परिव्राजक की डायरी

कोलों का देश


सिंहभूम जिले का एक छोटा-सा गाँव, जिनके पास ही एक पहाड़ी नदी है । उसी नदी के किनारे कोल नामक आदि मानव रहते थे । उस समय तक भी धातु का आविष्कार नहीं हुआ था । पत्थर के औजारों से ही मानव अपना सारा काम-काज चलाता था । उसी युग के कुछ औजार और अस्र इस क्षेत्र में पाए गए हैं, यही सुनकर मैं इसका पता लगाने यहाँ आया । प्रात: विभिन्न स्थानों पर घूमकर मैंने दो स्थानों से उद्भुज फरसे ढूँढ़ लिये । ये नीले रंग के कठोर पत्थर से निर्मित हैं । कितनी अच्छी इसकी धार है ! कितना सुन्दर गठन है !

उस समय के लोगों की बात सोच रहा हूँ । मात्र फरसा ही क्यों ? क्या ये लोग केवल युद्ध ही करते थे ? क्या इनमें आपस में प्रेम नहीं था ? नहीं, यह नहीं हो सकता । खेती में प्रयुक्त औजार, ये सम्भवत: लकड़ियों से बनाते थे । अभी भी पृथ्वी पर ऐसे कुछ समुदाय इस प्रकार के औजार बनाते हैं । सम्भवत: पत्थर के फरसे इत्यादि किसी अन्य में प्रयुक्त होते हों । जब हमें अभी यह नहीं पता है तो फिर इसकी व्यर्थ कल्पना करने से क्या लाभ ? पत्थर के ऐसे औजारों के निर्माण में कितना परिश्रम करना पड़ता है, क्यों न इसकी ही परीक्षा करके देख ली जाय ।

पास ही नदी का जल कल-कल करता बहता चला जा रहा था । दूर में कई कोल रमणियाँ निर्वस्र होकर स्नान कर रही थीं और उनमें से कुछ बैठकर पीतल के कलश को मिट्टी से माँज रही थीं । स्नान करने वाली स्रियाँ खुले शरीर के आनन्द में हँस रही थीं । इधर दो स्रियों ने पहनने का कपड़ा पत्थर पर सूखने के लिए डाला था । उनके शरीर पर मात्र छोटा-सा कटि-वस्र था । कपड़ा सूखने की प्रतीक्षा में वे काफ़ी देर से पीछे घूमकर खड़ी थीं ।

इधर, जल में उतरकर दो सुन्दर पत्थरों को उठाकर मैं उन्हे तोड़ने बैठा । ठक्-ठक- करके ठोंकते हुए जो कुछ भी बन रहा था, उसे हम केवल कल्पना से ही कह सकते थे कि यह फरसा है तो यह कुदाल है । मात्र देखकर बता देना किसके बस की बात है ? तब भी मैंने औजार बनाना नहीं छोड़ा । ठोंकते-ठोंकते जब लगभग औजार के समान ही एक वस्तु बना ली तो अचानक अंतिम आघात से उसके आगे का हिस्सा टूट गया । इससे मुझे दु:ख तो हुआ, परन्तु आदि मानव के प्रति मेरी भक्ति और भी बढ़ गई । उनके द्वारा निर्मित परिपूर्ण सर्वांगसुन्दर फरसा तो मेरे पास ही है । कितना कौशल, कितना परिश्रम और अभिज्ञान इसके पीछे छिपा हुआ है । पत्थर के अस्रों का व्यवहार करने मात्र से ही क्या वे असभ्य हो गए ? धातु का व्यवहार करना तो मानव ने तब सीखा नहीं था, परन्तु जितना वे जानते थे उसके लिए भी तो कम बुद्धि या कम परिश्रम नहीं ख़र्च करना पड़ता ।

दोपहर भर यही सब बातें सोचता रहा । दूर खेत ख़ाली पड़े थे । माघ मास का अंत हो रहा था । खेतों में अब धान नहीं था । सारा काट लिया गया था । मात्र नदी के उस तट पर छोटे-से खेत में खेसारी और चौलाई के पौधे उगे हुए थे । सरकंडे की एक छोटी-सी झोंपड़ी बनाकर वहाँ पर एक व्यक्ति पहरा दे रहा था । गायों और भैंसों का झुण्ड लेकर चरवाहे-बालक नदी की धारा में उतरे चले आ रहे थे । उनमें से ही एक बार-बार बाँसुरी से एक अति साधारण धुन बजा रहा था । सुर में मानो और मिठास नहीं बची थी । नदी के किनारे कहीं-कहीं पर एक आध बेर के पेड़ थे । यहाँ-वहाँ से जलावन की लकड़ियाँ इकट्ठा करने के बाद स्रियाँ बेर तोड़ती थी । एक स्री डाल पकड़कर झुकाती और पाँच मिलकर उसे तोड़कर खातीं । वे वन में अकेले नहीं जातीं, बल्कि दो-चार जनी मिलकर साथ जाती हैं । सम्भवत: ये वन में अकेले जाने से डरती हैं ।

उस तट पर जो एक छोटा-सा गाँव दिख रहा था, उसी के बीच से होकर सरकारी पक्की सड़क चली गई थी । कोल रसणियों का एक झुण्ड उसी रास्ते से होकर मज़दूरी करके लौट रहा था । धूप से तपती दुपहरी में वे एक वृक्ष की छाया में बैठ गईं । मैं एक पत्थर पर बैठा हुआ उन्हे देख रहा था । सिंहभूम जिले के अधिकांश निवासी कोल होते हुए भी बंगाली गीत गाते थे । स्रियाँ वृक्ष की छाया में बैठकर गीत गाने लगीं । वे क्या गा रही हैं, मैं यह अच्छी तरह से नहीं समझ पाया, परन्तु तभी प्रीति, काला, रमणी जैसे दो-तीन परिचित शब्द बहते हुए मेरे कानों में पड़े । इन विस्तृत मैदानों के देश में, जहाँ पर दूर काली पर्वत श्रृंखला घने वनों से घिरी हुई है, वहाँ पर सुर जैसे उस वातावरण में विलीन हो जाते थे । काफ़ी देर तक उन्हें तरह-तरह के गीत गाते हुए सुनता रहा । इसी बीच सड़क पर जाती हुई मोटर गाड़ी यात्री-दल को लेकर धूल उड़ाती चली गई । रमणियों की हँसी पर मैं चकित हो उठा । मुझे लगा कि इनमें से कोई भी ठिठेली कर बैठेगी । मेरे चकित होने से वे भी हँस पड़ीं और फिर उसी रास्ते से होकर चली गई ।

धीरे-धीरे सारा दिन बिताकर सूर्य पश्चिम की ओर चल पड़े थे । मैं पुन: नदी की ओर उतर आया । नदी की स्वच्छ जलधारा कई विचित्र रंगों के पत्थरों के ऊपर से होकर बही चली जा रही थी । मैं उनका निरीक्षण करने लगा । कोई पत्थर लाल तो किसी पत्थर के बीच-बीच में समान दूरी पर काली रेखाओं की श्रृंखला जल-तरंग में स्पष्ट दीख रही थी । उनमें से कई पत्थर नीले रंग व चौकोर आकार के थे । उनकी नीली आभा तरंगों के संग मानों नृत्य कर रही थी । मैंने कुछ पत्थरों को उठा लिया, परन्तु बड़े आश्चर्य की बात है कि उन्हें हाथ में लेते ही उनकी शोभा आँखों से विलीन हो गई । प्राचीन स्थान के वे पत्थर सामान्य पत्थर के टुकड़ों में परिणत हो गये । कहाँ गया उनका रुप या वैसा रंग ?

कोलों की जीवन-चर्या के विषय में सोचने लगा । वे हमारे क्षेत्र के लोगों के समान ही परिश्रम करते हैं, लज्जित होते हैं, भयभीत होते हैं, गीत गाते हैं, बाँसुरी बजाते हैं, सब कुछ करते हैं और युवावस्था में वे सब कुछ सुन्दर देखते हैं । वही एक ही मानव का मन जैसा हमारे क्षेत्र में हैं वैसा ही यहाँ पर भी है । भेद है तो मात्र अपनी बात स्वच्छंद रुप से कहने का । हम सभी लज्जित होते हैं, भयभीत होते हैं परन्तु खुलकर मानों सभी बातें नही कह पाते । दूसरी तरफ़, कोल कुछ भी कहने में भयभीत नहीं होते । प्रसन्न होने पर वे गीत गाते हैं, खेलने की इच्छा होने पर खेलते हैं, परन्तु स्री का नाच-गान पसन्द न होने पर वे उसे डंडे से पीटते भी हैं । हमसे स्रियाँ भयभीत होकर भाग जाती हैं, परन्तु ये अपने पति का उनके प्रति प्रेम का आभास पाकर आनन्दित भी होती हैं, यह भी मैंने देखा है । इस स्वच्छ वातावरण ने ही इनके जीवन को हमारे जीवन की अपेक्षा अधिक स्वच्छंद बनाया है । उनके जीवन में कम जलवाली पहाड़ी नदी मानों कल-कल शब्द करते हुए बहती चली गई है और हमारे जीवन का अंत:स्थल मानों सभ्यता के भारी जल से आक्रांत हो गया है । उनमें न गति है और न ही स्वच्छता । हम लोग आवरण के भार के भार से दबे हुए हैं । जीवन में जो घट रहा है, उसे सरल भाव से सोचने या क्रियान्वित करने में हमारा ऋदय संकीर्ण हो जाता है ।

मध्यवर्गीय बंगाली के जीवन की बात सोचना और अच्छा नहीं लगा । मैं नदी पार करते हुए अपने निवास स्थान की ओर लौट गया । नदी के उस ओर गाँव की तरफ़ किनारे पर मैंने एक नई क़ब्र देखी । सम्भवत: कोई स्री होगी, जिसे उत्तर दिशा में सिर रखकर गाड़ा गया है । मिट्टी बिल्कुल कच्ची थी । क़ब्र के ऊपर कई सारे पत्थर रखकर मिट्टी दबा दी गई थी, जिससे सियार या कुत्ते शव को न ले जा सकें । उसी से ऊपर रस्सी से बनी एक टूटी खटिया भी रखी थी । इस पर स्री को अंतिम यात्रा पर लाया गया था, पास ही लाल किनारे वाली एक साड़ी के फटे टुकड़े और कई सारे हरे पत्ते सजाकर रखे हुए थे । सम्भवत: कोई आत्मीय होगा जो उसकी स्मृति में वस्र और आभुषण-ये कुछ सामान्य वस्तुएँ चढ़ा गया है ।

मन भारी हो गया । मैं उसी रास्ते से लौटने लगा । दूर से पाँच-छह लोग एक बाँस पर एक गाय के चारों पैरों को बाँधकर ला रहे थे । आश्चर्य की कोई बात नहीं थी । गाय का माथा लटका हुआ था जो वाहकों की असामान्य गति के कारण ही झूल रहा था । शायद कुछ ही देर पहले इसकी मृत्यु हुई है, परन्तु पास आने पर सहसा मैं सिहर उठा । गाय के पार्श्व-भाग में अर्द्ध-प्रसूत बछड़े का आधा शरीर निकला हुआ था । माथा और एक पैर बाहर निकलने के प्रयास में वह मानों अचानक स्थिर हो गया था । मैं समझ गया कि यही अजन्मा बछड़ा अपनी माँ की मृत्यु का कारण बना है ।

वारकों के पीछे एक व्यक्ति आ रहा था । मैंने उससे पूछा "मर गई ?" बिना हमारी ओर देखे वह धीमे स्वर में बोला, "हाँ बाबू, मर गई ।" हाय जन्म और मृत्यु के इस अज्ञेय पटभूमि के समक्ष जैसे हम हैं, वैसे ही यह अबोध जीव भी है । दु:ख दोनों को एक समान ही होता है । मनुष्य-मनुष्य में भेद कहाँ है ? कोई कुछ समय के लिए आनन्द का अनुभव कर लेता है और कोई नही कर पाता, परन्तु दोनों के पीछे वह एक ही अज्ञेय पटभूमि है, जिसके सम्मुख जीवन की समस्त लीलाएँ आकाश के अंधकारपूर्ण आँचल में नक्षत्रों के समान चमकती रहती हैं और अंतत: एक दिन उसी अंधकारपूर्ण के बीच म्लान-शीतल हो जाती हैं । प्राचीन युग के मानव जिस प्रकार चिन्ह-रहित हो गए, उसी प्रकार हम सबका चिन्ह भी इस धरती की गोद में नहीं रहेगा ।

 

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित

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