मालवा

उदयपुर

अमितेश कुमार


यह स्थान बीना और विदिशा के बीच, विदिशा से लगभग २० कोस की दूरी पर स्थित है। वर्तमान में एक छोटे से गाँव के रुप में जाने जाना वाला यह स्थान ऐतिहासिक समय में विशेष महत्व का था। धार राज्य के परमारवंशीय राजा उदयदित्य के समय में इसका काफी विकास हुआ। यहाँ मिले कई हिंदु व मुस्लिम स्मारकों का अस्तित्व इस स्थान की प्राचीनता का प्रमाण है। यहाँ स्थित मुख्य भवन हैं --

१. उदयेश्वर या नीलकंठेश्वर महादेव का मंदिर
२. बीजामंडल या घड़ियालन का मकान
३. बारा- खम्भी
४. पिसनारी का मंदिर
५. शाही मस्जिद और महल
६. शेर खान का मस्जिद
७. घोड़दौड़ की बाओली
८. रावण टोर

१. उदयेश्वर मंदिर :-

बरेठ रेलवे स्टेशन से ४ मील की दूरी पर स्थित यह मंदिर आर्यावर्त ( इण्डो- आर्यन ) शैली के चरमोत्कर्ष का एक अच्छा उदाहरण है। इस मंदिर में उपलब्ध प्राचीन संस्कृत अभिलेखों में से इस बात का उल्लेख है कि मालवा के परमार राजा उदयादित्य ने इस शहर की स्थापना ही थी, जिसे उदयपुर नाम दिया गया। उन्होंने शिव का यह मंदिर बनवाया, जो उदयेश्वर मंदिर के नाम से जाना गया। साथ- ही- साथ एक जलाशय भी खुदवाया, जो उदयसमुद्र के नाम से प्रसिद्ध हुआ। शहर के उत्तर- पूर्व की तरफ इस जलाशय के होने का प्रमाण अभी भी मिलता है। महल के सामने ही एक बड़ा अशोक स्तंभ खड़ा था, जिसे आक्रमणकारियों ने तोड़ डाला। इसके दो टूकड़े अभी भी यहीं पड़े हुए हैं। शीर्ष भाग ( कैपिटल ) ग्वालियर संग्रहालय में रखा गया है।

स्तंभ का शीर्ष घंटानुमा है, जो चारों ओर से १२ भागों में विभाजित है। यह १२ राशियों अथवा १२ आदित्यों का द्योतक है। २७ नक्षत्रों के अनुरुप २७ पंखुड़ियाँ उत्कीर्ण की गई हैं। इसके अलावा दो शरीर की आकृति में एक मुखवाला अशोक कालीन शेर के प्रमाण भी आसपास में फैले टूटे- फूटे पत्थरों के रुप में मिले हैं।

इस बात की स्पष्ट संभावना है कि पहले यहाँ बुद्ध धर्मानुयायियों का वर्च था। यहाँ भी साँची की भाँति कई छोटे स्तूप रहे होंगे। गुप्त काल में ब्राह्मण धर्मानुयायियों का वर्च था।

अन्य दो शिलालेखों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण वि.सं. १११६ से ११३७ ( सन् १०५९ से १०८० ई.) के बीच हुआ था। बाद में कई मुस्लिम आक्रमणकारियों ने अलग- अलग समय में इसे नष्ट करने की कोशिश की। सबसे पहले अलाउद्दीन खिलजी का सिपहसालार मलिक काफूर ने सन् १३३६- १३३८ ई. इसे ज्वलनशील पदार्थों से उड़ाने की कोशिश की। इससे मंदिर के भीतर में काला धब्बा पड़ गया। इसके बाद दिल्ली के सुल्तान मोहम्मद तुगलक ने भी इसे क्षतिग्रस्त किया। मंदिर के ही निर्माण- सामग्री से पीछे की तरफ सन् १३३६- १३३८ ( हिजरी ७३७- ३९ ) में मस्जिद का निर्माण करवाया। वही मिले दो फारसी अभिलेख इसके प्रमाण है। वैसे मंदिर के मुख्य भवन में विशेष क्षति नहीं हुई। मराठों के अभ्युदय काल तक ध्वंसात्मक अवस्थाओं में ही यह पूजित होता रहा। सन् १७७५ ई. में भेलसा के सूबा खंडेराव अप्पाजी ने पुनः शिवलिंग पर पीतल का खोल चढ़ाकर उनकी विधिवत् प्राण- प्रतिष्ठा की तथा एक अभिलेख खुदवाया।

मंदिर का स्वरुप खजुराहों के मंदिरों से मिलता- जुलता है। यह एक वर्गाकार चबुतरे पर बना है तथा चारों तरफ से एक दीवार से घिरा है। मुख्य मंदिर में एक गर्भगृह है, फिर सभामंडल ( हॉल ) तथा हॉल के तीनों तरफ तीन प्रवेश मंडप बने हैं। पहले प्रांगण में चारों दिशाओं में चार प्रवेश- द्वार बने थे। इनमें से तीन बंद कर दिये गये। मुख्य प्रवेश द्वार पुरब की तरफ है। इसके दोनों तरफ द्वारपाल की मूर्तियाँ खड़ी हैं। मुख्य मंदिर के सामने एक वर्गाकार कमरा है, जिसका छत संभवतः पिरामिड के रुप में रहा होगा। इसे लोग वेदी के रुप में जानते हैं। यह बलि- कक्ष नंदी स्थान या कुछ और हो सकता है। 

संभवतः इसके विपरीत ऐसा माना जाता है कि मुख्य मंदिर के दूसरी तरफ भी इसी तरह की संरचना रही होगी, जो मस्जिद बन जाने के कारण २१ वर्षों में तोड़ दी गई है। मंदिर में तोरण तथा मेहराबें भी अत्यंत भव्य हैं। चारों तरफ बड़े- बड़े वातायन, झरोखे तथा विभिन्न कोणों पर देवी- देवताओं की मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई हैं। चूँकि यह एक शिव मंदिर है, शायद इसलिए देवी- देवताओं में शिव तथा उनके साथ दुर्गा को कई रुपों में दिखाया गया है। प्रत्येक मूर्ति के नीचे देवनागरी लिपि में उसका नाम खुदा हुआ है। गर्भगृह में ऊँचाई पर एक विशाल शिवलिंग स्थापित किया गया है। मंदिर के शिखर पर एक मानवाकृति की स्वर्गारोहन करते हुए दिखाया गया है। यह राजा अथवा वास्तुकार हो सकता है, जिसे यह मंदिर बनवाने या बनाने के कारण स्वर्गारोहन का पूण्य मिल रहा हो। 

मंदिरें के स्तंभ तथा तीनों तरफ स्थित दलानों में कई संस्कृत के अभिलेख खुदे हुए हैं। कुछ में तो यात्रियों का उल्लेख है, परंतु कुछ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।



२. बीजामंडल / घडियालन का मकान :-

यह छोटा- सा दो मंजिला भवन संभवतः उदयेश्वर मंदिर का ही समकालीन माना जाता है। जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है कि मंदिर स्थापित हो जाने के बाद यहाँ समय आदि का निर्धारण तथा सूचित करने वाला ( क्लोकमैन ) रहता होगा। इसमें संस्कृत में लिखा एक ध्वंस अभिलेख मिलता है, जो भगवान सूर्य की प्रशंसा में लिखा गया है।

३. बारा- खम्भी :-

गाँव के बाहर स्थित यह ११ वीं सदी में बने मंदिर के सभामंडप का अवशेष है। हॉल के चारों तरफ बैठने की व्यवस्था का प्रावधान किया गया है।

४. पिसनारी का मंदिर :-

गाँव में ही स्थित यह एक दूसरा हिंदू मंदिर है। कहा जाता है कि इस मंदिर को एक औरत ने उदयेश्वर मंदिर में काम कर रहे, कारीगरों के लिए आटा पीसकर कमाए गये धन से बनाया। वैसे मंदिर के वास्तुकला शैली, जो देखने में बहुत बाद की बनी मालुम पड़ती है, से यह बात पूरी तरह सत्य नहीं लगती। 

५. शाही मस्जिद और महल :-

उदयेश्वर मंदिर से करीब एक फलार्ंग की दूरी पर पुरब की तरफ एक विशाल मस्जिद का ध्वंसावशेष मिलता है। इसे शाही मस्जिद के नाम से जाना जाता है। इसमें उत्कीर्ण एक फारसी अभिलेख से ज्ञात होता है कि इसका निर्माण कार्य जहाँगीर के शासनकाल में शुरु हो गया था तथा सन् १६३२ ( हिजरी १०४१) में शाहजहाँ के शासनकाल में पुरा हो गया। मस्जिद के सामने एक बड़ा- सा चबूतरा बना है, जिस पर कई कब्रें बनी हुई है। 

मस्जिद के नजदीक ही एक विशाल महल का अवशेष मिलता है। यह मुगलकालीन महल संभवतः स्थानीय गवर्नर का निवास रहा होगा। इसकी निर्माण शैली मुगलकाल के शुरुआती दौर की लगती है। बचे हुए ध्वंसावशेषों में पत्थर में जाली का काम भी दिखता है।

६. शेर खान की मस्जिद :-

पूरा उदयपुर चारों तरफ से सुरक्षा दीवार से घिरा हुआ था, जिसमें जगह- जगह पर कई दरवाजों का भी प्रावधान किया गया था। पुरब की तरफ स्थित दरवाजे को मोती दरवाजा के नाम से जाना जाता है। इसी दरवाजे के बाहर यह छोटा- सा मस्जिद स्थित है। मस्जिद के चबुतरे पर ही कुछ मकबरे भी बने हैं। 

वर्तमान में अब इसके ध्वंसावशेष ही बचे हैं। मस्जिद को देखने से लगता है कि यह वास्तुकला की माण्डु शैली से प्रभावित है। यहाँ संस्कृत तथा फारसी दोनों भाषाओं में उत्कीर्ण अभिलेख से पता चलता है कि इसका निर्माण माण्डु- सुल्तान गयास शाह खिलजी के शासन- काल में सन् १४८८ ( हिजरी ८९४ ) में शेरखान द्वारा नियुक्त एक अधिकारी ने करवाया था।

 

७. घोड़दौड़ की बाओली :-

यह शेरखान की मस्जिद के पुरब की तरफ स्थित है। यह इस प्रकार बना है कि पहले घोड़े भी सीढियों के सहारे नीचे कुँए के पानी तक पहुँच जाते थे।

 

८. रावण टोर :-

उदयपुर के समीप ही एक विशाल अनगढ़ी पत्थर की शिव प्रतिमा बनाई गई है, इसे "रावण टोर' के नाम से जाना जाता है।

 

 

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