परिव्राजक की डायरी

उत्सव


माघ १४ तारीख : कल संथालों का त्योहार है । सारा दिन नाच-गान होगा, मेला लगेगा । इस बीच धलभूम परगना से मेले के लिए अनेक दुकानदार आ गये हैं । दो हवाई झुले लगे हैं, परन्तु अभी अधिक लोग इकट्ठे नहीं हुए हैं । कल सुबह होते ही संथालों के अनेक झुण्ड आयेंगे । रात में नाच के समय, जो जिससे विवाह करना चाहता है, वह उसके सिर पर अचानक एक मुट्ठी सिन्दूर या एक मुट्ठी धूल डालकर भागने का प्रयास करेगा, यह संथाली समाज की एक प्रथा है । कन्या पक्ष के ग्रासवासी वर को पकड़कर खूब पीटेंगे । उसके पश्चात विवाह की अन्य व्यवस्था होगी । सब कुछ सजाया जायेगा । वास्तव में, सिंदूर देने के पहले वर और कन्या परस्पर सहमत रहते हैं । परन्तु ग्रामवासियों की पिटाई बहुत बुरी होती है । इसके बीच वे कुछ नहीं सोचते । मार खाने पर भी ठीक-ठाक रहने पर ही कन्या-रत्न का लाभ होता है । लाभ अधिक मिलने पर दाम भी कुछ अधिक हो जाता है ।

       माघ १५ तारीख : सुबह होते ही संथाल नर-नारियाँ पंक्तिबद्ध होकर वहाँ आने लगे हैं। सभी नये कपड़े-लत्ते और साड़ी आदि साथ ही लाए हैं । वे गाँव में पहुँचकर वृक्षों की छाया में बैठकर सज-धज रहे हैं । बाँस के चोंगे में तेल और पत्ते में मोड़कर साबुन लाए हैं । उनकी पोटली में नये कपड़े और विभिन्न प्रकार के गहने आदि भी हैं । पुरुष ढोलक, ढपली और बंसी इत्यादि बजाकर लोगों को दिखा रहे हैं और स्रियाँ सजने-धजने में एक-दूसरे की सहायता कर रही हैं । कुछ स्रियाँ लगातार गीत गाती रही है, परन्तु थोड़ी-थोड़ी देर में वे सब मिलकर एक साथ भी एक-आध गीत गा लेती हैं ।  

       दोपहर बाद हाट में खूब मेला लग गया था । वाद्य-यंत्रों की ध्वनि तीव्र हो गई थी । मैं नाच देखने चला गया । मैंने देखा, सभी स्रियाँ हँस रही हैं । सभी अपनी रुचि के अनुसार साज-सज्जा करके एक साथ नृत्य कर रही हैं । हरिया की दुकान पर आज असंख्य खरीदार हैं । वे सभी पत्तों के दोने में मद्यपान कर रहे हैं । तीन युवतियों ने हवाई झूला पर चढ़ने के लिए पैसा दिया और उस पर काफ़ी सटकर बैठ गईं । जगह बहुत कम थी, इसीलिए लोगों को धक्कम-धक्का करके उस पर बैठना पड़ रहा था । सभी झूलों के भर जाने पर झूले को तेज़ी से घुमाना आरम्भ किया गया । उसी के साथ तीने युवती मिलकर गीत गाने लगीं । हवाई झूला कर्कश शब्द करते हुए घुमने लगा, परन्तु युवतियों द्वारा ऊँचे सुर में गाये जा रहे मधुर गीत ने उस झुले के सारे दोषों को ढ्ँक दिया । झूले का एक भाग जब हू-हू शब्द करता हुआ नीचे आने लगता, तब भय से या आनन्द की सिहरन से वे चिल्ला उठते थे । युवतियों की आँखे भय से मानों जल उठती थीं । गले का सुर कुछ समय के लिए तीव्रतर होने का आभास देता था । कुछ देर तक दृश्य देखने के पश्चात् मैं दूसरे स्थान पर चला गया ।

       नाच वाले स्थान पर अत्यन्त भीड़ है । ढोलक बज रही है । एक झुण्ड के सभी युवक व युवतियाँ सारा मद पीकर दर्शको के बीच आकर खड़े हो गये थे । थोड़ी ही देर बाद नर्तक-दल एक-दूसरे का हाथ पकड़कर एक लम्बी कतार बनाकर नृत्य करने लगे । पहाड़ी झरने का जल जिस प्रकार नदी के स्रोत में मिलकर एक हो जाता है उसी प्रकार ये लोग भी पहले के नर्तक-दल के साथ मिलकर एक हो गये । बाजा बजाने वालों में एक वृद्ध भी था । उसके सिर पर पगड़ी, शरीर पर एक फटा कोट और कमर पर कोपीन की भाँति ही वस्र था । उसकी आँखे मादकता से भरी थीं । वह भी उनके साथ नाचने लगा । युवक तेज़ी से शरीर को तेज़ी से घुमा-घुमाकर नृत्य कर रहे थे । वह वृद्ध भी उनका अनुकरण करने का प्रयास कर रहा था, परन्तु मादकता या बुढ़ारे के कारण वह लड़खड़ जाता था । उसके नृत्य में वैसी तेज़ी नही थी। उसके उत्साह का कोई अंत नहीं था । उसके आनन्द का भोग करने में मुझे कहीं भी कमी नहीं दिखाई दी । ढोलक और नगाड़ों से शब्द बहुत तेजी से गूँज रहे थे । चारों दिशाएँ धुल से भर गई थीं । गीत के कोलाहल से जनता के हृदय में मानों आनन्द का तांडव उठने लगा, परन्तु मेरा मन न जाने कैसे उदास हो गया । मैंने बहुत समय से ऐसा सम्मिलित आनन्द-भोग नहीं देखा है और हमारे समाज का तो यह अंश भी नहीं है । ढोलक और नगाड़ों के डिम-डिम स्वर मेरे हृदय के भीतरी भाग तक की कँपा गये और मेरे मन में विषाद की छाया उभरने लगी । वर्षा का जल पड़ने से पहाड़ी नदी का स्वच्छ जल जिस प्रकार अचानक गेरुआ हो जाता है, संथालों का आज का नाच भी मुझे वैसा ही लग रहा था और उस नदी के जल में जिस प्रकार एक टूटा पत्ता बह जाता है, मेरी अवस्था भी वैसी ही हो गई थी । जिस प्रकार सूखा टूटा पत्ता नदी की उत्तुंग लहरों में कभी बह जाता है तो कभी डूबकर अदृश्य हो जाता है, तब भी वह लहरों से अलग है, मेरी अवस्था भी वैसी ही हो गई थी । चारों ओर आनन्द बरस रहा है । मेरा शरीर ढोलक की डिम-डिम से कम्पित हो रहा है, परन्तु मेरे मन के बीच से क्षोभ की संध्या धीरे-धीरे उतर गई । मैं उत्सव के प्रांगण से लौट चला । शाम ढल चुकी थी । दूर होने पर भी ढोलक की ध्वनि बहती हुई आ रही थी, परन्तु अधिक देर तक वहाँ रहने की मेरी इच्छा नहीं हुई । संध्या के अंधकार के संग-संग ढोलक की ध्वनि और तीव्र हो गई थी । कृष्ण पक्ष की रात होने से चारों ओर अंधकार था । केवल जहाँ नृत्य हो रहा था, वहाँ पेड़ों के पत्तों पर प्रकाश की कुछ छटा दिखाई पड़ रही थी ।

       रात जब और घनी होती गई तो अचानक याद आया कि संथाल युवक आज रात अपनी प्रेयसी के माथे में सिंदुर भरेंगे । मन में हुआ, जाकर देखें, शायह कहीं इस प्रकार के दृश्य देखने को मिलें ।

       मैं उसी अंधकार में चल पड़ा । इधर कुछ दूर आगे बढ़ने पर मैं शराब की दूकान के पास पहुँच गया । वहाँ बहुत-से युवक व युवतियाँ मद्यपान कर रहे थे । उन सभी के चेहरे पर आनन्द का भाव था । वे एक-दूसरे को प्याला आगे बढ़ा रहे थे । रास्ते के किनारे एक शराबी अत्यधिक शराब पीकर पता नहीं क्या बक रहा था । मैं अंधकार में नहीं रुक सका, परन्तु उसके बाद समझ में आया कि वह सभी के सामने रास्ते पर लघुशंका कर रहा है और दुकानदार को गाली दे रहा है । कुछ दूर आगे बढ़ने पर मैंने देखा कि तीन-चार पुरुष शराब के नशे में मिट्टी में लोट रहे हैं । इन सबके बावजूद भी संथाल युवतियों ने अपना संयम नहीं खोया था । वे यथासम्भव लटके-झटकों के साथ नाचती हुई गीत गाने में सहयोग दे रही थीं या पान खरीद कर अपने होंठ और मुँह को रँगकर इधर-उधर घूम-फिर रही थीं । जिस प्रकार वर्षा में नदी का जल मटमैला हो जाता है, उसी प्रकार उनके आनन्द का स्रोत भी मटमैला हो गया था । मन में जितने भी सुप्त तामसिक भाव संचित थे, वे सब इस स्रोत के थपेड़ों से मानों आज बहने लगे हों । इस तमस के आघात से मेरा अंत:करण पीड़ित हो उठा । उत्सव के प्रांगण को छोड़कर मैं उस गहन अंधकार में साल के वन-क्षेत्र में आ गया । वहाँ काफ़ी देर तक मैं टहलता रहा । मेरे मानस-पटल से मानसीप्रिया की मूर्ति बह गई । मैं धीरे-धीरे टहलते हुए मानों आनन्द की विभिन्न प्रकार की मूर्तियों को देखते-देखते चल रहा था । शाम को हवाई झूले पर वे तीन युवतियाँ, वृद्ध का नशे की हालत में नृत्य करना, एक के बाद एक करके सभी आँखों के परदे पर आने लगा । ढोलक और नगाड़े की डिम-डिम ध्वनि को स्मरण करने मात्र से शरीर रोमांचित हो उठा ।

       मैंने अपने शरीर के निकट एक व्यक्ति के अस्तित्व की अनुभूति का अनुभव किया । मैंने देखा कि मेरे साथ ही मेरी मानसीप्रिया भी इन सारे दृश्यों को निर्विकार भाव से देख रही है, उसका हाथ मेरे हाथ में जकड़ा हुआ है । मैंने नीचे झुककर रास्ते से एक मुट्ठी धुल उठाकर उसके सिर पर सन्यासी के भस्म लेप की तरह लगा दिया । सहसा अत्यन्त प्रकाशमान अनन्द से प्रिया का मुखमंडल उद्भासित हो उठा । वह मेरी ओर मुड़कर देखती रही । उसके सिर के काले बालों के बीच केवल दो आँखों की उज्जवलता देखते ही बनती थी । होठों की ओर मैंने नहीं देखा, परन्तु अपनी समग्र-सत्ता से यह अनुभव कर रहा था कि होठों पर दबी हँसी जैसे नाच रही हो ।

       साल के विशाल जंगल से होकर गुज़र रहा था । फैले हुए अंधकार में किसी वृक्ष से एक उल्लु बोल उठा । उसके स्वर में कोई चंचलता नहीं थी । इतने लोगों का नाच-गान, जैसे कुछ ही क्षणों में इस पक्षी के प्रयोजन पूर्ण संयत स्वर के आघात से मानों तुच्छ सामग्री में परिणत हो गया ।

       मैं क्षुभित मन से लौट चला, परन्तु प्रिया की वह सुन्दर छवि भी मेरे साथ लौटना चाहती थी । वह हँसी बार-बार मेरे हृदय में दीये के स्निग्ध प्रकाश की भाँति आनन्द बिखेरने लगी । पाँच वर्षों से संथालों की जिस जीवन-पद्धति को मेंने देखा था, अब मन में उसकी स्मृति धुल-पुँछ गई ।

       माघ १६ तारीख : अरुणोदय के पश्चात् सूर्य का प्रकाश फूटकर निकला है । पेड़ पर एक पक्षी दीर्ध विलम्बित स्वर में अपने आप ही कुछ-कुछ बोल रहा है । ढोलक की आवाज़ अभी भी सुनाई दे रही है, परन्तु उसकी तीव्रता जैसे कम हो गई है । दिन ज्यों-ज्यों चढ़ने लगा, त्यों-त्यों झुण्ड-के-झुण्ड संथाली अपने गाँवों की ओर लौट चले ।

       नदी के उस पार किस-किस तरह के पत्थर हैं, यह देखने के लिए मैं अपने एक साथी के साथ बाहर निकल पड़ा । हाथ मे हथौड़ी, कंधे पर झोला और एक दुरबीन तथा ऐसे कई अन्य यन्त्र मेरे पास थे । अपने काम के लिए मैं चल पड़ा । सारा दिन घुमते-घुमते दोपहर में प्राय: एक बजे पहाड़ छोड़कर पुन: मैंने गाँव का रास्ता पकड़ा । उस रास्ते में कई संथाली युवक व युवतियाँ लौट रही थीं । वे बहुत प्रसन्न थे । एक उन्मुक्त पक्षी की भाँति वे सभी गीत गाते हुए या बात करते हुए लौट रहे थे । एक बालिका ने अपनी भाव-भंगिमा से अपने साथी को दिखा दिया कि किस प्रकार हवाई झुला उन लोगों को झुलाकर इस तरह से नीचे से ऊपर उठा कर ले गया और यह कहते हुए वह जोरों से हँस पड़ी । उसके साथी भी उसी प्रकार ठहाके लगाने । वहीं कुछ ही दूर पर एक अन्य दल खेतों की मेंड़ से होकर जा रहा था । वे सभी संथालिनें एक बंगला गीत गा रही थीं :

                             राजा के बगीचे से आज फूल तोड़ूँगी -

                             राजा के बगीचे से आज फूल तोड़ूँगी -

       गीत तो बंगला का था परन्तु सुर संथाली था । इससे गीत बहुत मधुर लगा ।

       मैं भी हाथ की हथौड़ी को और ज़ोर से पकड़कर अन्यमनस्क भाव से चलने लगा । कल रात मैंने जिस प्रिया की सुन्दर मुख-छवि के दर्शन किये थे, वह पुन: मेरे सम्मुख आने लगी, परन्तु साल के वन के घने काले अंधकार के बीच मैंने उसको जिस भाव से पाया था, आज उत्सव के समाप्त होने पर दिन के प्रकाश में उस मूर्ति के उसी भाव ने मेरे हृदय को आनन्द से उद्वेलित नहीं किया । वह चित्र मानो थोड़ी देर के लिए स्थिर हो गया हो । उसका माधुर्य मानों कम नहीं हुआ था किन्तु, उसके दूर होने पर उसकी गहराई और हृदय को चंचल करने की क्षमता जैसे समाप्त हो गई ।

 

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित

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