मालवा

उज्जैन के शासक

अमितेश कुमार


इतिहास काल के पूर्व महाभारत में विद और अनुविंद उज्जयिनी के शासक बताये गये हैं, जो कुरुक्षेत्र के युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे। बौद्धकाल में यह एक विस्तृत राज्य के रुप में था, जिसमें उज्जयिनी एक बड़ी व्यापारिक मण्डी के रुप में विकसित थी। पाली साहित्यों के अनुसार यह नगरी राजा चंद्रप्रद्योत की राजधानी थी। यह राजा गौतम बुद्ध का समकालीन था। उसके तीन पुत्र तथा वासवदत्ता नामक एक पुत्री थी। वासवदत्ता ही बाद मे कौशल सम्राट उदयन की प्रधान रानी हुई। धम्मपद के टीका में इसका उल्लेख है। दण्डिन ने इसी आधार पर ""वासवदत्ता' लिखी। "मंझिम निकाय' से पता चलता है कि राजा चण्डप्रद्योत ने आसपास के राजाओं को अपने अधिपत्य में कर लिया था। उसकी बढ़ती हुई शक्ति को देखकर सम्राट् बिम्बसार के पुत्र अजातशत्रु ने अपनी राजधानी राजगृह को सुरक्षित कर लिया था। 

इसके बाद ईसा से ४थी सदी पूर्व यह मगध साम्राज्य के अधीन हो गई। मौर्य साम्राज्य में यह अवन्ति प्रांत की राजधानी के रुप में थी। पाटलिपुत्र की भांति इस शहर का प्रबंध भी एक नगरवेक्षिका समिति के अंतर्गत होता था। वहाँ मौर्य सम्राट की ओर से एक राज्य प्रतिनिधि रहने लगा। सम्राट अशोक को उसके पिता बिंदुसार ने मालवा का प्रतिनिधि बनाकर भेजा था। अपने पिता के मृत्युपर्यंत वे यहीं रहे।

मौर्य साम्राज्य के अंत के साथ ही उज्जैन की प्रभुता भी घट गई। टालेमी के अनुसार यह ( ओजन ) चेष्टन की राजधानी थी। चेष्टन पर क्षत्रप राजाओं का शासन था। कुछ ही समय बाद गौतमपुत्र शातकर्णी ने चष्टन को हराकर इस पर अपना अधिकार कर लिया। सातवाहनों का अधिकार भी उज्जैन पर अधिक दिनों तक नहीं रह सका। रुद्रदमन ने अवन्ति तथा अन्य प्रदेशों को अपने अधीन कर लिया। आंध्र तथा गिरनार अभिलेख इसके प्रमाण हैं। इस समय उज्जैन पुनः क्षत्रपों की राजधानी हो गई।

प्रतापी शासक विक्रमादित्य के काल के संबंध में बहुत मतभेद है। कहा जाता है कि बर्बर शकों पर विजयी प्राप्त करने के उपलक्ष्य में विक्रम संवत् की शुरुआत करने विक्रमादित्य अपने नवरत्नों के साथ यहीं राज्यसभा करते थे। इन नवरत्नों में मेघदूत के रचयिता कालिदास सबसे प्रसिद्ध हैं। 

सातवीं शताब्दी में उज्जैन कन्नौज- नरेश हर्षवर्धन के राज्य में सम्मिलित हो गया। चीनी यात्री ह्मवेनसांग ने लिखा है कि इस काल में भी यह एक प्रसिद्ध नगर था। यहाँ के लोग समृद्ध थे। उनकी चाल- ढ़ाल सुराष्ट्र के लोगों जैसी थी।

सम्राट हर्ष की मृत्यू के बाद उत्तरी भारत में राज्य निप्लव हुआ। इससे उज्जैन भी प्रभावित हुआ। ९ वीं सदी के आरंभ में राजपूतों का उदय हुआ। उज्जैन परमार राजपूतों के अधिकार में आ गया। १२ वीं शताब्दी तक वे इस पर शासन करते रहे। इसी काल में गुजरात के चालुक्त्, चेदि के कलचुरी, बुँदेलखण्ड के चन्देल, मान्यखेत के राआजों तथा कई अन्य राजपूत वंश बारी- बारी से उज्जैन पर आक्रमण करते रहे। इससे उज्जैन की स्थिति खराब ही होती गई। परमारों क पतन के पश्चात यहाँ तोमर राजपूतों का राज्य रहा, किंतु इसके पश्चात से उज्जयिनी का अधःपतन आरंभ होगा। सन् १२३५ ई. में इल्तुतमिश ने उज्जयिनी में लुटपाट की अनेक मंदिरों को तो तोड़ डाला। महाकाल मंदिर से महादेव की स्वर्ण मूर्ति तथा कई अन्य मूर्तियों को अपने साथ दिल्ली ले गया।

सन् १४०१ से १५५१ ई. तक यह नगरी दिल्ली सल्तनत के अधीन ही रहा। सन् १५५१ में गुजरात के शासक बहादुरशाह ने उज्जैन को अपने अधिकार में कर लिया। फिर हुमायूं ने बहादुरशाह को युद्ध में परास्त करके गुजरात के सरदार मल्लूखः से उज्जैन छीन लिया, किंतु हुमायूं के चले जाने के पश्चात् मल्लूखा ने उज्जैन पर पुद्ध: अधिकार कर लिया। सन् १५३६ में उसने कादिरशाह के नाम से अपने को मालवा का शासक घोषित कर दिया। सन् १५४२ में शेरशाह ने मालवा जीतकर उज्जैप पर कब्जा कर लिया। सन् १५५४ तक यहाँ पर "सूरी' शासको का कब्जा बना रहा। शासक शुजात खाँ की मृत्यू के बाद उसका पुत्र बाजबहादुर स्वाधीन हो गया। सन् १५६२ ई. में अकबर ने बाजबहादुर को परास्त कर उज्जैन को मालवा प्रान्त की राजधानी बनाकर एक प्रतिनिधि सूबा रख दिया। सन् १६५८ में उज्जैन के समीप ही औरंगजेब और उसके भाई मुराद ने राजकुमार दारा की ओर से लड़ रहे जोधपुर नरेश जसवन्तसिंह को परास्त किया। इस काल में भी उज्जैन की शोभा व प्रतिष्ठा प्रभावित हुई। सन् १७३३ ई. में मोहम्मदशाह ने अचानक जयपुर महाराजा सवाई जयसिंह को उज्जैन का प्रांताध्यक्ष सूबा नियत कर दिया। इसके बाद उज्जैन पुनः उन्नति की ओर अग्रसर हुआ। 

 

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