मालवा

सैन्य संगठन तथा सुरक्षा व्यवस्था

अमितेश कुमार


विवेच्यकाल के महत्वाकांक्षी एवं विजिगीषु शासकों ने सैन्य- संगठन के महत्व को भली- भाँति समझकर उसकी ओर पूरा ध्यान दिया और एक सबल सेना का संगठन किया। इस काल में सेना के परम्परागत चार अंगों में -- हस्ति, अश्व, रथ और पैदल, का उल्लेख मिलता है। मुहरों, अभिलेखों और साहित्यिक कृतियों में अश्वपति महाश्वपति तथा भटाश्वपति का उल्लेख मिलता है, जो अश्वसेना के सेनापति प्रतीत होते हैं। हस्ति- सेना के सेनापति को महापीलुपति अथवा गजाध्यक्ष कहा जाता था। रथों का उल्लेख केवल परंपरा का निर्वाह करने के लिए था, क्योंकि वे युद्ध के साधन के रुप में गुप्त- काल के बहुत पहले समाप्त हो चुके थे। कई प्रकार के प्रभावों का उल्लेख मिलता है। अधिकांश राजनीतिशास्रविदों ने - 

१. मौल (वंश परंपरानुगत), 
२. भृत (वेतन पर रखे गये सैनिकों का दल), 
३. श्रेणी (व्यापारियों या अन्य जनजातियों की सेना), 
४. मित्र (मित्रों या सामंतों की सेना), 
५. अमित्र (ऐसी सेना जो कभी शत्रु पक्ष की थी), 
६. आटविक (जंगली जातियों की सेना) के प्रकारो का उल्लेख किया है। 

मंदसोर स्तंभ लेख में धनुर्विद्या में निपुण तथा युद्ध- कला- विशारद कुछ श्रेणी के सदस्यों का विवरण प्राप्त होता है।

युद्धकाल में सैनिक मुख्यतः धनुष - बाण, भाला, बर्छी, तलवार, गदा, परशु, कुठार, त्रिशूल, तोमर, किंभदिपाल तथा अन्य प्रकार के दूसरे फेंककर मार करने वाले अस्रों का प्रयोग करते थे। सैनिक युद्ध में अपनी सुरक्षा के लिए कवच और शिरस्राण धारण करते थे।


न्याय - व्यवस्था

विवेच्यकाल में राजा का प्रमुख कर्तव्य प्रजा की रक्षा करना है और यह तभी संभव है, जब उसे न्याय प्राप्त हो सके। इसीलिए न्याय करना राजा का प्रधान धर्म माना जाता था। कौटिल्य के अर्थशास्र एवं नारद स्मृति के अनुसार कानून के चार आधार थे - 

धर्म, 
व्यवहार, 
चरित्र और 
राजशासन। 

धर्म सत्य पर, व्यवहार साक्षियों पर, चरित्र मानव समूह में चली आ रही प्रथाओं पर निर्भर करता है और राजा की आज्ञाओं को शासन कहते हैं। मनु के अनुसार, राजा को देश, जाति, जनपद, कुल और श्रेणी के जो धर्म (कानून) हैं, उनकी समीक्षा करके ही अपने धर्म का प्रतिपादन करना चाहिए। बृहस्पति स्मृति के अनुसार इस काल में चार प्रकार के न्यायालय होते थे -- 

१. प्रतिष्ठित (जो किसी पुर या ग्राम में प्रतिष्ठित हो), 
२. अप्रतिष्ठित (जो एक स्थान पर प्रतिष्ठित न होकर विभिन्न ग्रामों में समय- समय पर स्थापित किये जाते थे), 
३. मुद्रित तथा 
४. शासित। 

मुद्रित न्यायालय वे थे, जिन्हें राजा की देख- रेख में राजमुद्रित आज्ञा पत्रों द्वारा स्थापित किया जाता था तथा शासित वह न्यायालय था, जिसमें शासक स्वयं बैठता था और न्याय करता था। यह संभवतः सर्वोच्च न्यायालय था।

स्थानीय न्यायालयों में कुल, श्रेणी, पूग अथवा गण तीन मुख्य थे। बृहस्पति का कथन है कि साहस नामक मामलों के अतिरिक्त सभी प्रकार के मुकदमों का निर्णय कुल, श्रेणी और गण कर सकते थे। किंतु निर्णयों को कार्यान्वित करने का अधिकार राजा को ही प्राप्त था। जिन्हें मुद्रित तथा शासित न्यायालय कहा गया है। मुद्रित प्रकार के न्यायालय जन- संस्थाओं के न्यायालय से भिन्न थे। ""मृच्छकटिक'' नाटक में इस प्रकार के न्यायालय को ""अधिकरणमण्डप'' तथा न्यायाधीश को ""अधिकरणिक'' कहा गया है। उसे श्रेष्ठि (प्रसिद्ध व्यापारी एवं वणिक लोग) तथा कायस्थ सहायता देते थे। इन तीनों को अधिकृत या नियुक्त (राजा द्वारा नियुक्त) भी कहा जाता था।

मृच्छकटिक नाटक में अधिकरणिक नगर- न्यायाधीश की योग्यता का वर्णन करते हुए कहा गया है कि उसे शास्रज्ञ, कपट को समझने में कुशल, वक्ता, क्रोधरहित, मित्र, शत्रु एवं स्वजनों में समान दृष्टि रखने वाला, व्यवहार को देखकर निर्णय देने वाला, दुबलों का रखा, धूताç को दण्ड देने वाला, धार्मिक, निर्लोभी, वास्तविक रहस्य का प्रकाशक, दूसरों के हृदय को जानने में कुशल तथा राजा के कोप को नष्ट करने वाला होना चाहिए।

न्याय के क्षेत्र में राजा सर्वोच्च न्याय करता था। निम्न न्यायालयों में समुचित न्याय न पाने की अवस्था में कोई भी व्यक्ति राजा के सम्मुख अपील कर सकता था। उस पर राजा कम- से- कम तीन सभाओं की सहायता से मामले की पूरी छानबीन करके अपना निर्णय देता था, जो अंतिम और सर्वमान्य होता था। कालिदास की कृतियों से ज्ञात होता है कि न्यायकर्ता के रुप में राजा जिस आसन पर बैठता था उसे ""धर्मासन'' कहा जाता था।

न्यायिक प्रक्रिया के समय लिखित प्रमाणों के अभाव में वादी तथा प्रतिवादी को गवाह (साक्षी) प्रस्तुत करना पड़ता था। केवल तपस्वी, दानशील, कुलीन, सत्यवादी, धनवान, पुत्रवान, धर्मात्मा आदि पुरुष ही साक्षी के योग्य समझे जाते थे। स्री, बालक, वृद्ध, पाखण्डी तथा पागल मनुष्य न्यायालय में गवाही नहीं दे सकता था। ""मृच्छकटिक'' के वर्णन से स्पष्ट होता है कि झूठी गवाही देने वाला व्यक्ति समाज में निंदा का पात्र समझा जाता था। इस काल में अपने को निर्दोष सिद्ध करने के लिए अपराधी को चार प्रकार की दिव्य परीक्षाओं -- 

१. विष परीक्षा, 
२. जल परीक्षा, 
३. तुला परीक्षा और 
४. अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ता था।

अभियुक्तों को अर्थ- दंड, देश- निष्कासन तथा मृत्यु दण्ड, जैसी कठोर सजायें दी जाती थीं। ""मृच्छकटिक'' से ज्ञात होता है कि जिस समय चारुदत्त को शूली पर चढ़ाया था, उस समय चाण्डालों ने उसे कैनल पुष्प की माला पहनाई तथा उसके सारे शरीर में लाल चंदन की लेप लगाकर एवं काले तिलों के चूर्ण से व्याप्त कर बलि के पशु के समान बना दिया।

यहाँ धर्मशास्रों में प्रतिपादित राजतंत्र एवं राज संस्थायें विवेच्यकालीन मालवा की शासन व्यवस्था में यथावत बनी रही, किंतु काल और परिस्थितियों के अनुसार उस प्रशासनिक व्यवस्था में हुए महत्वपूर्ण परिवर्तन भी हुए। राजपद में दैवी शक्ति का आरोपण, योग्यता के आधार पर राजसिंहासन की प्राप्ति, सामंतवादी पद्धति का विकास, ग्रामीण तथा शहरी क्षेत्रों में व्यवस्थित प्रांतीय तथा स्थानीय शासन की शुरुआत आदि इस काल के महत्वपूर्ण प्रशासनिक परिवर्तन थे।

 

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