ग्वालियर के मृणशिल्प

आर्थिक संरचना

- मुश्ताक खान


पहले और कई गांवो मे आज भी, बर्तनों के बदले अनाज मिल जाता है। जैसे मठोले का ढाई किलो अनाज मिलता है। अधिकांश कुम्हारों के गांवो में धर निश्चित होते है कि इस धर में यही कुम्हार बर्तन देगा, यह प्रथा भी पुरखों से चली आ रही है। इसे किसानी कहा जाता है। जिस घर भी कुम्हार बर्तन देता है वह कुम्हार का किसान कहलाता है। साल भर के आवश्यक बर्तनों के बदले से किसान से अनाज पाते थे। चैत में फसल कटाई के समय जब कुम्हार खलिहानों पर मटके देने आते है, तब उन्हें दो जहल के बदले एक ढोका अनाज मिलता है।

बरसात में कुम्हारों का काम लगभग बन्द हो जाता है उस समय ये लोग अपने गधों से जहां मकान बन रहे हों वहां मिटटी बजरी की ढुलाई कर कुछ मजदूरी कर लेते है।

 

 

  

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