वाराणसी वैभव

काशी की विभूतियाँ


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संत कबीर

कबीरदास : जीवन परिचय

काशी के इस अक्खड़, निडर एवं संत कवि का जन्म लहरतारा के पास सन् १२९७ में ज्येष्ठ पूर्णिमा को हुआ।  जुलाहा परिवार में पालन पोषण हुआ, संत रामानंद के शिष्य बने और अलख जगाने लगे।  कबीर सधुक्कड़ी भाषा में किसी भी सम्प्रदाय और रुढियों की परवाह किये बिना खरी बात कहते थे।  हिंदू-मुसलमान सभी समाज में व्याप्त रुढिवाद तथा कट्टपरंथ का खुलकर विरोध किया।  कबीर की वाणी उनके मुखर उपदेश उनकी साखी, रमैनी, बीजक, बावन-अक्षरी, उलटबासी में देखें जा सकते हैं।  गुरु ग्रंथ साहब में उनके २०० पद और २५० साखियां हैं।  काशी में प्रचलित मान्यता है कि जो यहाँ मरता है उसे मोक्ष प्राप्त होता है।  रुढि के विरोधी कबीर को यह कैसे मान्य होता।  काशी छोड़ मगहर चले गये और सन् १४१० में वहीं देह त्याग किया।  मगहर में कबीर की समाधि है जिसे हिन्दू मुसलमान दोनों पूजते हैं।

हिंदी साहित्य में कबीर का व्यक्तित्व अनुपम है।  गोस्वामी तुलसीदास को छोड़ कर इतना महिमामण्डित व्यक्तित्व कबीर के सिवा अन्य किसी का नहीं है।  कबीर की उत्पत्ति के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं।  कुछ लोगों के अनुसार वे जगद्गुरु रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे।  ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आयी।  उसे नीरु नाम का जुलाहा अपने घर ले आया।  उसी ने उसका पालन-पोषण किया।  बाद में यही बालक कबीर कहलाया।  कतिपय कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रुप में हुई।  एक प्राचीन ग्रंथ के अनुसार किसी योगी के औरस तथा प्रतीति नाम देवाङ्गना के गर्भ से भक्तराज प्रहलाद ही संवत् १४५५ ज्येष्ठ शुक्ल १५ को कबीर के रुप में प्रकट हुए थे।

कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उन्हें हिन्दू धर्म की बातें मालूम हुईं।  एक दिन, एक पहर रहते ही कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढियो पर गिर पड़े।  रामानन्द जी गंगास्नान करने के लिये सीढियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया।  उनके मुख से तत्काल 'राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गूरु स्वीकार कर लिया।

कबीर के ही शब्दों में - 'हम कासी में प्रकट भये हैं, रामानन्द चेताये'।

अन्य जनश्रुतियों से ज्ञात होता है कि कबीर ने हिंदू-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदू-भक्तों तथा मुसलमान फकीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को हृदयंगम कर लिया।

जनश्रुति के अनुसार उन्हें एक पुत्र कमाल तथा पुत्री कमाली थी।  इतने लोगों की परवरिश करने के लिये उन्हें अपने करघे पर काफी काम करना पड़ता था।

साधु संतों का तो घर में जमावड़ा रहता ही था।  कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे - 'मसि कागद छूवो नहीं, कलम गही नहीं हाथ।'  उन्होंने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से भाखे और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया।  आप के समस्त विचारों में रामनाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है।  वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे।  अवतार, मूर्कित्त, रोज़ा, ईद, मसजिद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे।  कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है।  एच.एच. विल्सन के अनुसार कबीर के नाम पर आठ ग्रंथ हैं।  विशप जी.एच. वेस्टकॉट ने कबीर के ८४ ग्रंथों की सूची प्रस्तुत की तो रामदास गौड़ ने 'हिंदुत्व' में ७१ पुस्तकें गिनायी हैं।

कबीर की वाणी का संग्रह 'बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है।  इसके तीन भाग हैं - रमैनी, सबद और साखी यह पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, ब्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है।  कबीर परमात्मा को मित्र, माता, पिता और पति के रुप में देखते हैं।  यही तो मनुष्य के सर्वाधिक निकट रहते हैं।

वे भी कहते हैं - 'हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया' तो कभी कहते हैं, 'हरि जननी मैं बालक तोरा'।

उस समय हिंदू जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था।  कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी।  उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके।  इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई।  इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे।  कबीर को शांतिमय जीवन प्राप्त था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे।  अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका समादर हो रहा है।

वृद्धावस्ता में यश और कीर्कित्त की मार ने उन्हें बहुत कष्ट दिया।  उसी हालत में उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के लिये देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ कीं।

इसी क्रंम में वे कालिं जिले के पिथौराबाद शहर में पहुँचे।  वहाँ रामकृष्ण का छोटा सा मन्दिर था।  वहाँ के संत भगवान् गोस्वामी के जिज्ञासु साधक थे किंतु उनके तर्कों का अभी तक पूरी तरह समाधान नहीं हुआ था।  संत कबीर से उनका विचार-विनिमय हुआ।  कबीर की एक साखी के उन के मन पर गहरा असर किया-

       'बन ते भागा बिहरे पड़ा, करहा अपनी बान।

        करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जान।।'

वन से भाग कर बहेलिये के द्वारा खोये हुए गड्ढे में गिरा हुआ हाथी अपनी व्यथा किस से कहे?  सारांश यह कि धर्म की जिज्ञासा में प्रेरित हो कर भगवान गोसाई अपना घर छोड़ कर बाहर तो निकल आये और हरिव्यासी सम्प्रदाय के गड्ढे में गिर कर अकेले निर्वासित हो कर असंवाद्य स्थिति में पड़ चुके हैं।

मूर्ति पूजा को लक्ष्य करते हुए उन्होंने एक साखी हाजिर कर दी -

       पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौं पहार।

       वा ते ता चाकी भली, पीसी खाय संसार।।

११९ वर्ष की अवस्था में उन्होंने मगहर में देह त्याग किया।

 

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