वाराणसी वैभव

काशी की विभूतियाँ


  1. महर्षि अगस्त्य
  2. श्री धन्वंतरि
  3. महात्मा गौतम बुद्ध
  4. संत कबीर
  5. अघोराचार्य बाबा कानीराम
  6. वीरांगना लक्ष्मीबाई
  7. श्री पाणिनी
  8. श्री पार्श्वनाथ
  9. श्री पतञ्जलि
  10. संत रैदास
  11. स्वामी श्रीरामानन्दाचार्य
  12. श्री शंकराचार्य
  13. गोस्वामी तुलसीदास
  14. महर्षि वेदव्यास
  15. श्री वल्लभाचार्य

 

 

 

श्री धन्वंतरि

काशी के संस्थापक 'काश' के प्रपौत्र, काशिराज 'धन्व' के पुत्र, धन्वंतरि महान चिकित्सक थे जिन्हें देव पद प्राप्त हुआ।  धन्वंतरि ने अमृतमय औषधियों की खोज की।  इनके वंश में दिवोदास हुए जिन्होंने 'शल्य चिकित्सा' का विश्व का पहला विद्यालय काशी में स्थापित किया जिसके प्रधानाचार्य, दिवोदास के शिष्य और ॠषि विश्वामित्र के पुत्र 'सुश्रुत संहिता' के प्रणेता, सुश्रुत विश्व के पहले सर्जन (शल्य चिकित्सक) थे।  काशी में दीपावली के अवसर पर कार्तिक त्रयोदशी-धनतेरस को भगवान धन्वंतरि की पूजा करते हैं।  शंकर ने विषपान किया, धन्वंतरि ने अमृत प्रदान किया और इस प्रकार काशी कालजयी नगरी बन गयी।

आयुर्वेद के संबंध में सुश्रुत का मत है कि ब्रह्माजी ने पहली बार एक लाख श्लोक के, आयुर्वेद का प्रकाशन किया था जिसमें एक सहस्र अध्याय थे।  उनसे प्रजापति ने पढ़ा तदुपरांत उनसे अश्विनी कुमारों ने पढ़ा और उन से इन्द्र ने पढ़ा।  इन्द्रदेव से धन्वंतरि ने पढ़ा और उन्हें सुन कर सुश्रुत मुनि ने आयुर्वेद की रचना की।

        विध्याताथर्व सर्वस्वमायुर्वेदं प्रकाशयन्।

        स्वनाम्ना संहितां चक्रे लक्ष श्लोकमयीमृजुम्।।

                                      (भावप्रकाश)

भावप्रकाश के अनुसार आत्रेय प्रमुख मुनियों ने इन्द्र से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त कर उसे अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों को दिया।  इसके उपरान्त अग्निवेश तथा अन्य शिष्यों के तन्त्रों को संकलित तथा प्रतिसंस्कृत कर चरक द्वरा 'चरक संहिता' के निर्माण का भी आख्यान है।

वेद के संहिता तथा ब्राह्मण भाग में धन्वंतरि का कहीं नामोल्लेख भी नहीं है।  महाभारत तथा पुराणों में विष्णु के अंश के रुप में उनका उल्लेख प्राप्त होता है।  उनका प्रादुर्भाव समुद्रमंथन के बाद निर्गत कलश से अण्ड के रुप मे हुआ।

समुद्र के निकलने के बाद उन्होंने विष्णु से कहा कि लोक में मेरा स्थान और भाग निश्चित कर दें।  इस पर विष्णु ने कहा कि यज्ञ का विभाग तो देवताओं में पहले ही हो चुका है अत: यह अब संभव नहीं है।  देवों के बाद आने के कारण तुम (देव) ईश्वर नहीं हो।  अत: तुम्हें अगले जन्म में सिद्धियाँ प्राप्त होंगी और तुम लोक में प्रसिद्ध होगे।  तुम्हें उसी शरीर से देवत्व प्राप्त होगा और द्विजातिगण तुम्हारी सभी तरह से पूजा करेंगे।  तुम आयुर्वेद का अष्टांग विभाजन भी करोगे।  द्वितीय द्वापर में तुम पुन: जन्म लोगे इसमें कोई सन्देह नहीं है।  इस वर के अनुसार पुत्रकाम काशिराज धन्व की तपस्या से प्रसन्न हो कर अब्ज भगवान ने उसके पुत्र के रुप में जन्म लिया और 'धन्वंतरि' यह नाम धारण किया।

वे सभी रोगों के निवराण में निष्णात थे।  उन्होंने भरद्वाज से आयुर्वेद ग्रहण कर उसे अष्टांग में विभक्त कर अपने शिष्यों में बाँट दिया।  धन्वंतरि की परम्परा इस प्रकार है -

काश-दीर्घतपा-धन्व-धन्वंतरि-केतुमान्-भीमरथ (भीमसेन)-दिवोदास-प्रतर्दन-वत्स-अलर्क।

यह वंश-परम्परा हरिवंश पुराण के आख्यान के अनुसार है। (पर्व १ अ २९)।  विष्णुपुराण में यह थोड़ी भिन्न है-काश-काशेय-राष्ट्र-दीर्घतपा-धन्वंतरि-केतुमान्-भीरथ-दिवोदास।

श्रीमद्भागवत में भी इसी वंशपरम्परा का उल्लेख है।

वैदिक काल में जो महत्व और स्थान अश्विनी को प्राप्त था वही पौराणिक काल में धन्वंतरि को प्राप्त हुआ।  जहाँ अश्विनी के हाथ में मधुकलश था वहाँ धन्वंतरि को अमृत कलश मिला।  क्योंकि विष्णु संसार की रक्षा करते हैं अत: रोगों से रक्षा करने वाले धन्वंतरि को विष्णु का अंश माना गया।  विषविद्या के संबंध में कश्यप और तक्षक का जो संवाद महाभारत में आया है, वैसा ही धन्वंतरि और नागदेवी मनसा का ब्रह्मवैवर्त पुराण (३.५१) में आया है।  उन्हें गरुड़ का शिष्य कहा गया  है -

        'सर्ववेदेषु निष्णातो मन्त्रतन्त्र विशारद:।

         शिष्यो हि वैनतेयस्य शंकरोस्योपशिष्यक:।।

                                     (ब्र.वै.३.५१)

इस आख्यान में मंत्रशास्र के महत्व पर विशेष बल दिया गया है।

 

 

वाराणसी वैभव


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