मालवा

मालवा के इतिहास के स्रोत

भारतीय साहित्यिक प्रमाण

अमितेश कुमार


प्राचीन मालवा के इतिहास की जानकारी के लिए समकालीन साहित्य दूसरा महत्वपूर्ण स्रोत माना जा सकता है। इसका उल्लेख इस प्रकार किया जा रहा है --

 

वैदिक साहित्य
पुराणों व महाकाव्यों में, मालवा के अति प्राचीन वंश व उनके राजाओं का उल्लेख मिलता है। वेदों में इस संदर्भ में कम जानकारियाँ प्राप्त हो पायी है। पुराणों से ज्ञात होता है कि प्रागैतिहासिक काल में इस क्षेत्र में नाग वंशियों व हैह्यवंशीयों का अधिपत्य हुआ करता था। इनमें प्रद्योता तथा उसके उत्तराधिकारियों का उल्लेख मिलता है। लेकिन उसमें प्राप्त कई बातें आपस में विरोधाभास पैदा करती है, जब तक किसी अन्य स्वतंत्र समकालीन स्रोतों से इसकी पुष्टि न हो जाए। पुराणों में विदिशा, पद्मावती और कांतिपुर को नागवंश के शासकों के समय का महत्वपूर्ण स्थान बताया गया है। मत्स्यपुराण, नरसिंहपुराण, शिवपुराण और स्कंदपुराण में उज्जैन नगर की चर्चा की गई है। स्कंदपुराण का "अवन्तिखण्ड' अध्याय को प्राचीन उज्जयिनी की मार्गदर्शक पुस्तक कहा जा सकता है। "महाभारत' ग्रंथ के अनुसार उस समय उज्जयिनी शिक्षा का एक प्रमुख केंद्र था।

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महा भाष्य
अवन्ति राज्य में गोनार्द (उज्जयिनी व बेसनगर के बीच स्थित) नामक स्थान परजन्में पतंजलि ने "महाभाष्य' नामक काव्य की रचना की थी, जो वास्तव में पाणिनि रचित अष्टाध्यायी के व्याकरण संबंधी समस्याओं का उल्लेख करता है। लेकिन इससे २री शताब्दी ई. पू. के मालवा के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन का पता चलता है। इस पुस्तक में समकालीन राजा पुष्यामित्र के व्यक्तित्व की कई प्रसंगों में चर्चा की गई है। उसने साकेत व माध्यमिका पर अधिपत्य कर चुके, यवनों पर आक्रमण किया था। पुस्तक में शुंगों द्वारा सम्पादित यज्ञ की भी चर्चा की गई है।

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शुद्ध साहित्यिक कार्य
कई साहित्यिक रचनाएँ होती रही, जिससे जाने- अनजाने में मालवा के इतिहास की जानकारी प्राप्त होती रही। भाष, वात्स्यायन, कालिदास, शुद्रक, वराहमिहिर व वाण, सभी रचनाकार प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से उज्जैन से जुड़े रहे। भाष ने अपने नाटकों में कई बार उज्जयिनी की चर्चा की है तथा वहाँ के राजमहलों, हवेलियों, मंदिरों, बगीचों, सुख- समृद्धि तथा आरामदायक जीवन का उल्लेख किया है।

कालिदास रचित "मालाविकाग्निमित्रम्' से विदित होता है कि पुष्यमित्र ने अपने पुत्र अग्निमित्र को विदिशा में गवर्नन (राज्यपाल) नियुक्त किया था। इसी अग्निमित्र ने विदर्भ के शासक यज्ञसेन को पराजित किया था। इस काव्य में अग्निमित्र के पुत्र वसुमित्र तथा यवनों के बीच घोड़ों की बलि को लेकर हुए विवाद का भी उल्लेख है। शुद्रक की "मृच्छकटिकम्' नामक संस्कृत नाटिका समकालीन उज्जैन के वास्तमिक चित्र का अंकन करता है। पद्मप्रभित्कम् व पादतादित्कम् भी संभवतः उज्जैन से संबद्ध ग्रंथ हैं।

वराहमिहिर, जो कपिथा (उज्जैन के निकट वर्त्तमान कायथा) से संबद्ध थे, ने वृहत्संहिता लिखी। यह पुस्तक विभिन्न विषयों पर प्रचुर जानकारी उपलब्ध कराती है। वाण ने अपने "हर्षचरित्र' में मालवा के राजा के साथ प्रभाकरवर्मन के युद्ध का उल्लेख किया है।

पद्मगुप्त के "नवसहशांकचरित' से परमारों के इतिहास की जानकारी मिलती है। उसमें विशेष रुप से परमार राजा सिंधुराज की चर्चा की गई है। मदन की "परिजातमंजरी' एक नाटिका के रुप में लिखी गई है, जिसमें राजा अर्जुनवर्मन तथा गुर्जर राजकुमारी विजयश्री के मिलन की घटनाओं की चर्चा है। धनपाल कृत "तिलकमंजरी'में लोगों के समकालीन सामाजिक तथा धार्मिक जीवन का उल्लेख मिलता है। तिलकमंजरी की तरह ही भोज की "श्रृंगारमंजरीकथा' भी समकालीन सांस्कृतिक जीवन को समझने को जानने के लिए महत्वपूर्ण माना जाता है। भोज की अन्य कृतियों में,"समरांगनसुत्रधारा' से उस समय की वास्तुकला का तथा यक्तिकल्पतरु में उद्योगों के विकास का पता चलता है।

समकालीन साहित्यिक रचनाओं में महान व्यक्तित्व विक्रमादित्य से जुड़ी हुई भी कई अर्धऐतिहासिक कथाएँ मिलती हैं। "कालकाचार्य- कथानक' में न सिर्फ विक्रमादित्य की चर्चा है, बल्कि साथ- साथ शुरुआत में २ री सदी ई. पू. में, शकों के सइस्तान से सिंध तथा काडियावाड़ होते हुए पश्चिम मालवा पर चढ़ाई का भी उल्लेख है। सोमदत्त कृत "कथासरितसागर' के अलावा सिंहासन द्वात्रिमशिका, बेतालपंचविशति:, शुकसप्तति: आदि ग्रंथों में विक्रमादित्य के गुणों का वर्णन मिलता है। जैनियों ने भी विक्रमादित्य की परंपरा को प्रभावकचरित, जैन हरिवंशपुराण तथा पट्टावली जैसे ग्रंथों में स्थान दिया है। वैसे ये ग्रंथ बाद के, १२ वीं सदी से १५ वीं सदी के बीच के लिखे गये हैं, अतः इन पर पूर्णरुपेण विश्वास नहीं किया जा सकता।

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अन्य साहित्यिक कार्य
उपरोक्त ग्रंथों के अलावा, कई अन्य ग्रंथ भी लिखे गये हैं, जो मालवा के इतिहास को जानने में सहायक होते हैं। प्रबंधचितामणि में कई कथाओं का संग्रह है, जिसमें मालवा के कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का भी उल्लेख है। विशेष रुप से राजा मंजु व राजा भोज का उल्लेख है। जीनप्रभासुरी कृत "विविधतीर्थकल्प' दोनों ऐतिहासिक व साहित्यिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। इसमें मालवा में जैनियों के तीर्थ स्थलों का उल्लेख मिलता है। ठाकुर फेरु की वि. सं. १३७५ में लिखित पुस्तक द्रव्य परीक्षा से मालवा के विभिन्न सिक्कों की जानकारी मिलती है।

 

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