वाराणसी वैभव या काशी वैभव

काशी की कला : एक ऐतिहासिक विवेचना


काशी की सभ्यता का इतिहास अत्यन्त प्राचीन है। महाजनपद युग में यहां की सभ्यता काफी विकसित हो चुकी थी। पर इस युग की सभ्यता के बाह्म प्रतीक कला का जिसमें मूर्तिकला, तक्षण, वास्तु इत्यादि सम्मिलित है, हमें कुछ भी पता नहीं है, इसका एक कारण तो यह है कि अपने देश की जलवायु के कारण लकड़ी, कपड़े और धातु के समान तो प्राय: सभी नष्ट हो चुके हैं। पर इस सभ्यता के अवशेष जो अब भी वैरांट और राजघाट के नीचे दबे पड़े है उनकी विस्तृत रुप एवं वैज्ञानिक ढंग से खोज नहीं हुई है। आशा है, और अधिक खोज वैज्ञानिक ढ्ंग से अध्ययन की जायेगी, जिससे काशी के सांस्कृतिक और राजनैतिक इतिहास पर काफी प्रकाश पड़ेगा। ऐसी खोज का महत्व काशी के लिए ही महत्वपूर्ण नहीं है, सारी भारतीय संस्कृति के लिए भी है क्योंकि उत्तर वैदिक काल से ही कला, शिक्षा और स्वतंत्र विचार शैली के लिए सारे भारतवर्ष में प्रसिद्ध रही है और इसका प्रभाव भारतीय इतिहास की अविच्छिन्न धारा पर बराबर पड़ता रहा है।

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मौर्य और शुंग युग की काशी की कला

काशी के सांस्कृतिक इतिहास पर सम्राट अशोक के आते ही परदा उठने लगता है। मौर्य काल से लेकर बारहवीं सदी तक हम अविच्छिन्न रुप से काशी की कला की क्रमिक उन्नति और अवनति का अध्ययन कर सकते हैं। भारतीय कला के आरंभिक पारखियों का यह विचार था कि भारतीय कला अशोक के समय अपनी चरमवस्था को पहुंच चकी थी और उसके बाद उसकी क्रमश: अवनति होती गयी पर अब इस विचार को विद्वान् नहीं मानते। हमें तो भारतीय कला के क्रमिक विकास की एक अटूट धारा दीख पड़ती है। भारतीय कलाकार अपनी कला में सौष्ठव लाने के बराबर प्रयत्नशील थे और कारीगरी के नियमों का पालन करते हुए अपनी कला में सभी युगों में एक नवीनता देने का प्रयत्न करते रहे। भारतीय कला के क्रमिक विकास की कहानी हम सारनाथ से मिली मूर्तियों के द्वारा भली-भांति जान सकते हैं। इसका कारण यह है कि जिस दिन से सम्राज अशोक ने सारनाथ को बौद्धों का एक प्रसिद्ध धार्मिक क्षेत्र बनाया उसी दिन से ११९४ ई. तक जब मुसलमानों ने सारनाथ को जमीनदोज कर दिया। भारतीय कला के विकास की सब सीढियों का हम वहां अध्ययन कर सकते हैं।। खास वाराणसी शहर के अन्दर भी कला उन्नतिशील थी। इसके कुछ उदाहरण भारत कलाभवन, काशी हिन्दु विश्वविद्यालय में देखे जा सकते हैं।

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सारनाथ से मिली मौर्यकालीन मूर्तियों में सबसे प्रसिद्ध और कला की दृष्टि से सबसे सुन्दर अशोक स्तंभ का शीर्षक है। इसकी सात फुट है और इसका आकार उत्फुल्ल कमल जैसा है जिसे घंटाकृति भी कहा गया है। कमल की पंखड़ियां खरबूजिया है। कमल नाल के स्थान पर गोल कंठा है और उसके ऊपर एक गोल पटिया, इसके ऊपर गोल शीर्षपट्ट (फलक) है जिसके ऊपर पृष्टासक्त चार सिंह आकृतियाँ धर्मचक्र को, जो अब टूट गया है, वहन करती थीं। इन सिंहों के मुख खुले हैं और जिह्मवाएं बाहर लपलपा रही है। इनकी सुगठित शिराएं तथा सुरचित अयाल बहुत ही सुन्दर दिखलाये गये हैं। शीर्षप पर एक हाथी, एक वृषभ, एक भागता हुआ घोड़ा और एक सिंह के अर्ध चित्र बने है। इसमें संदेह नहीं कि कला और कारीगरी के दृष्टि से यह स्तंभ-शीर्षक भारतीय कला के क्षेत्र में बेजोड़ है।

शीर्षपट्ट पर जो पशु मूर्तियां बनी है, उनके लाक्षणिक अर्थों के बारे में भिन्न-भिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत है। श्री बेल उन्हें अनोत्तत सरोवर के चारों किनारे पर रहने वाले पशुओं का प्रतीक मानते हैं। डॉ. ब्लाख के अनुसार ये चारों पशु इंद्र, शिव, सूर्य और दुर्गा के हैं और इनके अशोक-स्तंभ पर चित्रण से यह तात्पर्य निकलता है कि ये तीनों देव और एक देवी बुद्ध और उनके धर्म के शरणागत हो गये थे। डॉ. फोगेल इन पशुओं को केवल आलंकारिक मानते हैं। राय बहादुर दयाराम साहनी इस स्तंभ शीर्षक में बौद्ध धर्मग्रंथों के अनोत्तत सर की छाया देखते हैं और श्री बी. मजुमदार इस शीर्षपट पर आए लक्षणों को कुछ और ही मानते हैं जो संभवत: काफी ठीक मालूम पड़ता है। तथा-कथित घंटाकार शीर्षक उनकी राय में कमल का द्योतक है क्योंकि बौद्ध साहित्य में बुद्ध आसनस्थ होकर ध्यानमग्न होते थे और कमल मायादेवी के गर्भ का भी प्रतीक है। शीर्षप पर आए चार पशु उनको अलग करते हुए २४ आरों वाले ४ चक्रों को भी वे अलग-अलग लाक्षणिक अर्थ देते हैं। चारों पशु शायद बुद्ध के जीवन की मुख्य घटनाओं के लाक्षणिक रुप में प्रतीत है। हाथी उनके गर्भ-प्रवेश का, वृषभ इनकी राशि का दौड़ता घोड़ा उनके महाभिनिष्क्रमण का और सिंह उनके शाक्य सिंह होने के प्रतीक है। २४ सरों वाले २४ बौद्ध होने के प्रतीक हैं। मूर्ध-स्थित चारों सिंह शायद शाक्य सिंह के महान् विक्रम की चारों दिशाओं में बड़ाई उद्घोषित करते हुए बौद्ध भिक्षुओं के प्रतीक है। इन लक्षणों का बौद्ध धर्म से संबंध स्वीकार करते हुए यह कहना पड़ेगा कि ये लक्षण काफी प्राचीन है। जैसा डॉ. कुमारस्वामी का मत है, इनका ठीक अर्थ समझने के लिए वैदिक साहित्य का आश्रय आवश्यक है। भारतीय कला के पारखी पाश्चात्य आचार्यों को और सारनाथ के इस स्तंभ-शीर्षक को एक विदेशी की कृति मानते हैं। हां, इतना तो वे अवश्य कहते हैं कि इसके बनाने में कुछ छीलछाल करने में शायद भारतीय कारीगरों का भी हाथ रहा हो (कैब्रिज हिस्ट्री, पृ. ६२१-६२२)। इस उत्पत्ति में पश्चिमी विद्वानों का इतना दोष नहीं है जितना उनके उस दृष्टिकोण का जिसके द्वारा वे भारती संस्कृति के प्राय: हर अंग में ईरान और युनान की छाया देखते हैं। जैसा डा. कुमारस्वामी ने बतलाया है कि जो अलंकार अशोक के स्तंभों पर आये हैं वे ईरान के न होकर असीरिया के हैं, फिर यह क्यों न कहा जाय कि मौर्य युग की कला का प्रभाव है। बलख द्वारा प्रचारित जिस यूनानी कला की बात की जाती है कम-से-कम उसका एक भी प्राचीन नमूना अभी तक नहीं मिला है। फिर हम कैसे समझ ले कि उस कला का जिसका हमें अभी तक पता नहीं है, मौर्य कला पर प्रभाव था। बात यह है कि पश्चिमी एशिया कुछ तरह के अलंकरणों का खजाना था, जिससे प्राचीनकाल में भारतीय और ईरानियों के समान रुप से कुछ अलंकरण ग्रहण किये। अभाग्यवश भारत की आरंभिक कला के नमूने लकड़ी पर बने होने के कारण बिलकुल नष्ट हो गए और ईरान में पत्थर पर बने होने के कारण बच गए, पर केवल यह भी न मान लेना चाहिए कि भारतीय कला ने ईरान से कुछ ग्रहण किया ही नहीं। भारतीय संस्कृति की समन्वय की ओर बहुत प्राचीन काल से प्रवृति रही है। बाहर से अच्छी चीजों को लेने पर उन्हें भारतीयता के रंग-मे-रंग देना हमारी संस्कृति की विशेषता रही है और इस प्रवृति के अनुसार उसने ईरान, युनान, मध्य एशिया सबसे कुछ-न-कुछ ग्रहण किया पर ढ़ांचा उन्हें दिया भारतीयता का। अशोक का सारनाथ वाला स्तंभ-शीर्षक भी इसी प्रवृति का द्योतक है। हो सकता है कि इसकी बनावट में ईरानी कारीगरों से मदद ली गयी हो पर इसमें संदेह नहीं कि इसके निर्माण का कार्य भारतीयों ने किया क्योंकि इसकी बनावट से पूर्ण भारतीयता टपकती है जिसे विदेशी कारीगर थोड़े दिनों में ही आत्मसात् नहीं कर सकते थे, वह तभी आ सकती है जब कलाकार का भूमि से साक्षात् संबंध हो।

सारनाथ से मौर्य युग के अंतिम काल के अथवा शुंग युग के कुछ सिर भी मिले हैं जिन पर पालिश है, शायद उन पर कुछ यूनानी प्रभाव भी लक्षित है। इनमें एक सिर के भरे हुए गाल है, छोटी नाक और छोटा मुंह, नीचे का ओंठ मोटा है, आंखे चपटी और खुली हुई है और बड़ी-बड़ी मूंछें दोनों ओर घूमी हुई हैं। लगता है यह सिर मौर्य-शुंग युग के किसी बनारसी सेठ के सिर की प्रतिकृति है। एक दूसरे सर पर भारी भरकम पगड़ी है। उसका चेहरा घुटा हुआ है। लम्बी और संकरपारे की आकार की आंखें हैं, सीधी नाक है, स्वभाविक से ओंठ हैं और गोल ठुड्डी है। सारनाथ से इस युग की शुंगकालीन भारी भरकम शिरोवस्र है। सारनाथ से मिली हुई कोर की हुई स्री की एक खंडित मूर्ति कला की दृष्टि से बड़ी ही सुन्दर है। स्री बैठी हुई है और उसका दाहिना पैर मुड़ा हुआ है। उसकी कमर से एक भारी करधनी और उसके हाथों में एक कंकण है। एक दूसरी जगह पत्थर मे खचित स्री की एक मूर्ति है। उसका सिर घुटने पर पड़े हाथों पर पड़े झुका हुआ है और ऐसा मालूम पड़ता है जैसे वह किसी गहरे शोक में निमग्न हो।

वाराणसी में मौर्यकालीन कला अवशेषों का वर्णन करते हुए हम राजघाट से मिले कुछ चकियों की ओर ध्यान दिला देना चाहते हैं जो मौर्य कला के श्रेष्ठ उदाहरण होने के साथ-ही-साथ वाराणसी के धार्मिक इतिहास के लिए भी बड़ी उपयोगी है। ऐसी चकिएं तक्षशिला, कोसम, संकिसा, सहेत-महेत, पाटलिपुत्र, वैशाली इत्यादि से भी मिली है। हथियल (तक्षशिला) से मिली चकिया पालिशदार पत्थर की बनी है और इसका ऊपरी भाग समकेन्द्र वृत्तों में बंटा है, जिसमें सथिया तथा डोरी के अलंकरण हैं। चक्र के छिद्र के पास चार नंगी देवियां है, उनके बीच-बीच में हनीसकल के फूल हैं। राजघाट के कुछ परेवा पत्थर की टूटी हुई चकियों में से कुछ के ऊपरी भाग के बगल में एक ताल-वृक्ष के पास एक घोड़ा बना है और उसके बाद एक देवी बनी है जिसके दाहिने हाथ में एक पक्षी है। इसके बाद लंबे कान और छोटी दुमवाला एक पशु, एक बगला, फिर देवी, इसके बाद पुन: ताल का पेड़, एक पक्षी, एक छोटा चक्र, पुन: देवी, इसके बाद समक्ष जन्तु और अन्त में एक बगल जिसके पैर के पास एक केक़ड़े जैसा कोई जीव है। इस तरह लक्षणों के साथ देवी तीन बार आती है। इस चकिए और तक्षशिला के चकिए में इतना अन्तर है कि राजघाट के चकिए में अलंकरण ऊपरी भाग में आता है और चकिए के बीच में कोई छेद नहीं है, पर तक्षशिला के चकिए में ढ़ालुएं भाग पर अलंकरण बने हैं और उसमें बीच में छेद भी है। पर इसमें संदेह नहीं है कि राजघाट वाले चकिए का वही समय है जो तक्षशिला इत्यादि से मिली चकियों का। भारत कला भवन में एक दूसरा टूटा हुआ छेददार चकिया है। इसमें छेद के पास हाथ फैलाए हुए दो देवियां है जिनके बीच में शायद हनीसकल है। चकिए के समतल भाग में डोरीदार अलंकरण के बीच बन्दर की शक्ल के दो जीव एक लता पकड़े है और उनके बीच में एक मगर है। चकिए के समतल भाग पर घिसा हुआ ब्राह्मी में एक लेख है जो ठीक तरह से पढ़ा नहीं जाता। भारत कला भवन में कोसम से आयी हुई एक टूटी चकिया में भी ब्राह्मी का एक लेख है जो ठीक तरह से नहीं पढ़ा जा सका है। इस चकिए के छेद के पास अलंकार की दो पट्टियां हैं। एक पट्टी में एक उमेठे रस्से वाले अलंकार के नीचे मगरों की एक श्रेणी है, और दूसरी पट्टी में ताल-वृक्ष के बीच में देवी है। डॉ. जितेन्द्रनाथ का मत है कि इस सब चक्रों का किसी धर्म विशेष से संबंध है। वे इनकी तुलना सिंधु-सभ्यता की नालों, शाक्तों के यंत्रों, वैष्णवों वे विष्णु-पट्टों और जैनों के आयाग-पट्टों से करते हैं। पर इन चकियों की समता बाद में शाक्त धर्म के चक्रों और यंत्रों से कहीं अधिक है। मार्शल के शब्द में इन नालों के इतने छोटे होने से शायद प्रयोजन चढ़ावे के लिए था। इनपर नंगी माता की मूर्ति बड़ी ही खूबसूरती और सावधानी के साथ खोदी गयी है। बीच में छिद्र के साथ इसका सामीप्य इसका संबंध योनि से स्थापित करता है। जो भी हो इन चकियों से तो यह सिद्ध हो जाता है कि मौर्य-युग और उसके बाद भी उत्तर भारत के और केन्द्रों की भांति वाराणसी एवं कौशांबी में भी माता की पूजा प्रचलित थी। बनारस में तो माता की यह प्राचीन पूजा अब भी प्रचलित है, यद्यपि कालान्तर में उसमें बहुत परिवर्तन हुए हैं।

जान पड़ता है कि सातवाहन युग में भी सारनाथ की कला की उन्नति होती रही। इस युग की एक वेदिका के बाहर स्तंभ स्टेन कोनों और मार्शल को मिले। इस स्तंभों पर निम्नलिखित नक्काशियां दिख पड़ती है -

१.

सज्जित वेदिका युक्त पीपल का वृक्ष,

२.

त्रिरत्न जो बुद्ध, धर्म और संघ का प्रतीक है, धर्मचक्र के साथ एक स्तंभ पर स्थित,

३.

स्तूप दोहरी वेदिका, छत्र, बंदनवार और मालाओं से सजा हुआ,

४.

पर्णशाला के साथ एक चैत्य

इसके अलावा पूर्णघट, पंजक, नाग इत्यादि की भी आकृतियां आती है। सांची और बौद्ध गया में आये अलंकरणों से इनकी तुलना की जा सकती है। सारनाथ और उज्जैन से उस समय संपर्क था जैसा हमें हिंद-पर्सिपोलिस शैली के कुछ स्तंभों के शीर्ष-पट्टों के टुकड़े के मौर्यकालन ब्राह्मी के लिखे लेखों से लगता है। (मजूमदार, ए गाइड दु सारनाथ, पृ. ५०)। बहुत संभावना है कि शुंगकालीन सारनाथ की कला पर विदिशा का प्रभाव पड़ा हो।

आन्ध्र युग अर्थात् पहली शताब्दी ईसा पूर्व का एक स्तंभ-शीर्षक मार्शल को सारनाथ से मिला था। शीर्षक की एक तरफ एक घुड़सवार है और दूसरी तरफ एक हाथी जिस पर दो महावत है। शीर्षक के कोने पेचकदार है और बाकि जगह में हनीसकल और पंजक बने है। (केटलॉग आफ दी म्यूजियम आॅफ आर्कियालाजी - सारनाथ, पृ. १४६)।

राजघाट की खुदाई से शुंग और आंध्रकालीन कोई प्रस्तरमूर्ति तो नहीं मिली है, पर ईसा पूर्व पहली और दूसरी शताब्दी के मिट्टी के खिलौने अवश्य मिले हैं। यहां से मिली शुंग मूर्तियों के सिर चौड़े, चेहरे चपटे हैं। स्रियों के सिर पर भारी भरकम शिरोभूषा भी मिलती है। गार्डेन के अनुसार वाराणसी से निकली ठप्पे की ढ़ली ऐसी स्रियों की मृण्मूर्तियों का समय करीब ४० ई. पूर्व का है और ऐसी मूर्तियां मथुरा से वाराणसी या उसके और भी पूरब बसाढ़ तक मिलती है। मृण्मूर्तियों के संबंध में हम पाठकों का ध्यान उस खोदे पहले हुए सिर की और दिला देना चाहते हैं जो सारनाथ से मिला है। इसमें कोई संदेह नहीं कि किसी यूनानी सिपाही का सिर मालूम पड़ता है और शायद ईसा से पूर्व दूसरी शताब्दी का हो। पाटलीपुत्र से भी कुछ ऐसी ही मृण्मूर्तियां मिली हैं जिन पर विदेशी प्रभाव स्पष्ट है।

राजघाट से मिली स्फटिक का बना एक स्री का सिर, हाथीदांत की बना एक कंघी, शंख की और हाथीदांत की चूड़ियां यह बतलाती है कि शुंग युग में पत्थर काटने, हाथीदांत के काम इत्यादि के व्यावसायों की काफी उन्नति थी।

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सातवाहन, कुषाण और मद्यकाल में काशी की कला

जैसा कि मौर्य और शुंग की कला का संबंध तत्कालीन भरहुत, सांची और बोधगया की कला से था। हम यह तो ठीक-ठीक कह नहीं सकते कि इस युग की मूर्तियां, स्तंभ इत्यादि काशी के कारीगरों की कृतियां है अथवा नहीं, पर इसमें शक नहीं कि इसमें काशी के कारीगरों का काफी हाथ रहा होगा, क्योंकि हमें जातकों से पता है कि महा-जनपद युग में भी वाराणसी में काठ का काम बहुत सुन्दर बनता था और वहां पत्थर का काम करने वाले भी थे।

कुषाण युग में काशी की कला को विशेष प्रोत्साहन मिला और इस प्रोत्साहन का स्रोत मथुरा की कला रही होगी। मौर्य, शुंग और आंध्रकाल में अर्थात् ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी से पहली शताब्दी तक भारतीय कला में हम बुद्ध का मूर्त रुप नहीं पाते। बुद्ध को सबसे पहले किसने मूर्त रुप दिया, प्रश्न विवादास्पद है। कुछ विद्वानों का मत है कि बुद्ध-मूर्ति गंधार के यूनानी-पाह्मलीक कारीगरों की कृति थी और यह पेशावर से होती हुई मथुरा पहुंची और बाद में गंगा के मैदान के और केन्द्रों में भी इसका प्रसार हुआ। डॉ. कुमार स्वामी का मत है कि बुद्ध-मूर्ति की भावना भारतीय है और बुद्ध को मूर्त-रुप देने का विचार शायद प्राचीन यक्ष मूर्तियों को देखकर हुआ होगा और यही बात अधिक संभव मालूम पड़ती है जो कुछ भी हो, इस बात में अधिक संदेह नहीं है कि बुद्ध-मूर्ति का प्रसार मथुरा से मध्यदेश के दूसरे केन्द्रों में हुआ। इसका प्रमाण हमें सारनाथ से मिली कुषाण युग की कई मूर्तियों से मिलता है।

१९०५ ई. में श्री ओएरटेल को सारनाथ से बुद्ध की एक विशाल मूर्ति मिली। इसके पादपीठ के एक लेख से पता चलता है कि मूर्ति बोधिसत्व अर्थात अर्हत् होने के पहले शाक्य मुनि की है। पैरो के बीच में एक सिंह की मूर्ति से शायद बुद्ध की एक पदवी शाक्य सिंह की ओर संकेत करती है। यह मूर्ति कनिष्क के राज्यकाल के तीसरे वर्ष में अर्थात् ८१ ई. में बनी। डॉ. फ्रोगेल की राय में दो बातें ऐसी हैं जिनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि यह मूर्ति मथुरा में जो कुषाण काल में मूर्ति-कला का एक बहुत बड़ा केन्द्र था, बनी-यथा, यह मूर्ति चुनारी पत्थर की न होकर जिसमें सारनाथ की और मूर्तियां बनी है, मथुरा के लाल पत्थर की है तथा मूर्ति के दाता भिक्षु बल का पता हमें खास मथुरा से मिली एक मूर्ति से भी लगता है। इसलिए यह मान लेने की काफी गुंजाइश है कि बुद्ध मूर्ति कुषाण युग में मथुरा से काशी आयी।

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अब यदि हम भिक्षु बल वाली बुद्ध की मूर्ति से चुनार पत्थर की बनी एक दूसरी मूर्ति की तुलना करें तो हमें पता लगेगा कि किस तरह वाराणसी कारीगर शाक्यमुनि की इस नयी मूर्ति की नकल करने की कोशिश कर रहे थे। पहले इन दोनों मूर्तियों का थोड़ा-सा विवरण देना उचित है। भिक्षु बल वाली बुद्ध प्रतिमा की ८ / २ंची फुट और कंधों पर चौड़ाई १ फुट १० ईंच है। टूटा हुआ दाहिना हाथ अभय मुद्रा में था। इसकी हथेली पर चक्र और अंगुलियों पर स्वास्तिक बने हैं। मुट्ठी बांधा बायां हाथ कमर पर है। वस्रों में अन्तरवासक उत्तरासंग और मेखला है। सिर टूट-फूट गया है और मुड़ा हुआ है। ऊर्णा नहीं है। जान पड़ता है सिर पर कभी उष्णीष था। एक समय चेहरे के चारों ओर प्रभामंडल था। पैरों के बीच में एक सिंह है। मूर्ति की रक्षा के लिए उसके ऊपर एक छत्र था, इसके ८ टुकड़े मिले हैं। इस छत्र का व्यास १५ फुल है। इसके बीच का भाग उत्फुलल कमल के आकार का है, उसके चारों ओर पट्टीनुमा चौकोर स्थानों में अलौकिक पशु और चंदे है। दूसरी पट्टी में अष्ट मांगलिक लक्षण, त्रिरत्न, मत्स्ययुगल, श्रीवत्स, पूर्णघट, शंख, स्वस्तिक, मोदकभरा कटोरा और दोनों में माला, बीच-बीच में पंचागुलकों से अगल किये गए हैं। सबसे बाहरी पट्टी में कमल की पंखड़ियां हैं और यह पट्टी उपर्युक्त पट्टियों द्वारा दोहरी मालाओं से जिसके बीच-बीच में फुल्ले है, अलग की गयी है। बोधिसत्व की एक दूसरी कोर की हुई मूर्ति ६ फुट है। उसका दाहिना हाथ जो अभयमुद्रा में था टूट गया है और सिर का भी पता नहीं है। बांए हाथ कमर पर मुट्ठी बंधी है। कपड़ों का अंकन भिक्षु वाली मूर्ति से मिलता है। इससे डॉ. फोगेल का अनुमान है कि इस मूर्ति को वाराणसी के किसी कारीगर ने भिक्षु बलवाली मूर्ति का आधार लेकर बनाया।

सिर-विहिन एक बोधिसत्व की ७ फुल ६ / २ंची ईंच मूर्ति में शैली और भूषा तो उपर्युक्त मूर्ति की ही तरह है, लेकिन कपड़े की सिलवटें जो पहली मूर्ति में टूटी-फूटी रेखाओं में परिणत हो गयी थी इस मूर्ति में नहीं है। इससे डॉ. फोगेल का अनुमान है कि यह मूर्ति कुषाण से गुप्त युग के संग्रमण काल की है क्योंकि गुप्तकाल में सिलवटें समाप्त हो जाती है।

भिक्षु बल वाली बोधिसत्व की मूर्ति और चुनारी पत्थर की बनी एक दूसरी मूर्ति का मिलान करने पर हमें पता चलता है कि किस तरह से वाराणसी के मूर्तिकार मथुरा से आयी नयी मूर्ति की नकल करने का प्रयत्न कर रहे थे। पर नमूना और उसकी नकल का कला की दृष्टि से विशेष महत्व नहीं है। इन मूर्तियों की बनावट में एक चर्रापन है तथा उनमें लावण्य योजना और भाव की भी कमी है। पर मूर्तिकला की यह कमजोरी हम छत्र में बने अलंकारों में नहीं पाते। संभवत: वाराणसी के कारीगर नक्काशी के काम में बहुत प्रवीण थे। भिक्षु बल वाली बुद्ध मूर्ति और दूसरी कुषाण कालीन बुद्ध मूर्तियों पर भी सारनाथ में पत्थर की छतरियों के होने से डॉ. फोगोल का अनुमान है कि उन दिनों मंदिरों की प्रथा नहीं थी और शायद इस प्रथा का गुप्तकाल में आरम्भ हुआ। पर जैसा पहले कह आए है वाराणसी में इसी काल में एक मंदिर का भग्नावशेष मिला है और इसलिए यह कहना ठीक न होगा कि उस समय मंदिर थे ही नहीं। तत्कालीन बौद्ध और जैन साहित्य में यक्षों और नागों के तो अनेक मंदिर या चैत्यों के उल्लेख आये हैं।

वाराणसी में कुषाण युग में यक्षों और नागों की मूर्तियां भी बनती थी और ऐसी दो मूर्तियां कला भवन में है, पर कला की दृष्टि से इनका विशेष महत्व नहीं है। राजघाट से कुषाण युग की मिट्टी की बहुत-सी मूर्तियां भी मिली हैं। इनमें से एक में पूजा के लिए मिट्टी का तालाब बना है, जिसमें मनुष्यों, चिड़ियों, सर्पों की भद्दी शकलें और सीढियां बनी है। संभवत: ऐसे तालाबों का संबंध किसी प्रचलित धार्मिक विश्वास से था। अब भी वाराणसी में जन्माष्टमी से दो दिन पहले ललही छठ का त्योहार मनाया जाता है, जिसकी पूजा में कुछ ऐसी ही शकलें और तालाब बनाया जाता है। राजघाट के कुषाण स्तर से मिट्टी के सुन्दर खिलौनो के साथ-साथ कुछ भद्दे प्राचीन शैली के खिलौने भी मिले है, इनमें कुछ में तो शरीर की रेखा मात्र दिख पड़ती है, कुछ के बदन चपटे हैं उनकी नाक चोंच की तरह है और पैर कीलों की तरह।

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लगभग ३०० ई. से १२०० ई. तक की कला

जैसा कि ऊपर बताया गयी है कि वाराणसी में सर्वप्रथम कनिष्क तीसरे वर्ष में बुद्ध की प्रतिमा आयी और किस तरह से वाराणसी के कारीगरों ने दूसरी और तीसरी शताब्दियों में स्थानीय कला के अनुरुप एक नयी कला का सृजन आरंभ किया। वाराणसी की इस नयी कला ने करीब ६०० वर्षों के अनवरत परिश्रम के बाद गुप्त युग (३००-६०० ई.) में एक अपूर्व रुप ग्रहण किया। इस काल में आध्यात्मिकता और लावण्य-व्यंजना का एक ऐसा आकर्षक सम्मिश्रण है जैसे और किसी युग की कला में नहीं दिख पड़ता। गुप्त युग में रुप भेद, प्रमाण, भाव, लावण्य और सादृश्य तो कला के गुण हैं ही, पर इन सबसे ऊपर इस कला में उस अपूर्व अध्यात्मिक सौंदर्य की अभिव्यक्त है जो योग द्वारा ही अनुभूत हो सकती है। अगर हम यों कहें कि भारतीय कला के इतिहास की अनेक धाराओं का गुप्त काल में अपूर्व सम्मिश्रण है तो ठीक ही होता। इस कला ने भरहुत और सांची से अलंकार प्रेम, मथुरा की कुषाण कला से गुरु-गंभीरता और ब्राह्म सौन्दर्य की ओर अनुरक्ति और अमरावति से अपूर्व संचरणशीलता ग्रहण की और फिर इसमें से कुछ-कुछ लेकर अपने ढंग पर कला को एक नया रुप दिया। इस कला का दायरा किसी क्षेत्र-विशेष तक संकुचित नहीं रहा। मथुरा, सारनाथ, देवगढ़, मालवा इत्यादि में वह फली-फूली अवश्य, पर उसका विस्तार सारे देश में ही क्या बृहत्तर भारत में भी हुआ।

गुप्त-युग में कला से पता चलता है कि उस युग में कला का क्षेत्र कुछ सौंदर्यपासकों तक ही सीमित नहीं रह गया था, अगर ऐसा होता तो गुप्त कला फलफूल नहीं सकती थी। ऐसा जान पड़ता है कि इस युग में आम जनता की सौंदर्य-भावना काफी विकसित हो चुकी थी। गुप्त-युग के गहने, कपड़े, सज्जा के सामान यहां तक कि मामूली मिट्टी के बर्तन और खिलौनें भी उस युग की अपूर्व परिष्कृत रुचि का पता लगता है, जिसका नागरिक बहुत प्राचीन काल में बड़े ही सुरुचिसम्पन्न रहे हैं और कला के प्रति सर्वदा से प्रेम रहा है। इस प्रकार से हम देख सकते हैं कि सारनाथ और राजघाट से मिली कलात्मक वस्तुओं का मूल कारण गुप्त-युग के वाराणसी में नागरिकों का कला प्रेम, धर्म के प्रति दृढ़ आस्था और भरपूर आर्थिक उन्नति का अपूर्व सम्मिश्रण था।

सारनाथ से मिली बुद्ध मूर्तियों का मूल तो भिक्षुबल वाली कुषाण मूर्ति ही है लेकिन गुप्तकालीन और कुषाणकालीन प्रतिमाओं का कोई मुकाबला नहीं किया जा सकता। गुप्तकालीन प्रतिमाओं में कुषाण युग की प्रतिमाओं की गुरुता, भद्देपन और कमजोर बनावट का सर्वथा अभाव है और इनकी वजह एक अपूर्व कोमलता, अध्यात्मिकता और आनंदातिरेक जनिक मंद स्मित का हम दर्शन करते हैं। कुषाण मूर्तियों की तरह सारनाथ की गुप्त कालीन मूर्तियों में हम वस्रों का अंकन नहीं देखते, इसकी जगह वस्रों की प्रांत-रेखाओं से ही काम निकाल लिया जाता है। लेकिन गुप्त प्रतिमाओं में कुषाणकालीन सादे प्रभा मंडलों की जगह हम पुष्प-पत्रालंकृत प्रभामंडल पाते हैं।

सारनाथ से मिली गुप्तकालीन मूर्तियों में सबसे सुन्दर बुद्ध की एक मूर्ति है। सिंहासन पर पद्यासनस्थ बुद्ध धर्मचक्र प्रवर्तन मुद्रा में बैठे हैं, पीछे प्रभामंडल है। नीचे पीठ पर दो हिरनों के बीच में एक चक्र है और उसके दोनों ओर पंचवर्गीय भिक्षु और शायद एक दाता अंकित है। मूर्ति में एक अपूर्व आध्यात्मिक सौंदर्य की झलक मिलती है और गढ़न में तो यह अपूर्व है ही।

गुप्त-युग में बुद्ध मूर्ति का प्रभाव बढ़ जाने के फलस्वरुप पहले जो बुद्ध जीवन से संबंध रखने वाले अर्द्धचित्र बुद्ध प्रतिमा के साथ होते थे, वे क्रमश: छोटे होने लगे और उनका प्रयोग केवल यह बताने के लिए होने लगा कि किसी विशेष घटना से मूर्ति सा क्या संबंध था।

गुप्त-युग में सारनाथ में बोधिसत्व-पूजा का बहुत चलन था और इसके फलस्वरुप मैत्रेय और अवलोकितेश्वर की सुन्दर प्रतिमाएं मिलती है। अवलोकितेश्वर की एक बड़ी ही सुन्दर मूर्ति के मुकुट में अमिताभ के दर्शन होते हैं। कभी-कभी इसके फैले हाथ के नीचे सूचीमुख प्रेत होता है जो अवलोकितेश्वर की अंगुलियों से झरती हुई अमृत की बूंदें ग्रहण करता है। इस मूर्ति पर गुप्ताक्षरों में एक लेख है जिससे पता चलता है कि मूर्ति किसी विषयपति ने बनवायी थी। गुप्तयुग की तारा की भी एक बहुत सुन्दर मूर्ति सारनाथ से मिली है।

सारनाथ से गुप्तकालीन बहुत से बोद्ध अर्धचित्र भी मिले हैं। एक ऊर्ध्वपट पर जिनमें चार खाने हैं, बुद्ध के जीवन की चार मुख्य घटनाओं के, यथा जन्म, बोधि, धर्मचक्र प्रवर्तन और महापरिनिर्वाण के दृश्य अंकित है। इस पर एक लेख के अक्षरों से पता चलता है कि इसका समय पांचवी सदी है। एक दूसरे ऊर्ध्वपट पर तीन खण्ड हैं। पहले खण्ड में मायदेवी का स्वप्न, बुद्ध जन्म और सद्य: जात शिशु बुद्ध की नागनन्द और उपनन्द तथा इन्द्र और ब्रह्मा द्वारा अभ्यर्थना है, दूसरे खण्ड में महाभिनिष्क्रमण और गया में बुद्ध के तप के दृश्य हैं, तीसरे खण्ड में मारविजय और महाभिनिष्क्रमण के दृश्य हैं।

सारनाथ से बुद्ध के जीवन की और भी घटनाओं का चित्रण मिला है। श्रावस्ती का चमत्कार जिसमें बुद्ध ने प्रसेनजित के सामने विधर्मियों को छकाने के लिए अपना चमत्कार दिखलाया तथा त्रयर्जिंस्रश स्वर्ग से अपनी माता को उपदेश देने के लिए बुद्ध का उतरना वैसे ही दृश्य है। सारनाथ में जातक के अंकन बहुत कम आए हैं लेकिन क्षान्तिकदिन जातक का गुप्तकालीन अंकन बहुत ही सुन्दर बन पड़ा है इसमें बोधिसत्व से द्वारा कलाबू की नर्तकियों को उपदेश देने पर उन पर कलाबू का अत्याचार दिखलाया गया है।

गुप्त सम्राट परम वैष्णव थे। राजघाट से मिली मुद्राओं से भी पता चलता है कि गुप्त काल में वाराणसी शहर के विष्णु-पूजा का चलन था। अभाग्यवश गुप्त काल की कोई विष्णु की मूर्ति अभी वाराणसी से नहीं मिली है। पर जान पड़ता है कृष्ण की भी पूजा वाराणसी में प्रचलित हो गयी थी। यहां बकरिया कुंड से मिली गोवर्धनधारी कृष्ण की एक बहुत ही सुन्दर गुप्तकालीन मूर्ति भारत कला-भवन में है। मूर्ति के खंडित होने पर भी उसमें एक अपूर्व ओज है।

गुप्त सम्राट कुमार गुप्त कार्तिकेय के उपासक थे। राजघाट से मिली कुछ मुद्राओं से पता चलता है कि गुप्त काल में यहां कार्तिकेय की पूजा होती थी। भारत कला भवन में गुप्तकालीन कार्तिकेय की एक बड़ी ही सुन्दर प्रतिमा है। इसमें कार्तिकेय के बाल्यसुलभ रुप का बड़ा ही चित्राकर्षण अंकन है। कुमारस्वामी की राय में यह मूर्ति गुप्तकाल के सर्वोत्कृष्ट उदाहरणों में एक है।

राजघाट की खुदाई से गुप्तकालीन स्रियों के मिट्टी के शीर्ष सैकड़ों की संख्या में और दूसरी मूर्तियां करीब २००० की संख्या में मिली है। डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल ने इन मृण्मूर्तियों का सांगोपांग अध्ययन किया है। सांचों में ढ़ली ये मूर्तियां गुप्तकाल की सर्वोत्कृष्ट कारीगरी और शैली का द्योतक है। इन सिरों का दो बातों से महत्व है, (१) इनमें अनेक तरह के सुन्दर केश-विन्यास मिलते हैं और (२) इनमें कुछ पर प्राचीन रंगाई के अवशेष मिलते हैं। सामूहिक रुप से ये मृण्मूर्तियां कला की उस ताजगी और गहराई को प्रकट करती है जिनका पता अब तक हमें गुप्तकालीन मृण्मूर्तियों से नहीं मिली था। इनके चेहरों में अंगों की लुनाई के साथ हम अनेक केश-विन्यास पाते हैं, जिन्हें गुप्तकाल का कलापारखी जगत् पसंद करता था।

डॉ. वासुदेवशरण ने इन सिरों पर से निम्नलिखित केश-विन्यास ढूंढ़ निकाले हैं जिनसे पता लगता है कि गुप्त युग में स्री-पुरुष कितने चाव से अपना केश-विन्यास करते थे।

अलक में केश विथि के दोनों और घुंघराली लटें होती थी; बर्हभार में मोर-पंखनुमा होती थी। मधुमक्खी के छत्तेनुमा केशवेश, एक अथवा त्रिशिखंडक केशवेश, एक तरफ पड़ी हुई घुंघराली अलकावली भी केश-विन्यास के प्रकार थे।

राजघाट से देवी-देवताओं की मृण्मूर्तियां कम मिली हैं पर जो थोड़ी-बहुत मिली है, उनमें त्रिनेत्र और अर्धचन्द्र से मंडित शंकर का सिर अतीव सुन्दर है। इस सिर की तुलना भूमरा और खोह की शिव मूर्तियों से की जा सकती है। विष्णु की भी एक टूटी मृण्मूर्ति राजघाट से मिली है।

राजघाट से मिली सबसे सुन्दर मृण्मूर्ति में अशोक प्रेंखिका का पट है। इसमें खूब फूले एक अशोक वृक्ष पर झूला पड़ा है और उस पर एक स्री झूल रही है इस मृण्मूर्ति में एक किन्नर युगल दिखलायें गये हैं। एक दूसरे पट में एक हिरन को घास खिलाता हुआ लुब्धक अंकित है। उसने एक भारी कोट पहन रक्खा है, पर वास्तव में वह नंगा है। उसके दाहिने कंधं पर शायद मोर पंखों का एक भार है।

राजघाट से वादकों की भी कुछ छोटी-छोटी बहुत ही सुन्दर मूर्तियां मिली है। ये मूर्तियां यह बतलाली है कि बहुत ही कम विस्तार में भी गुप्तयुग के कलाकार कितना कमाल दिखला सकते थे।

राजघाट से मिली हुई गुप्तकालीन करकाओं की डोटियों का भी सुन्दर संग्रह कला-भवन में हैं। ये डोटियां मकर या दूसरे पशु-पक्षियों के आकार में होती थी और इनकी कलात्मकता से यह पता लगता है कि वाराणसी के कुम्हार भी बड़े ही कारीगर होते थे और कला की तरफ उनकी पूर्ण अभिरुची थी।

सारनाथ से मिली हुई मूर्तियों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि मध्य युग में सारनाथ में तंत्रयान का काफी जोर था। इन युग में हमें सारनाथ से मंजुश्री, अवलोकितेश्वर, मैत्रेय, यमारि, अमोघसिद्धि इत्यादि की मूर्तियां मिलती है। देवियों में तारा, वसुन्धरा और मारीचि की मूर्तियां मिली है।

मध्य युग में बौद्ध धर्म ने जो रास्ता पकड़ा इसके इतिहास का हमें सारनाथ से मिली बहुत सी मूर्तियों से पता चलता है। इसमें कोई शक नहीं कि इन देवी-देवताओं की पूजा बहुत प्राचीन काल से सर्व-साधारण में प्रचलित थी। हम देख आए हैं कि किस तरह शैवधर्म ने भी इन प्राचीन देवताओं को धीरे-धीरे अपना लिया। बौद्ध धर्म से भी ये लोक देवता बहुत दिनों तक बाहर नहीं रह सके और महायान और बाद में वज्रयान ने उन्हें बुद्ध और बोधिसत्वों के आस-पास ही स्थान दिये। ऐसा ज्ञात होता है कि समन्वय की यह भावना गुप्तकाल में प्रारंभ हुई और शैवों और वज्रयानियों ने इस प्रवृति को समान रुप से ग्रहण किया। इन देवताओं के बौद्ध धर्म में प्रवेश करते ही उसमें विकराल मूर्तियों का आविर्भाव हुआ। ये मूर्तियां शांत और योगनिरत बौद्ध मूर्तियों के बिलकुल विपरीत है। इनका महायान में प्रवेश बौद्ध धर्म के उस पतन का द्योतक है जो तिब्बत के लामा धर्म में जाकर पूर्ण विकसित हो जाता है।

यह ध्यान देने योग्य बात है कि सारनाथ से मिली, ऐसी विकराल मूर्तियां प्राय: मध्यकालीन है। इनके बहुत से हाथ, कभी-कभी अनेक मुख है, जिनमें कुछ पशुओं के भी है। जंभल या वैश्रवण की उस समय पूजा होती थी और इनकी मूर्तियां संधारामों में भी होती थी। जंभल के साथ वसुन्धरा की भी मूर्ति मिलती है। बाहर निकलती आंखें और दांतवाला, तुंदिल तथा नंगे बदन वाला जंभल जमीन पर पड़ी मूर्ति को कुचलता हुआ दिखलाया गया है। इसकी देवी वसुन्धरा जरा कम बदशकल होती है। इस समय की सबसे प्रचलित देवी तारा भी उसका दायां हाथ वरद मुद्रा में होता है और बांए हाथ में निलोत्पल दिखलाया जाता है। तारा की कल्पना एक सुभूषित भारतीय नारी के रुप में होती थी।

वज्रवाराही मारीचि की मूर्ति के तीन सिर होते हैं। जिनमें एक सिर वराह का होता है। इसके हाथों में भिन्न-भिन्न आयुध होते हैं। एक धनुर्धारी की मुद्रा में यह देवी सप्त वराह वाले रथ पर सवार दिखलायी जाती है। शायद ये वराह सप्ताह के सात दिनों के द्योतक है। तिब्बत में आठ दिन तक वज्रवाराही की पूजा होती है।

जैसे-जैसे इन देवी-देवताओं की संख्या बढ़ती जाती है वैसे ही वैसे बुद्ध की प्रतिमा कम होती जाती है और उसी सारनाथ में जहां बुद्ध ने धर्मचक्र प्रवर्तन किया, हम ११वीं शताब्दी में तंत्रयान का बोलबाला पाते हैं। मुहम्मद गौरी के एक ही झटके में यह जीर्ण-शीर्ण धर्म सर्वदा के लिए जमीनदोज हो गया, इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

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१.

श्री बी. मजुमदार, गाइड दू सारनाथ, पृ. ४५-४७, दिल्ली, १९४१।

२.

ए.एस.आर. १९२१-२२, पृ. ६६।

३.

डॉ. जी.एन. बनर्जी, दि डेवलपमेंट आॅफ आइकोनोग्राफी, पृ. १८८।

४.

जॉन मार्शल, मोहेंजोदड़ो, १ पृ. ६२-६३।

५.

केटलॉग आॅफ दी म्यूजियम आॅफ आॅर्कियालाजी, पृ. २०८ इत्यादि।

६.

केटलॉग आॅफ दी म्यूजियम आॅफ आॅर्कियालाजी, पृ.१८।

७.

कृष्णदेव, एम.बी. आॅफ इ.ही., १९४०, पृ. ४१-५१।

८.

केटलॉग आॅफ दी म्यूजियम आॅफ आॅर्कियालाजी, पृ. १४८-१४९।

वाराणसी वैभव


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