लाभान्वित होना, नहीं होना हमारे ऊपर निर्भर करता है।

७.

वह समाज में अन्याय के विरुद्ध, जनमत तैयार हुआ। न्याय के लिए संघर्ष करने का मनोबल मिला। कमजोर वर्ग में एक जुझारु मानसिकता बनी। उसने अपने प्रति होने वाले अन्याय के विरुद्ध बोलना सीखा।

८.

विविधता में एकता भारतीय समाज की बुनियादी विशेषता है। कबीर ने उसे फिर से पुनर्जीवित करने की कोशिश की। यही भारतीय राष्ट्र की बुनियाद है।

९.

उसकी पंचमेल या सधुक्कड़ी हिन्दी अखिल भारतीय सम्पर्क भाषा के रुप में विकसित हुई। अन्ततोगत्वा राष्ट्र के निर्माण में सहायक सिद्ध हुई है।

१०.

सभी प्रकार की विषमताओं का अंत, सामाजिक न्याय व समानता की स्थापना करना चाहता था पर आज भी यह आकाश-कुसुम है।

११.

समझ व बोध में परिवर्तन आया। दिल पास आये। सहयोग बढ़ा लड़ती संस्कृतियां मित्र बनी। सह-अस्तित्व सम्भव हुआ। साम्प्रदायिकता व संकीर्णता निर्बल बनी। धार्मिक सहिष्णुता आई, दृष्टि व्यापक हुई।

१२.

इहलोक, मटमैला मानव, खुरदरा जीवन, समाज के गलित अंग, तथा अवहेलित व लांछित वर्ग के प्रति समाज की दृष्टि में परिवर्तन आया। यद्यपि आज भी आदर्श स्थिति नहीं है पर सही न भी हो, भूल का एहसास जरुर हुआ।

१३.

कबीर का कर्मदर्शन सामगार व श्रमजीवी वर्ग को समाज में पूर्ण रुप से प्रतिष्ठित कर सका, यह तो नहीं कह सकेंगे - पर हां उनकी ओर समाज का ध्यान खींचा तथा उनके साथ होने वाले अन्याय का एहसास कराया।

१४.

आत्मशोधन संभव हुआ।

१५.

देश ने अपने आपको नये सिरे से देखा। पुनर्जागरण काल आया।

 

कबीर वह हीरा है जिसे जितना तरासा जाय वह उतना ही चमकदार हो उठता है। उनके व्यक्तित्व का हर पहलु ज्योतिर्मय है, विलक्षण है, अनुपम है। उसका ज्ञान और कर्म नगद का सौदा है। वह ज्ञानी भी है और कर्मयोगी भी। यह दुनियां उसके लिये धर्मक्षेत्र भई है और कर्मक्षेत्र भी। वह मुक्तिपथ का राही है। पर अपने साथ इस खुरदरे, मटमैले, बदरंग, बदहवास संसार को लेकर जाने की उसकी जिद्द है, नहीं - भीष्म प्रतिज्ञा है। और यदि संभव नहीं है तो कबीर को एलान करते एक पल की देर नहीं होती।

दोजख तो हम आॅगिया, यह दुख नाहि मुज्झ।
मिस्ती न मेरे चाहिए, प्राण प्यारे तुज्झ।।

- कबीर

यदि राम को कबीर को अपनाना है तो उसके ""दोजख'' के साथ - अन्यथा कबीर को राम भी मंजूर नहीं है।

कबीर की सामाजिक क्रांति का पक्ष- प्रमुख है या धार्मिक सुधार का? - कबीर संत थे भक्त? या परम - सामाजिक युगांतकारी जन-नायक?

उनका पूरा समय समाज के बीच बीता। कुचले-दबे, दलित-दमित व लांछित अवहेलित वर्ग का वह मसीहा था। उनका हक उन्हें दिलाकर रहा। मानव समानता का वह प्रबल उद्घोषक व पक्षधर था। उसकी चेतना एक साथ तत्काल व दिक्काल को लेकर चलती है। अत: यूटोपिया (Utopia ) के साथ ठोस यथार्थ को देती है। उसकी शैली का रुप उसी के समान विलक्षण व अपरिमेय है। उसके तर्जे-वयाँ में ख्वाब भी है- और अस्ल भी है।

वह एक साथ आम-आदमी भई है व विश्व- आदमी भी है। हिन्दी सम्पूर्ण भारतीय साहित्य में उसके समान दूसरा व्यक्ति मिलना कठिन है। उनकी बाणी एक ही साथ चिनगारियॉ और शीतल बूंदों की वर्षा करती है। जब वे धर्म व समाज के ठेकेदारों, पाखण्डी, ढोंगी, बहुरुपियों व झूठे दिखावे, रुढीवादी, कर्मकांडी, अवधूतों आदि पर व्यंग्यों और कटु वचनों की बौछार करते हैं, तब उसकी प्रखरता व तीक्ष्णता को सह पाना कठिन हो जाता है। पर जब प्रेम, करुणा, विनम्रता, उदारता, दया, सहानुभूति, शांति और सौम्यता की बात करते हैं तब उनके वचन धरती पर पीयूष कणों की फुहार छिटकाती है। प्राण विह्मवल हो उठता है। वे एक ही साथ हमें झकझोरते व सहलाते, चकित, संभ्रम, पीड़ित व आनन्दित सभी कुछ कर देते हैं। हम आत्मविभोर हो उठते हैं। उन्होंने किसी के साथ मुरौवत नहीं की है। सबका पर्दाफाश किया है। वे बार-बार कहते हैं- ""कहत कबीर पुकार के।'' या फिर ""कहत कबीर सुनो भाई साधो''

साँच कहौं तो सब जग खीजै, झूठ कहा ना जाई।

- कबीर

आशय यह है कि कबीर मानव समाज को केन्द्र बिन्दु बनाकर मानव से ही कहते हैं। उनके कहने की दो टूक शैली है। गुपचुप नहीं कहा। डंका बजाकर कहा। उन्होंने कमरे में बैठकर नहीं लिखा, वरन् जनता के बीच कहा। इसलिये उसमें इतनी शक्ति है। वह दहकती आग है। जहाँ कचरा स्वयं ही नष्ट हो जाता है -

""दोहरा कथि कहै कबीर, प्रतिदिन समय जो देखि।''

- कबीर

श्रीयुत किरन मिश्र जी लिखते हैं - ""इतनी बात एकदम साफ है कि अगर कबीर के संदेश को काली व अंधी कोठरी में न डाल दिया गया होता, अगर कबीर की वाणी शोषक वर्ग के षडयंत्र का शिकार न हुई होती तो भारत की संस्कृति इसकी सामाजिक स्थिति और आर्थिक गतिविधियां आज से एकदम भिन्न होतीं और अब तक सम्भवत: हिन्दुस्तान की तस्वीर काफी खूबसूरत बन चुकी होती।''...

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छत्तीसगढ़ और कबीर

जंत्रारुढ़ वि के मानक प्रसार में कन्हैया की बैजयन्ती माला कहाँ? वह तो रोड रोलर के नीचे पिसकर राजमार्ग में बदल गई है। और क्या कभी इतिहास भी इसे ढूंढ पायेगा? उसके बिना बहुरंगी यह जीवन कैसा होगा? वन फूलों की बहुरंगी बहार, गंध-वाही की भीनी खूश्बू - बाल गोपाल की चल-चंचल क्रीड़ाओं से मुखरित गिरी कानन-क्या वि इस जीवन संगीत से परिचित हो सकेगा....? जीवन की अनेक रुपता से उत्पन्न सौंदर्य, आनंद व प्राण रस के बिना जंत्रारुढ विश्व पुनर्नवा होकर मानवीय वि में तब्दील कैसे होगा? क्या रास बिहारी अंतरिक्ष में रास रचायेंगे? एक सपाट वीरान जीवन रुप क्या दुर्वह नहीं होगा? इस एकतानता में क्या कुछ खो जायेगा - कौन कहेगा? यह अपरिमेय स्थित है।

छत्तीसगढ़ आदिवासी क्षेत्र है। पर साथ ही जीवन की अनेक रंगीन आभा से सुशोभित है। भारतीय जीवन व संस्कृति की विविधता व अनेक रुपता इसे वैभवपूर्ण बना रही हैं। यहां के गिरिकांतार, कानन् बालाओं की मधुर स्वर लहरी से स्पंदित हैं। यहां की रम्य प्रकृति सभी को बुलाती है। जब माँदर पर थाप पड़ती है और वन्याँचल झूमने लगता है - प्राणोन्मा-दिनी संगीत की शमा बन्ध जाती है - तब उसकी मादकता से मदहोश होकर झलमालाता नील गगन, धीरे-धीरे, हौले-हौले, उतर आता है। एक पल थमने - अपनी थकन मिटाने। सब कुछ जैसे थम गया है। एक आत्महरा और प्राणहरा दारुण सौन्दर्य और नाद ब्रह्म कु दुर्लभ अनुभूति!!!

अपने देश में और भी आदिवासी क्षेत्र हैं। वहां आदिम कबीली जिन्दगी की समस्त बातें मिल जाती हैं। अध्ययन के लिये व ेभी लिये जा सकते थे। पर वहां अन्य तत्वों का इतना गहरा प्रभाव पड़ चुका है कि पारंपरिक जीवन-प्रणाली व आदिम संस्कृति अपने मूल रुप को सुरक्षित नही रख पाई है।

यहां भी प्रभाव है। नवीन युग कि इस अनिवार्य बुराई से यह क्षेत्र अछूता नहीं है। पर यह प्रभाव उस सीमा तक नहीं पड़ा है कि उसका मूल रुप नष्ट हो जाये। यहां परंपरागत रुप आज भी अक्षुण्ण है। मानवीय सम्बंध, रिश्ते, जीवन मूल्य, परम्परा, रागात्मकता आदि का जीवन में अहम् महत्व है। ॠतु परिवर्तन के साथ तीज-त्यौहार व उत्सवों का सिलसिला, उत्साह व उल्लास से भरा जन जीवन, पूजन, अर्चन, वन्दन व गायन की शमाँ आदि बातें अभाव ग्रस्त और संघर्षरत जीवन को प्राणरस से भर देती हैं। जीवन की एकतानता व नीरसता पर जीवन की एक लहर फैल जाती है। नवागन्तुक के लिए यह अनुभव चकित व अभीभूत कर देने वाला होता है। प्रकृति की जीवन्तता व जीजीविषा ने इन्हें यह प्राणशक्ति व जिन्दादिली दी है, जो दारुण परिस्थितियों में भी हार नहीं मानती। यही कारण है कि दुर्दान्त जीवन संघर्ष के लम्बे इतिहास में वे अपने को सुरक्षित व जीवित रख सके हैं।

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आदिवासी और कबीर

आदिम जातियां अन्य लोगों के साथ गलबांही डाले प्रेम से रहती हा रही है। बाहरी प्रभाव परम्परागत जीवन दृष्टि को बांध नहीं पाया है। सभी सामूहिक रुप से बड़े उत्साह व प्रें से एक दूसरे के त्यौहार व पर्वों को मनाते हैं। सह-अस्तित्व व सद्भावना का यह उदाहरण बड़ा ही उत्साहवर्द्धक है। इसका श्रेय उनकी मानवीय व मूल्यवादी परम्परागत संस्कृति को जाता है, जो उनके प्राकृतिक जीवन की देन है। परम्परा व बाहरी प्रभाव दोनों परस्पर से प्रभावित दिखाई पड़ते हैं। छत्तीसगढ़ अपनी भौगोलिक, सांस्कृतिक व पारम्परिक स्थिति के कारण अंचल व विश्व का एक साथ प्रतिनिधित्व करता है। आज के भू-मण्डलीकरण की आंधी में वनफूलों के सुरभित गुच्छे पहले ही छित्तर चुके हैं। विराट्ता और मानकीकरण के रोडरोलर नीचे सभी कुछ पीसकर राजपथ बन जायेंगे या आंचलिक महक से गमगकी वनवीथियां यह केवल बदलता समय ही बतायेगा।

१.

क्या छत्तीसगढ़ की समृद्ध प्रकृति रोबट में प्राण संचार कर पायेगी?

२.

क्या कहूं-कहूं पर आम्रमंजरी बासन्ती-बहार में झूमेगी? लोक जीवन चैताली नाचेगा?

३.

क्या मानवीय संबंध, मूल्यवादिता, रागात्मकता, आत्मीय संबंध आदि तत्व अमानवीयकरण की प्रक्रिया को प्रभावित कर सकेंगे? उसकी बाढ़ को रोक सकेंगे?

४.

क्या आदिम संस्कृति के नैसर्गिक जीवन, सहज विश्वास, सरल चरित्र अनार्थिक जीवन-दृष्टि आदि बातें (पैसा-बाजार- व यंत्र) की आधुनिक दृष्टि पर छा जायेगी?

५.

उसकी प्रकृतिमयता (यंत्र मानव, अर्थ मानव व पदार्थ मानव) को फिर से मनु का वरदपुत्र बना पायेगी?

६.

क्या आदिवासी सामूहिक जीवन व प्राकृतिक जीवन प्रणाली, आज की व्यक्तिवादी, अप्राकृतिक और कृत्रिम जीवन प्रणाली को प्रभावित कर सकेगी?

७.

क्या आदिम जीवन व लोक संस्कृति की सहजता, सरलता, प्रकृति धर्मिता आदि बातें यंत्र मानव और अर्थमानव को स्पन्दित कर पायेंगी?

८.

क्या कबीरीय चेतना और आदिवासी संस्कृति तथा छत्तीसगढ़ की मिश्रित संस्कृति तीनों मिलकर और एक प्राण होकर नव जीवन का संचार कर पायेंगी?

९.

क्या हिंसा, रक्तपात, भोगवाद, लोभवाद, विस्तारवाद और संघर्ष के बीच कबीरीय संदेश (प्रेम, अन्त्योदय, सह-अस्तित्व, सर्व-धर्म समन्वय अहिंसा आदि) बातों की कोई भूमिका होगी?

१०.

क्या छत्तीसगढ़ की मिश्रित संस्कृति, लघु व विराट् को आत्मसात् कर २१वीं सदी को एक भविष्य-दृष्टि दे सकेगी?

११.

यदि इस भू-मण्डलीयकरण के मानक प्रसार में ये आंचलिक लघु कुसुम गुच्छ विनिष्ट हो जाते हैं तो उस अप्राकृतिक अमानवीय यांत्रिक प्रसार को यह विश्व-जीवन कैसे झेस पायेगा?

१२.

क्या यहीं पर कबीर का आम-आदमी (अविशेष-विशेष मानव) कोई भूमिका रखता है?

१३.

क्या कबीर का भौमिल (Universal ) रुप धरती और आकाश को मिला सकेगा?

हम सब माहीं सकल माहीं, हम हैं औ दूसर नाहीं।
तीन लोक में, हमर पसार, आवागमन यह खेल हमार।।

- कबीर

""निर्णय इतिहास का जाने इतिहास ही।''

२१वीं सदी को सबसे अधिक कबीर की जरुरत है। तकनीकी में विस्फोट हो चुका है, अब मूल्यवाद में उतना ही प्रभंजनकारी विस्फोट होना ही चाहिए और यह काम कबीर जैसा सिरफिरा दीवाना ही कर सकता है।

आज आदिवासियों के सामने जीवन व मरण का प्रश्न है। अस्तित्व का संकट है। राष्ट्रीय विकास की सुरसा उसे लील लेना चाहती है। आधुनिक वैज्ञानिक विकास का वह मात्र प्रायोगिक वस्तु (गिनीपिग) है। प्रकृति के साथ संघर्ष में वह जीत गया और जी गया। पर क्या मानव के साथ, अपने भाई के साथ और अपने देशवासी के साथ संघर्ष में वह जीत सकेगा? हमारी विस्तारवादी सर्वभक्षी नीति के सामने वह अकिंचन टिक नहीं पाया और उसने शेर, भालु व चीतों की शरण ली। पर अब तो वे खूंखार जानवर भी असुरक्षित व मरणोन्मुख है। फिर उन्हें पनाह कौन देगा?

कबीर

""सुखिया सब संसार है, खाये और सोय।
दुखिया दास कबीर, जागे और रोय।।''

- कबीर

डा. आद्या प्रसाद त्रिपाठी के शब्दों में -

""इस प्रकार कबीर की तप:पूत साधना-पद्धति और दिव्यवाणी भारत की धरती और मानवों की धमनियों में अनुगूंजित और स्पंदित है। वह जन जीवन का साहित्य है, मानव जीवन का चित्रफलक है। इन चित्रों की ताजगी कभी बासी नहीं हो सकती। इस शाश्वत, सर्वयुगीन विराट् कबीर साहित्य एवं उसकी साधना-पद्धति का महत्व निर्विवाद है। शोषण और उत्पीड़न की पतनोन्मुख संस्कृति के ध्वंसावशेषों पर जब-जब युग की जनवादी संस्कृति का निर्माण होगा तब उस नवीन मुक्त समाज की रचना-प्रक्रिया में कबीर साहित्य का प्रदेय और भी अधिक महत्वपूर्ण सिद्ध होगा।''...

 

 

१.

दास धमेन्द्र : कबीर के ज्वलंत रुप : पारख प्रकाशक, कबीर संस्थान, इलाहाबाद : १९९७ : पृष्ठ १२९

२. दास धमेन्द्र : कबीर के ज्वलंत रुप : पारख प्रकाशक, कबीर संस्थान, इलाहाबाद : १९९७ : पृष्ठ ६५

३.

दास धमेन्द्र : कबीर के ज्वलंत रुप : पारख प्रकाशक, कबीर संस्थान, इलाहाबाद : १९९७ : पृष्ठ ६६

४.

दास धमेन्द्र : कबीर के ज्वलंत रुप : पारख प्रकाशक, कबीर संस्थान, इलाहाबाद : १९९७ : पृष्ठ ७८

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