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कालिदास रघुवंश की कथा

अमितेश कुमार


रघुवंश की कथा का आरंभ महाराज दिलीप से होता है। कालिदास ने दिलीप के पहले के राजाओं की चर्चा करते हुए कहा है कि इस वंश का प्रादुर्भाव सूर्य से हुआ है और इसमें मनु पृथ्वी- लोक के सर्वप्रथम राजा हैं। उस मनु वंश में राजा दिलीप हुए। रघुवंश में दिलीप के विषय में तीन सर्ग हैं, जो महाराज रघु के प्रादुर्भाव की भूमिका- रुप में है। रघु के नाम पर रघुवंश नाम इस महाकाव्य को दिया गया है। रघु कालिदास का आदर्श राजा है, क्योंकि वह दिग्विजयी था। दिग्विजय का आख्यान चतुर्थ सर्ग में है। दिग्विजय के प्रसंग से समग्र भारत के विविध प्रदेशों में रघु को घुमाते हुए कवि को उन- उन प्रदेशों की विशेषताओं का वर्णन करते 
हुए राष्ट्रीय एकता का आभास कराना अभीष्ट प्रतीत होता है।

पंचम सर्ग में रघु की सभा में कौत्स नामक स्नातक के गुरुदक्षिणा के लिए आने की चर्चा है। रघु ने यद्यपि विश्वजित् यज्ञ में सर्व दान दे दिया था, फिर भी उसने कौत्स को पूरी दक्षिणा देने की व्यवस्था की। अंत में कौत्स के आशीर्वाद से उसे अज नामक पुत्र हुआ। युवावस्था में अज ने विदर्भ राजकन्या इंदुमती के स्वयंवर में भाग लेने के लिए प्रस्थान किया। मार्ग में उसने नर्मदा तट पर एक विशाल वन्य गज को मारा। वह मरते ही गंधर्व बन गया। उसने अज को सम्मोहनास्र दिया। विदर्भ पहुँचने पर अज का विशेष स्वागत हुआ। 

छठें सर्ग में इंदुमती अज को स्वयंवर में चुनती है। सातवें सर्ग में लौटते हुए मार्ग में अज का अन्य राजाओं से युद्ध होता है। वे सब पराजित होते हैं। अज का अयोध्या में स्वागत होता है। रघु ने उसे राज्य भार देकर सन्यास ग्रहण किया। आठवें सर्ग में रघु के मरने का वर्णन है। अज का पुत्र दशरथ हुआ। कालान्तर में इंदुमती नारदवीणा से च्युत पुष्प के आघात से मर गई। अज का रोना- धोना आदि बतलाते हुए कवि ने सर्ग को समाप्त किया है। नवें से बारहवें सर्ग तक दशरथ और रामविषयक वाल्मीकि- रामायण की कथा संक्षेप में कही गई है।

तेरहवें सर्ग में विमान द्वारा राम के सीता को लेकर अयोध्या लौटने की कथा है। मार्ग में अनेक दृश्य स्थलों से राम के भाविक संबंध थे, जिनकी चर्चा उन्होंने सीता से की। चौदहवें सर्ग में राम का राजकुल के सदस्यों से मिलन का मार्मिक वर्णन है। भरत ने उन्हें अपना राज्य लौटा दिया। रामराज्य का समारंभ हुआ। उस समय सीता गर्भवती थीं। उन्हें गंगा के तट पर बसे हुए तपोवनों को देखने की इच्छा हुई। इधर भद्र नामक दूत ने राम से कहा कि प्रजा आपके द्वारा सीता के पुनर्ग्रहण को ठीक नहीं समझती। राम ने लक्ष्मण से कहा कि सीता को वन में छोड़ आओ। लक्ष्मण ने ऐसा ही किया। वहाँ सीता की रक्षा करने के लिए वाल्मीकि- मुनि आ पहुँचे। वाल्मीकि ने राम के इस कुकृत्य की भत्र्सना की और सीता को अपनी पुत्री की भाँति रखा। इधर अयोध्या में राम ने अश्वमेध यज्ञ का समारंभ किया।

पंद्रहवें सर्ग में शत्रुध्न राम के द्वारा नियोजित होने पर मथुरा- प्रदेश के लिए प्रयाग करते हैं। वहाँ उन्हें ॠषियों के संतापक लवणासुर को मारना था। शत्रुध्न वाल्मीकि के आश्रम पर रात में रहे। उसी रात सीता को दो पुत्र हुए। शत्रुघ्न को यह समाचार मिला। उन्होंने मथुरा जाकर लवणासुर का वध किया।

वाल्मीकि ने सीता के पुत्र लव और कुश को संस्कार संपन्न करके, उन्हें अपनी कृति रामायण का गायन सिखाया। शम्बूक- वध के पश्चात् राम ने अश्वमेध का घोड़ा छोड़ा। 

उस यज्ञ भूमि में लव और कुश को राम ने बुलाया, क्योंकि उनके रामायण- गान की ख्याति सर्वत्र फैल चुकी थी। कालिदास ने लिखा है --

तद्गीतश्रवणैकाग्रा संसदश्रुमुखी बभौ।
हिमनिष्यन्दिनी प्रातर्निवर्तितेव वनस्थली।।
वयोवेषविसंवादी रामस्य च तयोस्तदा।
जनता प्रेक्ष्य सादृश्यं नाक्षिकम्पं व्यतिष्ठत।।

लव और कुश ने राम के पूछने पर अपने गुरु वाल्मीकि का नाम बता दिया। राम भाइयों के साथ वाल्मीकि के पास पहुँचे और उन्हें अपना सारा राज्य निवेदन किया। वाल्मीकि ने राम से कहा कि ये तुम्हारे पुत्र हैं। तुम इन्हें और सीता को स्वीकार कर लो। राम ने कहा कि प्रजा को सीता की शुद्धता पर विश्वास नहीं है। यदि सीता शुद्धता का प्रमाण देकर प्रजा को विश्वस्त करे, तो मैं उसे पुत्रों के साथ ग्रहण कर लूँ। सीता के समक्ष वाल्मीकि ने प्रस्ताव रखा। सीता ने कहा -- माता पृथिवी, यदि मैं सर्वथा शुद्ध हूँ, तो मुझे अपनी गोद में ले लो। उसी समय पृथिवी फटी और देवी प्रकट होकर सीता को गोद में लेकर चली गई। कालांतर में राम, लक्ष्मण आदि दिवंगत हुए।

सोलहवें से उन्नीसवें सर्ग तक कुश से लेकर अग्निवर्ण तक राजाओं का क्रमशः चरिताख्यान है। कुश ने एक दिन स्वप्न देखा कि अयोध्या की अधिष्ठात्री देवी नगरी की दुर्दशा का वर्णन कर रही है। तब तो कुश ने कुशावती श्रोतियों को दे डाली और अयोध्या भा गए। सरयू में विहार करते हुए कुश को कुमुद्वती नामक नाग- कन्या विवाह के लिए मिली। सत्रहवें सर्ग में कुश के इंद्र के लिए युद्ध करते हुए मारे जाने का वर्णन है। उसके पश्चात् उसका पुत्र अतिथि राजा हुआ। अठारहवें सर्ग में निषध नल, नभ, पुण्डरीक, क्षेमधन्वा, देवानीक, अहीनगु, शिल, उन्नाभ, वज्रनाभ, शंखण, व्युषिताश्व, विश्वसह, हिरण्यनाभ, कौशल्य, ब्रह्मिष्ठ, कमललोचन, पुष्य, ध्रुवसंधि और सुदर्शन राजा हुए। उन्नीसवें सर्ग में सुदर्शन का पुत्र अग्निवर्ण राजा हुआ। वह नाममात्र का शासक था। उसने सारा समय रानियों के साथ विलास में बिताया। उसे अंत में यक्ष्मारोग हो गया, जिससे वह नि:संतान मर गया। उसके मरने के समय उसकी पटरानी गर्भवती थी। वही सिंहासन पर बैठी। यहीं काव्य का अंत है। 

कालिदास के महाकाव्य का नाम रघुवंश ही क्यों है, यह निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। हरिवंश के नाम पर रघुवंश का नाम कालिदास के स्मृति- पटल पर आया होगा -- ऐसा प्रतीत होता है। हरिवंश में रघुवंश के राजाओं की नामावली भी मिलती है, पर इस सूची में दिलीप से पहले के और अग्निवर्ण से परवर्ती राजाओं की भी गणना की गई है।

उपयुक्त विवरण से स्पष्ट है कि रघुवंश की आख्यान- परिधि अत्यंत विशाल है और इसके आख्यान- तत्व का वैविध्य अन्यत्र किसी महाकाव्य में द्रष्टव्य नहीं है। ऐसे आख्यान का परम लाभ है कि कवि को मनोवांछित वर्णनों के सन्निवेश के लिए कोई कृत्रिम प्रयोग नहीं करना पड़ा है और साथ ही रस- निष्पत्ति में भावादिकों का एक पूरा संसार ही मिल गया है। इस आख्यान के आधिकारिक और प्रासंगिक भागों में देव, मानव, ॠषि, असुर और राक्षस से लेकर पशु- पक्षी तक विचरण करते हुए मिलते हैं, जिनसे कवि का सहानुभूतिमय काव्यात्मक परिचय है। महाकाव्य में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्रवृत्तियों को समान रुप से प्रतिष्ठित किया गया है। नि:संदेह सभी आख्यान- तत्वों को रमणीय काव्यात्मक परिधान देने में कालिदास को सफलता मिली है। पुरातनतम आख्यान- वृत्तों को भी कालिदास ने इस प्रकार चित्रित किया है कि वे शाश्वत जीवंत प्रतीत होते हैं।

नायक की श्रेष्ठता ओर उच्चता से रघुवंश का काव्य- गौरव सर्वातिशाली है। इस महाकाव्य के आरंभ में रघुवंश की गुणगरिमा का सम्पुट पाठ करके दिलीप का जो वर्णन किया गया है, वह काव्य को उच्चतम स्तर पर ला देता है। यथा --

तं वेधा विदधे नूनं महाभूतसमाधिना।
तथा हि सर्वे तस्यासन् परार्थेकफला गुणा:।। 

रघु को कालिदास ने इंद्र से भी बढ़ कर माना है। 

तमीशः कामरुपाणामत्याखण्डलविक्रमम्। 

आध्यात्मिक और आधिभौतिक दृष्टि से इंद्र के आदर्श को भारत- राष्ट्र के लिए अन्तर्हस्तीन बनाने के उद्देश्य से कालिदास ने अपने काव्यों में बहुविध उपक्रम किये हैं। वास्तव में वैदिक युग के पश्चात लोग इंद्र को भूल से रहे थे। इंद्र के पराक्रम को तत्कालीन समाज के समक्ष रख कर उसे कर्मण्य बना देने के लिए ही कवि ने पुनः- पुनः उन्हें राजाओं के साथ मिल- जुल कर काम करते हुए दिखाया है। कवि की दृष्टि में राजा दिलीप और रघु इंद्र के समान है। इंद्र ने घोड़ा ले जाते हुए रघु ने देखा और इंद्र के न मानने पर उससे युद्ध किया। उसके पराक्रम को देखकर -

तुतोष वीर्यातिशयेन वृत्रहा

कालिदास के अनुसार देवता मनुष्यों के साथ मिलते- जुलते थे। मगध- नरेश के असंख्य यज्ञों में इंद्र को पुनः- पुनः आना पड़ता था। परिणाम हुआ --

क्रियाप्रबन्धादयमध्वराणामजस्त्रमाहूतसहस्त्रनेत्रः
शच्याश्चिरं पाण्डुकपोललम्बान्मन्दारशून्यानलकांश्चकार।।

और तो और- इंद्र ने बैल का रुप धारण करके रघुवंश के राजा ककुत्स्थ के लिए असुरों के साथ लड़ने में वाहन का काम किया था।

केवल इंद्र ही नहीं, स्वयं इंद्राणी भी मानव - लोक में महान् कार्य - सम्भारों में सम्मिलित होता है।

इंद्र की सहायता युद्ध में करना में यह रघुवंश का कुलव्रत था। रघुवंश का परवर्ती राजा ब्रह्मिष्ठ मरने के पश्चात् इंद्र का मित्र बना।

कालिदास ने इंद्रादि देवताओं की बारंबार चर्चा अलंड्कारों में उपमान बना कर भी की है। कवि के शब्दों में दशरथ मानों पृथिवी पर अवतीर्ण इंद्र हैं। पर इतना ही नहीं। इंद्र के आदर्श को अग्रेसर को अग्रेसर करने के लिए कवि इस चर्चा को नहीं छोड़ना चाहता कि 

स किल संयुगमूर्व्हिध्न सहायतां
मघवतः प्रतिपद्य महारथः।
स्वभुजवीर्यमगापयदुच्छितं
सुरवधूरवधूतभया: शरै:।

इस श्लोक के द्वारा समकालिक राजाओं को इंद से भी बढ़ कर पराक्रमी बनने का प्रोत्साहन देना कवि का अभिमत है।

रघुवंश में कालिदास की शैली रस- प्रधान है। रस की साक्षात् निष्पत्ति के लिए उपयोगी अलंकारों और गुणों का संयोजन कवि ने स्थान- स्थान पर किया है। कालिदास ने रस तथा अलंकारादि के द्वारा काव्य- सौंदर्य में जो विशेष चारुता संपादित की, उससे प्रभावित होकर आलोचकों ने उन्हें रसेश्वर और उपमा- सम्राट की उपाधि दी है।

रघुवंश में राजाओं के जीवन- चरित्र के प्रकरण में साधारणतः वीररसात्मक घटनाओं की विशेषता होनी ही चाहिए थी। तभी तो क्षेत्रधर्म से राष्ट्र की सुरक्षा का परम प्रयोजन कालिदास के द्वारा सिद्ध हुआ है।

कालिदास की शैली को प्राचीन काल से ही भारत में सर्वोपरि प्रतिष्ठा प्राप्त हुई। मानव की सुकुमार भावनाओं का स्पर्श करके उन्हें यथोचित संस्कार देने के काम में कालिदास को अनुपम सफलता मिली है।

रघुवंश में कवि ने बहुविध छंदों का प्रयोग किया है, जिससे उसके प्रौढ़ पाण्डित्य और काव्याभ्यास का चिर अनुभव प्रकट होता है। इसमें अनुष्टुभ, प्रहषिणी, उपजाति, मालिनी, वंशस्थ, हरिणी, वसंततिलका, पुष्पिताग्रा, वैतालीय, तोटक, मन्दाक्रान्त, द्रुतविलम्बित, शालिनी, 
औपच्छन्दसिक, रथोद्धता, स्वागता, मत्तमयूर, नाराच तथा प्रहर्षिणी छंदों की छटा है। इससे प्रतीत होता है कि कालिदास ने कठिन और अप्रचलित छंदों का भी प्रयोग किया है।

कालिदास कवि होने के नाते साक्षात उपदेश देते हुए सामने प्रायः नहीं आते, पर वे मान- व्यक्तित्व के विकास के लिए समुचित पथ का प्रदर्शन अलंकार- व्याज से करते हैं। यथा--

इन्द्रियाख्यानिव रिपूंस्तत्वज्ञानेन संयमी।।
(संयमी तत्त्वज्ञान से इंद्रियों को वश में रहता है।)

उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि रघुवंश की आख्यान- परिधि अत्यंत विशाल है और इसके आख्यान- तत्त्व का वैविध्य अन्यत्र किसी महाकाव्य में द्रष्टव्य नहीं है। ऐसे आख्यान का परम लाभ है कि कवि को मनोवांछित वर्णनों के सन्निवेश के लिए कोई कृत्रिम प्रयोग नहीं करना पड़ा है और साथ ही रस- निष्पत्ति में भावादिकों का एक पूरा संसार ही मिल गया है, इस आख्यान के आधिकारिक और प्रासंगिक भागों में देव, मानव, ॠषि, असुर और राक्षस से लेकर पशु- पक्षी तक विचरण करते हुए मिलते हैं, जिनसे कवि का सहानुभूतिमय काव्यात्मक परिचय है। 

महाकाव्य में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्रवृत्तियों को समान रुप से प्रतिष्ठित किया गया है। नि:संदेह सभी आख्यान- तत्त्वों को रमणीय काव्यात्मक परिधान देने में कालिदास को सफलता मिली है। पुरातनतम आख्यान- वृत्तों को भी कालिदास ने इस प्रकार चित्रित किया है कि वे शाश्वत जीवंत प्रतीत होते हैं।

 

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