केशवदास


केशवदास की कृतियाँ

प्रकृति-चित्रण

काव्य में प्रकृति का वर्णन कई प्रकार से किया जाता है जैसे - आलंबन, उद्दीपन, उपमान, पृष्ठभूमि, प्रतीक, अलंकार, उपदेश, दूती, बिम्ब-प्रतिबिम्ब, मानवीकरण, रहस्य तथा मानव-भावनाओं का आरोप आदि। केशव ने भी 'कविप्रिया' में वर्ण्य-विषयों की तालिका इस प्रकार दी है:

देस, नगर, बन, बाग, गिरि, आश्रम, सरिता, ताल।
रवि, ससि, सागर, भूमि के भूषन, रितु सब काल।।

फिर इन वर्णनों में आने वाली वस्तुओं की सूची दी गई है। इससे प्रतीत होता है कि काव्य में केशव भी प्रकृति-वर्णन को आवश्यक मानते थे।

अपनी कृतियों में केशवदास ने प्रकृति-वर्णन की सभी शैली को अपनाया है। आलम्बन-रुप में प्रकृति-चित्रण भी उन्होंने पर्याप्त मात्रा में किया है। उन्होंने कृत्रिम पर्वत और नदी का वर्णन किया है, जिनका उल्लेख संस्कृत संस्कृत काव्यों में क्रीड़ाक्षेत्र के नाम से हुआ है। केशव का आदर्श माघ, श्रीहर्ष, बाण आदि का आदर्श था। केशव के काव्य-सिद्धान्तों के अनुसार, वन, वाटिका तथा कहीं समुद्र आदि के वर्णन में कुछ विशिष्ट बातें अनिवार्य हैं। इन वस्तुओं के वर्णन में उन्हें गिनाकर काम चला लेने का प्रयास करते हैं। उदाहरण के लिए, विश्वामित्र के आश्रम के निकटस्थ वन का वर्णन प्रस्तुत है:

तरु तालीस तमाल ताल हिताल मनोहर।
मंजुल बंजुल तिलक लकुच कुल नारिकेर बर।
एला ललित लवंग संग पुंगीफल सोहैं।
सारो सुककुल कलित चित्त कोकिल अलि मोहैं। 
सुभ राजहंस कुल, नाचत मत्त मयूरगन।
अतिप्रफुलित फलित सदा रहै "केसवदास' बिचित्र बन।।

संभवतः 'विचित्र वन' कहकर कवि ने इसे विश्वामित्र के तप-प्रभाव से प्रसूत माना हो, परन्तु ऐसा वर्णन करते समय कवि केवल कवि-परम्परा का पालन मात्र करता दिखाई देता है।

कवि-परम्परा के अनुसार, सरोवर के वर्णन में कमलों, भ्रमरों, पक्षियों तथा जलचरों का वर्णन किया जाना चाहिए। उसी परिपाटी पर केशव ने अयोध्या के सरोवर का वर्णन यों प्रस्तुत किया है:

सुभ सर सौभै, मुनि - मन लोभै।
सरसिज फूले, अलि रसभूले।।
जलचर डोलैं, बहु खग बोलैं।
बरनि न जाहीं, उर उरझाहीं।।

सरयू, पंचवटी, पंपासर, प्रवर्षण पर्वत आदि का वर्णन भी कवि ने आवश्यक वस्तओं की सूची देकर किया है। दण्डक वन का वर्णन इस प्रकार है:

सोभत दंडक की रुचि बनी।
भांतिन भांतिन सुन्दर घनी।।
सेव बड़े नृप की जनु लसै।
श्रुल भूरि भाव जहं बसै।।

वेर भयानक सी अति लगै।
अर्क समूह जहां जगमगै।।
नैननि को बहु रुपनि ग्रसै।
श्रीहरि की जनु मूरति लसै।।

उपर्युक्त छन्द का यदि हम सहृदयता से अर्थ करें तो यही होगा कि यह दण्डक वन भिन्न-भिन्न प्रकार से आकर्षक तथा घना है। यह बड़े राजा की सेवा के समान सुशोभित होता है, जैसे राजा की सेवा में श्रीफल (धन) की प्राप्ति होती है, वैसे ही इसमें भी श्रीफल (बेल) के सुन्दर फल हैं। फिर यह वन प्रलय-बेला के समान भयंकर दिखाई देता है, जैसे प्रलयबेला में सूर्य समूह प्रकाशित हो जाता है, उसी प्रकार यहां अकौए के रुखे-सूखे सफेद पुष्प प्रकाशित हो रहे हैं और इसे भयंकर बना रहे हैं। इस प्रकार यह वन नेत्रों को अनेक प्रकार से आकृष्ट कर रहा होता है - कहीं भयंकर दिखाई देता है और कहीं सुन्दर। इसकी वही दशा है जो ईश्वर के विराट् रुप की होती है जिसमें भयंकर तथा रम्य दोनों प्रकार से दृश्य दिखाई देते हैं।

केशव में प्रकृति के प्रति सहृदयता थी। कई स्थानों पर कवि ने बिम्ब-ग्रहण कराने की चेष्टा की है, ऐसे स्थल इस बात के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि केशव में प्रकृति का शाब्दिक चित्र खींचने की पर्याप्त क्षमता थी। "रामचन्द्रिका' के आरम्भ में हुए सूर्य की प्रातःकालीन अरुणिमा की शोभा का चित्रण इस प्रकार किया गया है -

अरुन गात अतिप्रात पद्मिनी-प्राननाथ मय।
मानहु "केसवदास' कोकनद कोक प्रेममय। 
परिपूरन सिंदूर पूर कैघौं मंगलघट।
किघौं सुक्र को छत्र मढ्यो मानिकमयूख-पट।
कै श्रोनित कलित कपाल यह, किल कापालिक काल को।
यह ललित लाल कैघौं लसत दिग्भामिनि के भाल को।।

कमल और चक्रवाक का अरुण अनुराग, सिन्दूरी वर्ण का मंगल-कलश, मणि-कांति-सुशोभित इन्द्र की छत्री, सभी उपमान तेजसंचय करते हुए प्रातःकालीन सूर्य की अभिव्यंजना करे हैं। प्रत्येक पंक्ति में नवीन अप्रस्तुत की योजना होते हुए भी यहां प्रस्तुत, अर्थात् उदीयमान सूर्य का ही चित्र प्रधान है।

प्रातःकाल देखते - देखते कैसे सब तारे छिप जाते हैं और सूर्य कहां से कहां पहुंच जाते हैं, इस दृश्य का वर्णन कवि ने काफी अच्छे अन्दाज से किया है -

चढ़ो गगन तरु धाई,
दिनकर बानर अरुनमुख।
कीन्हो झुकि झहराइ,
सकल तारका कुसुम बिन।।

भमरों - सहित सुगन्धित कमलों वाली गोदावरी मानो बहुनयन इन्द्र की शोभा धारण किए हुए है:

अति निकट गोदावरी पापसंहारिनी।
चल तरंगतुगावली चारु संचारिनी।
अलि कमल सौगंध लीला मनोहारिनी। 
बहुनयन देवेस-सोभा मनो धारिनी।।

कवि प्रकृति का भली भांति निरीक्षण करना चाहता है और जहां वह हृदय को साथ लेकर चला है, वहां उसने प्रकृति के अत्यन्त सुन्दर एवं मनोहर दृश्य प्रस्तुत किए हैं। वर्षा का अत्यन्त मनोरम चित्र कवि ने खींचा है। "रसिक-प्रिया' में कवि ने घने बादलों द्वारा फैलाए गए अंधकार की अत्यन्त सुन्दर और मार्मिक व्यंजना की है:

राति है आई चले घर कों, दसहूं दिसि मेह महा मढि आओ।
दूसरो बोल ही तें समुझै कवि "केसव' यों छिति में तम छायो।।

"कविप्रिया' के आक्षेपालंकार के प्रसंग में प्रकृति के उद्दीपक रुप का अत्यन्त स्पष्ट अंकन कवि ने किया है। प्रकृति के साथ मानव-हृदय का जो तादात्म्य रुप "बारहमसे' में कवि ने दिखाया है, वह प्रशंसनीय है। प्रत्येक मास अपनी-अपनी प्राकृतिक विशेषताओं से संयोगिनियों के सुख की अभिवृद्धि करता हुआ उनकी भावनाओं का उद्दीप्त करता है। विरह के नाम-मात्र से 
वे घबरा जाती हैं। निम्नपद में नारी-हृदय चारों ओर की प्रकृति को हर्षित और अपने-अपने प्रिया से संयुक्त होते देख आन्दोलित हो उठता है:

"केसव' सरिता सकल मिलित सागर मन मोहैं।
ललित लता लपटात तरुन तर तरबर सोहैं।
रुचि चपला मिलि मेघ चपल चमकल चहुं ओरन।
मनभावन कहं भेंटि भूमि कूजत मिस मोरन।
इहि रीति रमन रमनी सकल, लागे रमन रमावन।
प्रिय गमन करन की को कहै, गमन सुनिय नहिं सावन।।

प्राकृतिक सौन्दर्य की झलमल भी दिखलाई पड़ती है। कवि की वर्षा - वर्णन की कुछ पंक्तियों में यही स्थिति मिलती है। 

देखि राम वरषा रितु आई।
रोम रोम बहुधा दुखदाई।
आसपास तम की छबि छाई।
राति द्यौस कछु जानि न जाई।।
मंद मंद धुनि सों घन गाजैं।
तूर तार जनु आवझ बाजैं।
ठौर ठौर चपला चमकै यों।
इंद्रलोक-तिय नाचति है ज्यौं।।
सोहैं घन स्यामल घोर घनै।
मोहैं तिनमें बकपांति मनै।
संखावलि पी बहुधा जस स्यों।
मानौ तिनकों उगिलै बलस्यों।।



घन घोर घने दसहू दिसि छाये।
मघवा जनु सूरज पै चढि आए।
अपराध बिना क्षिति के तन ताए।
तिन पीड़न ह्मवै उठि धाए।।

इस प्रकार के सौन्दर्य वर्णनों में अलंकार-विधान चित्रण का पूरक अंग होकर हुआ है। प्रकृति का सौन्दर्य सघन अलंकारों में छिप नहीं जाता। इसी प्रकार शरद् का वर्ण का वर्णन भी सुन्दर बन पड़ा है:

दंतावलि कुन्द समान गनौ।
चंद्रानन कुंतल भौंर घनौ।
भौहैं धनु खंजन नैन मनौ।
राजीवनि ज्यों पद पानि भनौ।।
हारावलि नीरज हीय रमै।
लीन पयोधर अंबर मैं।
पाटीर जुन्हाइहि अंग धरै।
हंसी गति "केसव' चित्त हरै।।

उपमान-योजना करते समय भी सभी कवियों ने प्रकृति के असीम भंडार से लाभ उठाया है और यह स्वाभाविक भी है। जो कवि साहित्यिक परम्परा में बंधे होते हैं, वे प्रकृति का अप्रस्तुत रुप में उपयोग रुढि के आधार पर ही करते हैं और रीतिकाल के कवियों में यही बात मिलती है। केशव भी इसके अपवाद नहीं हैं। सीता के नखशिख वर्णन में केशव ने प्रचलित उपमानों का प्रयोग किया है। मुख के लिए चन्द्रमा प्रसिद्ध उपमान है। केशव ने भी सीता के मुख की उपमा चन्द्रमा से दी है:

चन्द्रमा सी चन्द्रमुखी सब जग जानिए।

यहां कवि चन्द्र की सभी विशेषताओं को सीता के मुख में भी देखता है। परन्तु शीघ्र ही वह सीता के मुख के लिए बड़े तार्किक ढंग से चन्द्रमा को अनुपयुक्त ठहरा कर कमल के समान बतलाता है:

सुन्दर सुबास अरु कोमल अमल अति।
सीता जू को मुख सखि केवल कमल सों।

कहीं-कहीं कवि प्रसिद्ध उपमानों की अपेक्षा उपमेय के सौन्र्य का उत्कर्ष दिखाता है। केशव ने भी उपमेय मुख में उत्कर्ष, और उपमान कमल तथा चन्द्र में अपकर्ष दिया है:

एक कहैं अमल कमल मुख सीता जू को,
एकै कहैं चंदसम आनन्द को कंद री।
होइ जौ कमल तौ रयनि में न सकुचै री,
चंद जौ तौ बासर न होइ दुति मंद री।
बासर ही कमल रजनि ही में चंद,
मुख बासर हू रजनि बिराजै जगबंद री।।

अनेक प्राकृतिक रुपों की अप्रस्तुत रुप में परीक्षा शुद्ध सादृश्य की दृष्टि से बड़ी मनोहर और उपयुक्त बन पड़ी है। राम, लक्ष्मण आदि की बरात से जनकपुर वासियों के मिलन को दिखाने क लिए कवि ने सागर और सरिता के प्रेम-मिलन की स्वाभाविक उत्प्रेक्षा दी है

बनि चारि बरात चहूं दिसि आई।
नृप चारि चमू अगवान पठाई।
जनु सागर को सरिता पगु धारी।
तिनके मिलिबे कहंबांह पसारी।।

इसी प्रकार वन जाते हुए राम के पीछे उमड़ते हुए जन सागर के लिए भगीरथ के पीछे बहती हुई गंगा धारा की उत्प्रेक्षा अत्यन्त भावपूर्ण है।

रुप और आकार के वर्णन में भी कवि ने चमत्कार की प्रेरणा से उपमानों को ग्रहण किया है। मार्ग में जाते हुए राम, सीता और लक्ष्मण ऐसे प्रतीत होते हैं मानो:

मेघ मंदाकिनी चारु सौदामिनी।
रुप रुरे लर्तृ देहधारी मनो।
भूरि भागीरथी भारती हंसजा।
अंस के हैं मनो, भाग भारे भनो।।

यद्यपि केशव के काल में प्रकृति से अधिक महत्तव मनुष्य का दिया जाने लगा था तथापि 
उन्होंने प्रकृति में मानव सुलभ भाव को खोजने का सफल प्रयत्न किया है। अलंकारों से नाक भौं सिकोड़ने वाले लोगों के हाथ कुछ न पड़े, यह बात दूसरी है। वर्षा को चण्डी के विकास-रुप में तथा शरद् को कुलीन सुन्दरी के रुप में चित्रित किया है। इतना ही नहीं, यह शरद् उन्हें उस वृद्धा दासी की तरह भी दर्शित होती है जो प्रातःकाल उठाने आती थी:

लक्ष्मन दासी वृद्ध सी आई सरद सुजाति।
मनहु जगावन कों हमहिं बीते बरषा राति।।

वर्षा में बाढ़युक्त नालियां अपने किनारों को डुबा देती हैं जैसे अभिसारिकाएं अपने धर्म के मार्ग के मिटा देती हैं:

अभिसानिनि सी समझौ परनारी ।
सतमारग - मेटन कों अधिकारी ।

एक स्थान पर कवि ने प्रकृति का अत्यन्त कमनीय तथा मनोरम वातावरण प्रस्तुत किया है। राम और सीता जब एकत्र बैठते हैं तब सीता के वीणा-वादन पर मुग्ध होकर पशु-पक्षी घिर आते हैं और राम द्वारा प्रेम-पूर्वक पहनाए गए आभूषणों को भी निश्शंक भाव से ग्रहण करते हैं:

जब जब धरि बीना प्रकट प्रवीना बहु गुनलीना सुख सीता ।
पिय जियहि रिझावै दुखनि भजावै बिबिध बजावै गुनगीता ।
तजि मति संसारी बिपिनबिहारी सुखदुखकारी घिरि आवैं ।
तब तब जगभूषन रिपुकुलदूषन सबकों भूषन पहिरावैं ।।

इतना ही नहीं, प्रकृति का उपदेशात्मक रुप भी कवि के सम्मुख आया है। प्रकृति के स्वाभाविक तथ्यों को दृष्टि में रखकर कवि उनसे जीवन-तथ्यों का संग्रह करता है:

तरनि-किरनि उदित भई,
दीपजोति मलिन गई ।
सदय हृदय बोध - उदय,
ज्यों कुबुद्धि नासै ।।

इसी प्रकार कहीं उन्होंने मानव-जीवन के सत्यों को प्रकृति में चरितार्थ होने दिया है। ब्राह्मण जब सुरापान करने में लीन होता है तो उसकी शोभा व सम्पत्ति नष्ट हो जाती है। उसी प्रकार चन्द्र भी वारुणी की इच्छा करने मात्र से श्री-ही हो जाता है:

जहीं बारुनी की करी रंचक रुचि द्विजराज।
तहीं कियो भगवंत बिन संपति सोभा साज।।

प्राकृतिक उपमानों का उपयोग केशव ने पर्याप्त रुप से किया है। वे संस्कृत के अच्छे अध्येता थे और संस्कृत की अप्रस्तुत-योजना उन्होंने ग्रहण की थी। संस्कृत साहित्यशास्र की मान्यताओं के अनुसार वे अप्रस्तुत-योजना में शब्द को भी रुप, गुण, क्रिया के समान ही साम्य-वैषम्य का आधार बनाकर चलते हैं। 

अपनी निजी प्रतिभा से उन्होंने उपमानों की नवीनता या प्रचलित उपमानों के नवीन प्रयोग दर्शित किए हैं तथा प्रकृति रुपों का सफल प्रयोग किया है। जहाँ बिना सुन्दर साम्य-स्थापना का विवेचन किए हुए कवि ने प्राकृतिक उपमानों का प्रयोग किया है, वहां पर यह योजना आज के आलोचक की दृष्टि से उपहासास्पद हो गई है। यही कारण है कि केशव पर यह आक्षेप लगाया जाता है कि प्रकृति निरीक्षण का उन्हें अवकाश न था। 

परन्तु एक तो ऐसे चित्र केशव के काव्याकाश में दो-एक टिमटिमाते हुए तारों के समान ही हैं, उनके पीछे उनके कृतिकार का व्यक्तित्व एवं एक परम्परा है। केशव ने प्रकृति के मार्मिक, स्वाभाविक तथा सजीव चित्रों के लिए सफल अप्रस्तुत-योजना का भी पर्याप्त प्रयोग किया है। साथ ही, उनमें ऐसे स्थलों का भी अभाव नहीं जहां प्रस्तुत योजना का प्रयोग रुप-साम्य, भाव-साम्य तथा वातावरण-निर्माण के लिए किया गया है।

उपर्युक्त विवेचन से निष्कर्ष निकलता है कि केशव ने प्रकृति - चित्रण की प्रायः सभी शैलियों का वर्णन किया है। प्रकृति का याथातथ्य और सुन्दर चित्रण करने की क्षमता उनमें थी। वे चाहते तो प्रकृति का स्वच्छन्द व स्वाभाविक चित्रण कर प्रकृति-कवि के रुप में प्रसिद्ध हो सकते थे। वैभव और विलास के वातावरण में रहने के कारण उनकी मनोवृत्ति कला-पक्ष की ओर विशेष रही। संस्कृत-साहित्य के अति संपर्क के कारण उनकी दृष्टि बहुत कुछ बद्ध रही। फलतः प्रकृति-चित्रण यत्र-तत्र दुरुह प्रतीत होते हैं। 

उनमें हृदय की अपेक्षा बुद्धि का प्राधान्य हो गया है। यदि उनमें चमत्कारप्रियता न होती तो उनके प्रकृति-चित्र भी भवभूति और कालिदास के समकक्ष हो सकते थे। उन्होंने प्रकृति को कवि की दृष्टि से नहीं, अपितु कवि-सम्प्रदाय की दृष्टि से देखा है। अतः वे अपने उद्देश्य में सर्वथा सफल हुए हैं।

 

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Content prepared by M. Rehman

© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र

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