काशी / वाराणसी के तीर्थ स्थल

काशी तथा वाराणसी का तीर्थ स्वरुप


सुनील कुमार झा

तीर्थ के रुप में वाराणसी का नाम सबसे पहले महाभारत मे मिलता है

अविमुक्तं समासाद्य तीर्थसेवी कुरुद्वह।
दर्शनादेवदेस्य मुच्यते ब्रह्महत्यया ।।
(महाभारत, वन., ८४/१८)
ततो वाराणसीं गत्वा देवमच्र्य वृषध्वजम्।
कपिलाऊदमुपस्पृश्य राजसूयफलं लभेत् 
(महाभारत, वन., ८२/७७)

बात तो यह है कि इसके पूर्व के साहित्य में तीर्थे के विषय में कुछ कहा ही नहीं गया है। उस समय धार्मिक केन्द्र कुरुक्षेत्र था, परन्तु देश-भर में आर्य लोगों को जाकर बसना था। वर्तमान तीर्थ स्थलों में बहुधा जंगल थे जिनमें आदिवासियों की इधर-उधर कुछ बस्तियाँ छिटपुट बसी थीं। इनके अतिरिक्त वहाँ मनुष्यों का निवास ही नहीं था। आगे चलकर जब भारत में सर्वत्र आर्य लोग फैल गये और उनके नगर बस गये, तब अध्यात्मिक सर्वेक्षण के द्वारा तीर्थों के अस्तित्व तथा माहात्मय का पता चला। इस संबंध में महाभारत में कहा गया है कि जिस प्रकार शरीर के कुछ अवयव पवित्र माने जाते है, उसी प्रकार पृथ्वी के कतिपय स्थान पुण्य प्रद तथा पवित्र होते है। इनमें से कोई तो स्थान की विचित्रता के कारण कोई जन्म के प्रभाव और कोई ॠषि-मुनियों के सम्पर्क से पवित्र हो गया है :-

भौमानामपि तीर्थनां पुणयत्वे कारणं ॠणु।
यथा शरीरस्योधेशा: केचित् पुण्यतमा: समृता:।
तथा पृथिव्यामुधेशा: केचित् पुण्यतमा: समृता:।।
प्रभावाध्दभुताहभूमे सलिलस्य च तेजसा।
परिग्रहान्युनीमां च तीर्थानां पुण्यता स्मृता।। 
(महाभारत, कृ.क.त., पृ. ७-८)

आधुनिक विचार धारा इस बात को इस प्रकार कहती है कि जहाँ-जहाँ मानव के बहुमुख उत्कर्ष के साधन लभ्य हुए, वहीं-वहीं तीर्थों की परिकल्पना हुई। जो कुछ भी हो, विविध तीर्थों के नाम और उनके माहात्म्य सबसे पहले पुराण-साहित्य में मिलते हैं, जिनमें महाभारत का शीर्षस्थ स्थान है। यजुर्वेदीय जाबाल उपनिषद में काशी के विषय में महत्वपूर्ण उल्लेख है, परन्तु इस उपनिषद् को आधुनिक विद्वान उतना प्राचीन नहीं मानते।

अविमुक्तं वै देवानां देवयजनं सर्वेषां भूतानां ब्रह्मसदनमत्र हि जन्तो: प्राणोषूत्क्रममाणेषु रुद्रस्ताखं ब्रह्म व्याचष्टे येना सावमृततीभूत्वा मोक्षीभवती तस्मादविमुक्तमेव निषेविताविमुक्तं न विमुञ्चेदेवमेवैतद्याज्ञवल्क्यः।
(जबाल-उपनिषद्, खं. १)

जाबाल-उपनिषद् खण्ड-२ में अव्यक्त तथा अनन्त परमात्मा के संबंधमें विचार-विमर्श करते हुए महर्षि अत्रि ने महर्षि याज्ञवल्क्य से पूछा कि उस अव्यक्त और अनन्त परमात्मा को हम किस प्रकार जानें। इस पर याज्ञवल्क्य ने कहा कि उस अव्यक्त और अनन्त आत्मा की उपासना अविमुक्त क्षेत्र में हो सकती है, क्योंकि वह वहीं प्रतिष्ठित है। उस पर अत्रि ने पूछा कि अविमुक्त क्षेत्र कहाँ है। याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि वह वरणा तथा नाशी नदियों के मध्य में है। वह वरणा क्या है और वह नाशी क्या है, यह पूछने पर उत्तर मिला कि इन्द्रिय-कृत सभी दोषों का निवारण करने वाली वरणा है और इन्द्रिय-कृत सभी पापों का नाश करने वाली नाशी है। वह अविमुक्त क्षेत्र देवताओं का देव स्थान और सभी प्राणियों का ब्रह्म सदन है। वहाँ ही प्राणियों के प्राण-प्रयाण के समय में भगवान रुद्र तारक मन्त्र का उपदेश देते है जिसके प्रभाव से वह अमृती होकर मोक्ष प्राप्त करता है। अत एव अविमुक्त में सदैव निवास करना चाहिए। उसको कभी न छोड़े, ऐसा याज्ञवल्क्य ने कहा है।

जाबालोपिनषद के अतिरिक्त 'लिखितस्मृति', 'श्रृंगीस्मृति' तथा 'पाराशरस्मृति' में भी काशी के माहात्म्य का वर्णन किया गया है। ब्राह्मीसंहिता तथा सनत्कुमारसंहिता में भी यह विषय प्रतिपादित है। प्राय सभी पुराणों में काशी कामाहात्म्य कहा गया है, यद्यपि उनके क्षेत्रिय विकास के कारण उनमें विषय के विस्तार में भेद है। ब्रह्मवैवर्त्तपुराण में तो काशी क्षेत्र के विषय में 'काशी-रहस्य' नाम एक पूरा ग्रन्थ ही है, जो उसका 'खिल' भाग कहा जाता है। इसी प्रकार, पदमपुराण में काशी-महात्म्य नामक ग्रन्थ है, यद्यपि उसके अतिरिक्त अन्यत्र भी काशी का वर्णन मिलता है। प्राचीन लिंगपुराण में सोलह अध्याय काशी की तीर्थों के संबंध में थे। वर्त्तमान लिंगपुराण में भी एक अध्याय है। स्कन्दपुराण का काशीखण्ड तो काशी के तीर्थ-स्वरुप का विवेचन तथा विस्तृत वर्णन करता ही है। इस प्रकार पुराण-साहित्य में काशी के धार्मिक महात्म्य पर सामग्री है। इसके अतिरिक्त, संस्कृत-वाड्-मय में भी कहीं-कहीं कुछ-न-कुछ सामग्री मिलता ही है। दशकुमारचरित, नैषध तथा राजतरंगिणी में काशी का उल्लेख है और कुट्टनीपतम् में भी काशी के प्रधान देवायतन का सटीक वर्णन मिलता है, यद्यपि उस ग्रन्थ का उद्देश्य दूसरा ही है।

इन सभी आधारों पर काशी का धार्मिक महत्ता स्थापित है। इस संबंध में काल क्रम को लेकर चलना संभव नहीं है, क्योंकि पुराणों में निरन्तर परिवर्तन तथा परिवर्द्धन होते आये हैं और एक ही पुराण के भिन्न-भिन्न अंश भिन्न-भिन्न समय में बने हैं। लिंगपुराण इसका स्पष्ट प्रमाण है, क्योंकि बाहरवी शताब्दी ईसवी तक प्राप्त होने वाले लिंग पुराण में तीसरे अध्याय से अट्ठारहवें अध्याय तक काशी के देवायतनों तथा तीर्थें का विस्तृत वर्णन था उसका बहुत-सा अंश लक्ष्मीधर के 'कृत्यकल्पतरु' में उद्धत होने से बच गया है जो ९ पृष्ठों का है। 'त्रिस्थलीसेतु' नामक ग्रन्थ की रचना के समय (सन् १५८० ई.) लिंगपुराण का कुछ छोटे-मोटे परिवर्त्तनों के साथ वही स्वरुप था, जैसा उसमे स्पष्ट लिखा है। कि लैंङ्गोडपि तृतीयाध्यायात्षोऽशान्तं लिंङ्गान्युक्तवोक्तम्, अर्थात लिंगपुराण में भी तीसरे अध्याय से सोलहवें अध्याय तक लिंगो का वर्णन करने के बाद कहा गया है कि ( से. पृ. १८१) वर्तमान लिंग पुराण में केवल एक ही अध्याय काशी के विषय में है, जिसमें केवल १४४ श्लोक हैं। पुराणों की इस परिवर्तन परम्परा के कारण उनके सहारे कालक्रम नही स्थापित किया जा सकता, अतएव इस विषय का स्वतन्त्र विवेचन सम्भव है। 
संसार के प्रत्येक धर्म के अपने-अपने तीर्थस्थान है। जिनकी यात्रा से कु लाभ होना माना जाता है। भारतवर्ष के तीर्थें की संख्या भी उसकी भौगोलिक विशालता के अनुरुप है। महाभारत मे ही उनकी संख्या छोटी नहीं है और यदि सभी पुराणों के आधार पर सूची बनाई जाय, तो वह बहुत ही बड़ी हो जाती है। 'शब्दकल्पहुम' मे २६४ तीर्थों का उल्लेख है। परन्तु महिमा के विचार से भारत के तीर्थों में चार धाम और सात पुरियों के नाम शीर्षस्थ माने जाते है। प्रयाग का नाम इनमें नहीं आता, परन्तु वह तो तीर्थराज है। इसी प्रकार गया का नाम भी इसमें नहीं है और नही ही गंगा सागर का नाम मिलता है। एक बात और भी है कि तीर्थों के महात्म्य समय-समय पर बदलते भी रहे है खास कर गहडवाल युग में तो काशी में तीर्थों की बाढ़ सी आ गई।

 

वाराणसी वैभव


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