वाराणसी वैभव या काशी वैभव

काशी की भौगोलिक स्थिति


किसी नगर के इतिहास को जानने के पहले उसकी प्राकृतिक बनावट के बारे में जानना अत्यंत आवश्यक है। सुदूर प्राचीन काल में वाराणसी की स्थापना का आधार धार्मिक न होकर आर्थिक या व्यापारिक था। अगर ध्यान देकर देखा जाए तो उनके यहां भू-स्थापना का कारण यहां की भौगोलिक स्थिति है। यह शहर अर्धचन्द्राकार में गंगा की रचना किनारे पर अवस्थित है। नगर की रचना एक ऊँचे कंकरीले करारे पर जो गंगा के पश्चिमी किनारे पर अवस्थित है, जहां बाढ़ का खतरा नहीं रहता है। आधुनिक राजघाट का चोरस मैदान जहां नदी-नालों का कटाव नहीं मिलता, शहर बसने के लिए उपयुक्त था। एक ओर ""बरना'' नदी तो दूसरी ओर गंगा नगर की प्राकृति खाई का काम करती है। ये जंगल भी वाराणसी के बचाव के लिए अपनी भूमिका अदा करते रहे होगें। आधुनिक मिर्जापुर जिले की विंध्याचल की पहाड़ियां भी बनारस के बचाव में महत्वपूर्ण थीं।

पश्चिम की ओर गंगा और यमुना के रास्ते वाराणसी के व्यापारी मथुरा पहुंचते थे तथा पूरब की ओर चंपा होते हुए ताम्रलिप्ति के बन्दरगाह तक जाते थे। वाराणसी उसी महाजनपद पर अवस्थित थी जो तक्षशिला से राजगृह के बाद पाटलिपुत्र को जाता था। यहां से अन्य सड़कें देश के भिन्न-भिन्न भागों को जाती थीं, जिनमें होकर काशिक चंदन और वस्र के द्वारा वाराणसी की व्यापारिक महत्ता देश में चारों ओर फैलती थी।

यह कहना कठिन है कि जब आरंभिक युग में यहां मनुष्य बसे तो बनारस की प्राकृतिक बनावट का क्या रुप था पर कृत्यकल्पतरु, काशीखण्ड और १९वीं सदी के जान प्रिंसेप के नक्शे के आधार पर यह कहना सम्भव है कि गंगा-बरना संगम से लेकर गंगा अस्सी संगम के कुछ उत्तर तक एक कंकरीला करारा है, जो गोदौलिया नाले के पास कट जाती है। जमीन की सतह नदी की सतह से नीची पड़ जाने पर पानी बरना में चला जाता था। गोदौलिया नाले में मिसिर पोखरा, लक्षमीकुण्ड था, बेनिया तालाब का पानी गंगा में बह जाता था। मछोदरी रकबे का पानी बरना में गिरता था। मछोदरी के पूरब में कगार के नीचे एक चौरस मैदान पड़ जाता था जिसके उत्तर में नाले बहते थे।

स्थलपुराणों में मत्स्योदरी का काशी में एक नदी के रुप में उल्लेख एक पहेली है। लक्ष्मीधर ने तीर्थ विवेचन कांड में (पृ. ३४, ५८, ६९) इस नदी का तीन बार उल्लेख किया है। एक स्थान पर (पृ. ३४-३५) शुष्क नदी यानि अस्सी को पिंगला नाड़ी, वरुणा को इला नाड़ी और इन दोनों के बीच मत्स्योदरी को सुषुम्ना नाड़ी माना है। अन्यत्र (पृ. ५८) गंगा और मत्स्योदरी के संगम पर स्नान मोक्षदायक माना गया है। तीसरे स्थान पर (पृ.६९) इस नदी के तीर पर देवलोक छोड़कर देवताओं के बसने की बात कही गयी है। मित्र मिश्र द्वारा उद्धृत काशीखण्ड (पृ. २४०) में मत्स्योदरी को बहिरन्तश्चर कहा गया है और वह गंगा के प्रतिकूल धारा (संहार मार्ग) से मिलती थी। सोलहवीं सदी में नारायण भ की व्युत्पत्ति के अनुसार मत्स्याकार काशी के गर्भ में अवस्थित होने से इसका नाम मत्स्योदरी पड़ा।

उपर्युक्त सामग्री के अवलोकन से सभी बातें स्पष्ट हो जाती हैं। काशी खंड के अनुसार शिवगणों ने मत्स्योदरी तीर्थ के सन्निकट शैलों से घिरा हुआ दुर्ग बनाया और उसके पास मत्स्योदरी के जल से भरी परिखा (मोट) थी। अत: एक तो मत्स्योदरी झील थी जिसका जल भीतर ही भीतर प्रवाहित था या अंतश्चर था और दूसरी मत्स्योदरी परिखा थी जिसका जल बहकर वरुणा को पीछे ठेलता था। वर्षा काल में गंगा में बाढ़ आती तो गंगा का पानी वरुणा को पिछे ठेलता मत्स्योदरी परिखा में प्रविष्ट होता और अंतत: मत्स्योदरी तीर्थ में आ पहुँचता। इसी को पुनीत मत्स्योदरी योग कहा जाता है। इस बहते हुए गंगा जल से काशी क्षेत्र पूर्णत: घिर जाता और उसका स्वरुप मछली सा हो जाता। इसी स्थिति को त्रिस्थली सेतु ने काव्यमयी भाषा में कहा है कि ऐसा प्रतीत होता है कि गंगा ने स्वयं मत्स्योदरी रुपर धारण कर लिया है। इस पुनीत संगम का महात्म्य बताते हुए लिखा है कि समस्त तीर्थ और शिवलिंग यहां प्राप्त हो जाते हैं। गंगा-वरुणा और मत्स्योदरी का यह संगम आंकारेश्वर के पास होता था और यहीं भैरवरुप भगवान् शंकर ने स्नान किया था और कपालमोचन तीर्थ की सृष्टि हुई थी। वाराणसी में तीन पुण्यदा नदियों की चर्चा कृत्य-कल्पतरु ने की है- ये हैं- पितामह-स्रोतिका (ब्रह्मनाल), मन्दाकिनी (मध्यमेश्वर के पास) और मत्स्योदरी (ओंकारेश्वर के पास) ये तीनों वर्षा के दिनों में नदी का रुप धारण करती थी। पितामहस्रोतिका नाले से अविमुक्तेश्वर क्षेत्र का जल गंगा में गिरता था। मन्दाकिनी में वर्तमान दारानगर, औसानगंज, काशीपुरा, विश्वेसरगंज का जल एकत्र होता था जो बुलानाला, सप्तसागर भुलेटन, बेनिया, मिसिरपोखरा, गोदावरी तीर्थ (गोदौलिया) होते हुए शीतलाघट के पास गंगा में गिरता था। मत्स्योदरी परिखा का जल ओंकारेश्वर के पास होते हुए वरुणा में गिरता था। बड़ी बाढ़ में मत्स्योदरी के भर जाने पर जल शिवतड़ाग (हालूगड़हा जिस पर विश्वेश्वर गंज का बाजार बसा है) को भरता हुआ मंदाकिनी में मिलता, वहां से दशाश्वमेघ के पास गंगा में मिलता। इस प्रकार राजघाट से दशाश्वमेघ तक का समूचा क्षेत्र पानी से घिर जाता था या वाराणसी क्षेत्र ही मत्स्याकार हो जाता था।

वाराणसी की पौराणिक व्युत्पत्ति को स्वीकार करने में बहुत सी कठिनाइयां है। पहली कठिनाई तो यह है कि अस्सी नदी न होकर बहुत ही साधारण नाला है और इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं है कि प्राचीन काल में इसका रुप नदी का था। प्राचीन वाराणसी की स्थिति भी इस मत का समर्थन नहीं करती। प्राय: विद्वान एक मत है कि प्राचीन वाराणसी आधुनिक राजघाट के ऊंचे मैदान पर बसी थी और इसका प्राचीन विस्तार जैसा कि भग्नावशेषों से भी पता चलता है - बरना के उस पार भी था, पर अस्सी की तरफ तो बहुत ही कम प्राचीन अवशेष मिले हैं और जो मिले भी हैं वे परवर्ती अर्थात् मध्यकाल के हैं।

वाराणस्यां नदी पु सिद्धगन्धर्वसेविता।
प्रविष्टा त्रिपथा गंगा तस्मिन् क्षेत्रे मम प्रिये।।

अर्थात्- हे प्रिये, सिद्ध गंधर्वों से सेवित वाराणसी में जहां पुण्य नदी त्रिपथगा गंगा आता है वह क्षेत्र मुझे प्रिय है। यहां अस्सी का उल्लेख नहीं है। वाराणसी क्षेत्र का विस्तार बताते हुए मत्स्यपुराण में एक और जगह कहा गया है-

वरणा च नदी यावद्यावच्छुष्कनदी तथा।
भीष्मयंडीकमारम्भ पर्वतेश्वरमन्ति के।।

(म.पु.कृ.क.त.पृ. ३९)

मत्स्यपुराण की मुद्रित प्रति में ""वाराणसी नदीमाय यावच्छुष्क नदी तवै'' ऐसा पाठ है। पुराणकार के अनुसार पूर्व से पश्चिम दो योजन या ढ़ाई योजन लम्बाई वरणा से असी तक है, और चौड़ाई अर्द्ध योजन भीष्मचंडी से पर्वतेश्वर तक है अर्थात् चौड़ाई के तीन परिमाप बताये हैं। वास्तव में यहां कोई विशेष विरोधाभास नहीं है- वाराणसी क्षेत्र वरणा नदी से असी तक है, पर गंगा अर्द्धचंद्राकार होने के कारण सीमा निर्देश पूरा नहीं होता। भीष्मचंड़ी से पर्वतेश्वर तक इसका विस्तार आधा योजन हे। इनमें भिष्म चंड़ी, शैलपुत्री दुर्गा के दक्षिण में और पर्वतेश्वर सेंधिया घाट पर है। पद्मपुराण में तो स्पष्टत: चौड़ाई सदर बाजार स्थित पाशपाणिगणेश तक बताई है। वरणा संगम के आगे कोटवां गांव के पास का भाग गंगा तक लगभग ढ़ाई कोस है (जिसे पद्मपुराण ने ढ़ाई योजन बताया है)।

उक्त उद्धरणों सी जांच पड़ताल से यह पता चलता है कि वास्तव में नगर का नामकरण वरणासी पर बसने से हुआ। अस्सी और बरणा के बीच में वाराणसी के बसने की कल्पना उस समय से उदय हुई जब नगर की धार्मिक महिमा बढ़ी और उसके साथ-साथ नगर के दक्षिण में आबादी बढ़ने से दक्षिण का भाग भी उसकी सीमा में आ गया।

लेकिन प्राचीन वाराणसी सदैव बरना पर ही स्थित नहीं थी, गंगा तक उसका प्रसार हुआ था। कम-से-कम पंतजलि के समय में अर्थात् ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में तो यह गंगा के किनारे-किनारे बसी थी, जैसी कि अष्टाध्यायी के सूत्र "यस्य आया:' (२/१/१६) पर पंतजलि ने भाष्य "अनुगङ्ग' वाराणसी, अनुशोणं पाटलिपुत्रं (कीलहार्न ६,३८०) से विदित है। मौर्य और शुंगयुग में राजघाट पर गंगा की ओर वाराणसी के बसने का प्रमाण हमें पुरातत्व के साक्ष्य से भी लग चुका है।

वरणा शब्द एक वृक्ष का ही द्योतक है। प्राचीनकाल में वृक्षों के नाम पर भी नगरों के नाम पड़ते थे जैसे कोशंब से कोशांबी, रोहीत से रोहीतक इत्यादि। यह संभव है कि वाराणसी और वरणावती दोनों का ही नाम इस वृक्ष विशेष को लेकर ही पड़ा हो।

वाराणसी नाम से उक्त विवेचन से यह न समझ लेना चाहिए कि काशी की इस राजधानी का केवल एक ही नाम था। कम-से-कम बौद्ध साहित्य में तो इसके अनेक नाम मिलते हैं। उदय जातक में इसका नाम सुर्रूंधन (सुरक्षित), सुतसोम जातक में सुदर्शन (दर्शनीय), सोमदंड जातक में ब्रह्मवर्द्धन, खंडहाल जातक में पुष्पवती, युवंजय जातक में रम्म नगर (सुन्दर नगर) (जा. ४/११९), शंख जातक में मोलिनो (मुकुलिनी) (जा. ४/१५) मिलता है। इसे कासिनगर और कासिपुर के नाम से भी जानते थे (जातक, ५/५४, ६/१६५ धम्मपद अट्ठकथा, १/६७)। अशोक के समय में इसकी राजधानी का नाम पोतलि था (जा. ३/३९)। यह कहना कठिन है कि ये अलग-अलग उपनगरों के नाम है अथवा वाराणसी के ही भिन्न-भिन्न नाम है।

यह संभव है कि लोग नगरों की सुन्दरता तथा गुणों से आकर्षित होकर उसे भिन्न-भिन्न आदरार्थक नामों से पुकराते हो। पंतजलि के महाभाष्य से तो यही प्रकट होता है। अष्टाध्यायी के ४/३/७२ सूत्र के भाष्य में (कीलहार्न ७/२१३) "नवै तत्रेति तद् भूयाज्जित्वरीयदुपाचरेत्' श्लोक पर पंतजलि ने लिखा है- वणिजो वाराणसी जित्वरीत्युपाचरन्ति, अर्थात् ई. पू. दूसरी शताब्दी में व्यापारी लोग वाराणसी को जित्वरी नाम से पुकारते थे। जित्वरी का अर्थ है जयनशीला अर्थात् जहां पहुंचकर पूरी जय अर्थात् व्यापार में पूरा लाभ हो। जातकों में वाराणसी का क्षेत्र उस उपनगर को सम्मिलित कर बारह योजन बताया गया है- (जा. ४, ३७७, ५, १६०)। इस कथन की वास्तविकता का तो तभी पता चल सकता है जब प्राचीन वाराणसी और उसके उपनगरों की पूरी तौर से  खुदाई हो पर बारह योजन एक रुढिगत अंक सा विदित होता है।

 

१.

लक्ष्मीधर - कृत्यकल्पतरु के तीर्थ विवेचन काण्ड, के.वी. रंगस्वामी अय्यंगर द्वारा संपादित, बड़ौदा, १९४२, पृ. ३९-४०.

२.

मित्र मिश्र - काशी खण्ड ६९, १३५-१४६
तीर्थ प्रकाश २४०-२४१
त्रिस्थली सेतु पृ. १३१-१४०
कृत्त कल्प तरु पृ. १२७-१४०

वाराणसी वैभव


Top

Copyright IGNCA© 2003