मालवा

एरण

अमितेश कुमार


एरण मध्यप्रदेश के सागर जिले के अंतर्गत सागर से ७५ कि.मी. की दूरी पर उत्तर- पश्चिम में स्थित है। विदिशा से यह ८० कि.मी. दूर उत्तर- पूर्व की तर फ है। इसके निकट बेतवा ( प्राचीन वेत्रावती ) की सहायक बीना नदी ( प्राचीन नाम वेन्दा ) अर्द्वेवृत बनाते हुए बहती है। नदी के दक्षिण की तर फ वर्तमान एरण गाँव तथा उसके समीपस्थ टीलों का विस्तार क्षेत्र है। यहाँ पहुँचने के लिए सागर से खुरई तक पक्की सड़क है तथा सबसे नजदीक का रेलवे स्टेशन मंडी बाभोरा है, जो सिर्फ १० कि. मी. की दूरी पर स्थित है।

जनरल कनिंघम ने यह सर्वप्रथम प्राचीन एरिकिण नगर की पहचान एरण से की। एरण नामाकरण के संबंध में विद्वानों के कई विचार हैं। एक मत के अनुसार चूँकि यहाँ रईरक या ईरण नाम की घास बहुतायत में पैदा होती है, अतः इसका ऐसा नाम पड़ा। कुछ अन्य विद्वानों का मत है कि यह नाग "ऐराका' नामक नाग के कारण पड़े। यहाँ प्राचीन काल में नागों का अधिकार था।

एरण की स्थिति भौगोलिक दृष्टि से महत्वपूर्ण रही है। यह एक ओर मालवा का, तो दूसरी ओर बुंदेलखण्ड का प्रवेश- द्वार माना जा सकता है। पूर्वी मालवा की सीमा- रेखा पर स्थित होने के कारण यह दर्शाण को चेदि जनपद से जोड़ता था। सैनिक नियंत्रण की दृष्टि से भी इस स्थान को गुप्त शासकों ने अच्छा माना।

ऐतिहासिक महत्व को इस स्थान का उत्खनन कराने पर यहाँ के टीलों से प्राप्त सामग्री, मृदभांड एवं स्तर विन्यास के आधार पर ज्ञात संस्कृतियाँ ताम्रयुग से लेकर उत्तर मध्यकाल तक क्रमिक इतिहास बनाती है। पुरातात्विक साक्ष्यों से पता चलता है कि एक समय यह एक वैभवशाली नगर हुआ करता था। यहाँ की वास्तु तथा मूर्तिकला का हमेशा एक विशेष मान्यता दी गई है। कनिंघम ने यहाँ से प्राप्त मुद्राओं को तीन भागों में वर्गीकृत किया है -- आहत मुद्राएँ, ठप्पांकित मुद्राएँ तथा सांचे द्वारा निर्मित मुद्राएँ। इन मुद्राओं में हाथी, घोड़ा, वेदिका, वृक्ष, इंद्रध्वज, वज्र (उज्जैन चिन्ह ), मत्स्य, कच्छप आदि के चिन्ह प्रमुख हैं। 

यहाँ से प्राप्त ध्वंसावशेषों में गुप्तकाल की भगवान विष्णु का मंदिर तथा उसके दोनों तर फ वराह तथा नृसिंह का मंदिर प्रमुख है। वराह की इतनी बड़ी प्रतिमा भारत में कहीं नहीं है। इसके मुख- पेट- पैर आदि समस्त अंगों में देव प्रतिमाएँ उत्कीर्ण की गई है। विष्णु मंदिर के सामने ४७ फुट ऊँचा गरुड़- ध्वज खड़ा है। इन अवशेषों के समीप अनेकों अभिलेख भग्न शिलापट्टों के रुप में पड़े हैं। यहाँ से प्राप्त इन अभिलेखों में प्रमुख अभिलेख हैं --

-- शक शासक, श्री धर वर्मा का अभिलेख
-- गुप्त सम्राट, समुद्रगुप्त का अभिलेख
-- गुप्त सम्राट, बुधगुप्त का अभिलेख
-- हूण शासक, तोरभाण का अभिलेख
-- गुप्त सम्राट, भानुगुप्त का समकालीन अभिलेख ( गोपराज सती स्तंभ लेख )

ये सभी तथ्य इस बात के परिचायक हैं कि ३ री सदी से ६ वीं सदी तक मालवा के पूर्वी सीमांत का यह नगर सामरिक, राजनैतिक तथा सांस्कृतिक हलचल का केंद्र बना रहा। लेकिन गुप्तकाल के बाद धीरे- धीर इस समृद्ध नगर का पतन हो गया। संभवतः हूणों ने नगर और प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त कर दिया हो। संभवतः हूणों ने नगर और प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त कर दिया हो। इस काल के बाद का कोई अभिलेखिक या मुद्राशास्रीय प्रमाण नहीं मिलते, सिर्फ कई नर- कंकाल मिलते हैं, जो हूणों के आक्रमण को इंगित करता है। 

 

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