राजस्थान

मेवाड़ में संयुक्त परिवार प्रथा

अमितेश कुमार


मेवाड़ में संपत्ति का आधार भूमि था। १९ वीं सदी के पूर्वार्द्ध तक भूस्वामित्व अधिकांशतः सामूहिक था। प्रत्येक परिवार कई पीढियों तक अपनी पैतृक भूमि से बँधा रहता था। क्योंकि परिवार के विभाजन होने पर भूमि का भी बँटवारा हो जाता था। लेकिन चूँकि भूमि विभाजन की प्रवृति अपेक्षाकृत कम थी, अतः पितृ-सत्तात्मक पद्धति पर आधारित संयुक्त परिवार प्रथा का प्रचलन रहा।

इसके अतिरिक्त कृषि-कर्मी परिवारों को श्रम-शक्ति की आवश्यकता था। इसके लिए संयुक्त-परिवार की स्थिति का बना होना अनिवार्य सा हो जाता था। दूसरी तरफ व्यावसायिक परिवारों को भी श्रमशक्ति की आवश्यकता महसूस होती थी। मिस्री, दस्तकार तथा निम्न-जातियों मे परिवार की आय पर पूरे परिवार का संयुक्त अधिकार माना जाता था। इसके अलावा सामाजिक भय भी संयुक्त परिवार की प्रथा को बनाये रखने में मदद करता रहा।

राजपूतों में संयुक्त परिवार प्रथा भिन्न स्थिति में पाई जाती थी। परिवार के मुखिया की जीवित अवस्था में उसके पुत्र, पौत्र, पुत्र-वधुएँ संयुक्त परिवार में रहते थे, किन्तु मुखिया की मृत्युपरान्त जागीर अथवा सम्पत्ति का उत्तराधिकारी ज्येष्ठ पुत्र हो जाता था। शेष पुत्रों को जागीर का ग्रास (रोटी खर्च) अथवा सम्पत्ति का भाई-भाग दे दिया जाता था। अतः राजपूतों में अधिकांशतः परिवार व्यक्तिवादी थे। १९ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में परिस्थितियों में भारी बदलाव देखा गया। इसके प्रमुख कारण थे: -

- नया भूमि बन्दोबस्त
- परिवार पर बढ़ता हुआ आर्थिक दबाव
- कृषि-भूमि की सीमितता
- भूमि पर व्यक्तिगत अधिकार की भावना
- परिवार की स्रियों में पारस्परिक वैमनस्य
- संयुक्त संपत्ति व भूमि-विभाजन को लेकर गृह-कलह आदि।

उपरोक्त कारणों से मुखिया के जीवित अवस्था में ही परिवार का विघटन शुरु हो गया। अंग्रेजों द्वारा किये गये विभिन्न सामाजिक तथा प्रशासनिक सुधारों जैसे शहरीकरण, यातायात के साधनों का विकास तथा भौतिकवादी वातावरण ने भी व्यक्तिवादी परिवारों को प्रोत्साहित किया।

इन सब बदलावों के बावजूद वृद्ध माता-पिता को आवश्यकतानुसार खर्च देना तथा बीमारी आदि में उनकी सेवा करना, संतान अपना नैतिक कर्त्तव्य समझते थे। व्यक्तिवादी परिवारों के विकास के बावजूद संयुक्त परिवारों का प्रचलन समाज में अभी भी ज्यादा स्वीकार्य था।

 

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