राजस्थान

मेवाड़ी जीवन की सामाजिक समस्याएँ

कन्या वध

अमितेश कुमार


१८ वीं और १९ वीं शताब्दी के मध्य तक मेवाड़ में कन्या वध की प्रथा सीमित मात्रा में प्रचलित थी, लेकिन धीरे-धीरे इस घृणित कृत्य ने गंभीर रुप धारण कर लिया तथा कुछ हद तक परम्परा का हिस्सा बनता गया।

कन्या वध की परम्परा की उत्पत्ति का सर्वप्रमुख कारण था, विवाह की समस्या। किसी भी कन्या का विवाह अपने से उच्च कुल अथवा खांप में किया जाना उचित माना जाता था। कोई भी राजपूत अपने सम्पूर्ण कुल के सदस्यों को भाई-बहन के रुप में मानते थे, अतः अपने कुल में शादी नहीं कर सकते थे। अपने से निम्न कुल में कन्या विवाह समाज में प्रतिष्ठा के खिलाफ माना जाता था।

उच्चोच्च वंश विवाह की परम्परा के कारण वैवाहिक सम्बन्धों का क्षेत्र काफी सीमित हो गया। उच्च घराने में विवाह करना खर्चीला था। उनक अनुरुप दहेज तथा त्याग के खर्चे जुटाने में लोग आर्थिक रुप से पंगु हो जाते थे। मेवाड़ पर मराठों के अतिक्रमण व लूटमार के कारण जनता की आर्थिक स्थिति पहले से ही दयनीय थी। इस प्रकार परिस्थितिवश राजपूतों ने कन्या वध का विकल्प चुना। ज्ञातव्य है कि खुद महाराणा व सामन्तों में यह प्रथा नहीं अपनाया गया।

शुरु में कन्या वध की प्रथा के विरुद्ध कोई ध्यान नहीं दिया गया। वैसे तो अधिकांश राजपूत कन्या वध क विरोधी थे, लेकिन इस परम्परागत प्रथा को समाप्त करने के लिए कोई भी व्यक्ति पहल करने को तैयार नहीं था।

मेवाड़ के महाराणा ने सर्वप्रथम, १८३४ ई. में मीणा जाति के लिए कन्या वध को गैर कानूनी घोषित कर दिया। समस्या की जटिलता को देखते हुए पुनः २४ मई १८४४ ई. को सभी जातियों के लिए इस प्रथा को गैर कानूनी घोषित कर दिया गया। लेकिन चूंकि कन्या वध की परम्परा लोगों के मनःस्थिति से जुड़ी थी, अतः शिशु वध की घटनाओं में शनै: शनै: कमी तो आई लेकिन पूरी तरह समाप्त नहीं हो पाया।

 

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