वाराणसी वैभव या काशी वैभव

यातायात


किसी नगर के विकास का एक मुख्य कारण यातायात के साधन हैं। बहुत प्राचीन काल से काशी में यातायात की अच्छी सुविधा रही है। बौद्ध युग में एक रास्ता काशी होकर राजगृह जाता था। इस सड़क पर अन्धकविन्द पड़ता था। (विनय, १ पृ. २२०)। दूसरा रास्ता मछिया होता हुआ श्रीवस्ती को जाता था (विनय १, १८९)। वाराणसी से तक्षशिला (धम्मपद अ. १,१२३) और वेरंजा के बीच भी एक रास्ता था। कहा गया है कि एक समय बुद्ध वेरंजा से वाराणसी तक इस रास्ते से गये। वेरंजा से सोरेय्य कण्णकुञ्ज होते हुए उन्होंने गंगा को प्रयाग-प्रतिष्ठान में पार किया। बाद में वाराणसी से वैशाली चले गए (समंतपासादिका, १,२०१)। वाराणसी गाजीपुर रोड़ होकर ही यह प्राचीन रास्ता वैशाली की तरफ गया होगा। वाराणसी से वेरंजा तक की सड़क प्राचीन महाजनपथ का भाग जान पड़ती है। वेरंजा से सड़क मथुरा जाती थी और वहां से तक्षशिला। वाराणसी से वैशाली तक जाने वाली सड़क के कुछ निशान अब भी बच गए हैं। कपिलधारा तालाब से एक पतला रास्ता खास सड़क के समकोण में बरना की तरफ निकल जाता है और इस नदी को पार करके गाजीपुर की ओर चला जाता है। इस रास्ते की गहराई देखते हुए इसके दोनों ओर प्राचीन वस्तुओं के मिलने से यह कहा जा सकता है कि यह सड़क बहुत प्राचीन है और बुद्ध युग में ॠषि पतन से वाराणसी तक आने का यही मुख्य मार्ग था। मुगलों ने इस रास्ते में बरना पर एक पुल भी बांधा था लेकिन अब यह खत्म हो चुका है और इसी के मसाले से डंकन के समय बरना का आधुनिक पुल बना था। इस सड़क पर अलईपुर से बरना पार जाने के लिए पुल बन गया है जिससे काशी से सारनाथ का प्राचीन मार्ग फिर से आरम्भ हो गया है।

यात्रियों के आराम पर बनारसवासियों का काफी ध्यान था। वे सड़कों पर जानवरों के लिए पानी का भी प्रबंध करते थे। जातकों में (जा. १७५) एक जगह कहा गया है कि काशी जनपद के राजमार्ग पर एक गहरा कुआं था जिसके पानी तक पहुंचने के लिए कोई साधन न था। उस रास्ते से जो लोग जाते थे वे पुण्य के लिए पानी खींचकर एक द्रोणी भर देते थे जिससे जानवर पानी पी सकें।

यात्रियों के विश्राम के लिये अक्सर चौराहों पर सभाएं बनवायी जाती थीं। इनमें सोने के लिए आसंदी और पानी के घड़े रखे होते थे। इनके चारों ओर दीवारें होती थी और एक ओर फाटक। भीतर जमीन पर बालू बिछी होती थी और ताड़ वृक्षों की कतारें लगी होती थी (जा. १/७९)।

अलबरुनी के समय में (११वीं सदी का आरंभ) बारी (आगरा की एक तहसील) से एक सड़क गंगा के पूर्वी किनारे-किनारे अयोध्या पहुंचती थी। बारी से अयोध्या २५ फरसंग तथा वहां से वाराणसी २० फरसंग था। यहां से गोरखपुर, पटना, मुंगेर होती हुई यह सड़क गंगासागर को चली जाती थी। यही वैशाली वाली प्राचीन सड़क है और इसका उपयोग सल्तनत युग में बहुत होता था।

सड़क-ए-आजम जिसे हम ग्रैण्ड ट्रंक रोड़ कहते हैं, बहुत प्राचीन सड़क है जो मौर्य काल में पुष्पकलावती से पाटलिपुत्र होती हुई ताम्रलिप्ति तक जाती थी। शेरशाह ने इस सड़क का पुन: उद्धार किया, इस पर सरायां बनवाई और डाक का प्रबंध किया। कहते हैं कि यह सड़क-ए-आजम बंगाल में सोनारगांव से सिंध तक जाती थी और इसकी लम्बाई १५०० कोस थी। यह सड़क वाराणसी से होकर जाती थी। इस सड़क की अकबर के समय में काफी उन्नति हुई और शायद उसी काल में मिर्जामुरात और सैयदराज में सराएं बनी। आगरा से पटना तक इस सड़क का वर्णन पीटर मंटी ने १६३२ ईं. में किया है। चहार गुलशन में भी वाराणसी से होकर जाने वाली सड़कों का वर्णन है। एक सड़क दिल्ली-मुरादाबाद बनारस होकर पटना जाती थी और दूसरी आगरा-इलाहाबाद होकर वाराणसी आती थी। इन बड़ी सड़कों के अतिरिक्त बहुत से छोटे-मोटे रास्ते वाराणसी को जौनपुर, गाजीपुर और मिर्जापुर से मिलाते थे।

मुगलों के पतन के बाद वाराणसी की सड़कों को पूरी दुर्गत हो गयी। १७८८ ईं. में बनारस के रेसिडेंट श्री डंकन ने सुझाव दिया कि बनारस की सड़कें बहुत खराब हो गयी हैं और उन्हें अंग्रेज अथवा राजा बनवा दें। १७८१ ईं. में तहसीलदारों को अपने हल्कों में सड़कें ठीक रखने का आदेश हुआ पर इसका कोई खास नतीजा नहीं निकला। १७९३ ईं. में पुन: डंकन ने इस बात की सूचना दी चुंगी और दूसरी मदों से कुछ रुपया निकाल कर सड़कों की मरम्मत करवा दी जाए। उसी समय बनारस से कलकत्ता तक १५ फुट चौड़ी सड़क बनी। १७९४ ईं. में बरना का पुल बना। पर इस सबके होते हुए भी सड़कों की अवस्था विशेष न सुधरी। १८४१ ई. में बोर्ड आॅफ रेवेन्यु ने प्रस्ताव को मानकर एक प्रतिशत मालगुजारी से रोड़ सेस फंड कायम किया गया और तभी से बनारस की सड़कों की क्रमश: उन्नति होने लगी।

वाराणसी के धार्मिक और व्यापारिक प्रभाव का मुख्य कारण इसकी गंगा पर स्थिति होना है। गंगा में बहुत प्राचीन काल से नावें चलती थीं जिनसे काफी व्यापार होता था। वाराणसी से कौशांबी तक जलमार्ग से दूरी ३० योजन दी हुई है। वाराणसी से समुद्र यात्रा भी होती थी। एक जातक (३८४) में कहा गया है कि वाराणसी के कुछ व्यापारियों ने दिसाकाक लेकर समुद्र यात्रा की। यह दिशाकाक समुद्र यात्रा के समय किनारे का पता लगाने के लिए छोड़ा जाता था। कभी-कभी काशी के राजा भी नावों के बेड़ों में (बहुनावासंघाटे) सफर करते थे (जा. ३/३२६)।

वाराणसी की उन्नति का प्रधान कारण नदी-व्यापार कलकत्ते से दिल्ली तक रेल बनने से पूर्व तक बराबर चलता रहा, पर रेल चलते ही बनारस के नदी मार्ग के व्यापार को गहरा धक्का लगा। विजेता भी नदी मार्ग का उपयोग करते थे। अकबर ने गंगा से वाराणसी होकर अफगानों को हराने के लिए पटना की तरफ नाव से प्रस्थान किया था। वाराणसी पर अंग्रेजों का अधिकार होने पर क्रमश: सड़कों की उन्नति होने लगी। जकात-महसूल कम कर दिए गए और स्थल-यात्रा में चोर डाकुओं का भय भी क्रमश: कम होने लगा। इन सब कारणों से भी गंगा नदी का व्यापार क्रमश: कम होने लगा फलत: बनारस की समृद्धि को काफी धक्का पहुंचा। नदी में यातायात की कमी सबसे पहले १८४८ ई. में लक्षित हुई। १८१३ ई. तक तो शहर में अनाज नदी से आता था। इस घटते हुए व्यापार को रोकने के लिए कर लगाकर नदी गहरी करने की योजना भी बनी पर यह सब बेकार गया। स्थल मार्ग से यात्रा नदी की यात्रा से सुखकर और सरल निकली और लोग उसी ओर झुक गए। पुराने कागजातों से पता लगता है कि नदियों पर भी डाकेजनी होती थी। बीमे वालों को ठगने के लिए भी अक्सर नावे डुबा दी जाती थी। इन सब बदमाशियों से रक्षा पाने के लिये १८४९ ई. में योजनाएं बनायी गयी पर उस समय तक तो नदी का व्यापार काफी ढ़ीला पड़ चुका था।

महाजनपद युग में भी गंगा पर घाट चलते थे। घाटों से नाविक यात्रियों को पार ले जाते थे। अवारिय नामक एक वाराणसी के मूर्ख नाविक की कहानी में यह कहा गया है कि वह लोगों को पार पहुंचाकर फिर किराया मांगता था, और बहुधा उसे अपने किराये से हाथ धोना पड़ता था। बोधिसत्व ने उसे उपदेश दिया अपना किराया नदी पार करने के पहले मांगों क्योंकि यात्रियों की चित्रवृति बराबर बदला करती है। (जा. ३/१५२) मुगल युग में भी गंगा और गोमती पर घाट चलते थे। इस समय भी गंगा पर कई घाट हैं जिनमें रामनगर बलुआ और कैथी के घाट खूब चलते हैं। गोमती पर भी कई घाट हैं। बनारस के पास बरना पर तीन घाट हैं। अंग्रेजों की अमलदारी के शुरु में घाटों पर सरकार का कोई अधिकार न था, फिर भी संभवत: घाट चलाने का ठेका होता था। घाट पुश्त-दरपुश्त मॉझियों के अधिकार में होते थे और वे ही उनकी देख-रेख करते थे। १८१७ ई. में बनारस के कलेक्टर को उन पर अधिकार करने की आज्ञा मिली और कर सरकार को जमा करने को कहा गया पर फकीरों और साधुओं को मुफ्त में ले जाने की प्रथा कायम रखी गयी (बनारस गजेटियर, पृ. ७९-८०)।

 

१.

सचाऊ, अलवेरुजीन इंडिया, भा. १, लंदन, १९१०, पृ. २००-२०१

२.

कानूनगो, शेरशाह, ३९३-३९५।

३.

दि ट्रेवल्स आॅफ पीटर मंडी, टेंपुल द्वारा संपादित, भा. २, ७९ इत्यादि।

४.

सरकार, इंडिया आॅफ औरंगजेब, कलकत्ता, १९०७।

५.

मञ्झिम निकाय, अट्ठकथा, भा. २, ९२९।

वाराणसी वैभव


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