वाराणसी वैभव

काशी की विभूतियाँ


  1. महर्षि अगस्त्य
  2. श्री धन्वंतरि
  3. महात्मा गौतम बुद्ध
  4. संत कबीर
  5. अघोराचार्य बाबा कानीराम
  6. वीरांगना लक्ष्मीबाई
  7. श्री पाणिनी
  8. श्री पार्श्वनाथ
  9. श्री पतञ्जलि
  10. संत रैदास
  11. स्वामी श्रीरामानन्दाचार्य
  12. श्री शंकराचार्य
  13. गोस्वामी तुलसीदास
  14. महर्षि वेदव्यास
  15. श्री वल्लभाचार्य

 

 

 

महात्मा गौतम बुद्ध

सिद्धार्थ नगर (उ. प्र.) में कपिलवस्तु के राजा शुद्धोदन और मायावती के पुत्र सिद्धार्थ का जन्म ५५९ ई. पू. वैशाख पूर्णिमा को हुआ था।  २५ वर्ष की उम्र में राजकुमारी यशोधरा से विवाह हुआ।  २८ वर्ष की उम्र में नगर में जरा, रोग, मृत्यु और सन्यासी को देख गृह त्याग दिया और शांति की खोज में चले।  घोर तप किया, ध्यानावस्था में बोधि प्राप्त होने पर काशी के समीप सारनाथ में प्रथम पाँच शिष्य बनाए, पहला प्रवचन (धर्मचक्र प्रवर्तन) किया।  कुशी नगर में ४७८ ई.पू. में उन्होंने देहोत्सर्ग (महापरिनिर्वाण) किया।

सिंहली अनुश्रुति, खारवेल के अभिलेख, अशोक में सिंहासनारोहण की तिथि, कैण्टन अभिलेख आदि के आधार पर महात्मा बुद्ध की जन्म तिथि ५६३ ई.पूर्व स्वीकार की गयी है।  इनका जन्म शाक्यवंश के राजा शुद्धोदन की रानी महामाया के गर्भ से लुम्बिनी में माघ पूर्णिमा के दिन हुआ था।

यह विधाता की लीला ही थी कि लुम्बिनी में जन्म लेने वाले बुद्ध को काशी में धर्मप्रवर्तन करना पड़ा।  त्रिपिटक तथा जातकों से काशी के तत्कालीन राजनैतिक महत्व की सहज ही कल्पना हो जाती है।  प्राचीन बौद्ध ग्रंथों में बुद्ध काल में (कम से कम पाँचवी शताब्दि ई.पूर्व) काशी का गणना चम्पा, राजगृह, श्रावस्ती, साकेत एवं कौशाम्बी जैसे प्रसिद्ध नगरों में होती थी।

पुत्रजन्म से पहले उनकी माता ने विचित्र सपने देखे थे।  पिता शुद्धोदन ने 'आठ' भविष्य वक्ताओं से उनका अर्थ पूछा तो सभी ने कहा कि महामाया को अद्भुत पुत्र रत्न की प्राप्ति होगी।

यदि वह घर में रहा तो चक्रवर्ती सम्राट् बनेगा और यदि उसने गृहत्याग किया तो सन्यासी बन जाएगा और अपने ज्ञान के प्रकाश से समस्त विश्व को आलोकित कर देगा।  शुद्धोदन ने सिद्धार्थ को चक्रवर्ती सम्राट बनाना चाहा, उसमें क्षत्रियोचित गुण उत्पन्न करने के लिये समुचित शिक्षा का प्रबंध किया, किंतु सिद्धार्थ सदा किसी चिंता में डूबा दिखायी देता था।  अंत में पिता ने उसे विवाह बंधन में बांध दिया।  एक दिन जब सिद्धार्थ रथ पर शहर भ्रमण के लिये निकले थे तो उन्होंने मार्ग में जो कुछ भी देखा उसने उनके जीवन की दिशा ही बदल डाली।  एक बार एक दुर्बल बुद्ध व्यक्ति को, एक बार एक रोगी को और एक बार एक शव को देख कर वे संसार से और भी अधिक विरक्त तथा उदासीन हो गये।  पर एक अन्य अवसर पर उन्होंने एक प्रसन्नचित्त संन्यासी को देखा।  उसके चेहरे पर शांति और तेज की अपूर्व चमक विराजमान् थी।  सिद्धार्थ उस दृश्य को देख कर अत्यधिक प्रभावित हुए।

उनके मने में निवृत्ति मार्ग के प्रति नि:सारता तथा निवृति मर्ण की ओर संतोष भावना उत्पन्न हो गयी।  जीवन के यह सत्य सिद्धार्थ के जीवन का दर्शन बन गया।

विवाह के दस वर्ष के उपरान्त उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।  पुत्र जन्म का समाचार मिलते ही उनके मुँह से सहसा ही निकल पड़ा-'राहु'-अर्थात बंधन।  उन्होंने पुत्र का नाम राहुल रखा।  इससे पहले कि सांसरिक बंधन उन्हें छिन्न-विच्छिन्न करें, उन्होंने सांसारिक बंधनों को छिन्न-भिन्न करना प्रारंभ कर दिया और गृहत्याग करने का निश्चय किया।  एक महान् रात्रि को २९ वर्ष के युवक सिद्धार्थ ज्ञान प्रकाश की तृष्णा को तृप्त करने के लिये घर से बाहर निकल पड़े।  कुछ विद्धानों का मत है कि गौतम ने यज्ञों में हो रही हिंसा के कारण गृहत्याग किया

कुछ अन्य विद्वानों के अनुसार गौतम ने दूसरों के दुख को न सह सकने के कारण घर छोड़ था।  गृहत्याग के बाद सिद्धार्थ ज्ञान की खोज में भटकने लगे।  बिंबिसार, उद्रक, आलार, कालाम नामक सांख्योपदेशकों मे मिल कर वे उरुवेला की रमणीय वनस्थली में जा पहुँचे।  वहाँ उन्हें कौडिल्य आदि पाँच साधक मिले।  उन्होंने ज्ञान-प्राप्ति के लिये घोर साधना प्रारंभ कर दी।  किंतु उसमें असफल होने पर वे गया के निकट एक वटवृक्ष के नीचे आसन लगा कर बैठ गये और निश्चय कर लिया कि भले ही प्राण निकल जाए, मैं तब तक समाधिस्त रहूँगा, जब तक ज्ञान न प्राप्त कर लूँ।  सात दिन और सात रात्रि व्यतीत होने के बाद, आठवें दिन वैशाख पूर्णिमा को उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उसी दिन वे तथागत हो गये।  जिस वृक्ष के नीचे उन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ वह आज भी 'बोधिवृक्ष' के नाम से विख्यात है।  ज्ञान प्राप्ति के समय उनकी अवस्था ३५ वर्ष थी। ज्ञान प्राप्ति के बाद तपस्सु तथा काल्लिक नामक दो शूद्र उनके पास आये।  महात्मा बुद्ध ने उन्हें ज्ञान दिया और बौद्ध धर्म का प्रथम  अनुयायी बनाया।

बोधगया से चल कर वे सारनाथ पहुँचे तथा वहाँ अपने पूर्वकाल के पाँच साथियों को उपदेश दे कर अपना शिष्य बना दिया।  बौद्ध परंपरा में यह उपदेश 'धर्मचक्र प्रवर्त्तन' नाम से विख्यात है।  महात्मा बुद्ध ने कहा कि इन दो अतियों से बचना चाहिये -

१. कामसुखों में अदिक लिप्त होना तथा

२. शरीर से कठोर साधना करना।  उन्हें छोड़ कर जो मध्यम मार्ग मैंने खोजा है, उसका सेवन करना चाहिये।  - (विन्य पिटक १, १०) यही 'धर्मचक्र प्रवर्तन' के रुप में पहला उपदेश था।  अपने पाँच अनुयाइयों के साथ वे वाराणसी पहुँचे।  यहाँ उन्होंने एक श्रेष्ठिपुत्र को अपना अनुयायी बनाया तथा पूर्णरुप से 'धर्म प्रवर्त्तन' में जुट गये।  अब तक उत्तर भारत में इनका काफी नाम हो गया था और अनेक अनुयायी बन गये थे।  कई बाद महाराज शुद्धोदन ने इन्हें देखने के लिये कपिलवस्तु बुलवाना चाहा लेकनि जो भी इन्हें बुलाने आता वह स्वयं इनके उपदेश सुन कर इनका अनुयायी बना जाता था।

इनके शिष्य घूम-घूम कर इनका प्रचार करते थे।  इनके धर्म का इनके जीवन काल में ही काफी प्रचार हो गया था क्योंकि उन दिनों कर्मकांड को जोर काफी बढ़ चुका था और पशुओं की हत्या बड़ी संख्या में हो रही थी।  इन्होंने इस निरर्थक हत्या को रोकने तथा जीवमात्र पर दया करने का उपदेश दिया।  प्राय: ४४ वर्ष तक बिहार तथा काशी के निकटवर्ती प्रांतों में धर्म प्रचार करने के उपरांत अंत में कुशी नगर के निकट एक वन में शाल वृक्ष के नीचे वृद्धावस्था में इनका परिनिर्वाण अर्थात शरीरांत हुआ।  मृत्यु से पूर्व उन्होंने कुशीनारा के परिव्राजक सुभच्छ को अपना अन्तिम उपदेश दिया।  उनके मुख से निकले अंतिम शब्द थे, 'हे भिक्षुओं, इस समय आज तुमसे इतना ही कहता हूँ कि जितने भी संस्कार हैं, सब नाश होने वाले हैं, प्रमाद रहित हो कर कल्याण करो।'  यह ४८५ ई. पू. की घटना है।  वे अस्सी वर्ष के थे।

     "हदं हानि भिक्ख्ये, आमंतयामि वो, वयध्म्मा संखारा, अप्पमादेन सम्पादेया"

                                             - महापरिनिब्वान सुत्त, २३५

 

 

वाराणसी वैभव


Content given by BHU, Varanasi

Copyright © Banaras Hindu University

All rights reserved. No part of this may be reproduced or transmitted in any form or by any means, electronic or mechanical, including photocopy, recording or by any information storage and retrieval system, without prior permission in writing.