राजस्थान

महाराजा सवाई प्रतापसिंह जी

राहुल तोन्गारिया


प्रतापसिंह जी का जन्म पौष वदी २ वि.१८२१ में हुआ था। ये महाराजा माधोसिंह जी के छोटे पुत्र थे। अपने बड़े भाई पृथ्वीसिंह जी के मृत्यु पर यह वैशाख वदी ४ बुधवार वि. १८३५ (अप्रैल १५ १७७८ई०) को जयपुर की गद्दी पर बैठे। महाराजा पृथ्वीसिंह जी की मृत्यु के समय इनकी राठौड़ रानी गर्भवती थी। उसके कार्तिक सुदी ६ वि. १८३४ में किशनगढ़ में पुत्र पैदा हुआ जिसका नाम मानसिंह रखा गया। म. प्रतापसिंह जी और जयपुर कोर्ट ने उसे फरजी बतलाया। किशनगढ़ वासों ने उसे माधाजी सिंधिया के संरक्षण में भेज दिया। प्रतापसिंह नरुका ने माधाजी को सलाह दी कि प्रतापसिंह जी को जयपुर की गद्दी से हटाकर मानसिंह को गद्दी पर बिठाया जाए और उसे मानसिंह का गार्जियन बनाया जाए तथा कुछ हिस्सा जयपुर राज्य की माधाजी अपने राज्य में मिला लें। तुंगा के युद्ध का यह भी एक कारण था।

रावराजा प्रतापसिंह नरुका ने मेवात का इलाका दबा लिया था इसीलिए मुगल सेनापति फज कुलीखां ने उस पर हमला किया और लक्ष्मणगढ़ पर घेरा डाला। जयपुर की सेना भी मुगलों की मदद पर गई। यह म. पृथ्वीसिंह जी का समय था। अन्त में प्रतापसिंह नरुका ने मुगलों को रुपये देकर घेरा उठवा लिया। जयपुर का कर्जा जो प्रतापसिंह नरुका पर बाकी था। उसकी भरपाई के लिए जयपुर के दीवान खुशावीरान बोहरा ने नफज कुलीखां को अपने साथ मिलाकर प्रतापसिंह पर हनला किया। दिनांक २४ अगस्त १७७८ ई० में जुद्ध हुआ जिसमें प्रतापसिंह नरुका को पीछे हटना पड़ा। तब उसने मुगलों से समझौता कर लिया। इसके बाद वह मरहठों को साथ लेकर जयपुर राज्य के इलाके कोटपुतली आदि को लूटता हुआ शेखावटी में लोहागार गये, जहां वह नवल सिंह शेखावत नवलगढ़ और देवीसिंह जी सीकर आदि को बुलाकर उनसे मिला क्योंकी उन दिनों शेखावत भी जयपुर से नाराज थे। म. स. प्रतापसिंह जी ने प्रतापसिंह नरुका पर चढ़ाई की। कुछ लड़ाइयां दोनों सेना में हुई तथा फिर उन्होंने राजगढ़ को जाकर घेर लिया। काफी लड़ाई के बाद दोनों में सम- झौता हो गया और म. स. प्रतापसिंह जी जयपुर लौट आये। मनोहरपुर का झगड़ा म. स. जयसिंह जी के समय से ही चला आरहा था। कई बार युद्ध हुए। म. स. प्रतापसिंह जी ने मनोहरपुर राव को ४० घोड़ों की जागीर व ताजीम देकर सावन वदी ९ वि. १८३७ को यह झगड़ा हमेशा के लिए खत्म कर दिया।

मुगल शेखावटी को अपने अधीन करना चाहते थे। उन्होंने भड़ेच को शेखावटी पर चढ़ाई करने भेजा। वि. १८३७, ई० १७८० में खाटू श्यामजी में शेखावतों और मुगल सेना के बीच मुकाबला हुआ। शेखावतों में सरदार राव देवीसिंह सीकर, सूरजमल बिसाऊ, नरसिंहदास नवलगढ़, अमरसिंह दांता, बखतसिंह कखूट, आदि थे। जयपुर की सेना लेकर चूड़ासिंह जी डूंगरी और दादू पंथी महन्त मंगलदास गये थे। चूड़ासिंह जी और मंगलदास दोनों ही इस युद्ध में मारे गये। बख्तसिंह जी खूड भी इस युद्ध में काम आये। मुगल सेना की पूर्ण पराजय हुई।

बादशाह को अब्दुल अहमद ने खुद को राजस्थान में आने के लिए तैयार किया। दिनांक १० नवम्बर १७७८ को वह दिल्ली से राजस्थान के लिए रवाना हुआ। रास्ते में पड़ने वाले भूस्वामियों से नजराना लेता हुआ वह नारनौल होकर आगे बढ़ रहा था। दिनांक १९ फरवरी १७७९ को म. स. प्रतापसिंह जी बादशाह के पास हाजिर हुए। १७८० ई० में महबूब अली ने जयपुर पर चढ़ाई की, परन्तु उसे सफलता नहीं मिली और वह निराश होकर लौटा। अब माधाजी सिंधिया बादशाह का सर्वेसर्वा बना हुआ था। उसने दिल्ली से १७८७ ई० में जयपुर पर चढ़ाई की। उसके खुद की सेना के अलावा मुगल सेना भी थी तथा रावराजा प्रतापसिंह नरुका अलवर भी उसके साथ था। जयपुर से म. स. प्रतापसिंह जी मुकाबला करने को चल पड़े। कुछ जोधपुर की सेना भी इनके साथ थी। इस सेना का मुकाम तुंगा के पास हुआ। कुछ मुगल सेना मौहम्मद हमदानी के साथ माधाजी को छोड़कर राजपूतों से आ मिली। दिनांक २८ जुलाई १७८७ को दोनों सेनाओं में मुकाबला हुआ। राजपूत सेना के दाहिने बाजू में राठौड़ थे तथा बायें में मौहम्मद हमदानी एवं उसके साथी थे। बीच में जयपुर की सेना थी तथा बीचों - बींच में म. स. प्रतापसिंह जी हाथी पर थे। हरावल जयपुर रिसाले का था जिसका संचालन दूदू के ठा. पहाड़सिंह खंगोरात कर रहे थे जो बड़े योग्य सेनापति थे। इनके साथ शेखावत सेना भी थी जिसमें ठा. नरसिंह दास शेखावत नवलगढ़ ठा. सूरजमल बिसाऊ आदि थे। युद्ध तोपों की लड़ाई से आरम्भ हुआ। फिर राठौड़ों ने हमला शुरु किया और इसके बाद जयपुर के हरावल ने आक्रमण किया। युद्ध में माधाजी की पराजय हुई परन्तु वह बड़ा योग्य और चतुर सेनापति था। हार के बाद भी वह मरहठा सेना को बचाकर निकाल ले गया। इधर मौहम्मद हमदानी मारा गया तथा ठा. सूरजमल बिसाऊ भी खेत कर रहे थे। ठा. पहाड़सिंह काफी घायल हुए। इस युद्ध के कारण माधाजी की राजस्थान में साख बड़ी गिर गई और जोधपुर ने अजमेर पर कब्जा कर लिया जो माधाजी के अधिकार में था। तीन साल की तैयारी के बाद १७९० ई० में माधजी ने दुबारा राजस्थान पर चढ़ाई की। इस बार पाटन में युद्ध हुआ जिसमें जयपुर और जोघपुर दोनों परास्त हुए। फिर उसने अजमेर पर कब्जा कर लिया। उसके बाद मेवाड़ के प्रसिद्ध युद्ध में जोधपुर फिर परास्त हुआ। अन्त में जयपुर और जोधपुर की माधाजी से सन्धी हुई। इनकेसमय में लखनऊ का शासक वजीर अली जिसने बनारस के रेजीडेण्ट को मार डाला था, भाग कर जयपुर प्रतापसिंह जी के शरण में आया। अंग्रेजों ने उसे उन्हें सौंपने को इन पर बड़ा दबाव डाला। अन्त में विवश होकर उन्होंने इस शर्त पर उसे अंग्रेजों को सौंपा कि उसके हथकड़ी नहीं डाली जाएगी तथा उसे मौत की सजा नहीं दी जाएगी।

इन्होंने १८०३ ई० में ईस्ट इण्डिया कम्पनी से सन्धि की परन्तु बाद में लार्ड कोर्नवालिस आया। वह इस सन्धि के पक्ष में नहीं था। उसने झूठे बहाने बनाकर यह सन्धि तोड़ दी।

सावन सुदी १३ वि. १८३० (दिनांक १ अगस्त १८०३) को इनका स्वर्गवास हुआ। इनके २२ रानियाँ थी। एक रानी जोधपुर की थी जो प्रतापसिंह के मृत्यु का समय जोधपुर थी वह मंडोर जाकर सती हुई। इनके एक पुत्र जगतसिंह जी तथा दो पुत्रियाँ थीं।

 

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