राजस्थान

जयपुर राज्य के शासकों का इतिहास
महाराजा सवाई जयसिंह जी -
ii

राहुल तोन्गारिया


दूसरा जाट युद्ध
मालवे की दूसरी बार सूबेदारी
कुशत्तल पंचोलास का युद्ध
तीसरी बार मालवे की सूबेदारी
साहित्य और यज्ञ

खगोल विद्या
स्थापत्य कला
सामाजिक सुधार
सेना
शासन - व्यवस्था

 

जयसिंह जी द्वितीय का जन्म मिगसर वदी ६ वि० सं० १७४५ ई० को राजा विष्णुसिंह जी की राठौड़ रानी केशरीसिंह खरवा की पुत्री इन्द्र कँवर जी के गर्भ से हुआ था। राजा विष्णुसिंह जी की मृत्यु होने पर मिगसर सुदी ७ वि० सं० १७५६, जनवरी २५ ई० को ये आमेर की गद्दी पर बैठे।

इनके पिता के समय में बादशाह इनको दक्षिण में बुलाना चाहते थे। इनके दादा की कम उम्र में दक्षिण में मृत्यु हुई थी, इस कारण विष्णुसिंह जी अपने पुत्र को दक्षिण में नहीं भेजना चाहते थे। लेकिन बादशाह के ज्यादा दबाव देने पर ई० १६९८ में ये दक्षिण गये। वहां पर बादशाह ने इनकी तीव्र बुद्धि देखकर इनको 'सवाई' कहा था। तभी से इनके नाम के पहले उपाधि लग गई जो अभी तक जयपुर के राजाओं के नाम के साथ जुड़ी हुई है। आठ महीने वहां रहकर ये वापिस आमेर लौट आये।

गद्दी पर बैठने के बाद इन्हें दक्षिण में बुलाया गया। बादशाह ने इनको राजा का खिताब व १५०० जात, १००० सवार का मामूली मनसब बना दिया। दक्षिण में पहुँचने पर इन्हें शा० बीदारबस्त के पास नियुक्त किया। बादशाही सेना ने खेलनां के किले पर भारी हमला किया। उसकी दीवारों को तोड़कर सबसे पहले जयसिंह जी का कछवाहा सेना दुर्ग में प्रवेश हुई तथा उसकी बुर्ज पर आमेर का पंचरंगा झंडा फहराया गया। इस समय जयसिंह जी की उम्र केवल १४ वर्ष थी। यह हमला ११ मई ई० १७०२ को हुआ था। युद्ध में इनका दीवान बुद्धसिंह मारा गया। इस विजय पर इनका मनसब २००० हजार कर दिया गया। इसके बाद जब शाहजादा मालवे का सूबेदार हुआ तब उसने जयसिंह जी को वहाँ का नायब सूबेदार बना दिया जिसे औरंगजेब ने नामंजूर कर दिया तथा उसने लिखा कि आइन्दा किसी हिन्दू को फौजदार भी नहीं बनाया जावे। इसी बीच ई० १७०४ में बादशाही फौजदार ने ठाकुर कुशल सिंह राजावत से झिलाय छीनकर जयसिंह जी को सौंप दी। दूसरी साल ई० १७०५ में शा० बीदारबख्त ने कोशिश करके जयसिंह जी को मालवा का नायब सूबेदार बनवा दिया।

ई० १७०७ में औरंगजेब के मरने पर शा० आजम ने आगरा व दिल्ली पर चढ़ाई की। उस समय उसने इनका मनसब ५००० जात ५०० सवा का कर दिया। जून १८, १७०७ई० को मौजम और आजम की सेनाओं के बीच जाजू का युद्ध हुआ। जयसिंह जी मौजम के साथ थे तथा इनके भाई विजयसिंह जी आजम के तरफ थे। इस युद्ध में मौजम और उनके पुत्र मारे गये तथा आजम की विजय हुई। इसी युद्ध में जयसिंह जी घायल हुए और इनके कई सरदार बिहारीदास जी दांतरी, केशरीसिंह जी हरसोली, सूरसिंह जी हरमाड़ा मारे गये तथा अखेसिंह जी टोरड़ी घायल हुए। युद्ध के आखरी समय में जयसिंह जी बुद्धसिंह जी हाडा के मारफत आजम से जा मिले परन्तु उसने इनका स्वागत नहीं किया।

नये बादशाह बहादुरशाह ने जयसिंह जी से आमेर जब्त करके उनके छोटे भाई विजयसिंह जी को दी तथा एक सेना आमेर पर भेजी जिसे कछवाहों ने कुकस के पास हरा दिया। विजयसिंह जी बादशाह को खुश करने के लिए अपनी बहन का विवाह बादशाह से करवाना चाहते थे। इसकी खबर भेज दी तथा बुद्धसिंह जी हाडा को छुट्टी जाते समय रास्ते में रोककर उनसे सामोद में यह विवाह करवा दिया। अब बादशाह ने राजस्थान पर चढ़ाई की। जनवरी १७०८ ई० को वह आमेर पहुँचा और उसे खालसा कर लिया। बादशाह अजमेर होकर दक्षिण के लिए अपने भाई कामबक्स से मुकाबला करने को बढ़ा। आमेर और जोधपुर के दोनों राजा मंडलेश्वर के इलाके तक उसके साथ गये। जब उन्हें यह आशा नहीं रही कि बादशाह उनके इलाके वापस लौटाएगा तो उन्होंने दुर्गादास जी राठौड़ की राय से, जब बादशाह नर्बदा नदी पार करने को रवाना हुआ तब २० अप्रैल वैशाख सुदी १३ को बादशाही शिविर छोड़ा और वे राजपूताना की ओर वापस रवाना होकर उदयपुर पहुँचे। महाराणा अमरसिंह जी ने इनका स्वागत किया तथा अपनी पोती जयसिंह जी को ब्याही। यहाँ से तीन राजाओं की ३० हजार सेना ने जाकर जोधपुर पर हमला करके ८ जुलाई १७०८ ई० को उसे अपने अधिकार में कर लिया। राजा अजीतसिंह जी जोधपुर के जयसिंह जी ने टीका किया। यहाँ से उन्होंने हिन्दुस्तान के अनेक राजाओं को मुगलों के विरुद्ध पत्र लिखे। जोघपुर से आमेर पर अधिकार करने को दो सेनाएँ भेजी। एक दुर्गादास जी राठौड़ के नेतृत्व में जिसका सैयदों से कालाडेरा के पास युद्ध हुआ। दूसरी सेना में, महाराजा जयसिंह जी का दीवान रामचन्द्र और श्यामसिंह जी के अधीन २० हजार घुड़सवार थे। इनका रतनपुरा के पास आमेर के फौजदार हुसैन खाँ से युद्ध हुआ जिसमें उन्होंने उसे परास्त करके आमेर पर अधिकार कर लिया गया।

इसके बाद इन दोनों राजाओं के विरुद्ध वजीर ने मेवात के फौजदार सेयद हुसेन खां, अहमद खां फौजदार बैराठ सिधाना और गारात खां फौजदार नारनोल को साम्भर भेजा।दोनों राजाओं के इन फौजदारों से साम्भर में ३ अक्टूबर ई० १७०८ को भीषण युद्ध हुआ, जिसमें मुगलों की विजय हुई। युद्ध के बाद विजय की खुशी में मुगलों की महफिल हो रही थी। इसी समय राव संग्रामसिंह जी उनियारा के नेतृत्व में नरुके वहाँ पहुँचे और एक रेत के टीबे पर चढ़े जिसके नीचे सैयद महफिल कर रहे थे। नरुकों ने बन्दूकों और तीरों से हमला किया। उसमें सब फौजदार मोरे गये तथा मुगलों की जीती हुई बाजी हाथ से निकल गई। फिर जयसिंह जी ने एक पत्र बहादुर शाह के विरुद्ध दुर्गादास जी को लिखा था कि महाराणा से बात की जावे तथा मराठों को मिलाकर राजपूतों को वही करना चाहिए जो ' हिन्दुस्तान ' के लिए गौरव की बात हो।

बादशाह बहादुरशाह दक्षिण से वापिस लौटा तो उसने यह जरुरी समझा कि किसी तरह दोनों राजाओं से समझौता किया जावे। इन्हें लाने के लिए उसने बुद्धसिंह जी हाड़ा बून्दी को भेजा जिनके मारफत २१ जून ई० १७१० को ये अजमेर के पास बादशाह के सामने हाजिर हुए। बादशाह ने इनके राज्य वापस लौटा दिए गये और इन दोनों को ४००० जात ४००० सवार के मनसब दिये गये। उस समय राजपूतों को मुगलों का बिल्कुल विश्वास नहीं था, इसलिए जब ये अजमेर में बादशाह के शिविर में गये तब अजमेर के तमाम पहाड़ तथा घाटियाँ राजपूतों से भरी हुई थीं। उन्हें बहादुरशाह का कभी पूर्ण विश्वास नहीं हुआ। जयसिंह जी के भाई विजयसिंह जी (जन्म चैत सुदी ६ वि. १७४७) निराश होकर अन्त में मुगल दरबार छोड़कर हिन्डौन आ गए। जयसिंह जी को विजयसिंह जी के तरफ से खतरा बना हुआ ही था। इन्होंने १७१३ ई० में विजयसिंह जी को हिन्डौन से समझौता करने के नाम से सांगानेर बुलाया और धोखे से उनको कैद करके जयगढ़ किले में भेज दिया। वहीं वे अन्त में मारे गये। विजयसिंह जी के इस काण्ड में श्यामसिंह जी खंगारोत, जयसिंह जी का विशेष सहायक रहा।

बहादुर शाह की मृत्यु के बाद जहाँदरशाह ने दोनों राजाओं को पक्ष में करना चाहा। उसने दोनों को ७००० जात व ७०००सवार का मनसब दिया परन्तु इस बार इन्होंने उत्तराधिकारी के युद्ध से दूर रहने का ही फैसला किया। फर्रूखशियर के बादशाह बनने के बाद हुसैन अली सैयद ने श्यामसिंह जी खंगारोत के बुलवाया तथा उनसे बात करके जयसिंह जी को बादशाह से ५००० जात ४५०० सवार का मनसब दिलवाया। जब अजीतसिंह जी का बादशाह के साथ झगड़ा हो गया, तब बादशाह ने सैयद हुसैन अली को सेना लेकर अजमेर भेजा जहाँ अजीतसिंह जी ने कब्जा कर लिया था। उस समय जयसिंह जी भी हुसैन अली सैयद के साथ थे। अन्त में अजीतसिंह जी से सन्धि हुई।

अक्टूबर १७१३ ई० में इन्हें बादशाह फर्रूखशियर ने मालवा की सूबेदारी की। इन्होंने वहाँ की अनेक बगावतें दबाई व मरहठों के उपद्रव भी दबाये। मरहठों की एक बड़ी सेना जब मालवे में घुसी तब इन्होंने पलसूद के पास उसे बड़ी करारी हार दी। मराठी भागकर पलसूद में ठहरे। जयसिंह जी ने रात में ही उन पर हमला कर दिया। इनकी सेना को देखते ही वे भाग निकले व नर्बदा नदी पार कर गये। उनकी लूट का सब माल वहीं रह गया। मालवा में छत्रसाल जी बुन्देला भी इनके साथ थे। १७१५ ई० में इनको दिल्ली बुला लिया। तब इनकी अनुपस्थिती में इनके धाभाई रुपाराम को इन्होंने वहां नायब बनाकर छोड़ा। १७१७ तक ये मालवा के सूबेदार रहे। बादशाह फर्रूखशियर ने भीमसिंह हाडा कोटा को बून्दी दे दी थी। उसने बून्दी पर कब्जा कर लिया था। जयसिंह जी ने कोशीश करके बादशाह से बून्दी वापस बुद्धसिंह जी हाडा को दिलवायी।

दिल्ली से बादशाह ने इनको चूड़ामन जाट पर चढ़ाई करने की आज्ञा दी जिसने आगरा के इलाके में बड़ा उपद्रव मचा रखा था। इनके साथ बून्दी के बुद्धसिंह जी, कोटा के भीमसिंह जी, नरवर के गजसिंह जी, दुर्गादास जी रोठौड़ व कई अन्य मनसबदार नियुक्त किये गये। १५ सितम्बर १७१६ को ये मथुरा के लिए रवाना हुए। नवम्बर में चूड़ामन के प्रसिद्ध किले थूण का घेरा शुरु किया। वजीर अब्दुल्ला खां सैयद, जयसिंह जी के विरुद्ध था तथा चूड़ामन के मदद दे रहा था। इससे सफलता नहीं हो पाई। वजीर ने अन्त में बीच में पड़कर घेरा उठवा लिया। मई १७१८ में जयसिंह जी की वापसी दिल्ली हुई। बादशाह ने इनका बड़ा सम्मान किया।

सैयदों और बादशाहों के बीच बहुत खिंच चुकी थी। जयसिंह जी ने बादशाह फर्रूखशियर को बहुत समझाया कि सैयदों को युद्ध करके साफ कर देना चाहिए। उस समय उनके पास २० हजार राजपूत सवार दिल्ली में मौजूद थे तथा बून्दी के बुद्धसिंह जी हाडा भी उन्हीं के साथ थे। परन्तु बादशाह की हिम्मत नहीं हुई तथा वह सैयदों को किसी तरह खुश करने में लगा हुआ रहा। अन्त में सैयदों ने बादशाह से जयसिंह जी को दिल्ली से जाने को कहलवा दिया। उन्होंने फिर भी उसे सचेत किया कि मेरे जाने से आपको खतरा हो जाएगा लेकिन उस मूर्ख बादशाह की समझ में नहीं आया। १३ फरवरी १७१९ ई० को जयसिंह जी दिल्ली से रवाना हुए। उसके कुछ ही घंटों बाद भींमसिंह जी कोटा ने बुद्धसिंह जी पर आक्रमण कर दिया उनके स्वामीभक्त सरदार जैतसिंह जी ने बड़ी वीरता से कोटा की सेना को रोका तथा उन्हें वहाँ से निकाल दिया। वे जयसिंह जी के पास पहुँचे। जैतसिंह जी वहाँ स्वामी के लिए वीरता से लड़ते हुए मारे गये। १७- १८ अप्रैल को सैयदें, अजीतसिंह जी जोधपुर और भीमसिंह जी कोटा ने बादशाह फर्रूखशियर को मार डाला।

जयसिंह जी ने इलाहाबाद के सूबेदार छबीलेराम और निजाम से सैयदों के विरुद्ध पत्र - व्यवहार किया। वे चाहते थे कि सब मिलकर सैयदों को अपदस्थ कर दें। इन्होंने छत्रसाल जी बुन्देला को भी बुलाया। सैयदों ने कई सेनाएँ इनके विरुद्ध कई तरफ से घेरने के लिए भेजा। वजीर अब्दुल्ला खां ने ५ जुलाई को नाममात्र के बादशाह रफीउदुल्ला को साथ लेकर जयसिंह जी पर चढ़ाई की और मथुरा होता हुआ वह आगरा पहुँचा जहाँ सैयदों के विरुद्ध बगावत हो रही थी। जयसिंह जी ने भी सैयदों से पूरे तौर से मुकाबला करने की तैयारी कर रवाना होने के पहले ब्राह्मणों को बुलाकर आमेर राज्य दान दिया और फिर केसरिया बाना धारण करके वे रवाना हुए। ये आगे बढ़कर टोड़ा तक पहुँच गये थे। निजाम और छबीलाराम दोनों ही वायदा के अनुसार कायम नहीं रहे। अन्त में अजीतसिंह जी जयसिंह जी को अपने साथ जोधपुर ले गये जहाँ उन्होंने अपनी पुत्री का जयसिंह से विवाह किया। सैयदों ने जयसिंह जी को २० लाख रुपये दिये जिससे वे आमेर वापिस ब्राह्मणों से खरीदें। उस समय भी जयसिंह जी को अजीतसिंह जी पर विश्वास नहीं था इसलिए वे विवाह में भी जिरहबख्तर पहन कर गये थे।

सैयदों की दो सेनाएँ जब दक्षिण में निजाम से परास्त हो गई, तब हुसैन अली खां सैयद बादशाह मोहम्मद शाह को साथ ले, एक बड़ी सेना के साथ निजाम को दबाने के लिए रवाना हुआ। सितम्बर ८ १७२० ई० को टोडाभीम में उसने हुसैन अली को धोखे से मार डाला। अब बादशाह ने तैयारी करके सैयद अब्दुल्ला खां पर चढ़ाई की जो दिल्ली में था। इस युद्ध के लिए महाराणा ने जयसिंह जी से पूछा कि क्या करना चाहिए? उन्होंने महाराणा को बादशाह की मदद करने के लिए लिखा तथा साथ में ही महाराणा के अलावा बीकानेर, कोटा और राव इन्द्रसिंह नागौर को भी बादशाह की मदद के लिए लिखा। सवाई जयसिंह जी ने बादशाह की मदद के लिए राव जगराम के साथ एक अच्छी सेना भेजी। इस सेना में सवाई राम जी नरुका, गढ़ी गजसिंह जी, नरुका जावली, जसवन्तसिंह जी, सवाईराम जी के पुत्र, प्रतापसिंह जी कल्यणोत, बुद्धसिंह जी कल्यणोत, गुलाब सिंह जी कल्यणोत,छीतरसिंह जी कल्यणोत, अमरसिंह जी राजावत, बहादुर सिंह जी खंगोरात और सरदारसिंह जी नरुका आदि सरदार थे। ३ और ४ नवम्बर को युद्ध हुआ जिसमें अबदुल्ला खां पकड़ा गया। विजय के बाद बादशाह ने जयपुर के सरदारों को अपने हाथ से खिलतें दी।

मोहम्मद शाह ने दिल्ली पहुंचते ही जयसिंह जी को दिल्ली आने का फरमान भेजा जिसमें लिखा कि आपसे अनेक महत्वपूर्ण समस्याओं पर सलाह लेनी है। उसने दिल्ली पहुंचने पर बादशाह ने अपने नये वजीर मुहम्मद अमीन खां को उनके डेरे लेने भेजा। दरबार में आने पर बादशाह ने उनका बड़ा सत्कार किया और अनेक भेंटे दी। उनके मनसब में ४००० सवार और बढ़ा दिए गए। दो करोड़ दाम इन्हें इनाम में दिये जिनको इन्होंने नम्रतापूर्वक लेने से मना कर दिया। बादशाह ने जयसिंह जी और राजा गिरधर बहादुर के कहने पर जजिया कर माफ कर दिया। महाराणा मेवाड़ ने इस पर जयसिंह जी को बड़ी बधाई भेजी। सैयदों के पतन के बाद जयसिंह जी का राजनैतिक महत्व तेजी से बढ़ने लगा। राजस्थान, मालवा और बुन्देलखण्ड के राजा हर मुसीबत में उनसे सहायता चाहते थे तथा इन इलाकों में इनकी राय के बगैर कुछ भी नहीं होता था। १७३५ ई० के बाद तो मरहठे भी इनकी सलाह लेने तथा इनको आदर देने लग गए।

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दूसरा जाट युद्ध

सितम्बर १७२२ ई० में जयसिंह जी को आगरा का सूबेदार बनाकर जाटों को दबाने को भेजा गया। इनके साथ ५० हजार फौज थी तथा अनेक मनसबदार इनके साथ थे। शाही तोपखाना भी इनके साथ था। चूड़ामन जाट का पुत्र मोहकमसिंह इस समय जाटों का नेता था। चूड़ामन का भतीजा बदनसिंह जो उससे नाराज था, वह जयसिंह जी से आकर मिला। इन्होंने उसका बड़ा स्वागत - सत्कार किया। फिर इन्होंने थूण के किले पर घेरा डाला। अजीतसिंह जी जोघपुर ने एक सेना मोहकमसिंह की मदद पर भेजी परन्तु वह जोबनेर से आगे नहीं बढ़ी। बदनसिंह की सलाह से थूण के किले का विजय होना निश्चित दिख रहा था। तब मोहकमसिंह निराश होकर किला छोड़कर अजीत सिंह जी के पास जोघपुर पहुँचा। किले पर जयसिंह जी का अधिकार हो गया। इन्होंने बदनसिंह को भरतपुर की जागीर दी तथा उनके पगड़ी बाँधी। जून १९, १७२३ ई० को बदनसिंह जी ने जयपुर दरबार की सेवा करने व ८३ हजार सालाना पेशकश देना स्वीकार करके लिखावट पर दस्तखत किये। वह जयपुर के दशहरा दरबार में आया करते थे। जयपुर में जहाँ उसका पड़ाव लगता था, वह अब भी बदनपुरा कहलाता है।

महाराजा सवाई जयसिंहजी के बड़ा महत्वपूर्ण कार्य था - जयपुर नगर बसाना। इसकी नींव पौष वदी १ वि. सं. १७८४, ई० को रखी गई। सम्राट जगन्नाथ ने नगर की नींव रखने का मुहूर्त निकाला तथा पूजा करवाई थी। महाराजा ने उसे भूमि दान की। महाराजा की आज्ञा के अनुसार इसका प्लानिंग व नक्शा दीवान विद्याधर ने बनाया था जो बंगाली था और इनकी सेवा में था। १७३३ ई० में यह नगर बनकर तैयार हुआ। इसका प्लानिंग चौपड़ों के अनुसार बड़ा सुन्दर है। गलियां भी सब सीधी तथा चौकड़ी पड़ती हुई हैं। उस जमाने में उतनी चौड़ी सड़कें और गलियां बनायी गयी कि जिसका उस समय कोई अनुमान नहीं कर सकता था।

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मालवे की दूसरी बार सूबेदारी

जयसिंह जी को मालवे का दुबारा सूबेदार बनाया गया। वे २३ अक्टूबर १७२९ ई० को उज्जैन के लिए रवाना हुए।जयसिंह जी मरहठों से समझौता करना चाहते थे। इनके इस समझौता - प्रस्ताव को बाद- शाह ने भी स्वीकार कर लिया था। इनकी इस विजय पर शाहू जी से लिखा पढ़ी हुई। शाहू इसके लिए तैयार हो गया था, किन्तु पेशवा इसके ज्यादा पक्ष में नहीं था। इन्होंने दीपसिंह जी कुम्भाणी को शाहू के पास सितारा भेजा। लौटते समय दीपसिंह जी निजाम से भी मिला, परन्तु सितम्बर १७३० ई० में इनके मालवा की सूबेदारी से हट जाने से वह समझौता नहीं हो सका।

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कुशत्तल पंचोलास का युद्ध

बुद्धसिंह जी बून्दी और उनकी कछवाही रानी के आपस में झगड़ा चला जिसके कारण जयसिंह जी के सम्बन्ध बुद्धसिंह जी से बहुत खराब हो गये। अन्त में सम्बन्ध इतने बिगड़े की जयसिंह जी ने बादशाह को कहकर बुद्धसिंह जी के स्थान पर करवाड़ के सालिम सिंहजी हाडा के पुत्र दलेलसिंह जी को बून्दी का राजा बनवा दिया और बाद में अपनी पुत्री उसे ब्याह दी। इससे राजस्थान में लम्बे समय तक संघर्ष चला जो बड़ा दु:खद था। मरहठों को राजस्थान में हस्तक्षेप करने का अवसर मिल गया। जयसिंह जी को १७३० ई० में मालवा में इत्तला मिली कि बुद्धसिंह जी फिर बून्दी पर अधिकार करने जा रहे हैं। इन्होंने एक सेना दलेलसिंह जी की मदद पर भेजी। ६ अप्रैल को कुशत्तल पंचोलास में युद्ध हुआ जिसमें जयपुर के पांच राजावत सरदार फतहसिंह जी सारसोप (बरवाड़ा) खोजूराम जी ईसरदा, सांवलदास जी सीवाड़, अचलसिंह जी नानतोड़ी और घासीराम जी अचरे काम पर आये। इस युद्ध में बुद्धसिंह जी को विजय नहीं मिली। मालवा से लौटते समय महाराजा सवाई जयसिंह जी कुशत्तल पांचोलास गये। उन्होंने वहाँ मारे गये सरदारों की मातमी करके उनके पुत्रों को सिपोपाव आदि दिये।

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तीसरी बार मालवे की सूबेदारी

जयसिंह जी दिसम्बर १७३२ में तीसरी बार मालवे के सूबेदार बनकर उज्जैन गये। इस बार मालवे में मरहठों का उत्पात बढ़ गया था अत: मालवा से मरहठों को निकालने के इनके तमाम प्रयास विफल रहे। १७३४ ई० में खानदौरा एक बड़ी सेना लेकर राजपूताना होता हुआ मालवे में बढ़ा। जयसिंह जी, अभयसिंह जी जोधपुर आदि अनेक राजा उनके साथ थे। जब यह विशाल सेना रामपुरा पहुँची तो उसे मरहठा मिलें। उन्होंने छुट- पुट लड़ाइयों के बाद इनके बगल से चक्कर देकर, वे पीछे से राजस्थान में घुस गये। वहाँ उनको रोकने वाला कोई नहीं था और वे साँभर तक लूटते चले गये। १७३५ ई० में पेशवा बाजीराव की माँ उत्तर में तीर्थ करने आई। महाराजा जयसिंह जी ने उसका बड़ा आदर - सत्कार किया तथा महाराणा से भी उसका सत्कार करवाया। आगरा में इनके नायब सूबेदार ने अपने दीवान आयामल के भाई नारायणदास को उसका स्वागत करने व पूना तक साथ जाने की आज्ञा भेजी। जनवरी १७३७ ई० को पेशवा उत्तर भारत में आया उसके साथ होलकर, सिन्धिया, पँवार आदि सभी थे। उदयपुर से आते समय पेशवा से २५ फरवरी को महाराजा जयसिंह जी मालपुरा क्षेत्र के झाड़ली गाँव में मिले। उन्होंने उनको अनेक वस्तुएँ भेंट दी। बाजीराव दिल्ली तक जाकर वापस लौट गया।

जब नादिरशाह भारत में आया तब सभी को बड़ी शंका खड़ी हो गई। पेशवा नादिरशाह का जयसिंह जी, महाराणा अन्य राजा व बुन्देलों को मिलाकर संगठित मुकाबला करना चाह रहा था। यह भी अफवाह थी कि वह अजमेर दरगाह पर जाएगा। यह जयसिंह जी के लिए बड़ा खतरा था। सब चौकन्ने थे लेकिन अन्त में वह मथुरा से ही वापस अपने देश लौट गया।

बाजीराव पेशवा की मृत्यु से महाराजा जयसिंहजी को बड़ा दु:ख हुआ। नया पेशवा बालाजी राव बना। १७४१ ई० में नया पेशवा बालाजी राव उत्तर में चढ़ कर आया। उस समय जयसिंह जी आगरा के सूबेदार थे। इनकी और नये पेशवा बालाजी राव की धौलपुर में भेंट हुई। इनके प्रयास से बादशाह ने पेशवा को मालवा की नायब सूबेदारी दी।

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साहित्य और यज्ञ

महाराजा सवाई जयसिंह जी के दरबार में बड़ी उन्नति हुई। अनेक धर्मशास्र रचे गये क्योंकी इनकी धर्मशास्र में बड़ी रुचि व निष्ठा थी। इनके समय सबसे प्रसिद्ध विद्वान रत्नाकर भ पौण्डरीक थे।

उन्होंने व्रात्यस्तोम यज्ञ चैत वदी ३ वि. १७७१ को क्षिप्रा नदी के तट पर करवाया। इन्होंने और भी श्रौत यज्ञ सम्पन्न करवाये थे। इनका रचा हुआ 'जयसिंह कल्पद्रुम' महत्वपूर्ण ग्रन्थ है। इनकी मृत्यु वि. १७७६ में हुई। रत्नाकर के पुत्र सुधाकर पौण्डरीक ने जयसिंह जी द्वारा पुरुषमेघ यज्ञ करवाया था तथा 'साहित्यसार संग्रह' की रचना की। ब्रजनाथ भट्ट भी इनके समय के प्रसिद्ध विद्वानों में थे। १७३४ ई० में अश्वमेघ यज्ञ किया जो २९ मई को सम्पूर्ण हुआ। अश्वमेघ यज्ञ के समय जो घोड़ा छोड़ा गया था, उसे कुम्मणियों ने पकड़ लिया और अन्त में वे युद्ध करके मारे गये। उसमें ब्रजनाथ भ भी प्रमुख यज्ञ कराने वालों में थे। इन्होंने 'ब्रह्मसूत्राणभाण्यवृत्ति' और 'पद्मतरंगिणी' की रचना की। कवि कलानिधि श्रीकृष्ण भ ने

इनके समय में अनेक ग्रन्थ बनाये जिनमें मुख्य 'ईश्वर विलास - महाकाव्य' है। श्री हरि कृष्ण ने भी कई पुस्तकें लिखीं। जयपुर नगर उस समय विद्याओं का आगार बन गया था। टॉड ने माना है कि महाराज सवाई जयसिंह ने जयपुर को हिन्दूविद्या का शरणास्थल बना दिया था।

भारत में सदियों से जो यज्ञादि बन्द हो चुके थे उन्हें महाराजा सवाई जयसिंह जी ने फिर से प्रारम्भ किया। इन्होंने सम्राट यज्ञ कराया, जिस को कराने वाले इनके गुरु जगन्नाथ महाराष्ट्रीय ब्राह्मण थे। दूसरा अश्वमेघ यज्ञ बड़े पैमाने पर १७४२ ई० में करवाया। इन यज्ञों के अलावा पुरुष मेघ यज्ञ,सर्व मेघ, सोम यज्ञ आदि भी किये गये। इन यज्ञों के कारण हिन्दू जगत् में इनकी बड़ी ख्याति हुई तथा हिन्दू जनता ने बड़ी खुशियाँ मनाई और इनकी प्रशंसा की।

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खगोल विद्या

महाराजा स. जयसिंह जी ने खगोल विद्या अपने गुरु जगन्नाथ से सीखी थी जिन्हें इनको वेद पढ़ाने के लिए रखा गया था। सम्राट जगन्नाथ ने 'सिद्धान्त कौस्तुभ' की रचना की तथा युक्लिड के राखागणित का अरबी से संस्कृत में अनुवाद किया। शुरु से ही म. स. जयसिंह जी को गणित और सिद्धान्त ज्योतिष में बड़ी दिलचस्पी थी। इन्होंने अनुभव किया कि पीतल के यंत्रों से फलावट में अन्तर आता है। इनके पास अनेक विद्वान् इस दिशा में कार्य कर रहे थे। इसलिए इन्होंने दिल्ली में पत्थर के बड़े यंत्र आदि बनवाये। फिर इन्होंने जयपुर, मथुरा, बनारस और उज्जैन में भी वेधशालाएँ बनवाई जो खगोल विद्वानों के लिए हमेशा खुली रहती थीं। जब इनको मालूम हुआ कि योरोप में और खासतौर पर पुर्तगाल में पिछले कुछ वर्षों में खगोल विद्या पर काफी काम हुआ है तथा इस विषय में प्रगति हुई है तो इन्होंने गोवा के पुर्तगाली गवर्नर के मार्फत पुर्तगाल के बादशाह को अनेक भेंटे भेजी तथा गवर्नर के मार्फत पुर्तगाल से इस विषय के विद्वान को बुलवाया। बादशाह ने पादरी मेन्युअल फिगूइरिडो को भेजा। जयसिंह जी ने १७२७ में उसे योरोप में इस विषय की रचनाएँ तथा यंत्र लाने को भेजा। वह नवम्बर १७३० को वापिस आया और अपने साथ डाक्टर पोड्रोद सिलवा को लाया। इन्होंने अपने विद्वानों को लगाकर उन यंत्रों से आंकड़े निकाले। जिनमें कुछ त्रुटियां आई जब इन्होंने अपने यंत्रों की गणना से सारिणी बनाई जिसका बादशाह के नाम पर 'जीज ए मुहम्मदशाही' रखा गया।

इनके पास फ्रांसीसी क्लाड बोडियर था जो चन्द्र नगर से आया था। जर्मनी से फादर ऐन्टोइन गेवेल्स पर गुइर व आद्रेंस्टोब्ल आये। उनके आने का खर्चा इन्होंने ही दिया। दूसरा हिन्दुस्तानी विद्वान् इनके दरबार में केवलराम था जो गुजरात से आया था। उसने खगोल विद्या सम्बन्धी आठ ग्रन्थ लिखे। उसको सवाई जयसिंह जी ने 'ज्योतिषराय' की उपाधि दी।

महाराजा सवाई जयसिंह जी ने ज्योतिष विद्या में बड़ा काम किया जबकि ये उस जमाने की राजनीति में इतने लगे हुए थे कि ऐसे कार्यों के लिए समय देना बिल्कुल मुश्किल था। इनका दृष्टिकोण बिल्कुल प्रगतिशील था। इन्होंने भारतीय खगोल विद्या के साथ यूनान, मध्य एशिया, और योरोप में जो ग्रन्थ लिखे गये थे तथा जो यंत्र बने थे, उनको मंगवाकर उनका भी उपयोग किया। इस तरह उनका दृष्टिकोण साइन्टफिक और नवीनतम रहा। भारत में खगोल विषय में पिछले कुछ वर्षों या सदियों से कोई कार्य नहीं हुआ था और गणित व फलित में जो कमी आई थी, उसे दूर कर दिया।

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स्थापत्य कला

जयपुर नगर का निर्माण महाराजा सवाई जयसिह जी ने नया नगर बसाने का विचार करके आमेर से दक्षिण में छ: मील दूर मैदान में उस नये शहर का शिलान्यस पौष वदी १ वि. सं. १७८४ तदनुसार नवम्बर २९ ई० १७२७ को किया। इस नये शहर का मुहूर्त्त तथा इसकी पूजा पं० जगन्नाथ ने करवाई। इस पर उसे भूमि दान दी गई। नगर की योजना खुद म. स. जयसिंह जी ने विद्याधर बंगाली की मदद से की। नगर को ९ खंडों में बांटा गया जिसके दो खण्ड राजमहल, दफ्तर तथा वेधशाला के लिए रखे गये थे। सूरजपोल से चांदपोल तक सड़क की लम्बाई दो मील और चौड़ाई १२० फीट रखी गयी थी। उसमें तीन,सुन्दर चौपड़ों का निर्माण किया गया।शहर के चौतरफ परकोटा बनाया गया जिसकी दीवार २०, २५ फुट ऊंची तथा ९ फीट चौड़ी रखी इस परकोटे में शहर में आने - जाने के लिए सात द्वारों का निर्माण किया गया। उन्होंने राजमहल भी बनाया जिसका नाम चंद्रमहल रखा तथा उसके बाहर दीवानखाना बनाया गया जिसका नाम सर्वतोभद्र रखा।

अश्वमेघ यज्ञ की भ से महिषासुर - मर्दिनी की एक प्रतिमा आमेर की शिलामाता के आकार की बनवाकर राजमहल के अन्दर स्थापित की।

स्थापत्य कला के क्षेत्र में इनका प्रशंसनीय कार्य रहा है। राजमहल क्षेत्र में वेधशाला का निर्माण किया। इन्होंने जयगढ़ जो मिर्जा राजा जयसिंह ने बनवाया था, उसका विस्तार किया तथा सुदर्शनगढ़ बनाया जिसको आजकल नाहरगढ़ कहते हैं। नगर के बाहर सीसोदनी रानी के लिए महल बनवाया। शहर में कल्किजी का मंदिर और यज्ञस्तम्भ के पास भगवान विष्णु का मंदिर बनवाया। मथुरा में सीताराम का और गोवर्धन में गोवर्धन का मंदिर भी इन्होंने बनवाये। हर एक सूबा व बड़े नगरों में इनके बनाये हुए जयसिंहपुरा हैं।

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सामाजिक सुधार

म. स. जयसिंह जी ने सभी समाजों में सुधार किये। ब्राह्मण समाज में कई सुधार किये। वैरागी साधुओं में व्यभिचार मिटाने के लिए इन्होंने उनको गृह्मस्थ जीवन में ला खड़ा किया।सन्यासियों को सम्पत्ति रखने से रोका। बादशाह से फकीरों व सन्यासियों की मृत्यु के बाद उनकी सम्पत्ति जब्त नहीं करने की आज्ञा जारी की। राजपूतों के शादी आदि में व्यर्थ धन खर्च करने को रोकने की कोशिश की।

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सेना

म. स. जयसिंह जी के प्रमुख सेनापति कुशलसिंह जी राजावत धिलाय, कोजूरामती राजावत ईसरदा, दलेलसिंह जी राजावत धूला, रावल शेरसिंह जी नाथावत सामोद, मोहनसिंह जी नाथावत चौमू, बखतसिंह जी नाथावत मोरीजा, पदमसिंह जी चतुरभुजोत बगरु, श्यामसिंह खंगारोत डिग्गी, केशरीसिंह नरुका लदाणा, जोरावरसिंह नरुका मांचेडी, संग्रामसिंह नरुका उनियारा, गजसिंह जी नरुका जावली, दीपसिंह जी शेखावत कासली, शार्दूलसिंह जी शेखावत झुंझुनूं, शिवसिंह जी शेखावत सीकर, दीपसिंह जी कुम्भाणी भांडारेज जोरावरसिंह जी श्योब्रह्मा पोता आदि थे।

सेना दो प्रकार की होती थी जागीरदारों की सेना जिसके एकत्रित होने पर सवार और प्यादा आदि के हिसाब से रोजाना का खर्चा दिया जाता था। राज्य की सेना बहुत छोटी होती थी जिसको तनख्वाह दी जाती थी। फौज में घुड़सवार सेना कम होती थी। मुख्य अंगरक्षक रिसाला ही होता था जिसमें एक हजार सवार होते थे। बाकी पैदल सेना अधिक थी। म.स. जयसिंह जी ने अपनी सेना में तोड़ेदार बंदूकें कर दी थी जिससे उनकी सेना की शक्ति बहुत बढ़ गई थी। इनका तोपखाना भी बड़ा प्रभावी तथा शक्तिशाली था। जयगढ़ में तोपें ढ़ाली जाती थीं तथा तोप ढ़ालने का वह यंत्र अभी भी किले में मौजूद है। इससे यह सिद्ध होता है कि इनके तोपखाने की सारी तोपें यहां ही ढ़ाली गई थीं। जयगढ़ में जो बड़ी तोप है, उसके मुकाबले की तोपें देश में बहुत कम है। सेना की भर्ती, वेतन, रसद आदि आवश्यक कार्य के लिए बक्सी होता था।

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शासन - व्यवस्था

शासन राजा की मर्जी के अनुसार दीवान चलाते थे। सेना का काम बक्सी करता था। जब सवाई जयसिंह जी गद्दी पर बैठे तब उनके तीन दीवान रामचन्द्र, किशनदास और बिहारीदास थे। वि. सं. १७५७ में इन्होने एक दीवान और बढ़ाकर चार कर दिये थे। दीवानों का नम्बर राजा की मर्जी के मुताबिक घटता और बढ़ता था। वि. सं. १७७३-७४ में आठ दीवान थे। इस प्रकार यह एक आधुनिक मंत्रिमंडल का सा ही रुप था।

म. स. जयसिंह जी की मृत्यु आसोज सुदी १४ वि.सं. १८००, सितम्बर २१ १७४३ ई० में हुई। इनके सत्ताईस रानियां थी जिनमें से तीन सती हुई थी। इनसे इनके तीन पुत्र शिवसिंह जी, ईश्वरसिंह जी, और माधोसिंह जी हुए तथा दो पुत्रियां विचित्र कंवर जिनका विवाह अभयसिंह जी जोधपुर और किशन कंवर जिनका विवाह बून्दी के दलेलसिंह जी के साथ हुआ। इनके समकालीन कवि श्री कृष्ण भ ने ऐसा लिखा है कि यह अन्तिम दिनों में गोविन्ददेव जी के ध्यान में लीन रहने लग गए थे।

 

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