बनारस की ताम्रकला 

 

डा. कैलाश कुमार मिश्र


ताम्रकला (उद्योग) का सार्वभौमिक स्वरुपः पचास वर्षों का आंकलन

स्टील तथा अल्यूमिनियम से आए अचानक संकट तथा उसका समाधान

ताम्र कलाकारों का वर्गीकरण

प्रमुख कलाकृतियो के नाम

ताम्र-कलाकारों की आर्थिक स्थिति

ताम्र कलाकारों की समस्या एवं उनके द्वारा बताए गये समाधान

आवासीय समस्या

ताम्रकला को बनाने के लिए प्रयुक्त किये जानेवाले उपकरण (औजार)

 

ताम्रकला (उद्योग) का सार्वभौमिक स्वरुपः पचास वर्षों का आंकलन

घर्मनगरी वाराणसी में पीतल एवं ताम्बे से बने कलात्मक चीजों एवं पात्रों का प्रचलन अन्य उद्योग जैसे साड़ी तथा काष्ठकला के समान ही अति प्राचीन है। इसका मुख्य कारण काशी का पुण्यधाम होना है। जब तीर्थयात्री वनारस आते थे तो वे लोग यहां पर विभिन्न तरह के संस्कार तथा पूजा पाठ में उपयुक्त होने वाले पात्रों को खरीदते थे। कुछ पात्र खरीदकर घर भी ले जाते थे। इन्हीं कारणों से यह उद्योग विकसित तथा पुष्पित होता रहा। यहां के पात्रों की कलात्मकता इतनी अच्छी थी कि इनकी मांग धीरे-धीरे अन्य धार्मिक स्थानों एवं नगरों में भी होने लगी। एक समय ऐसा भी आया जब यहां के अनुष्ठानी पात्र तथा सिहांसन, त्रिशुल, घंटी, घंटा, घुंघरु आदि की मांग देवघर, वृन्दावन, उज्जैन और तो और नेपाल के काठमांडू शहर के पशुपतिनाथ मंदिर के परिसर तक होने लगी। इसी के साथ-साथ धीरे-धीरे यहां के ताम्र कलाकारों ने और भी बहुत से सजावट की वस्तु, घरेलू उद्योग के पात्र, मूर्ति एन्टीक पीस इत्यादि भी बनाना प्रारंभ कर दिया। इससे भी इसका विस्तार होने लगा, तथा जगह-जगह पर इनके द्वारा बनाए गए 'कला-कृतियों' की मांग दिन-प्रतिदिन बढ़ ती गयी।

प्रारंभ में यहां केवल धार्मिक अनुष्ठानों में प्रयुक्त होने वाले पात्रों का निर्माण होता रहा। इन पात्रों में प्रमुख नाम इस प्रकार है:

१.

पंचपात्र

२.

अघ्र्य

३.

आचमन

४.

दीप

५.

फूलों की डालिया (फूलडाली)

६.

घंटी

७.

घंटा

८.

मंगल कलश

९.

त्रिशुल

१०.

लोटा

११.

कमण्डल

१२.

मूर्ति

१३.

झालर

१४.

घुंघरु आदि।

मुसलमानों के भारत आगमन के बाद ताम्र उद्योग (कला) पर भी इस्लाम का प्रभाव पड़ा। परन्तु इस कला ने भी इस्लाम की कला को बहुत ज्यादा प्रभावित किया। धीरे-धीरे यहां के ताम्र-कलाकारों ने मुसलमानों के शादी-विवाह या अन्य उत्सवों में प्रयुक्त होनेवाले नक्काशीयुक्त बर्तन (पात्र), थाल, तरवाना इत्यादि बनाना प्रारंभ किया। पात्रों की कलात्मक में अत्याधिक आकर्षण था। इस कलात्मकता आकर्षण से हिन्दू भी प्रभावित हुए विना नहीं रह सके। धीरे-धीरे हिन्दुओं ने भी इन पात्रों का उपयोग अपने यहां के उत्सवों तथा शादी-विवाह आदि के आयोजनों में करना प्रारम्भ कर दिया।

कालान्तर में मुसलमानों द्वारा व्यावहार में लाया जाने वाला 'बदना' का निर्माण भी पूर्णतः कलात्मक ढंग से काशी के कसेरों ने प्रारंभ किया। 'बदना' में इनके द्वारा निखारा गया कलात्मकता ने सभ्रान्त मुसलमान, यहां तक कि मुगल बादशाहों, रईसों और लखनऊ के नवाबों का भी मन मोह लिया। इनकी कला-क्षमता तथा प्रयोगवादिता से प्रभावित होकर इन लोगों ने काशी के ताम्र कलाकारों को प्रोत्साहित करना शुरु किया। प्रोत्साहन आर्थिक मदत तथा समाजिक मर्यादा या सम्मान दोनों ही रुप में दिया जाता था। ताम्र कलाकार इससे और अधिक प्रोत्साहित होकर एक से एक कलात्मक तथा मनमोहक ताम्र-कलाकृतियों का निर्माण करते रहे। इनकी कलाकृति आश्चर्यजनक, आकर्षक, प्रयोगवादी तथा अपने आप में एक अनूठी चीज थी।

इसके अतिरिक्त वनारस के ताम्र-कलाकारों ने हिन्दू देवी-देवताओं की मूर्तियों का निर्माण प्रारंभ रखा। इस तरह से यहां की ताम्र-कला (उद्योग) तीव्रगति से आगे बढ़ते हुए फलती-फूलती तथा विकसित होती रही। कुछ अंश में स्थानीय लोग तथा बहुतायत में तीर्थयात्रियों द्वारा इन कला-कृतियों की खपत होती रही। रईसों ने भी इनसे अपना सम्पर्क बनाए रखा।

Top

स्टील तथा अल्यूमिनियम से आए अचानक संकट तथा उसका समाधान

सत्तर तथा अस्सी के दशक में बजार में एकाएक स्टील तथा अल्युमिनियम का धमाके के साथ आगमन हुआ। जहां ताम्बे, पीतल, कांसे आदि के बने पात्रों की कीमत दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी वहीं स्टील के बर्तन काफी सस्ते पड़ते थे। चूंकि बर्तनों का निर्माण बड़े बड़े फैक्ट्रियों में किया जाता था अतः स्वाभाविक रुप से इसमें मजदूरी भी मेटल की तुलना में काफी कम लगती थी। कुछ ही वर्षों में इन दोनों चीजों ने खासकर स्टील ने पूरे बाजार पर अपना कब्जा कर लिया। लोग स्टील के उपकरणें के दिवाने होने लगे। स्टील का उपकरण 'आइडेन्टीटी प्राइड' बन गया। फिर क्या था थाली, रसोई के बर्तन, ग्लास, कप और न जाने क्या-क्या चीज स्टील कि बनने लगी। और तो और पूजा के थाल, फूलों की डलिया, कमंण्डल इत्यादि जैसे चीजों का भी निर्माण स्टील से होने लगा। हालांकि यज्ञ-अनुष्ठानों एवं धार्मिक कार्यों के लिए एल्यूमिनियम के बर्तन को अपवित्र माना गया, परन्तु पण्डितों एवं शास्रज्ञों ने बहुत से अनुष्ठानिक क्रिया-कलापों में भी स्टील के पात्र को व्यवहार में लाने की इजाजत लोगों को दे दी। धीरे-धीरे स्थिति इतनी विकराल हो गई कि काशी के विश्वनाथ गली में ताम्रपात्र तथा अनय कलाकृति बेचने वाले ताम्रपात्र कम और स्टील के पात्र अधिक बेचने लगे। एकाएक ऐसा लगने लगा मानो 'ताम्रकला' का नामो-निशान ही मिट जाएगा। इसमें सदियों से लगे 'ताम्र-कलाकार' तथा ताम्र-व्यवसायी दोनों ही काफी परेशान हो गए।

इस घोर विपत्ति के समय इन्होने धैर्य से काम लिया तथा अपने प्रयोगवादी स्वभाव या प्रकृति को पुन जीवित करने के प्रयास में जुट गए। धीरे-धीरे इन्होने अपना ध्यान आकर्षक डिजाइन तथा स्वरुप के एनटीक पीस, गुलदस्ते, शो-पीस, फूलों का गुच्छा, किंरग, बच्चों के खिलौने, धर सजाने के बहुतेरे सजावट की वस्तु, लेम्प, वाल हेंगिंग, काशी के विश्वनाथ मंदिर का नक्काशी, विभिन्न घाटों, गंगा नदी, देवी-देवताओं आदि का प्लेट पर नक्काशी इत्यादि बनाने में लगाना प्रारंभ किया। निर्माण की प्रक्रिया मंद जरुर हुई परन्तु इसका अन्त नहीं हुआ। कलाकारों ने कला की सांस को रुकने नहीं दिया। धीरे-धीरे वाराणसी की ख्याति तथा सारनाथ के ऐतिहासिक महत्त्व से प्रभावित होकर तीर्थयात्रियों तथा धर्मार्थियों के अलावे देशी तथा विदेशी पर्यटक भी यहां बहुत बड़ी संख्या में आने लगे। पर्यटकों के ध्यान को अपनी कला के प्रति आकर्षित करने के लिए यहां के ताम्र कलाकारों ने सारनाथ के सभी ऐतिहासिक दृश्य, महाप्राण भागवान गौतम बुद्ध, महावीर, महाराजा अशोक, अशोक स्तंभ के मुखों वाला सिंह, गंगा घाट इत्यादि का अपने कलात्मक ढंग से निर्माण किया। कला की बारीकी तथा ऐतिहासिक तथ्यों को चित्र में गढ़ना प्रारंभ किया। आज इन कलात्मक वस्तुओं की बाजार में अच्छी खासी मांग है और इससे इन्हें आमदनी भी सही ढंग से हो जाती है।

परिवर्तन के चक्र भी इनके व्यवसाय को जीवित रखने में सहायक सिद्ध हुए हैं। लोग आज पुनः प्राचीन तथा परम्परागत चीजों के प्रति आकर्षित हो रहे हैं। आजकल लोगों का ध्यान प्राकृतिक चिकित्सा, तथा हर्बल चिकित्सा पर भी बढ़ा है। इसी के क्रम में अच्छे डाक्टरों तथा सभ्रान्त एवं पढ़े-लिखे लोगों के घरों में भी ताम्बे-पीतल तथा अन्य धातुओं के बर्तनों का प्रयोग पानी पीने, पानी रखने तथा कभी-कभी भोजन बनाने के पात्रों के रुप में भी किया जा रहा है। दिल्ली के 'अन्नपूर्णा' जैसे होटलों में भी पीने का पानी, ताम्बे के लोटे में रखा जाता है, फिर उसे ग्राहकों को ताम्बे के लोटे से निकालकर ग्लास में दिया जाता है।

हालांकि यह एक तदर्थ बात है कि पिछले पचास वर्षों में विभिन्न कारणों से वाराणसी के 'मेटल वर्करों' की संख्या में कमी आयी है। यह एक आश्चर्यजनक बात है। एक ओर जहां सिल्क साड़ी तथा वस्र उद्योग एवं काष्ठ-कला में कार्यरत लोगों की संख्या में लगातार बृद्धि हो रही है। वहीं ताम्र तथा अन्य मेटल उद्योग में लगे कलाकारों की संख्या में दिन प्रतिदिन ह्यस। निश्चित ही यह एक विचारणीय प्रश्न है।

Top

ताम्र कलाकारों का वर्गीकरण

वाराणसी के ताम्र कलाकारों को मोटे तौर पर चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

१.

रिपोजी या इन्ग्रेवींग करने वाले कलाकार

२.

धार्मिक अनुष्ठान में प्रयुक्त होने वाले पात्रों का निर्माण करने वाले कलाकार

३.

सजावटी समान (एन्टीक पीस) इत्यादि का निर्माण करने वाले कलाकार।

४.

धरेलू बर्तनों का निर्माण करने वाले कलाकार।

ताम्र कलाकारों का एक वर्ग ऐसा भी है जो पुराने ताम्बे के पात्रों को गलाने का काम करता है। ताम्बे को गलाकर फिर उसके केक को पिटउआ बर्तन या पात्र बनाने के लिए ताम्र कलाकारों को ये दे देते हैं।

रिपोजी करने वालों की संख्या लगातार घटती जा रही है। आज मुश्किल से १५ परिवार इस पेशे में लगा हुआ है। रिपोजी करनेवाले लोग पहले बड़े-बड़े रईसों द्वारा प्रयुक्त किये जाने वाले आराम तथा डेकोरेशन के चीजों यथा कुर्सी, पलंग, इत्यादि में नक्काशी तथा रिपोजी का काम करते थे। इसके अलावे मंदिरों के गुम्बद, मस्जिद के मिनार, राजमहलों एवं रईसों के हवेलियों के छत पर भी रिपोजी का काम धातुओं जैसे चांदी, सिल्वर या अन्य चमकदार धातुओं से किया करते थे। हालांकि फर्नीचर पर रिपोजिंग कराने की प्रथा का लगभग अन्त सा हो चुका है, परन्तु मंदिरों इत्यादि के लिए आज भी इन्हें भारत के विभिन्न प्रातों से बुलाया जाता है। कुछ लोग तो नेपाल और श्रीलंका तक भी जाते हैं। चूंकि रिपोजी का काम धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।

कुछ ताम्रकार या ताम्र-कलाकार धार्मिक अनुष्ठान में प्रयुक्त होनेवाले बर्तनों के निर्माण में लगे हुए हैं। इन्हें भी मोटे तौर पर दो भागों में विभक्त किया जा सकता है:

१.

वे जो धातुओं को पीट-पीटकर समान या पात्र बनाते हैं,

२.

वे जो ढलाई के बाद मशीन पर बर्तन अथवा पात्र को गढ़ लेते हैं।

इसी तरह से वाराणसी में ताम्र कलाकारों का एक वर्ग ऐसा है जो बहुत ही कलात्मक वस्तुओं या एन्टिक पीसों के निर्माण में लगा हुआ है। इनके सोच की सीमा असीम है। अपनी कलाकृतियों में चाहे गंगा, नदी, बनारस के घाट, विश्वनाथ मंदिर, भगवान गौतम बुद्ध की आकृति, सारनाथ के ऐतिहासिक अवशेषों का चित्रण कुछ भी क्यों न हो ये बहुत ही बखूबी के इनग्रेविंग के माध्यम से उधेड़ देते हैं। कला आश्चर्यजनक गुण यह है कि इस कला का नकल करना अगर असंभव नहीं तो दुस्कर अवश्य है।

अन्तिम समूह घरेलू समानों जैसे रसोई में प्रयुक्त किये जानेवाले पात्र यथा, लोटा, बदना, कड़ाही, कलछुल, ग्लास इत्यादि के निर्माण में लगे हैं। शादी तथा विवाह के अवसरों पर प्रयुक्त किया जानेवाले मंगल-कलश, प्रतिभोज इत्यादि में प्रयुक्त भोजन के बर्तन इत्यादि का निर्माण भी इन्हीं कलाकारों द्वारा किया जाता है।

इसके अलावा ढलाई के द्वारा जो समान बनाया जाता है उसमें आजकल सेवई बनाने की मशीन इत्यादि को भी बनाने का काम बहुत से कलाकार कर रहे हैं।

Top

प्रमुख कलाकृतियो के नाम

१.

लोटा

२.

कमण्डल

३.

फूलों की डालिया

४.

गंगाजल पात्र (छोटे-छोटे ताम्बे ते लोटों में गंगाजल भर कर फिर उसे सील कर दिसा जाता है। इस पात्र को वाराणसी में आनेवाले तीर्थयात्री खरीदते हैं तथा अपने घर ले जाते हैं। इन पात्रों की सर्वाधिक बिक्री गंगा के विभिन्न घाटों, विश्वनाथ गली इत्यादि जगहों में होता है।)

५.

वरगुणा

६.

अघ्र्य/अरघा

७.

पंचपात्र

८.

घुंघरु

९.

बदना

१०.

पानदान

११.

घंटी

१२.

देवी-देवताओं की मूर्तियां

१३.

विभिन्न एन्टीक पीस

१४.

मंगल कलश

१५.

झूले

१६.

पालना

१७.

तबला

१८.

झालर

१९.

रसोई में प्रयुक्त होने वाले विभिन्न पात्र

२०.

घण्टी

२१.

तरबाना (इसे प्रचलित भाषा में कोपर भी कहा जाता है। शादी विवाह के समय कन्यादान के समय प्रयुक्त किया जानेवाला पात्र।)

२२.

आचमनी।

Top

ताम्र-कलाकारों की आर्थिक स्थिति

अगर वाराणसी के ताम्र-कलाकारों के आर्थिक स्थिति की तुलना काष्ठ तथा वस्र उद्योग में लगे हस्त शिल्पियों से करें तो इन्हें कमजोर कहा जा सकता है। ये आर्थिक रुप से काष्ठ तथा वस्र उद्योग में लगे शिल्पियों से थोड़े दबे हुए हैं। काशीपुरा के श्रीराम जो पीतल को पीट-पीट कर तबला तथा बांया बनाते हैं ने कहा कि वे एक दिन में ३ किलों तक पीतल की पिटाई कर देते हैं। इसके लिए इन्हें मेहनताना वजन के हिसाब से दिया जाता है। सामान्यतया एक किलो के पीटने पर २० रुपया दिया जाता है। अर्थात एक

सामान्य कारीगर जो इस प्रकार के धंधे में लगा हुआ है ४० से ६० रुपये प्रतिदिन के हिसाब से कमाता है।

इसी तरह जो लोग व्यवहार में किये गए पुराने पात्रों को फिर से गलाने का काम करते हैं, उन्हें भी मेहनताना उनके द्वारा गलाए या पिघलाए गए ताम्बे के वजन के वजन के अनुसार दिया जाता है। बनवारी लाल जी के यहां कुछ लोग इस काम को करते हैं। श्रीनाथ नामक एक व्यक्ति ने हमें बताया कि इनहें मजदूरी १.५० रुपये प्रति किलो के हिसाब से दिया जाता है। श्री नाथ जी ने आगे यह भी बताया कि अगर बिजली की सप्लाई सही ढंग से चलता रहे और १२ घंटा तक काम किया जाए तो तीन आदमी मिलकर १ दिन में २ क्विंटल माल को गला देते हैं। अर्थात ३०० रुपये की कमाई तीन लोगों में होती है। प्रत्येक व्यक्ति इस तरह से १०० रुपया प्रतिदिन कमा लेता है। परन्तु व्यवहारिक तौर पर ऐसा नहीं होता। इसका कारण स्पष्ट है - सर्वप्रथम यहां बिजली में काफी कटौती होती है। एक दिन में मुश्किल से घंटे तक बिजली की उपलब्धता होती है।

सिल्वर के प्लेट से मशीन द्वारा जो समान बनाते हैं उन्हें उनका मेहनताना वजन तथा नगवार दोनों के हिसाब से दिया जाता है। अगर पात्र बड़ा हो तो ३ रुपये प्रति किलो के हिसाब से दिया जाता है और अगर छोटे-छोटे तथा कलात्मक पात्र हों तो फिर नग के हिसाब से दिया जाता है। नग से पैसा देने का हिसाब आना होता है। वस्तुओं को १२ आना, १६ आना, २० आना आदि के हिसाब (एक आने में ६ पैसा होता है तथा १६ आने का एक रुपया होता है) से पारिश्रमिक दिया जाता है। इस दृष्टिकोण से भी जो मेहनती कलाकार है ४० से ६० रुपये तक ही कमा पाते हैं।

यह राशि निश्चित रुप से वस्र तथा काष्ठ कलाकृतियों के व्यवसाय में लगे कलाकारों की तुलना में काफी कम है। सम्भवतः यही कारण है कि धीरे धीरे लोग इस व्यवसाय को छोड़ रहे हैं। कुछ ताम्र कलाकार तो वाराणसी को छोड़कर अन्य जगहों में चले गये हैं जहां इन्हें अधिक मेहनताना तथा सम्मान के साथ-साथ अच्छी सुविधाऐं भी उपलब्ध हैं। वाराणसी के बहुत से ताम्र कलाकार आजकल तेजी से मिर्जापुर और नेपाल के काठमाण्डू इत्यादि शहरों में जा रहे हैं।

दूसरा कारण यह है कि ताम्र के पात्रों के प्रति लोगों का रुझान काफी कम हो गया है। हालांकि आजकल लोगों का रुझान फिर से पनप रहा है। जिसका विवरण ऊपर किया जा चुका है। इनके अलावे काठमाण्डू में वाराणसी से बहुत से ताम्बे-पीतल के अनुष्ठान में प्रयुक्त होनेवाले तथा कलात्मक पात्रों एवं कलाकृतियों को भेजा जाता था। मांग अच्छी होने के कारण इन्हें पारिश्रमिक भी अधिक मिलता था। आजकल कस्टम ड्यूटी बढ़ जाने के कारण इनके द्वारा निर्मित वस्तुओं की कीमत काफी बढ़ जाती है, जिसके फलस्वरुप लोग बढ़े हुए कीमत के चीजों को अच्छी कलात्मकता के बावजूद भी नहीं खरीदना चाहते हैं। इसका अन्तिम निष्कर्ष यह हो रहा है कि यहां के कारीगर बहुत बड़ी तादाद में इस धन्धे को छोड़कर अन्य धन्धों को करना प्रारंभ कर रहे हैं। बहुत से कारीगरों का पलायन नेपाल एवं मिर्जापुर एवं अन्य जगहों पर तीव्र गति से हो रहा है। यह एक दुखद स्थिति है।

Top

ताम्र कलाकारों की समस्या एवं उनके द्वारा बताए गये समाधान

वाराणसी के ताम्र कलाकारों के समक्ष यों तो अनेक समस्याएं हैं परन्तु उन सभी समस्याओं में कच्चे माल की कमी एक विकट समस्या है। कुछ लोग जो व्यापारी हैं थोक के भाव कच्चे माल खरीदकर इन मेहनतकश लोगों का शोषण करते हैं। कच्चे माल को दो प्रकार से प्राप्त किया जाता है: (१) सरकार से नीलामी के द्वारा तथा (२) कबाड़ी के माध्यम से।

लोगों का कहना है कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा विद्युत विभाग, टेलिफोन (डाकतार विभाग) विभाग एवं अन्य विभागों में व्यवहार किए हुए ताम्बे एवं पीतल के तार एवं अन्य चीजों की नीलामी की जाती है। नीलामी थोक के भाव से होती है। इसमें सामान्य एवं गरीब तबके के ताम्र कलाकार चाहकर भी भाग नहीं ले सकते। क्योंकि इनके पास थोक में माल खरीदने का सामर्थ्य नहीं होता। इनकी इसी विवशता का फायदा पैसेवाले व्यापारी उठाते हैं। ये व्यापारी थोक के भाव में माल खरीदकर उसका भण्डारन कर लेते हैं। फिर कच्चे माल को मनमाना मुनाफा कमाकर बेचते हैं। कुछ व्यापारी तो कच्चा माल केवल उन्हीं ताम्र कलाकारों को देते हैं जो उन्हें अपना तैयार माल बनाकर दे सके। इस तरह से शोषण का दौर चलता रहता है। हालांकि यहां के ताम्र कांस्य एवं अन्य कला के निर्माण में संलग्न कलाकारों ने 'अलौह धातु निर्माण कलाकार संगठन'' नामक एक संगठन बनाया है। संगठन बहुत से कारणों से सही ढंग से काम करने में असफल रहा है। कुछ लोगों का कहना है कि अगर सरकार नीलामी न करके पूरे माल को संगठन को दे दे और संगठन के माध्यम से जिसको जितनी जरुरत हो कच्चा माल प्राप्त करके अपना सामान बनाये तो लोगों की आर्थिक स्थिति सुदृढ़ हो सकती है।

Top

आवासीय समस्या

लगभग ताम्र कलाकारों की ७५ से ८० प्रतिशत आबादी वाराणसी शहर के काशीपुरा नामक मुहल्ले में रहते हैं। इनमें से अधिकांश का घर गलियों के तंग हिस्से में है। मुख्य मार्ग पर बड़े व्यापारियों एवं अन्य दुकानदारों की दुकानें हैं। चूंकि ये लोग शहर में रहकर ही इस धन्धे को वर्षों से करते आ रहे हैं अतः अपनी बढ़ती आबादी के साथ कम से कम जगह में ज्यादा से ज्यादा लोग रहने को मजबूर हो रहे हैं। एक-एक घर में (३० से ३५ मीटर) चार-चार परिवार के लोग बहुमंजली मकानों में तंगी के साथ जीवन जी पा रहे हैं। इनके मकान चारों तरफ से बंद है, जहां हवा, रोशनी जाने की कोई व्यवस्था अथवा विकल्प नहीं है। हालांकि आजकल कुछ लोगों ने काशीपुरा के तंग गलियों से निकलकर नए बन रहे कालोनियों तथा कस्बों में रहना प्रारंभ किया है, परन्तु इनकी संख्या काफी कम है। निष्कर्षतः आवासीय समस्या इनके लिए एक विकट समस्या है और इस समस्या से वे भली भांति अवगत है साथ ही साथ इसकी समाधान में भी जुटे हुए हैं।

Top

ताम्रकला को बनाने के लिए प्रयुक्त किये जानेवाले उपकरण (औजार)

ताम्रकला में उपकरण (औजार) की तुलना में हाथ की सफाई तथा मानसिक सोच का महत्वपूर्ण स्थान है। इसमें बहुत ही सीमित औजारों का प्रयोग किया जाता है।

जो लोग पूर्व में व्यवहार किये गये उपकरणों को खरीद कि उसे गलाते हैं और गलाकर प्लेट बनाते हैं वे निम्नलिखित औजारों का प्रयोग करते हैं:

१.

छोटी संख्या

२.

बड़ी संडसी

३.

छोटा चिमटा

४.

बड़ा चिमटा

५.

कलछुल (बड़े साइज का)

६.

सब्बल (दो बड़े आकार में)

७.

घड़ियां (यह ताप का कुचालक होता है। घड़ियां वनारस में नहीं बनाई जाती बल्कि यह चेन्नई से बनकर यहां आती है। यह घड़े तथा बाल्टी की आकृति में होती हैं। इसका व्यवहार कच्चे माल को गलाने के लिये किया जाता है।)

८.

डाई (इसमें गले पिघले हुए माल को डालकर उसका प्लेट बनाया जाता है।)

९.

हथोड़ा।

एक पच्चीस न. के घड़िया में (घड़िया विभिन्न नम्बरों तथा आकृतियों में उपलब्ध होता है।) ४० किलो तक कच्चे माल को पिघलाया जाता है।

अगर लगातार बिजली उपलब्ध हो तो ३ आदमी मिलकर १२ घंटे में २ क्विंटल माल को गला लेते हैं। पुराने (कच्चे) माल को थोक के व्यापारियों से खरीदा जाता है।

इसी तरह से पीटकर बनाए जाने वाले पात्रों के निर्माण के लिए निम्नलिखित औजारों को उपयोग में लाया जाता है।

१.

सबरा

२.

मधन्ना

३.

हथौड़ा

मधन्ना एक प्रकार की छोटी हथौड़ी है जिससे पीटा जाता है और उपकरण तैयार किया जाता है।

मशीन से बनाए जानेवाले पात्रों एवं कलाकृतियों में केवल निम्नलिखित औजारों का प्रयोग हाथ द्वारा यहां के कलाकार करते हैं।

हवाई स्टील (यह छोटे बड़े विभिन्न आकार में उपलब्ध होता है।)

डाइमण्ड स्टील (इसका प्रयोग काटने के लिए किया जाता है)।

हवाई स्टील का काम खुरचने तथा आकृति देने के लिए किया जाता है।

इसी प्रकार एन्टीक पीस, बनाने के लिए भी मधन्ना, सबरा, हथौड़ा, प्रकाल, स्केल इत्यादि औजारों की सहायता ली जाती है।

 

वाराणसी वैभव


Top

Copyright K. K. Mishra © 2003

आभार

मैं पूज्या डा. कपिला वात्स्यायन तथा प्रो. बैद्यनाथ सरस्वती के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करता हूँ। इन्हीं के शैक्षणिक निर्देशन में मैने यह कार्य सम्पन्न किया है।

                             - कैलाश कुमार मिश्र

Top