परिव्राजक की डायरी

कवि


पुरी जिले में कोणार्क-मन्दिर से लगभग बीस मील दूर रेंच नामक एक गाँव है । लगभग बारह वर्ष पहले की बात है । उस समय वहाँ वीरकिशोर मोहन्ती नाम के एक सज्जन रहते थे । उस समय तक वे काफ़ी वृद्ध हो चुके थे । वे अब जीवित हैं या नहीं, यह मुझे पता नहीं है । जो भी हो, एक दिन दोपहर बाद हम लोग उस गाँव से निकट से होकर गुज़र रहे थे । बहुत दिन पहले निकट के किसी गाँव में हमने मोहन्ति साहब के विषय में सुना था । वे भगवान के अनन्य भक्त व परोपकारी पुरुष थे । इससे सभी के मन में उनके प्रति श्रद्धा का भाव था । वे उड़िसा भाषा में बहुत अच्छी कविताएँ लिखते थे । इसके लिए वे बड़े प्रसिद्ध भी थे । मैंने सुना कि उन्होंने ही गाँव की पाठशाला की स्थापना भी की थी । इन्हीं सब कारणों से मुझे उनसे मिलने की बहुत आकांशा थी । दिन बीतता जा रहा था । यही सोचकर हम लोग मुख्य रास्ते से कुछ दूरी पर स्थित गाँव का रास्ता पकड़कर रेंच गाँव की ओर रवाना हो गये । गाँव की पाठशाला के निकट पहँचते ही दो-तीन सज्जन हम लोगों का स्वागत करने आगे बढ़े । इनमें दीर्ध शरीर व गौर वर्ण वाला एक व्यक्ति भी था । वह बहुत उम्र वाला लग रहा था । उसके सिर के बाल पक गये थे और गले में तुलसी की एक बड़ी माला थी । परिचय होने पर पता चला कि यही वीरकिशोर बाबू हैं । कुशल-क्षेम होने के बाद हम लोग उनके साथ पाठशाला देखने के लिए गये । मैंने सुना कि पाठशाला में उच्च प्राइमरी श्रेणी की शिक्षा भी दी जाती है।

वहाँ प्रवेश करते ही मेरी दृष्टि दो ऐसी वस्तुओं पर पड़ी, जिन्हें मैंने पुरी ज़िले की किसी अन्य पाठशाला में नहीं देखा । पाठशाला में एक हिन्दु विधवा स्री अन्य शिक्षक गणों के साथ छात्र-छात्राओं को पढ़ा रही थी । उन छात्राओं में ऐसी उम्र की दो-तीन बालिकाएँ थीं, जिनके समवयस्क छात्रा को मैंने किसी अन्य पाठशाला में नहीं देखा । वीरकिशोर बाबू ने उनका परिचय देते हुए कहा कि यह शिक्षिका मेरी बेटी है और इसी कन्या के लिए मैंने यह पाठशाला स्थापित की है ।

       उनकी कन्या का विवाह बहुत साल पहले बहुत छोटी उम्र में ही हो गया था और विवाह के कुछ दिनों के बाद ही वह किसी संतान के विधवा हो गई । अपनी जाति में विधवा विवाह की प्रथा न होने से मोहन्ती बाबू अपनी कन्या के प्रति बहुत चिन्तित थे । तब, एक दिन उन्होंने सोचा कि यदि मैं अपनी पुत्री को शिक्षिका बना दूँ तो इससे वह बच्चों के साथ जीवन की बहुत-सी यंत्रणाओं को भूलने में सक्षम हो जायेगी । परन्तु उड़ीसा का ग्राम्य समाज बंगाल की अपेक्षा और भी अधिक अन्तर्मुखी था । ऐसे समाज में बेटी के शिक्षिका बनाने के लिए, उसको शिक्षा देने के लिए शहर भेजने का साहस, इच्छा रहते हुए भी बहुत कम लोगों को होता था; फिर भी वीरकिशोर बाबू ने साहस करके कन्या को कटक ट्रेनिंग स्कूल भेज दिया । इसके जिस परिणाम की सम्भावना थी, वही हुआ । इन्हें जाति से बाहर निकाल दिया गया । परन्तु बिना धैर्य खोये वे कन्या की शिक्षा के पूरा होने की प्रतीक्षा करने लगे । कन्या की शिक्षा समाप्त होने के पश्चात मोहन्ती बाबू ने गाँव में बालक-बालिकाओं के लिए एक पाठशाला की स्थापना की, किन्तु दु:ख का विषय था कि व्यवस्थित घर के कोई भी विद्यार्थी पाठशाला नहीं आये । तब मोहन्ती बाबू तथाकथित निम्न श्रेणी के छात्र और छात्राओं को पकड़कर लाने लगे। बहुत दिनों तक इसी प्रकार चलता रहा । तब गाँव के लोगों ने धीरे-धीरे यह अनुभव किया कि पाठशाला से जुड़े छात्र-छात्राओं की यथेष्ट उन्नति हो रही है । तब अपनी भूल को स्वीकार करके वे क्रमशः मोहन्ती बाबू से मिलने लगे । उनके चारित्रिक सद्गुणों से आकृष्ट होकर ग्राम्य समाज ने उन्हें पुनः जाति में प्रवेश दे दिया । इसी कारणवश ग्रामवासियों ने भेंट स्वरुप उन्हें तुलसी की एक माला उपहार में दी । उसी माला को बार-बार दिखाते हुए मोहन्ती बाबू ने कहा, "यह मुझे जीवन के समान प्रिय है," क्योंकि जाति-मंडली ने अपनी भूल स्वीकार कर स्वेच्छा से आगे बढ़कर उन्हें यह माला प्रदान की थी ।

       परन्तु जाति से बाहर निकाले जाने से लेकर पुनः जाति में शामिल किये जाने के बीच अठारह वर्षों का एक लम्बा समय बीत गया था । हमने विस्मित होकर पूछा कि वे कैसे इतने दिनों तक स्थिर भाव से गाँव में रहे ? मोहन्ती बाबू ने उत्तर दिया, "गाँव के लोगों ने गलती की है, इसी समझ ने मुझे जीवित रखा था । भूल करने वाले के ऊपर क्रोध कैसे कर्रूँ ? एक-न-एक दिन निश्चय ही वे अपनी गलती को समझ जायेंगे । मैं तो मात्र उस दिन की प्रतिक्षा में बैठा था ।" मनुष्य की अंतरात्मा के प्रति ऐसा प्रगाढ़ विश्वास देखकर वास्तव में मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ, जिसने इस विश्वास पर अठारह वर्षों की लम्बी अवधि तक लोगों का विछोह सहन करके भी अपने चरित्र का माधुर्य नहीं खोया । मेरा सिर उनके प्रति श्रद्धा से अपने आप झुक गया । बात करते-करते ही हम लोग पाठशाला के निकट के उद्यान में आ गये । पहले तो मैंने नहीं देखा, परन्तु बाद में गौर किया कि बगीचे में मात्र बेला, जूही, मल्लिका, तुलसी जैसे नाना प्रकार के सुगंधित फूल ही सुसज्जित थे । कितने ही बीघा ज़मीन पर फूलों के ही पेड़-पौधे थे और कोई भी पेड़ वहाँ नहीं था । मोहन्ती बाबू से पूछने पर उन्होंने बताया कि फलों की चाहत तो सभी को होती है, अंततः यदि दो-चार लोग भी फूलों की चाह नहीं करेंगे तो सारी पृथ्वी नीरस और आनन्द रहित हो जायेगी । वास्तव में यह बातों का चमत्कार मात्र था, परन्तु यह सुनकर और भी आश्चर्य हुआ कि सारा बगीचा मोहन्ती बाबू और उनके भतीजे ने मिलकर लगाया है, किसी और का परिश्रम इसमें नहीं लगा । मैंने मन-ही-मन सोचा कि वास्तव में ही ये सौन्दर्य के उपासक कवि हैं जो पूर्वजों के कमाये पैसे पर आलसी बनकर मात्र सुन्दर-सुन्दर वस्र नहीं धारण करते, बल्कि अपने परिश्रम के द्वारा जीवन के विभीन्न प्रकार के दु:खों और पीड़ा के बीच सौन्दर्य को विविध भाव से प्रतिष्ठित करते हैं । वही सच्चे कवि होते हैं, उन्हीं से सौन्दर्य की उपासना करने के अधिकार का जन्म हुआ है परन्तु हमें वह अधिकार नहीं है ।

       संध्या उतर गई । फिर हम लोग मोहन्ती बाबू से विदा लेकर गन्तव्य की ओर रवाना हो गये । रास्ते भर मैं यही सोचता जा रहा था कि आज वास्तव में मेरा एक कवि से साक्षात्कार हुआ था, जिसे चारों ओर के जीवन से किसी प्रकार का विरोध नहीं और जिसकी चारित्रिक सुरभि से वास्तव में चारों दिशाएँ सुरभित हो उठी हैं ।

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© इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र पहला संस्करण: १९९७

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प्रकाशक : इन्दिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केन्द्र सेंट्रल विस्टा मेस, जनपथ, नयी दिल्ली - ११० ००१ के सहयोग से वाणी प्रकाशन २१-ए, दरियागंज, नयी दिल्ली - ११० ००२ द्वारा प्रकाशित

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