परिव्राजक की डायरी

समुद्र


समुद्र  ! न जाने कितने ही रुपों में बार-बार इसे देखा है । संसार के द्वन्द्व और संग्राम में मेरा चित्त परिश्रांत हो उठा है । ऐसे में समुद्र के किनारे मात्र लहरों को ही देखते हुए कितना अच्छा लग रहा है । लहरों पर लहरों शब्द करती हुई टूट रही हैं । किनारे पर फैली बालुराशि पर दौड़ते हुए वे अपना अस्तित्व ही खो देती हैं । उसके पीछे फिर दूसरी लहर आ रही है और वह भी पहली की भाँति ही अस्तित्वहीन हो जाती है । वर्ष के बाद वर्ष, युग के बाद युग, इसी प्रकार से एक ही रुप, एक ही सुर में समुद्र के वक्ष पर लहरों की लीला चल रही है । उन्हें शान्ति नहीं है, वे भूलती नहीं, विश्राम नहीं करतीं और अनवरत इसी प्रकार गतिशील हैं ।

मैंने कांग्रेस के कार्य प्रतिष्ठान में कार्य करने का प्रयास किया है । अनेक लोगों के साथ काम किया । कार्य करते हुए अच्छा भी लगा, परन्तु कभी-कभी मन बहुत दु:खी हो उठता था । मैंने कर्मचारियों के बीच एक-दूसरे की सभी के सामने दोष-त्रुटि निकालकर उसे धूल-धूसरित करने की इच्छा देखी है, फिर उसी धूल के बीच अपनी यशोलिप्सा, क्षमता-प्रियता व कार्य से जी चुराने वाले व्यक्तित्व को छिपाने की चेष्ठा में मैंने उन्हे रत देखा । वे बाहर से दिखावा करते हैं कि उनके हृदय में शोषक वर्ग के प्रति क्रोध और शोषित वर्ग के प्रति सहानुभूति है । परन्तु भीतर जितनी तेजी से तमस भाव चल रहा है, उस तमस का पूरा परिचय पाकर मेरा हृदय दु:खी हो उठा है । मुझे लगा कि इनके मोह के परदे को बुद्धि से भेद करने पर सम्भवतः सब ठीक हो जायेगा, परन्तु लम्बे तर्क और विभिन्न आलोचना के बाद भी कोलाहल और द्वन्द्व का वेग दबा नहीं है । उनके आचरण से तंग आकर साधारण व्यक्तियों का हृदय और भी दु:खी हो उठा है । संसार से दु:ख को दूर करने की चिन्ता कुछ समय के लिए पुनः लौटकर आ गई है ।

आज समुद्र के किनारे बैठकर यही सब बातें सोच रहा हुँ - मनुष्य क्यों इतना अंधा होता है ? क्यों वह सब कुछ देखते हुए भी कुछ नहीं देखता ? क्या इस जड़ता से मुक्ति नहीं है ?

दूर क्षितिज की ओर देखता जा रहा हुँ । पास मे न जाने कितनी ही लहरें उठ रही हैं । उनके सशब्द किनारों से टकराने से किनारा मानों टूट रहा है । और भी दूर लहरों पर लहरें उठ रही हैं और गिर रही हैं । ये जो सफ़ेद पक्षियों के झुंड नीले जल के बीच भोजन की खोज में तैर रहे हैं, उन्हें कभी भी देखा जा सकता है । ये कभी भी वहाँ से नहीं जाते । इतनी लहरें समुद्र के वक्ष पर एक क्षण भी शांत नहीं होतीं; सर्वत्र चंचलता, क्षण भर का भी विश्राम किसी भी जल-बिन्दु के भाग्य में नहीं लिखा है, यह सोचते-सोचते अचानक मन में आया कि असंख्य लहरें तो उठती हैं, परन्तु सुदूर क्षितिज रेखा के निकटवर्ती प्रांत को तो ये सब मिलकर भी कण-मात्र हटाने में सक्षम नहीं हुई हैं । सभी लहरें इस रेखा के पास जाकर नष्ट हो जाती हैं । उसकी स्थिर और प्रशांत शक्ति के निकट लहरों का समस्त सम्मिलित विक्षोभ व सारी उग्रता मानों हार मान जाती है ।

यह सब देख-देखकर मेरे मन में भी इसी प्रकार के एक शांत भाव का उदय हो रहा है। कल मैं जिस व्यक्ति के स्वार्थ से दु:खी हुआ था व जिसके अनाचार से हृदय का समस्त क्रोध पुंजीभूत हो उठा था, आज प्रभात के सूर्य को नमन करते हुए नीली जल-राशि के निकट बैठकर सोच रहा हूँ कि वे भी तो इन लहरों के समान ही नगण्य हैं जो समुद्र के केवल ऊपरी भाग से बँधे हुए हैं । वे स्वार्थ के वश में हैं । अधिकारों की लालसा में झगड़ा कर रहे हैं । कितना चीख रहे हैं ! पारस्परिक चोट से कितनी ही फेनराशि को मथित करके वे आगे बढ़ रहे हैं परन्तु समग्र मानव जन-समुद्र के बीच उनका स्थान कहाँ है ? मनुष्य की विराट् ऐतिहासिक परिधि के बीच उन्होंने कितने विक्षोभ का सृजन किया है ? समग्र इतिहास विश्व के समान ही विशाल क्षितिज रेखा के द्वारा सीमित है, वहाँ व्यक्ति-विशेष के जीवन-मरण का क्या मूल्य है ? उनके समस्त आंदोलन का कितना मुल्य है ? वास्तव में समुद्र को जिस एक रुप मे देखा है, वह मात्र वही नहीं है । मैं मनुष्य हूँ । अपनी प्रशांत दृष्टि से मैं समुद्र के बीच आज जिस विराट् अचंचल रुप की खोज कर रहा हूँ, वही सब कुछ नहीं है । आज दिन का प्रकाश जब चारों दिशाओं में उद्भासित हो रहा है, नीले आकाश के शरीर पर सफ़ेद पक्षियों की एक पंक्ति पंख फैलाकर इधर-उधर जड़ रही है, ऐसे में समुद्र का एक और रुप मेरे स्मृति-पथ पर उदित हो रहा है । परन्तु विचारों में जैसे उसे स्थान नहीं मिल रहा था । वर्षों पहले रात के अंधकार में मैंने समुद्र का एक और रुप भी देखा था । उस समय आषाढ़ का महीना था । रात के साथ-साथ ही आकाश काले बादलों के भार से टूटकर मानों गिरा जा रहा था । बहुत ज़ोरों की हवा चल रही थी और मूसलाधार वर्षा पृथ्वी पर उतरी चली आ रही थी । मैं घर के बरामदे में निश्चिन्त होकर बैठा हुआ था । तेज़ी से बहती हवा से खिड़की खुल गई और सभी चीज़े बिखर गयीं । खिड़की बंद करने गया तो मैंने देखा कि जल की बूँदें तीरों की तरह आकर गिर रही हैं ।

अचानक घर से बाहर जाने की इच्छा हुई । अब रुकना किसके वश में था ? शरीर पर एक चादर डालकर मैं समुद्र की ओर बढ़ने लगा । वर्षा के वेग के कारण सिर नीचे किये चलने लगा और आँखों के सामने वर्षा की झड़ी में घूर-घूर कर ताकते हुए रास्ते को पहचानने का प्रयास करने लगा । थोड़ी-थोड़ी देर पर बिजली चमक उठती थी और उसी के प्रकाश में मुझे यह दिखता था कि वर्षा की बूँदें किस प्रकार तीर के समान गिर रही हैं ।

समुद्र के किनारे पहुँचकर लगा कि हाँ, देखने लायक दृश्य है । आकाश के बादल समुद्र के काले जल में एकाकार हो गये हैं । और दिनों तो लहरों की श्रेणी, किनारे पर फैली बालू से टकराकर टूट जाती थी और फेनराशि को छोड़कर लौट जाती थी, परन्तु आज इस अंधकार में मैंने अनुभव किया कि समुद्र का मात्र आँचल ही नहीं, उसका समग्र विस्तीर्ण वक्ष प्रदेश मानों थोड़ी-थोड़ी देर पर मथित हो उठता है । लहरों के बाद लहरें सहस्रशीर्ष-फण के समान उन्मत भाव से बालू-बिछी भूमि की ओर दौड़ती चली आ रही हैं और ऐसा गर्जन ! ऐसा घोर अंधकार ! मेरा सारा शरीर मानों उसकी छटा से सिहर उठा था ।

बालू-बिछी भूमि पर एक परित्यक्त नाव की आड़ में बैठकर बहुत देर तक मैं यह दृश्य देखता रहा था - वही याद आ रहा है । पास में ही किसी गृहस्थ के घर में एक कुत्ता था जो भय से कुछ देखते हुए प्राणघातक चीत्कार कर रहा था । मुझे याद है कि समुद्र के घोर व गम्भीर शब्दों को भेदकर कुत्ते की वह आवाज़ मेरे कानों में आ रही थी और तब मन में हुआ कि प्रकृति के चारों दिशाओं में मचे विप्लव का वास्तव में इस अबोध जीव को कोई अनुभव नहीं हो रहा है । स्वयं क्षुद्र होते हुए भी इस क्षुद्र जगत् में कहाँ क्या हुआ है, यही सोचकर वह इस प्रलय के बीच भी परेशान है ।

इसी तरह से समुद्री लहरें और गम्भीर गर्जन एक दिन मेरे हृदय में एक महत्वपूर्ण भाव ले आये थे । आज उसका दिगन्त प्रसारित शांत रुप हृदय को प्रशांत कर रहा है ।

परन्तु आज एक और बात मेरे मन में आ रही है, जबकि उस दिन, उस तूफ़ानी रात में यह तो मन में नहीं आयी । मन में हुआ कि समुद्र तो जड़ है । उसमें चित्त कहाँ है ? उसमें प्राण नहीं है   । उसके ऊपर से शांत, शीतल, उग्र, गम्भीर न जाने कितने ही रुपों के दिन एक-एक करके निकलते चले जा रहे हैं । समुद्र के पास क्या ये मूल्य टिक सकते हैं ? उसमें स्मृति नहीं है, वेदना नहीं है । परन्तु मैं मनुष्य हुँ, हृदय के प्रत्येक भाव के आलोड़न से सुर के साथ सुर मिलाकर समुद्र के नये-नये रुपों को बाँधकर जी रहा हूँ । मेरे मन में मन्त्र के स्पर्श से समुद्र आज जीवन्त हो उठा है । हृदय में, अपने रंग में रंग मिलाकर प्रकृति की पटभूमि से अपने लिए अभिनय के रंगमंच का सृजन कर लेता हूँ ।

यही क्या सत्य नहीं है कि जड़ प्रकृति अटल-स्पर्श अंधकार के समान रुपहीन व वेदनाहीन है ? हमारा हृदय उसे जो रुप देता है, वह उसी से सज उठता है - क्या यही उसके विषय में सरल सत्य नहीं है ?

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित

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