प्राचीन पंचाल के प्रमुख नगर एवं ग्राम


प्राचीन काल में पंचाल कैव्य देश के रुप में जाना जाता था। कहा जाता है कि त्रेतायुग के अंत में राजा भृम्यश्व के पाँच पुत्रों के आधार पर इसका नाम बदलकर पंचाल प्रदेश रख दिया था। हमें कैव्य देश के किसी नगर का साहित्यिक प्रमाण नही मिल सका है। इसका नाम पंचाल हो जाने के काफी समय बाद ही हमें कई नगरों व गाँवों के स्पष्ट प्रमाण मिल पाते हैं। इनमें से प्रमुख नगर व गाँवों का उल्लेख किया जा रहा है :-

कांपिल्य :-

इस नगर की पहचान फर्रूखाबाद जनपद के अंतर्गत गंगा नदी के किनारे बसे स्थ्ज्ञान कम्पिल से की गई है। यह स्थान २७#ं३९' उत्तर तथा अक्षांस ७९#ं२' पूर्व में अवस्थित है। आजकल यह एक खंडहर के रुप में भूमि में दबा पड़ा है।

राजा मृम्यश्व के एक पुत्र कांपिल्य के नाम पर ही इस स्थान का नाम भी कांपिल्य पड़ा। विद्वानों ने इसे भारत के महत्वपूर्ण नगरों में से एक माना है। इसे पंचाल की राजधानी होने का भी गौरव प्राप्त हुआ। साहित्यिक रचनाओं में विभिन्न रुपों में इसकी कई बार चर्चा हुई है। वैदिक साहित्य में "काम्पील वासिनी' का देवी के विशेषण के रुप में प्रयोग किया गया है। वाल्मीकिय रामायण में कांपिल्य नगर और उसके शासक ब्रह्मदत्त का वर्णन मिलता है। ब्रह्मदत्त जातक में इसे "कम्पिलरट्ट' या "काम्पिलराष्ट्र' कहा गया है। रामायण में इसे इंद्रलोक की तरह सुंदर बताया गया है। चीनी यात्री ह्मवेन- सांग इसका नाम "कपिथ' बताया है।

बौद्ध तथा जैन साहित्य में भी इस नगर का विवरण मिलता है। जातकों से ज्ञात होता है कि नगर से नदी तक राजपुरुषों तथा स्रियों के जाने के लिए एक कलात्मक सुरंग खोदी गई थी तथा इसे कलात्मक रुप से सजाया गया था। आवश्यक नियुक्ति में इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि यही स्थान जैनियों के १३ वें तीथर्ंकर श्रीविमल नाथ की जन्मस्थली है। यहीं उनके जीवन की पाँच पवित्र घटनाएँ, अवतरण, उत्पत्ति, राज्याभिषेक, दीक्षा तथा जैनत्व यहीं घटित हुई थी। इसी कारण यह स्थान पंचक कल्याणक नाम से भी प्रसिद्ध हुआ। युवा "सगइदसाव' में यहाँ भगवान महावीर के आने की चर्चा की गई है।
ऐसी मान्यता है कि द्रुपद की पुत्री द्रोपदी का स्वंयवर कांपिल्य में ही हुआ था। स्वंयवर के समय धृतराष्ट्र के पुत्रों के साथ हुए युद्ध में द्रुपद के दो पुत्र मारे गये थे। नगर के उत्तर- पश्चिम में एक बड़ा- सा, ८- १० मी. ऊँचा टीला है, जिसे स्थानीय लोग "द्रुपद टीला' के रुप में जानते हैं।

सांकाश्य ( संकिसा ) :-

सांकाश्य प्राचीन पंचाल जनपद के गौरवशाली नगरों में से एक था। इसके ध्वंसावशेष फर्रूखाबाद जिले में बसंतपुर नामक एक छोटे से गाँव के पास बिखरा हुआ मिलता है। यह गाँव २७#ं२' अक्षांस तथा ७९#ं२' देशांतर पर फर्रूखाबाद, एटा तथा मैनपुरी जिलों की सीमा पर स्थित है। प्राचीन कांपिल्य नगर से इसकी स्थिति ३० मील दक्षिण की तरफ तथा फर्रूखाबाद के पखना स्टेशन से ७ मील दक्षिण- पश्चिम की तरफ है। प्राचीन काल में यह नगर कान्युकुब्ज तथा अतिरंजी नगरों के बीच में पड़ता था। पतंजलि के महाभाष्य में उल्लेख है :-

गवीधुभतः सांकाश्यं चत्वारि योजनानि।

अर्थात् गवीधुमान् नगर से सांकाश्य चार भोजन ( १६ कोश उ ४० किलोमीटर ) है। गोविधुमान् की बाद में कुदरकोट के रुप में पहचान की गई।

ह्मवेनसांग ने सन् ६३६ में पोलीशान ( संभवतः अतिरंजीखेड़ा ) से सांकाश्य पहुँचा था। उसने इस नगर का नाम कीपिथ ( कपित्य ) बताया, जो "कम्पिल राज्य' के लिए प्रयुक्त किया जाना अधिक समीचीन लगता है। उसने इसे "सेंगकियसे' नाम से भी पुकारा है। इसके समीप काली नदी बहती है। इसका प्राचीन नाम इक्षुमती ( ईखवाली ) नदी था। नदी का यह नाम आज भी सार्थक है, क्योंकि यहाँ की उपजाऊ भूमि में ईख की अच्छी पैदावार होती है।

सांकाश्य का उल्लेख कई साहित्यिक ग्रंथों में मिलता है। रामायण ( आदि काण्ड ) में सीरध्वज जनक के भाई कुशध्वज द्वारा इस स्थान पर शासन करने का उल्लेख है। बौद्ध ग्रंथों में भी इसकी कई बार चर्चा हुई है। महीधर ""बृहज्जातक' की टीका में काम्पिल्य के एक मुहल्ले का नाम कपित्थक लिखा है। कहा जाता हे कि भगवान बुद्ध, ब्रह्मा तथा इंद्र के साथ इसी स्थान पर त्रेयर्जिंस्रश स्वर्ग से सीढ़ी द्वारा उतरे थे। यह स्थान संकिसा गाँव के पास टीले पर स्थित बिसहरी 
देवी के मंदिर के समीप माना जाता है। इसी के पास अशोक के स्तंभ का शीर्ष भाग पड़ा हुआ है। इस पर हाथी बनी हुई है, जिसकी सूढ़ टूट गई है। शीर्ष पर लगी पॉलिश दीदारगंज की यक्षिणी की तरह चमकदार है।

संकिसा गाँव के पूरब की तरफ १ किलोमीटर की दूरी पर चौखण्डी है। चौखण्डी से थोड़ी दूर स्थित भूमि को गाँव पाथे पंथावाली कहते हैं। यहाँ से दक्षिण की तर फ स्थित "नीवीं का कोट' के बारे में कनिंघम का मत है कि यहूं पहले बौद्ध संघाराम रहा होगा। वर्तमान में यह स्थ्ज्ञान साढ़े पाँच किलोमीटर की एक मिट्टी की चहारदीवारी- सी प्रतीत होती है। इसके अलावा संकिसा गाँव से ही एक महत्वपूर्ण पक्की ईंट,जो ११' न् ६' के आकार की है, प्राप्त हुई है। इस पर २री सदी ई. पू. का ब्राह्मी लिपि में प्राकृत भाषा का लेख है। यहाँ मिले इन सभी साक्ष्यों का विष्लेषण कर यह कहा जा सकता है कि मौर्यकाल में अशोक के समय से लेकर गुप्तकाल के अंतिम समय तक यहाँ स्थापत्य तथा मूर्तिकला का विकास होता रहा। अधिकांश पुरातात्विक सामग्री लखनऊ तथा अन्य संग्रहालयों में सुरक्षित है।

 

कान्यकुब्ज ( कन्नौज ) :-

कान्यकुब्ज वर्तमान में कन्नौज के नाम से जाना जाता है। कहीं- कहीं कान्यकुब्ज को "कन्याकुब्ज' तथा "कन्यकुब्ज' भी लिखा गया है। यह स्थान २७#ं२' अक्षांश तथा ७९#ं५९' पूर्व देशांतर पर स्थित है। यह फतेहगढ़ से ५३ कि. मी. दक्षिण- पूर्व तथा कानपुर से ८० कि. मी. उत्तर- पश्चिम की तरह पड़ता है। प्राचीन साहित्य में इसकी कई बार उल्लेख हुआ है। गाधि के नाम पर यह स्थान गाधिपुरी कहलायी। विश्वामित्र गाधि के ही पुत्र थे। वराहपुराण में इसका उल्लेख "महागृहोदय' के नाम से हुआ है। प्रबंध चिंतामणि में कान्यकुब्ज देश की राजधानी कल्यानकटक बताई गई है। बौद्ध ग्रंथ महावस्तु में कन्यकुब्ज तथा कनकुब्ज विनय पिटक में "कण्णकुब्ज' तथा दीपवंश महावंश एवं वंसत्थपकासिनी में कण्णगोच्छा तथा कण्णगोट्टा नाम बताये गये हैं। कहीं- कहीं इसे कनवज या कनवज्जा भी कहा गया है। ग्रीक लेखक टॉलेमी ( २ री सदी ) ने इस नगर को कनगोजा या कनोगिजा के रुप में उल्लेख किया है। चीनी यात्री फाह्यान ( ५वीं सदी ) ने इसे कोनोई ( ख़ठ्ठे-Nठ्ठेदृ-ज्ञ्रत् ) तथा ह्मवेनसांग ने क-नो-कू-श ( ख़ठ्ठे-Nदृ-ख़द्वे-च्ण्e) कहा है। बी. सी. लॉ. ने समुद्रगुप्त की प्रयाग प्रशास्ति में उल्लिखित कुसुमपुर को भी इसी नगर के रुप मे बतलाया है।

अमखसु के पुत्र पुरुखा यहाँ क प्रथम शासक थे। उसके बाद भीम, कांचनप्रम, सुहोतृ, जह्मु और कुश भी यहाँ के शासक हुए। मौर्यवंश के पश्चात् यहा#ू#ं शुग, पंचाल, कुशाण तथा गुप्तों क शासन का प्रमाण मिलता है। इसके अलावा मोखरी, प्रतीहार, गहड़वाल और गुर्जर- प्रतिहारो का भी यहाँ शासन रहा। नागभ द्वितीय, मिहिर भोज, महेंदग्रपाल और महीपाल यहाँ के प्रतापी शासक हुए। लौही के बाद से कान्यकुब्ज के राजवंश का अचानक अंत हो गया। कहा जाता है कि महात्मा बुद्ध स्वयं इस नगर में पधारे थे। अशोक ने यहाँ २०० फीट ऊँचा एक स्तूप भी 
बनवाया था।

सन् १९५५-५६ में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के खरा कराए गयो, १२ मीटर तक के उत्खनन कार्य से प्राप्त पुरावशेषों को चार सांस्कृतिका कालों में बाँटा गया है :-

१. चित्रित धूसर मृदभाण्ड, लालवाले मृदभाण्ड, काली ओप तथा लाल मृदभाण्ड.
२. काली वार्निश वाले मृदभाण्ड तथा ईंटों से निर्मित भवनों के अवशेष.
३. कुषाण कालीन अवशेष
४. मध्यकालीन अवशेष, लाखौरी ईंटों से निर्मित भग्नावशेष.

इसके अलावा यहाँ के ध्वंसावशेषों से विष्णु, शिव, सूर्य, गणेश, दुर्गा, महिषासुरमर्दिनी, बुद्ध आदि की कई प्रतिमाएँ भी मिली है। यहाँ से प्राप्त कसौटी पत्थर से निर्मित एक विष्णु की प्रतिमा बहुत लोकप्रिय है। यह यहीं के एक मंदिर में स्थापित है। यहाँ से मिले इतने सारे साहित्यिक तथा पुरातात्विक प्रमाण इस स्थान की प्राचीनता तथा उसके राजनैतिक, सांस्कृतिक, आर्थिक तथा धार्मिक महत्व को इंगित करते हैं।

 

ब्रह्मवर्त :-

ब्रह्मवर्त पंचाल जनपद का एक महत्वपूण्र नगर था। यह स्थान कानपुर से लगभग २२ कि. मी. उत्तर की ओर गंगा के दाहिने किनारे पर अवस्थित है। यह २६#ं३७' उत्तर अक्षांस तथा ७९#ं३५' पूर्व देशांतर पर पड़ता है। महाभारत में इसे उत्पलांरण्य के नाम से पुकारा गया है। वहीं पुराणों में इसे उत्पलावत् कानन उल्लिखित किया गया है। नंदलाल डे इसे वर्तमान "बिठुर' से जोड़ते हैं।

ब्रह्मवर्त से हमें पुरातात्विक प्रमाण प्राप्त हुए हैं। ये ताम्रयुगीन हैं। इसके पूर्व में एक टीला है, जो स्थानीय लोगों द्वारा "वाल्मिकी आश्रम के रुप' में जाना जाता है।

 

बिलसड :-

२७#ं२३' उत्तर अक्षांस तथा ७९#ं१६' पूर्वी देशांतर पर स्थित यह स्थान ब्राह्मण तथा बौद्ध धर्म का महत्वपूर्ण केंद्र था। एटा से यह ३७ मील की उत्तर- पूर्व में अलीगंज तहसील में पड़ता है। ७वीं सदी में चीनी यात्री ह्मवेनसांग ने यहाँ की यात्रा की थी। उसने अपने यात्रा- वृतांत में इस स्थान को पी-लो-शान-ना ( घ्त्-ख्रदृ-च्ण्ठ्ठेदः-N ) के रुप में उल्लेख किया है। 

यहाँ गुप्त सम्राट् कुमारगुप्त प्रथम ( ४१५ ई. ) का एक शिलालेख मिला है, जिसे एक हिस्से को स्कंदगुप्त के मिटरी स्तंभ के रचयिताओं ने पूरा किया है। चूँकि यह स्थान पुष्कलावती से ताम्रलिप्ति जाने के प्रसिद्ध व्यापारिक मार्ग पर स्थित था, अतः व्यापारिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण था तथा समृद्ध भी। 

 

 

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